Udasiyo ka vasant - 1 books and stories free download online pdf in Hindi

उदासियों का वसंत - 1

उदासियों का वसंत

हृषीकेश सुलभ

(1)

वे चले जा रहे थे।

श्लथ पाँव। छोटी-सी मूठवाली काले रंग की छड़ी के सहारे। यह छड़ी कुछ ही दिनों पहले, ......कल ही, उनकी ज़िन्दगी में जबरन शामिल हुई थी, .....बिन्नी की ज़िद पर।

वे छड़ी ख़रीदने के पक्ष में नहीं थे। किसी के सहारे, चाहे वह कोई निर्जीव वस्तु ही क्यों न हो, चलना उन्हें प्रिय नहीं। पर भला बिन्नी कहाँ माननेवाली! ज़िद पर अड़ जाती है तो एक नही सुनती। तमाम तर्क, .....‘‘आपको अभी ज़रूरत है। ......छड़ी लेकर चलने से कोई बूढ़ा थोडे़ ही हो जाता है, ......अभी आपको चलते हुए सतर्क रहने को कहा है डॉक्टर ने। ......नेलिंग हुई है पिंडली में और पाँव पर ज़रा भी ज़्यादा ज़ोर नहीं पड़ना चाहिए। .....छड़ी रहेगी तो वजन सम्भालेगी। ......पहाड़ी रास्ते हैं, ......ऊपर-नीचे, ....चढ़ना-उतरना, .......हर बात में आपकी मनमानी नहीं चलेगी.....!‘‘

बोलते हुए वह दम नहीं लेती। एक बार शुरु हो गई तो रूकने का नाम नहीं लेती है यह लड़की। लड़की ही तो है बिन्नी। उनके सामने तो लड़की ही है। वे दो सालों बाद पचास के हो जाएँगे और बिन्नी अभी इक्कतीस की है। सत्रह वर्षों का अंतराल कम नहीं होता। उन्हें बिन्नी की बात माननी ही पड़ी और यह छोटी-सी मूँठ वाली काले रंग की छड़ी उनकी ज़िन्दगी में शामिल हो गई।

वे चल रहे थे। अवसन्न मन। थके-हारे। मन के अतल में गहरे, ......कहीं बहुत गहरे छिपी कोई हूक उनका कलेजा चीरकर बाहर आने को बेचैन थी। उमड़-घुमड़ रही थी। सप्तम स्वर में बजते शंखध्वनि-सी शून्य में जाकर अँटकी हुई कोई चीख़। पकती, ......सयानी होती, .........सिकुड़ती त्वचा के नीचे चुभतीं अस्थियों की किरचें। आँखों की कोर पर सहमी हुई नमी.......। दिवंगत होता सा कुछ, .......लोप होता हुआ कुछ.....। कुछ नहीं, ......बहुत कुछ। कुछ जाना-सा और कुछ अनजाना। सब धीरे-धीरे, बिना किसी आहट के दूर जाता हुआ।

वे चले जा रहे थे अपनी आत्मा में लहराती अग्निपताकाएँ लिये। इन अग्निपताकाओं में उभरता-छिपता आत्मा के घाव-सा बहुत कुछ लहरा रहा था। कुछ बहुमुँहे घाव, ......कुछ बंद मुँहवाले और कुछ खुले मुँहवाले घाव। एक मौन भी था ठिठका हुआ, जिसे वे अपने साथ लिये चल रहे थे।

हल्की चढ़ायी थी। एक कॉटेज था सामने, जिसकी ओर बढ़ रहे थे वे पाँव घसीटते हुए। जब बिन्नी ने केरल चलने का प्लान बनाया, उन्हें मुन्नार याद आया। मुन्नार तब और छोटा था, ....बहुत छोटा। बस स्टैन्ड के पास चार-पाँच दुकानें और चालीस-पचास घर। आज भी छोटा ही है, पर पहले के मुक़ाबले बड़ा। मुन्नार से थोड़ी दूरी पर, .......लगभग दस-बारह किलोमीटर दूर थी वह जगह। वे उस जगह का नाम भूल चुके थे। बीस साल पुरानी डायरी निकालकर उन्होंने उस जगह का नाम ढूँढ़ा - लछमी इस्टेट। लक्ष्मी नहीं, .......लछमी। चारों ओर पहाड़ों की ढलान पर चाय के बगान। करीने से कटे-छँटे चाय के पौधों की झाड़ियों के बीच से ऊपर जाती चक्करदार सड़क। बीच-बीच में सघन वन। ऊँचे, नाटे, छायादार, पत्रहीन, .........तरह-तरह के वृक्षों, लताओं और वनस्पतियों से लदे हुए पहाड़। इन्हीं पहाड़ों में से एक के शिखर पर था वह कॉटेज।

