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वो बहुत अच्छी लड़की थी

वो अच्छी लड़की थी....!!

दरवाजे की घंटी बजी....
श्यामा जी ने दरवाज़ा खोला और दरवाजा खुलते ही___
नमस्ते भाभीजी,सोहन लाल त्रिपाठी जी ने श्यामा जी से कहा।।
अरे, भाईसाहब आप, नमस्ते... नमस्ते,अंदर आइए ना!,श्यामा जी बोली।।
दिवाकर कहां है? सोहनलाल जी ने श्यामा से पूछा।।
आप बैठिए, मैं अभी उन्हें बुलाती हूं, इतना कहकर श्यामा जी अंदर चलीं गईं।।
तभी दिवाकर प्रसाद शर्मा बैठक में आए।।
अरे,तुम,बोलो कैसे आना हुआ? दिवाकर शर्मा ने सोहनलाल से पूछा।।
यार, सोनपुर से मेरी पोती शिवानी के लिए रिश्ता आया है, लड़का रेलवे में इन्जीनियर है, कानपुर में उसकी पोस्टिंग है, रहने वाला सोनपुर का है इसलिए सोनपुर ही जाना पड़ेगा, तुम मेरे साथ चलोगे,बस इसलिए आया था,सोहन लाल त्रिपाठी बोले।।
हां.. सोनपुर, कहीं ये वहीं सोनपुर तो नहीं जो चन्दननगर के पास,छोटा सा गांव है, दिवाकर शर्मा ने सोहन लाल जी से पूछा।।
हां.. हां.. वही सोनपुर, लेकिन अब तो उसने अच्छे खासे कस्बे का रूप ले लिया है, सोहनलाल जी बोले।।
हां.. हां..जरूर चलूंगा, कुछ सालों पहले जब मैं बी. डी.ओ. था,तब चन्दननगर से सोनपुर आना जाना लगा रहता था, इसलिए जानता हूं, अच्छा तो कब चलना है, दिवाकर शर्मा ने कहा।।
यार! कल ही चलना है, सोहनलाल त्रिपाठी बोले।।
ठीक है तो मैं कल तैयार रहूंगा, दिवाकर प्रसाद शर्मा बोले।।
और सोहन लाल त्रिपाठी के जाने के बाद दिवाकर जी , थोड़े बेचैन से हो उठे,शायद उन्हें कुछ पुरानी यादों ने आकर घेर लिया था,रात भर बेचैनी से सो ना सके,सुबह उठे और तैयार हो कर घर से निकल पड़े सोहन लाल जी के घर की ओर, बसअड्डे पहुंच कर वहां से दोनों ने चंदननगर की बस पकड़ी, चन्दननगर में उतरकर सोनपुर गांव के लिए ऑटो पकड़ा, ऑटो में बैठकर दिवाकर शर्मा अपने अतीत में पहुंच गए जब वो चन्दननगर में रहा करते थे।।
सालों पहले जब दिवाकर शर्मा वहां रहते थे तो तांगे चला करते थे,या तो लोगों के पास खुद का वाहन साइकिल या मोटरसाइकिल होती थीं।।
दिवाकर शर्मा अमीर बाप के बेटे थे, पैसे की कोई कमी नहीं थी घरवाले चाहते थे कि दिवाकर खानदानी व्यापार संभाले ,लेकिन दिवाकर जी ने घरवालों के विरूद्ध जाकर नौकरी कर ली,वो बी.डी.ओ. बनकर चन्दननगर पहुंचे, उन्हें एक दिन सोनपुर गांव वहां के प्रधान से मिलने जाना पड़ा।।
दिवाकर ने सोचा,क्यो तांगे में धक्के खाता हुआ जाऊं,अपनी मोटरसाइकिल से ही निकल जाता हूं,दिवाकर ने अपनी मोटरसाइकिल स्टार्ट की और निकल पड़ा, सोनपुर के कच्चे रास्ते पर।।
कार्तिक का महीना चल रहा था, फसलें बोई जा चुकी थीं, थोड़ी थोड़ी फसले आठ आठ अंगुल सी बड़ी हो गई थीं, चारों ओर हरियाली ही हरियाली थी,गांव की महिलाएं, खेतों से खरपतवार उखाड़ रही थीं, कहीं कहीं तो हरा हरा चने का मुलायम साग भी महिलाएं खोंट रहीं थीं, ऐसा नज़ारा देखकर, दिवाकर का जी खुश हो गया।।
दिवाकर,बस अपनी धुन में चले जा रहे थें, मोटरसाइकिल भी अपनी रफ़्तार में थीं, तभी अचानक पता नहीं कहां से एक बकरी उनकी मोटरसाइकिल के नीचे आकर घायल हो गई, दिवाकर ने जैसे ही मोटरसाइकिल रोकीं,एक लड़की दनदनाते हुए उनके पास आकर बोली___
ओ फटफटिया वाले,इ का किया,हमारे बकरिया मार डाली,अब इसके दाम कौन भरेगा,दूसरन की बकरी चरा चराके हम अपना पेट पालते हैं और तुम शहरी बाबू हमारे गांव में आके हम गरीबन का जीना मुहाल किए हो।।
दिवाकर बहुत बुरी तरह से डर चुका था और उसने डरकर पूछा___
कितने दाम हुए, तुम्हारी बकरी के।।
रहने दो बाबू,इसके मालिक से कह दूंगी कि पहाड़ से गिर गई थीं,आज छोड़े दे रहे हैं,वैसे यहां के तो नहीं लगते तुम!वो लड़की बोली।।
