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गीदड़ और धुनकी की लोक-कथा

गीदड़ और धुनकी की लोक-कथा

एक जंगल में एक बड़ा ही चालाक और दबंग गीदड़ रहता था। जंगल के सभी गीदड़ उससे डरते थे , इसलिए सारे जंगल में वह निर्भय होकर घूमता था। अपनी चालाकी का उसे बड़ा घमंड था।
एक दिन गीदड़ मदमस्त होकर झूमता हुआ शिकार की तलाश में निकला। चलते-चलते वह काफी दूर किसी दूसरे जंगल में निकल गया।
उस जंगल की भौगोलिक परिस्थिति के बारे में वह बिल्कुल अनभिज्ञ था। वह एक ऐसे स्थान पर पहुंच गया, जहां नील बनाने का काम होता था। वहां नील बनाने के लिए कुंड बने हुए थे, जिनमें नील भरा हुआ था। ऐसा दृश्य उसने पहली बार ही देखा था
गीदड़ नील के कुंड के पास पहुंच गया। तभी उसे कुंड के किनारे पर एक मेंढक बैठा दिखाई दिया। गीदड़ मेंढक पर तेजी से झपटा। गीदड़ को अपनी ओर दौड़ता हुआ देख कर मेंढक ने नील के कुंड में छलांग लगा दी । गीदड़ अपने आप को संभाल न सका और नील से भरे कुंड में गिर गया।
जिस कुंड में गीदड़ गिरा था, वह कुंड़ बाकी कुंडों की अपेक्षा कुछ कम गहरा था , इसलिए काफी मशक्कत करने के बाद वह कुंड से बाहर तो निकल गया पर वह थक कर चूर-चूर हो गया। बाहर निकल कर उसने देखा कि नील में भीगने के कारण उसका सारा शरीर नीले रंग का हो गया है। इतना नीला कि उसे देखकर कोई नहीं पहचान सकता था कि वह एक गीदड़ है। अपना रंग नीला होने के कारण अब वह बहुत घबराया हुआ था।
घबराया हुआ गीदड़ निरुत्साहित-सा होकर अपने निवास स्थान की ओर लौट चला। वह चलता ही जा रहा था , उसी समय सामने से एक धुनकी दूसरे गांव से रुई धुनकर लौट रहा था।
धुनकी की दृष्टि सामने से आते हुए गीदड़ पर पड़ी , तो नीले रंग का एक अजीब-सा जानवर देखकर धुनकी बहुत भयभीत हो गया। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि यह नीले रंग का जानवर क्या है? ऐसा नीले रंग का जानवर अब से पहले उसने कभी नहीं देखा था। धुनकी भय से कांपने लगा। वह इतना घबरा गया कि उसे पता ही नहीं चल रहा था कि उसके पैर कहां पड़ रहे हैं? धुनकी को निश्चित ही सामने से अपनी मौत आती दिखाई दे रही थी। उसकी समझ में ही नहीं आ रहा था कि अब वह क्या करे?
तभी गीदड़ की दृष्टि भी धुनकी पर पड़ी। अभी तक गीदड़ के मन से नील के कुंड का भय ही नहीं निकला था कि अचानक सामने से एक और दूसरी आफत आती दिखाई दी। धुनकी के कंधे पर रूई धुनने वाला औजार लटक रहा था, जो धनुष के आकार का दिखाई दे रहा था। गीदड़ ने सोचा , यह जरूर ही कोई शिकारी है , जो धनुष बाण लेकर जंगल में शिकार करने के लिए निकला है।
गीदड़ इतना भयभीत हो गया कि उसे अपने प्राण ही संकट में दिखाई देने लगे। गीदड़ ने सोचा कि अब भागने का अवसर भी उसके पास नहीं है। गीदड़ को सामने से अपनी मौत आती दिखाई दे रही थी। तभी चालाक गीदड़ को अपने स्वभाव के अनुसार तुरंत एक युक्ति सूझी -
"क्यों न इसकी प्रशंसा की जाए ! हो सकता है , यह अपनी प्रशंसा सुनकर मेरी जान बख्श दे !" यह सोचकर गीदड़ दूर से ही दांत निकोरते हुए बोला -
"कंधे धनुष हाथ में बांणा, कहां चले दिल्ली पटराना ?"
गीदड़ के मुख से अपनी प्रशंसा सुनकर धुनकी की भी जान में जान आयी गई। फिर क्या था, धुनकी ने भी मैत्री भाव से गीदड़ की प्रशंसा करते हुए कहा -
"वाह भाई वाह, बड़ों को बड़ों ने ही पहचाना !"
धुनकी के शब्द सुनकर गीदड़ के मन का भय भी दूर हो गया और फिर दोनों ही अपनी-अपनी वाकपटुता से अपने-अपने प्राणों की रक्षा करने के गर्व से, मदमाते हुए खुशी से गदगद, अपने-अपने गंतव्य स्थान की ओर चले गए।