जब मुन्नार आना अंतिम रूप से तय हो गया और ठहरने के लिए लिए बिन्नी होटल का चुनाव करने बैठी उन्होंने इस जगह का ज़िक्ऱ किया। बिन्नी ने गूगल मैप पर यह जगह ढूँढ़ निकाली। मुन्नार से पूरब की ओर जाती इस सड़क पर स्मृतियों के सहारे धीरे-धीरे वे आगे बढ़ते रहे और जैसे ही यह जगह,..........ये कॉटेज दिखा वे बच्चे की तरह चहक उठे थे -‘‘......यही, .....यही है, .....हन्डरेड परसेन्ट यही है। .....ये फाटक के पास वाला पेड़ अब बड़ा हो गया है बस। .....और वो जो.......‘‘ जैसे धरती का सीना फोड़कर अचानक कोई जलसोता फूट पड़ा हो! बिन्नी उन्हें नन्हें शिशु की तरह उत्साह,........उमंग और कौतूहल से भरते, .........छलकते हुए एकटक निहार रही थी। वे अपनी रौ में थे - ‘‘ये जो पेड़ है न, .....कामिनी का पेड़ है। जब हम लोग यहाँ रुके थे, उन दिनों यह सफ़ेद फूलों से लदा हुआ था। .....युवा पेड़.....फूलों से लदा हुआ। एक तो युवा और ऊपर से फूलों की चादर लपेटे आपके स्वागत के लिए द्वार पर खड़ा। .....अनूठा लगता था। ......मेरे दोस्त गोपी नायर का काटेज था यह। गोपी अक्सर यहाँ आकर महीनों रहता। उसने इसे लछमी इस्टेट वालों से दो साल के लिए लीज पर लिया था। उसकी ही सलाह पर ......या उसके ही आमंत्रण पर मैं राधिका और नन्हीं-सी टुशी के साथ केरल घूमने आया था। मुन्नार के इस कॉटेज में हमलोग दस दिनों तक रुके रहे थे। पता नहीं अब इसका कौन मालिक होगा! किसी ने ले रखा होगा या लछमी इस्टेट वालों ने अपने चाय बगान के किसी मुलाजिम को दे रखा होगा! ........गोपी भी तो नहीं रहा। सात-आठ साल हुए किसी सड़क दुर्घटना में......। इस काटेज के पीछे ढलान है। .....नीचे की ओर उतरती सपाट ढलान। दायीं ओर वाली पहाड़ी से तेज वेग के साथ उतरकर एक पहाड़ी नदी इस ढलान के बीचों बीच गुज़रती है। ........मैं इन दस दिनों में रोज़ इस नदी से मिलने जाता था। जाने क्यों यह नदी मुझे बहुत अपनी-अपनी सी लगती थी। पहाड़ से उतरती हुई यह नदी वेगवती ज़रूर थी पर संयम वाली भी लगती। इसके प्रवाह में लय थी। उतरती हुई आलाप ध्वनि जैसी गम्भीरता थी। वृक्षों-लताओं से हवाओं के मिलन की, ........पंछियों की बतकही की, ........और पुकारों की अंतर्ध्वनियों के अनगिन राग इसके प्रवाह की घ्वनियों में शामिल थे। ......गुँथे थे। ........‘‘

वे बोले जा रहे थे और बिन्नी उन्हें अपलक निहारती, ....शब्द-शब्द पीती जा रही थी। तुम उस नदी को ढूँढ़ो। .....आगे ले चलो कर्सर। ....ज़रूर दिख जायेगी वो नदी। ......ऐसी नदियाँ, ......पहाड़ों से उतरनेवाली नदियाँ मरती नहीं। .....वह होगी वहीं कहीं। मुझसे ज़्यादा तो टुशी को उस नदी से प्यार हो गया था। दो-ढाई साल की टुशी सुबह उठते ही नदी से मिलने जाने के लिए उतावली हो उठती थी। .....मैं उसके तट से गोल, ...चिकने, .......चमकते हुए तरह-तरह के छोटे-छोटे पत्थरों को चुनता और टुशी के सामने ढेर लगा देता। टुशी उन पत्थरों से खेलती। कभी घर बनाती, कभी कभी पेड़ और कभी फूल, ......पत्थर के फूल।‘‘