हां,मैं यहां का नहीं हूं,चन्दननगर में रहता हूं, सोनपुर के गांव के प्रधान के पास किसी काम से आया था, दिवाकर बोला।।
अच्छा तो चन्दननगर में रहते हो, बाबू,मेरा एक काम करोगे,वो लड़की बोली।।
हां.. हां क्यो नही,बताओ क्या काम है? दिवाकर ने उस लड़की से पूछा।।
मेरी शादी को पांच साल हुए,तीन साल पहले मेरा पति बाहर कमाने गया था लेकिन अब तक नहीं लौटा,गांव में ज्यादा लोग पढ़ें लिखे नही हैं और जो पढ़ें लिखे हैं वो लफंगे है, मैं उनसे अपने पति के लिए चिट्ठी नहीं लिखवा सकती,वो लड़की बोली।।
अच्छा... ठीक है,आज तो मेरे पास सिर्फ पेन है,कागज नहीं है,अगले हफ्ते शुक्रवार को आऊंगा कागज लेकर,तब तुम्हारे पति के लिए चिट्ठी लिख दूंगा, दिवाकर ने उस लड़की से कहा।।
वो लड़की बोली, ठीक है बाबू! मैं शुक्रवार को तुम्हारा इंतज़ार करेंगे,वो जो चौखटा कुआं है ना! वहीं हमारा खेतों में कच्चा घर है, किसी से भी चौखटे कुएं के बारें में पूछना तो बता देगा और इतना कहकर वो लड़की जाने लगी।।
तभी दिवाकर ने उस लड़की से कहा__
अपना नाम तो बताती जाओ!!
रमिया!! रमिया नाम है हमारा और इतना कहकर वो चली गई।।
तभी दिवाकर ने भी मुस्कुराते हुए अपनी मोटरसाइकिल स्टार्ट की और प्रधान के घर चल दिया।।
ऐसे ही एक हफ्ते निकल गए, दिवाकर शुक्रवार के दिन रमिया के यहां पहुंचा, उसने वहीं मैदान में अपनी मोटरसाइकिल खड़ी की देखा तो खेतों के पास रमिया का कच्चा घर बना था, उसने खेतों में गेहूं बो रखा था जो अब थोड़ा थोड़ा बढ़ गया था,घर को लकड़ियों की पटरियों से घेरकर एक लकड़ियों की पटरी का दरवाज़ा भी बना रखा था,घर के छप्पर पर कुछ बेलें चढ़ी थीं,बगल में चौखटा कुआं था।।
दिवाकर जैसे ही घर के पास पहुंचा, रमिया फौरन बाहर निकल कर आ कर बोली___
हमें पता था कि बी.डी.ओ. बाबू तुम ही होंगे, तुम्हारी फटफटिया की आवाज हमने सुन ली थी।।
तभी दिवाकर, दरवाजा खोलकर भीतर गया,देखा बाड़े में बटलोई में चूल्हे पर दाल चढ़ी थीं,बगल में धनिया, मिर्च,टमाटर, लहसुन और बैंगन के पौधे, कुछ गेंदें के फूल भी लगे थे।।
रमिया चारपाई बिछाते हुए बोली__
आओ बाबू ,अब तो हल्की ठंड हो गई है तुम यहीं धूप में बैठो और अब खाने के टेम पर आ ही गए हो तो खाना खाकर ही जाना।।
और रमिया ने फटाफट चूल्हे पर चढ़ी दाल की बटलोई का ढ़क्कन खोलकर देखा तो दाल पक चुकी थी, उसने फौरन हरी धनिया,मिर्च, लहसुन और टमाटर तोड़े उन्हें धोकर , बगल में रखें सिलबट्टे पर चटनी पीसी,अंदर से छाछ की मटकी लाकर उसमें धनिया मिर्च नमक डाला,एक मिट्टी का दीपक चूल्हे के अंगारों पर गर्म कर सरसों का तेल डालकर उसमें कुछ सरसों के दाने चटका कर छाछ में तड़का लगा दिया, फिर आटा गूंथकर रोटियां बनाकर थाली लगा दी।।
दाल की कटोरी में ढ़ेर सारा घी डालते हुए बोली__
लो बाबू खाना खाओ, जल्द बाजी में इतना ही बना पाई।।
इतने सम्मान के साथ कोई खाना खिला रहा है और इससे ज्यादा क्या चाहिए?दिवाकर बोला।
बहुत दिनों बाद दिवाकर ने दूसरे के हाथ का बना खाना खाया था, अपने हाथों का बना खाना खाकर वो उकता गया था।।
इसी तरह साल भर तक सिलसिला चलता रहा, दिवाकर, रमिया के पति के लिए चिट्ठियां लिखता रहा लेकिन कभी भी किसी चिट्ठी का जवाब नहीं आया, फिर दिवाकर चन्दननगर से वापस आ गया।।
तभी सोहनलाल ने दिवाकर को हिलाते हुए कहा__
कहां खोए हो भाई? सोनपुर आ गया, उतरना नहीं है।।
हां.. हां लेकिन उतरकर,एक जगह चलोगे मेरे साथ, दिवाकर ने सोहनलाल से कहा।।
और दोनों उस जगह पहुंचे, जहां रमिया रहा करती थी, लेकिन अब वहां सिवाय सूखे चौखटे कुएं के कुछ भी नहीं था,अब सबकुछ उजाड़ हो चुका था।।
तब सोहनलाल ने दिवाकर से पूछा,कौन सी जगह है ये?
ये वो जगह है जहां एक लड़की रहा करती थी, बहुत अच्छी थीं वो और इतना कहकर दिवाकर की आंखें भर आईं।।

समाप्त__
सरोज वर्मा__