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आमा के ख़मा करो

आमाके ख़मा करो

प्रबीर ने उसदिन बाबा को अकेले में बड़बड़ाते हुए पाया था. कमरे में दरवाजे की तरफ पीठ किये बैठे बाबा को अकेले में खुद से बाते करतें देख प्रबीर का मन भर आया था. उन की इस अकेलेपन का वह क्या करें, यह सोच प्रबीर का मन भर आया.

“माँ को गए तो अभी बमुश्किल दो महीने ही हुए होंगे. अब लाजिमी है कि उनकी कमी खलेगी ही”, प्रबीर की भी आँखे भर आई थी.

“बाबा! अन्धोकारे की कोरछो?”, प्रबीर ने बाबा के काँधे पर हाथ रखते हुए बांग्ला में पूछा तो बाबा अचानक चौंक गएँ.

“अरे तुम कब आये मुझे तो पता ही नहीं चला?”,

आंसू पोंछते हुए बाबा ने चेहरा उसकी तरफ किया और मुस्कुराने की एक असफल कोशिश भी की.

“क्या बहू और मोंटू भी आ गए?”

“नहीं बाबा उन्हें लौटने में आज देर होगी”, कहते हुए प्रबीर ने बाबा के कमरे की लाइट आन कर दिया.

रसोई में जा दो कप चाय बना लाया, तब तक बाबा कुछ सहज हो चुके थें और ट्रे में रखे कूकीज उठा कर कुतरने लगें. कुछ क्षणों के लिए सन्नाटा छ गया उनके के बीच. यादों-विचारो की झंझावत में मानों दोनों घिर गएँ. वो जो तीसरी हुआ करती थी इन दोनों को बाँध के रखने वाली अब नहीं थी. ये बात दोनों को ही असहज बना रही थी. शुरू से ही ‘माँ’ इन दोनों के बीच की कड़ी रही है. प्रबीर तो पूरी तरह माँ का ही बेटा रहा है. छोटा था तो माँ का पल्लू पकड़ ही घूमता रहता था. माँ रान्ना घोर में तो प्रबीर भी वहीँ बैठा साथ में लुची बेलता या माँ को सूक्तो बनाते देखता रहता. माँ के साथ बिताया ये समय उसे बाद में बहुत काम आया. ख़ास कर जब वह विदेश आया तो उसने पाया कि वह पाक कला में सिद्धहस्त है. खिचुड़ी हो या आलू-पोस्तो, रोहू हो या कतला उसे सब पकाने आता था.

बाबा उसे जबरदस्ती खींच कर निकालते रसोईघर से. गणित-विज्ञान की पुस्तकों को खोल उसे जबरदस्ती घोंटवातें ताकि वह किसी तरह पास हो जाये. उन्हीं दिनों उसे गिटार का शौक भी जागृत हुआ था. टेस्ट में अच्छे नंबर लाने की शर्त जीत प्रबीर ने गिटार क्लासेज जाना शुरू किया था. फिर तो वह नशा ही बन गया उसके लिए. बाबा रसोई घर से तो निकाल लातें थें पर गिटार क्लासेज से उसे नहीं निकाल पायें.

“बाबा मुझे संगीत प्रतियोगिता के लिए मुंबई जाना है....”, प्रबीर ने एक फॉर्म बढ़ाते हुए कहा था, एक दिन.

बहुत ही बेमन से उन्होंने उस पर हस्ताक्षर किया था, वह भी प्रबीर के पीछे खड़ी उसकी माँ के हाथ जोड़ने पर. पर बाबा ये कहाँ जानते थे कि जीतने वाला अगले राउंड के लिए कैलिफ़ोर्निया, यूएस जायेगा. जानती तो उसकी माँ भी नहीं थी.....

“माँ-माँ मैं जीत गया. अब मुझे अगले राउंड के लिए अमेरिका जाना होगा”,

प्रबीर ने जब ये कहा था तो माँ के हाथ से टेलीफोन छूट गया था.

“ई की बोलछे..”, माँ ने विस्फारित हो बाबा को कहा था.

“ये तो बहुत ख़ुशी की बात है बाबू, जीत कर आना वहां से भी. कब जा रहे हो, पैसे कितने लगेंगे...”, बाबा ने बात सँभालते हुए प्रबीर से पूछा था.

“बाबा सारा खर्च प्रायोजक ही उठाएंगे. प्रतियोगिता तो अगले माह है पर उसके पहले बहुत सारी औपचारिकताएं हैं, शायद कोलकाता इस बीच न आ पाऊं”.