वे बेचैन हो गए थे उस नदी को देखने के लिए। .....वे वहीं उसी पहाड़ी पर बने किसी काटेज में ठहरना चाहते थे तकि उस काटेज को एक बार फिर देख सकें। फूलों की चादर ओढ़कर खड़े कामनी के उस पेड़ को, जो अब अधेड़ होने लगा होगा, देख सकें। वे उस नदी से मिलना-बतियाना चाह रहे थे जिसके तट पर उनकी बेटी टुशी ने पत्थरों के टुकड़ों से घरौंदे, ....पेड़ और फूल बनाए थे। वे फिर उस नदी के पाट के बीच उतरकर उसकी जलधारा को स्पर्श करना चाहते थे। वे चाहते थे उन सारी आवाज़ों को फिर से सुनना, जिन्हें वे अब तक अपनी स्मृतियों में बचाए हुए थे।

इंटरनेट पर काफी समय गँवाने के बाद बिन्नी लछमी एस्टेट में ठीक इस काटेज से लगभग एक फर्लांग पहले एक होम स्टे बुक करा सकी। जोसेफ होम स्टे। दिल्ली से कोच्चि की हवाई यात्रा। .....कोच्चि से मुन्नार सड़कमार्ग से। टैक्सी वाला एक रिटायर्ड फ़ौजी था और कामचलाऊ अँग्रेज़ी के साथ-साथ अच्छी हिन्दी बोल रहा था। ख़ुश मिज़ाज भी था, सो सारी राह वे उससे गप्पें करते रहे। टैक्सी वाला फ़ौज के अपने क़िस्से सुनाता और वे रस लेकर सुनते। बीच-बीच में बच्चों की तरह अपनी जिज्ञासाएँ प्रकट करते। कभी-कभी वे टैक्सी वाले को छेड़ने के लिए किसी घटना पर संदेह प्रकट कर देते, पर वह भी था जीवट वाला आदमी। हर तरह से उन्हें संतुष्ट करने की कोशिश करता। उसने रास्ते में एक जगह रुक कर इडियप्पम खाने की सलाह दी। उन्होंने स्वाद लेकर इडियप्पम खाया और अनिच्छा के बावजूद बिन्नी को भी खिलाया। मुन्नार पहुँचते-पहुँचते शाम हो गई थी। एक बार सबको चाय-कॉफी की तलब लग आई थी। चाय पीते हुए ही बिन्नी की नज़र उस दुकान पर गई थी, जिसमें तरह-तरह के हैट्स और छड़ियाँ टँगी थीं। ज़िद्दी बिन्नी ने उनकी एक न सुनी और यह छोटी मूँठ वाली काले रंग की छड़ी उनकी ज़िन्दगी में शामिल हो गई।

जोसेफ ने बस स्टैन्ड पर आदमी भेज दिया था। वह आगे-आगे मोटर सायकिल से राह दिखाते हुए चल रहा था। हालाँकि उनके होते किसी राह दिखाने वाले की, ....किसी रहबर की ज़रूरत नहीं थी। उन्हें सब कुछ याद था। बारीक़ से बारीक़ डीटेल्स पर हमेशा उनकी नज़र रहती और बातें, ........घ्वनियाँ, .......दृश्य सब उनकी स्मृतियों में बस जाते। ज़रूरत पड़ने पर वे यह सब अपनी स्मृतियों के ख़ज़ाने से यूँ निकालते, जैसे कोई जादूगर अपनी जेब से कबूतर निकाल कर उड़ा रहा हो। जोसेफ होम स्टे पहुँचते-पहुँचते अँधेरा हो चुका था। स्वागत के लिए जोसेफ कॉटेज के गेट पर खड़ा था। घुँघराले बालों वाले तीस-पैंतीस साल के जोसेफ ने मुस्कुराते हुए स्वागत किया था।

