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ये चकलेवालियां, ये चकलेबाज - 3 - अंतिम भाग

ये चकलेवालियां, ये चकलेबाज

  • नीला प्रसाद
  • (3)
  • शाम

    शाम होते - होते ऐसा लगा जैसे हम सब एक दूसरे के सामने नंगे हो गए। मैं तो खैर नई थी पर लगा कि जैसे सबों को सबों का पता था पर फिर भी किसी को किसी का पता नहीं था। यह पता होना वैसे ही था जैसे एक दूसरे के शरीर के अंगों, आकारों और उभारों का पता होना जिन्हें हमने कभी देखा नहीं था, पर जिनका अनुमान सबों को था। कपड़े उतर जाने पर एक दूसरे के सामने खड़े होने की शर्म से घिरे सब चुप हो गए। ऑफिस में सन्नाटा छा गया। तूफान गुजर जाने के बाद का वह सन्नाटा जिसमें सबों को बिखरे तिनके चुनने होते हैं, टूटी चीजों से ही सही, अपना घर फिर से बनाना -बसाना होता है।

    यह तभी हुआ–यह महसूसना कि मैं कोई और हो रही हूं। मेरे शरीर और दिमाग में अचानक परिवर्तन हो रहा है और मैं तेजी से परिवर्तित होती जा रही हूं–एक सचमुच की चकलेवाली में, जिसने बाजार लगा रखा है पर जिसे खुद इसका पता नहीं।

    फिर इस चकलेवाली खुद को, मैंने अपने ग्राहक, अपने पति को समर्पित होते और बदले में पैसे की जगह सामाजिक प्रतिष्ठा, सिंदूर और मातृत्व का सुख पाते देखा। क्या विवाह प्रथा भी एक वैध चकलेबाजी है? –मैंने खुद से पूछा। पर नहीं, मैंने तो कभी भावना का व्यापार नहीं किया। बल्कि बहुत चुन कर ऐसा पति ढूंढा, जिसे मैं प्यार कर सकूं.. और मैं उसे प्यार करती रही हूं– सिर्फ एक निर्णय के तहत नहीं, दिल से, परवाह से, भरोसे, विश्वास, एकनिष्ठता और समर्पण से– ऐसा प्यार, क्या प्यार नहीं होता? फिर वह सारे लमहे जो कुछ खास थे, वह समर्पण, वह भरोसा, वह उसकी इतनी चिंता, वह साथ-साथ बूढ़े होने की चाहत,वह साझा सपने - उनका क्या?.. वह उसे इस कदर अपना लेना कि शादी के बाद ज़िंदगी में आए प्यार की हर आहट को नकार देना– उनका क्या..??

    अब यह ऑफिस मुझे एक चकलाघर लग रहा था। जिनके कारण यह ऐसा कहलाया, उनके मन पर कुछ गुजरी भी या नहीं, उससे उनकी सोच या बर्ताव में कोई परिवर्तन आया या नहीं, नहीं मालूम, पर मैं जस-की–तस बैठी -बैठी बदल गई। शायद जिन्हें फर्क पड़ता है, वह इस सब में पड़ते नहीं है…और जो पड़ते हैं, वह अपना असली चेहरा दूसरों के सामने उजागर हो जाने पर शर्माते नहीं हैं। शर्माते हैं मुझ जैसे, जो मानते हैं कि समूह में रहते, रिश्तों के वेब से घिरे हमारी फ्री विल होती ही नहीं। हमारे हर काम से पैदा हुई लहर दूर तक जाती है। हम ऐसा कुछ कर ही नहीं सकते जिसका दूसरों पर कोई असर न हो– सीधा या परोक्ष, अच्छा या बुरा, असर हमारे हर काम का पड़ता है, इसीलिए ऐसा करने का हक हमें कैसे मिल सकता है कि हमसे शिद्दत से जुड़ा कोई उससे प्रभावित हो और हमारी करनी से शर्माए!!

    अचानक मुझे महसूस हुआ कि नेहा गलत थी। आखिर मैं खुद को चकलेवाली क्यों समझ रही थी, जबकि यह मैं नहीं, मेरा पति था, जो चकलेबाज था। मैं चकलेवाली की तरह ट्रीट की गई हूं, पर हूं नहीं। वह ईमानदार, भरोसेमंद पति की तरह ट्रीट किया गया है, पर भरोसेमंद और ईमानदार वह है नहीं!!

    मैंने कुर्सी पर सर पीछे टिकाकर आंखें मूंद लीं। कुछ लोग इस पूरी दुनिया को एक चकलाघर बनाने की कोशिश में लगे हैं। कुछ महिलाएं तो डायन, चुड़ैल होने के झूठे इल्जाम में गांवों में झाड़ू से पीटी जा रही, निर्वस्त्र घुमाई जा रही हैं और शहर के वातानुकूलित दफ्तरों में काम करती, सुविधापूर्ण घरों में रहती, ये असली चुड़ैलें और डाकिनियां जो रिश्ते मारती हैं, ज़िंदगियों में जहर घोलती फिरती हैं - सभ्य औरतों का मुखौटा पहने, प्रेमिकाओं का चेहरा लगाए शान से जी रही हैं।

    सही तो है– बिना किसी और से प्रतिबद्ध हुए किया गया प्रेम और प्रतिबद्ध होने, शादी कर चुकने के बाद किया गया प्रेम, जमीन और आसमान की तरह अलग है। प्रेम में शब्द नहीं, उसकी नीयत भी देखनी पड़ती है; सिर्फ भावनाएं नहीं उसका परिप्रेक्ष्य भी तोलना पड़ता है.. केवल कारण नहीं, उसका परिणाम भी सोचना पड़ता है! चुंबन कभी भावना दर्शाता है, कभी डंक की तरह चुभता है। प्यार कभी रिश्ते जोड़ता है, कभी तोड़ता है.. कभी रचता है, कभी विध्वंस कर बैठता है प्यार!!

    मुझे सोच से बाहर आना पड़ा। मीना मैम अंसुआई आंखों से संदीप को बता रही थीं कि नेहा रेजिग्नेशन लेटर देकर घर चली गई और कल से ऑफिस नहीं आएगी। उसने नौकरी छोड़ दी - यह सुनकर सब एक दूसरे से नजरें चुराते उदास हो गए। पहले रागिनी उठी। फिर कामना, फिर सुनीता, फिर अनु... और बिना किसी ओर देखे, बिना ऑफिस आवर खत्म हुए वे सारी चल दीं। जिनका नाम लिया गया था, उनकी बेचैनी तो समझ में आती थी, जिन-जिन का नाम नहीं लिया गया था, वे सब क्यों शर्मिंदा दिख रहे थे आखिर??

    एक दिन, जो सुबह और दिनों जैसा ही दिख रहा था, अब बिल्कुल बदल गया।

    सिर्फ एक दिन नहीं, हमेशा के लिए।

    एक शीशा टूट गया जैसे, जो अब जोड़ने पर भी पहले की तरह हो जाने वाला नहीं था।

    मैं भी उठ खड़ी हुई। साढ़े चार ही बजे थे तो क्या - आधा ऑफिस खाली था।

    ऑफिस नहीं, चकलाघर – मैंने खुद को याद दिलाया और नए सिरे से उदास हो गई।

    फिर मैं उस चकलाघर से निकली और दूसरे चकलाघर– अपने पति के घर, की ओर बढ़ चली। गई तो रागिनी, अनु, सुनीता, कविता...वगैरह भी चकलाघर ही थीं - चाहे उन्हें इसका अहसास था या नहीं!!

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    (कथादेशः मई 2011)