प्रबीर ने तो बड़ी ही सहजता से कहा था, पर शायद माँ ने उतनी सहजता से ग्राह्य नहीं किया. उसी रात उन्हें पहला हार्ट-अटैक हुआ था. उनके मन में अपनी उस दूर की रिश्तेदार का रुदन कैद था, जो कहती थी,

“जो एक बार अमेरिका चला गया वह वापस नहीं आता. इस अमेरिका का नाश हो जो हमारे बच्चों को आकर्षित कर लेता है पाइड पाइपर आफ हेमलीन की तरह”

वैसे भी प्रबीर अपने माता-पिता की ढलते उम्र का संतान था, सो उसका यूं अचानक परदेस प्रस्थान उन सब के लिए एक सदमे की सुनामी ही साबित हुई. माँ के दिल ने तो उसी रात्रि एक झटके के साथ अपनी अप्रसन्नता को प्रकट कर दिया.

प्रबीर कैलिफ़ोर्निया गया, जीत तो नहीं पाया. पर वहां की चकाचौंध ने उसे जीत लिया. परदेस में लोग छोटी से छोटी काम भी करने से हिचकिचाते नहीं हैं और इसी सोच की बदौलत वह अमेरिका में टिका रहा. कुछ नहीं तो कभीकभी सड़क किनारे टोपी उलट-गिटार बजा कर भी उसने समय निकाला, पर घर लौटने की कभी नहीं सोची. फिर एक दिन उसे माँ की रसोईघर में बैठने का ईनाम मिल ही गया और एक भारतीय रेस्तरां में वह बंगाली डिश बनाने लगा. जिन्दगी समय के साथ स्थाईत्व की ओर अग्रसर होता गया पर माँ-बाबा-देस प्राथमिकताओं की सूची में नीचे होते गएँ. इतना कभी कमा ही नहीं पाया कि टिकट कटा छुट्टी ले उनसे मिलने जा सके.

भग्नहृदया माँ इस सत्य को स्वीकार ही नहीं कर पाई और हर दिन मृत्यु की ओर खिसकती रही. प्रबीर के बाबा को तो जीना था ही वरना उनकी भार्या की साँसों की लड़ियां कौन पिरोता. हर सुबह परमात्मा को प्रार्थना करतें अपनी साँसों के लिए, अपनी छूटती हिम्मत की पतवार को थामे रखने के लिए वरना व्हील चेयर की पहियों से बंधी उनकी अर्धांगिनी को कौन उतारेगा. अपनी हर जाती साँसों को भाग कर पकड़ प्रबीर की माँ को समर्पित करतें. वह देश जिसकी भूलभुलैया में उनका प्रबीर खो गया था को कोसते जिसने उनकी बुढ़ापे की लाठी को चुरा लिया था.

उस दिन दोनों ने साथ ही खाना खाया दोपहर का. ना चाहते हुए भी निर्मोही का जिक्र आ ही गया,

“प्रबीर के बाबा, व्हाटस्ऐप पर नाती के फोटो को देखा? आज सुबह ही बौऊमाँ ने भेजा है”, उसने कहा था.

“तुम्हें भेजा है तुम ही देखो, स्मार्टफोन भी तो तुमको ही भेजा है बौऊमाँ ने”, प्रबीर के बाबा ने एक जाती हुई मुस्कान को पकड़ते हुए कहा.

“कुछ भी कहो वह समझदार ही मालूम होती है. कम से कम बेटे से जोड़ कर तो हमें रखती ही है”, प्रबीर की माँ ने चम्मच से झोर उठाते हुए कहा.

“हूँ, उसी से जुड़ने के चक्कर में बेटा ने हमें छोड़ दिया. इस एनआरआई लड़की ने हमारे प्रबीर को वहां बाँध लिया वरना उसे वापस आना ही होता.....”, एक लम्बी सिसकारी भर बाबा थम गए.

अचानक चम्मच गिरने की आवाज से विचार-भग्न हुआ. देखा कि उनकी अर्ध्दांगनी का आधा अंग कुर्सी से नीचे झूल रहा है. सीधा करने लगे तो उसे संभाल नहीं सकें और वे भरभरा कर उनपर ही गिर सी गयीं. बमुश्किल बीवी की बोझ तले से खिसके, उन्हें भी चोट लग गयी थी और घुटने सीधे ही नहीं हो रहें थें, देखा कि जीवनसंगनी बेसुध फर्श पर बिखरी हुई सी अचेत है.