यह कॉटेज दो हिस्सों में बँटा था। आगे के हिस्से में दो बेडरूम, एक लिविंग रूम और सामने बरामदा और फूलों से सजा लॉन। पीछे की ओर था एक बेडरूम, एक लिविंग रूम, छोटा सा बरामदा और सामने छोटा-सा ढालुआँ लान, जिसमें फूलों की पतली क्यारियाँ थीं। कँटीले तारों के फेंस से घिरे इस छोटे लॉन के बाद घना जंगल था। दीर्घ जीवन जी चुके शाल के ऊँचे अनुभवी वृक्षों के बीच-बीच में कई अन्य प्रजातियों के वृक्ष थे और फूलों से लदफद जंगली लताएँ थीं। सूर्य इसी ओर से हर सुबह घने वन के गझिन संसार में प्रवेश करते और अपनी लालिमा से ढँक देते वृक्षों की काया को। वृक्षों से छनकर जब नीचे गिरतीं किरणें, जंगल की धरती लाल फूलों की छापेवाली चुनरी की तरह लहरा उठती। ........जब उन्होंने इस हिस्से को ही पसंद किया, जोसेफ ने रात को, सोने से पहले दरवाज़ों-खिड़कियों को हर हाल में बंद रखने का आग्रह किया था और अक्सर जंगली जानवरों के आ जाने की सूचना दी थी। इस काटेज से लगभग पचास फीट नीचे जोसफ होम स्टे का मुख्य और अपेक्षाकृत बड़ा काटेज था। वहाँ से यहाँ आने-जाने के लिए पत्थरों को तराश कर सीढ़ियाँ बनी थीं। नीचे वाले हिस्से में ही किचेन था। दोनो कॉटेज इन्टरकॉम से जुड़े थे। वे रात को ही ऊपर जाकर उस कॉटेज को देखना चाहते थे, जिसमें वह अपनी पहली मुन्नार यात्रा के दौरान राधिका और टुशी के साथ ठहरे थे, पर जोसेफ की सलाह पर उन्हें रुकना पड़ा। बिन्नी कमरे को उनकी रुचि के हिसाब से व्यवस्थित कर रही थी और वे जोसेफ से उस ऊपर वाले काटेज के बारे में जानकारियाँ ले रहे थे। उस काटेज को इन दिनों भारतीय मूल की किसी फ्रांसिसी महिला ने लीज़ पर ले रखा था। वह साल में एक बार दो-तीन महीनों के लिए आती थी और बाक़ी दिनों में वह काटेज बंद ही रहता। एक स्थानीय आदमी उसकी देख-रेख करता। महीने में एक बार साफ़-सफाई कर देता।

बिन्नी ने रात के खाने के लिए जोसेफ को बताया। कोकोनट मिल्क में बना चिकेन और सादी रोटियाँ। वे केरल के लच्छा पराठे खाना चाहते थे, पर जानते थे कि बिन्नी किसी क़ीमत पर राज़ी नहीं होगी। बिन्नी ने कुछ स्नैक्स तुरंत लाने को कहा था और वे फिर किसी बच्चे की तरह ख़ुश हो गए थे अपनी पसंद का ड्रिंक मिलने की प्रत्याशा में। इस मामले में बिन्नी के हुनर का कोई जवाब नहीं। उसे मालूम है कि उन्हें कब, क्या और कितना ड्रिंक चाहिए और किस ड्रिंक के साथ कौन-सा स्नैक्स।

उनकी रात सहज ही गुज़री थी। लम्बी यात्रा की थकान थी। ......और स्मृतियाँ भी तो थकाती हैं कभी-कभी, जब वे ठाट की ठाट उमड़ती हुई बे-लगाम चली आती हैं। उन्होंने बिन्नी के हाथों तैयार दो पेग ग्लेनविट लिया और कोकोनट मिल्क में पके चिकन के दो टुकड़ों के साथ दो फुल्की रोटियाँ। बीस साल पहले यहाँ रोटियों के लिए तरस कर रह गए थे वे। बिन्नी एक छोटा पेग लेकर साथ देने बैठती है। कभी पूरा ले लेती है, तो कभी उस इकलौते छोटे पेग का भी बहुत सारा भाग छोड़ देती है। उनकी नज़र में यही एक बुरी आदत है बिन्नी में कि वह ड्रिंक बरबाद करती है। ...... फिर बिन्नी की बाँहों में बँधकर सारी रात इत्मिनान से सोते रहे वे। पहली बार बिन्नी के साथ सोये। .......सुकून के साथ, .....निर्भय होकर। वैसे बिन्नी का साथ उन्हें भयभीत नहीं करता, निर्भय करता है। एक आश्वस्ति का भाव, ......जो दुःखों और निराशा के अंधकूप से बाहर आने के बाद मिलता है, ....वैसा ही भाव भर जाता है उनके भीतर जब बिन्नी साथ होती है। पता नहीं बिन्नी कब सोई या कब तक जागती रही। उन्होंने बिन्नी को अपनी बाँहों में भरा या बिन्नी ने, .......उन्हें नहीं पता। एक तो थकन और फिर ग्लेनविट का सुरूर। सुबह जब उनकी आँखें खुलीं, उनकी उम्मीद के विपरीत बिन्नी गहरी नींद सो रही थी। बिन्नी उन्हें अक्सर बताती रही थी कि वह रात को चाहे कितनी भी देर से सोये, पर जागती अलसुब्ह है और दिन में नींद की क्षतिपूर्ति करती है।

सुबह जब उनकी नींद खुली बिन्नी की बाँहें उनसे लिपटी हुई थीं। जब उसकी बाँहें हौले से हटाकर वे उठे, वह गहरी नींद में होते हुए कुनमुनाई थी। वे उसे निहारते रहे। जुल्फ़ों से झाँक रहा था उसका चेहरा। गोरा रंग, ...जैसे दूध में ईंगुर घोल दिया हो किसी ने। ......नींद में भी दीप्ति से भरा हुआ। बड़ी-बड़़ी आँखों के बंद पटों पर झालर की तरह टँगी बरौनियाँ। सुग्गे की चोंच-सी खड़ी नाक और कतरे हुए पान से सुघड़ होठ, .......और अधखुले बटनों वाले सफ़ेद कुर्ते से झाँकते दो अमृतकलश। वे सम्मोहन में डूब ही रहे थे कि बिन्नी ने करवट बदल ली थी। वे अचकचा उठे थे। पल भर में उनके चेहरे पर अनगिनत भाव आए, .......गए। उन्होंने अपने को सहेजा था और नित्यक्रिया से निबट कर बिन्नी की नींद में खलल डाले बिना बाहर निकल गए थे।

वे उस कॉटेज के सामने थे। वे सबसे पहले कामिनी के वृक्ष की ओर बढ़े। उसके नीचे जा खड़े हुए। उसके तने को, ........नीचे तक झुक आयीं डालों-पत्तियों को स्पर्श किया। कामिनी पर बहार आ रही थी। कुछ ही दिनों में यह वृक्ष फूलों की चादर से ढँकने वाला था। अभी फूल कम थे, पर कलियों के गुच्छों से लदा हुआ था वृक्ष। वे कामिनी-वृक्ष से निःसृत होती गंध को अपनी साँसों में भर रहे थे। वे कुछ देर तक आँखें मूँदे वहीं, ......वृक्ष के नीचे खड़े रहे। केवल उनकी आँखें मुँदी थीं। .....देह और आत्मा का रोम-रोम खुल गया था। वे फाटक के बिल्कुल पास पहुँचे। लकड़ी की पतली फट्टियों से बना छोटा-सा फाटक। अपनी छोटी मूँठ वाली काले रंग की छड़ी से फाटक को ठकठकाया। ........थोड़ी देर प्रतीक्षा करते रहे। फिर आवाज़ दी। कोई प्रत्युत्तर नहीं मिला। वे बेचैन हो रहे थे। वह उमड़ती-घुमड़ती हूक, .......अँटकी हुई चीख बाहर आने को उद्धत हो रही थी। वे कॉटेज के पीछे की ओर गए। पर कहीं कोई नहीं था। कॉटेज बन्द पड़ा था। सुनसान था। काटेज को छोड़कर ऊपर की ओर आगे जाती सड़क के किनारे एक मोटे तने वाला सेमल का विशाल पेड़ था। बूढ़ा पेड़, जिसकी मोटी जड़ों की कई शाखाएँ बाहर निकल आयी थीं। खोड़रों वाला पेड़। इन खोड़रों में सुग्गों के घोंसले थे। वे वहीं, ......सेमल-वृक्ष के नीचे, उसकी बाहर निकल आई एक मोटी जड़ पर बैठ गए थे।