“की रे! तुमी की चोले गेछो?”,

कहते उन्होंने गाल पकड़ घुमाना चाहा; पर भार्या की नि:छलता ने उनकी रीढ़ में सिहरावन दौड़ा दिया. चली गयी; चली गयी निर्मोही मुझे आज़ाद कर के. अच्छा हुआ शायद वरना मेरे प्राण कैसे निकलते. वहीँ फर्श पर जाने कब तक उसकी बेजान हथेलियों को थामते-चूमते यही सब सोचते अपनी वामा के वामांग में बिखरे से पड़ें ढले गिरें रहें...वक़्त का कोई भान नहीं, कहीं से कोई व्यवधान भी नहीं, पल गुजरे कि युग गुजर गएँ..मष्तिष्क ने शायद काम करना तज दिया था.

“ये जो मेरे बगल में शरीर है, मेरी अर्ध्दांगनी मेरी आधा अंग अब नहीं है. सही हुआ चली गयी पहले वरना इसे कौन संभालता? पर अब! अब मैं क्या करूँ?”,

इस यक्ष प्रश्न के कौंधते ही मानों तंद्रा टूटी, अब क्या करना होगा सोच ही मन घबरा गया. सिर्फ घुटने कमजोर होते तो शायद किस विध खड़े भी हो जाते पर यहाँ तो दिल मन हिम्मत शरीर का रोम रोम टूट कर बिखरा हुआ था, कैसे समेटूं कैसे खड़ा हूँ.....

पर उठाना तो पड़ेगा ही, प्रबीर को फोन लगाने लगें, लम्बी लम्बी रिंग गयी.......

अपने सुनसान कॉलोनी के डॉक्टर को फोन किया,

“डागदर मोशाय जल्दी आइये शायद ये नहीं रहीं”.

“मैं तब आ कर क्या करूँगा? आप इनके हार्ट वाले डॉक्टर को बुला लीजिये”,

धरती के भगवान की इस बेरुखी ने उन्हें डरा दिया.

“जाने आज कोई फोन क्यूँ नहीं उठा रहा, वो घोष बाबू और राय जी दोनों के फोन आउट ऑफ़ रीच. पांच बजने को हैं, रात हो जायेगी कुछ देर में. फिर मैं क्या करूँगा?”,

अगले एक घंटें में वे मुक्तिधाम में खड़े थे. वहां उनसे अंतिम क्रिया करवा जा रहा था. साथ में उनकी काम वाली बाई और उसका पति. अब सबके फोन आने लगे थें,

“बाबा माँ को मत जलाओ मुझे आने दो...”, प्रबीर रोते हुए गुहार कर रहा था.

“जब इतने बरस न आया तो अब क्या...मुझे करने दे प्रबीर, पार लगाने दे इसे वैतरणी”, रुंधे कन्फ्यूज्ड स्वर में उन्होंने कहा था.

प्रबीर फिर आया दो दिनों के बाद, सब कर्मकांड कर बाबा को अपने साथ लेते गया अमेरिका. आत्मग्लानि से उसका ह्रदय रुदन कर रहा था. आखिर माँ के जीतेजी क्यूँ न आ सका.

आज बाबा फिर क्या बोल रहें?, घर लौटने पर उसने आज फिर सुना.

“प्रबीर की माँ, तुम शायद बच जाती अगर डॉक्टर आ जाता”

“यदि मैं मुंह से तुम्हें सांस दे देता या तुम्हारे ह्रदय को जोर जोर से मारता, नहीं कर पाया हाय!”

“जब मैंने तुम्हें अग्नि दिया, मुझे उस वक़्त तुम्हा हाथ गर्म क्यूँ लगा था? प्रबीर की माँ! जब सिन्दूर लगा रहा था तब क्या तुम्हारी साँसें चल रहीं थीं? तुम क्या जिंदी ही थी? मुझे अब लग रहा...”

“मैं घबरा गया था; सोच नहीं पाया; डर गया था कि मैं क्या करूँगा अकेले?”.......

“आमा के खमा करो; आमा के खमा करो...”

बाबा घोर अन्धकार में आसमान को देख बोलें जा रहें थें. उनके ठीक पीछे बैठ अब प्रबीर भी यही दुहरा रहा था..

“मुझे क्षमा करो माँ मुझे क्षमा करो”