उन्होंने बीस साल पहले के इस सेमल को याद किया था। इतना बूढ़ा नहीं था यह उन दिनों। इसकी विशाल काया में खोड़र नहीं थे । पंछियों के घोंसले ज़रूर थे, पर ऊपर की डालों पर। अब भी होंगे। उन्हें पतली-छोटी चोंच, सुनहले सिर और नीले रंग के पंखों वाली थ्रश चिड़ियों का वह झुंड याद आया, जो इस सेमल पर रहता था। सुबह उनकी मीठी आवाज़ से नींद खुलती और वह टुशी को लेकर सामने के बरामदे में आ जाया करते थे। नन्हीं टुशी इनको देखकर ख़ूब ख़ुश होती। इक्के-दुक्के ग्रे हार्न बिल भी दिख जाया करते थे। पीली, कठोर और बड़ी चोंच वाले भूरे पक्षी। टुशी उन्हें देखकर डरती थी। वे सोच रहे थे, .......इन्हीं भूरे पक्षियों ने इस सेमल के तने को अपनी चोंच से खोखला किया होगा। पहले उन्होंने ही इस खोड़र को अपना घोंसला बनाया होगा। फिर वे कहीं चले गए होंगे, तब सुग्गों को ये खोड़र मिले होंगे रहने के लिए। घोंसले आसानी से नहीं बसते। उन्होंने भी तो बया की तरह राधिका को रीझाने के लिए बहुत मुश्किलों से अपना घोंसला बनाया था। एक तिर्यक मुस्कान उभरी थी उनके होठों पर, जिसे उन्होंने अपने मन की आँखों से देखा और अपनी ही मुस्कान से आहत हुए।

वे सेमल-वृक्ष के नीचे बैठे पास से गुज़रती सड़क के पार उस कॉटेज के भीतर राधिका और टुशी को अपने मन की आँखों से तलाश रहे थे। सामने बिन्नी खड़ी थी। लगभग हाँफती हुई। तेज़ क़दमों से चढ़ाई वाली राह तय की थी उसने।

‘‘चाय नहीं पी आपने.......‘‘

‘‘तुम नींद में थी, ......सो चला आया।‘‘ उनकी आवाज़ कातर हो रही थी।

‘‘जोसेफ चाय रख गया था। ....मैं इंतज़ार करती रही। ठंडी हो गई होगी। ......चलिए।‘‘ बिन्नी के स्वर में शिकायत नहीं, ममता थी। वह उनके बिल्कुल पास आकर खड़ी हो गई थी। बिन्नी ने अपना दोनों हाथ उनकी ओर बढ़ाया था ताकि वे उसके सहारे उठ सकें। वे उठे। बिन्नी ने झुककर सेमल की जड़ों से टिकी छड़ी उठाई और उन्हें पकड़ा दी। वे दाएँ हाथ में छड़ी लिये चल रहे थे। बिन्नी उनसे सट कर चल रही थी, ....बायीं ओर। चलते हुए उन्होंने अपना बायाँ हाथ बिन्नी के काँधे पर रख दिया और बोले - ‘‘अच्छा किया तुमने कि यह छड़ी ले ली। ......चढ़ने में तो नहीं, पर उतरने में इसका साथ होना भरोसा दे रहा है।‘‘

बिन्नी पल भर के लिए रुकी। वे भी ठिठके। बिन्नी उनकी दायीं ओर आई और उसने उनके हाथ से छड़ी ले ली। वे पहले तो चौंके। ....फिर मुस्कुराए। उन्होंने अपना दायाँ हाथ बिन्नी के काँधे पर रखते हुए अपना पूरा भार उस पर डाल दिया था। पूछा था - ‘‘ख़ुश?‘‘

‘‘हूँऊँऊँऊँ.....!‘‘ बिन्नी ने अपनी बायीं बाँह उनकी कमर में लपेट दी थी। वह लाड़ कर रही थी और वे बिन्नी के लाड़ को सहेज रहे थे।

फर्लांग भर के रास्ते में बिन्नी ने मीलों का सफर तय किया। उसने उन्हें छड़ी वापस कर दी थी पर वे वैसे ही उसके काँधे पर सिर टिकाए चलते रहे थे। उतरती हुई ढालुई राह उन्हें होम स्टे वाले कॉटेज तक ले आई। बिन्नी ने दूसरी चाय का आर्डर दिया। फूलों की पतली क्यारियों वाले ढालुएँ लॉन में बैठकर दोनों ने चाय पी।

यह एक ख़ुशनुमा सुबह थी। सामने खड़े वृक्षों के पार से आकर धूप के छोटे-छोटे पाखी लॉन में फुदक रहे थे। हवा जब-जब डालियों-पत्तों को हिलाती-डुलाती ये धूप के पाखी फुदक उठते। उन्हें सुनहले सिर वाली नीले रंग की थ्रश चिड़िया दिखी थी, ....ठीक सामने, .....काले द्राक्ष जैसे गोल-गोल झब्बेदार फलों वाले एक छोटे-से वृक्ष पर। अभी टुशी होती ख़ुश हो जाती। ....पता नहीं अब टुशी को यह सब कितना याद होगा! यह चिड़िया याद भी होगी या नहीं!

क्रमश..