Ye kaisi raah - 3 books and stories free download online pdf in Hindi

ये कैसी राह - 3

भाग 3

सत्तू, भाई के बच्चों से बहुत लगाव रखता था। वो उन्हें घुमाता, कहानियां सुनाता, उनके साथ खेलता भी था। इस तरह अचानक चाचा के चले जाने से बच्चे बहुत परेशान थे। राम देव, कांता से बच्चे पूछते,

"पिताजी... मां …! चाचा कहां गए... ?"

उन्हें कान्ता और राम देव बहलाते,

"बेटा …! तुम्हारे चाचा जल्दी आ जायेंगे।"

रामू का मंझला बेटा जो चाचा से ज़्यादा हिला मिला था अक्सर याद कर रोने लगता । वो बाकी दोनों भाइयों की तरह मां पिताजी की बात पर यकीन नहीं होता। उसे चुप कराने और समझाने के बीच अक्सर कान्ता की आंखों से भी आंसू बह निकलते।

इंतजार की घड़ियां बढ़ती गई और अब सत्तू के मिलने की आशा धुंधली पड़ने लगी। राम देव हर हफ्ते शहर बड़ी ही उम्मीद से उस दुकान पर जाकर पूछता। घर से जाते वक्त सब के मन में एक उम्मीद होती थी कि शायद आज कुछ पता लग सके। पर वहां पहुंच कर जब दुकानदार इनकार करता तो उम्मीद टूट जाती। आखिर रामू भी कब तक उम्मीद में शहर जाता? आने जाने में कभी किसी का साथ मिल जाता तो ठीक वरना पैदल चलते चलते हालत खराब हो जाती। सवारी गाड़ी अब की तरह हमेशा तो चलती नहीं थी। तांगे से जाता तो उसका किराया ही एक रुपया आते, एक रूपया जाते हुए खर्च हो जाता। जबकि वो बाहर सिर्फ पानी ही पीता। वो भी कही दिख जाने पर। आखिर कार रामू की हिम्मत ने साथ छोड़ दिया। उस ने भी हार मान ली,और शहर जाना बंद कर दिया।

रामू के तलाश बंद कर देने से माई के दिल में सत्तू के वापस मिलने की जोत बुझ गई।

फिर तो उन्हे जीवन से विरक्ति सी हो गई। अब ना तो रामू और कांता की किसी बात से उन्हे सरोकार था, ना ही उनके तीनो बच्चों से। वो बिलकुल कट सी गई घर परिवार से। खाना पीना बस नाम मात्र का होता था। वो भी बहुत चिरौरी बिनती करने पर।

माई इस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर पाई। बूढ़े शरीर में अपना कोई बल, कोई हिम्मत नही होता...। उसे तो अपनी औलाद का ही सहारा होता है। रामू तो परदेश में रहता था। सत्तू ही साथ रहता था, माई के।

उसका इस तरह जाना माई को तोड़ गया।

और फिर एक दिन आंखों में अपने लाडले बेटे से मिलने इंतजार ले कर माई ने अपना शरीर त्याग दिया और अनंत यात्रा पर चल पड़ी।

माई से इस तरह बिछुड़ने को ना तो राम देव तैयार था और ना ही कान्ता और बच्चे। पहले सत्तू का यूं अचानक बिना कुछ कहे घर छोड़ कर चले जाना। फिर माई का इस दुनिया से चले जाना। पूरा घर ही एक के बाद एक इस सदमे को झेल रहा था।

रामू के सिर पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी आ गई थी। समाज और बिरादरी में इज्जत बचाने के लिए तेरहवीं तो करनी ही थी। पर उसमे काम से कम दस हजार लगने ही थे। इस रकम की व्यवस्था कहां से हो ?

माई के बिछड़ने का दुख ऊपर से इतनी बड़ी रकम की व्यवस्था करना, रामू के लिए बहुत ही कड़ी परीक्षा थी। दाह संस्कार करने के बाद रामू ने चिंतित बैठा था। माई के जाने के दुख से ज्यादा उसे इस बात की छटपटाहट हो रही थी कि वो कैसे उनकी तेरहवीं करे…? सब कुछ कर्मकांड करना, सामान दान करना बहुत जरूरी था। उस सब के बिना माई की आत्मा तृप्त नहीं होगी। ना ही उसको मोक्ष मिलेगा।

रामू की परिस्थिति से पूरा गांव वाकिफ था। सब अपनी अपनी समझ से सलाह दे रहे थे। पर आर्थिक मदद के लिए कोई तैयार नहीं था। सभी को अपनी उधारी की रकम डूबने का भय था। आखिर रामू वापस कैसे करेगा…? अब तो खेती का भी सहारा ना के ही बराबर है। सत्तू घर छोड़ कर चला गया, माई स्वर्ग सिधार गई। रामू नौकरी पर चला जायेगा। फिर खेती कौन करेगा..? कांता या उसके तीन छोटे बच्चे..!

तभी गांव के ही दीनबंधु बाबू के पिता जी मसीहा बन कर सामने आए। भगवान ने जैसे उनको भरपूर धन दौलत दिया था, वैसे ही दयालु और दानी दिल भी बख्शा था। चहकौरी पर आए रामू के घर तो उसके चेहरे की गहरी उदासी देख उनकी अनुभवी नजर ये समझने में समय नहीं लगाई कि इस दिल की उदासी की वजह सिर्फ माई का स्वर्ग वासी होना नही है। माई के मुक्ति के लिए कुछ नहीं कर पाने की, बेटे का फर्ज नही निभा पाने की विवशता भी है। उनकी निगाहें सच को उदासी के आवरण के बावजूद ताड़ गई। और उसका समाधान करने का फैसला भी कर लिया।

वो उल्टे पांव वापस घर लौट गए। फिर एक कपड़े में कुछ नोट लपेट कर के कर आए। उसे थैले को उन्होंने धीरे से रामू को पकड़ा दिया और कहा,

"बेटा…! तुम दुखी ना हो। किसके माता पिता जीवन भर साथ रहते हैं…? ये तो अच्छी बात है कि वो अपने बेटे के कंधे पर गई। तुम दिल की समझाओ और अपने आगे के कर्तव्य पूरे करो। तुम्हारी चिंता का समाधान इसमें हैं। इसे कर्ज या अहसान मत समझना। जब भी हो तुम्हारे पास आराम से लौटा देना। ना हो तो इसके लिए परेशान होने की भी जरूरत नहीं है।"

रामू के हाथों में थैला पकड़ा कर उसे समझा बुझा कर घर वापस आ गए।

अब रामू का दुख थोड़ा कम हो गया था। अब उसे तसल्ली थी कि वो माई की आत्मा की शांति के लिए सारे कर्म काण्ड विधि पूर्वक कर सकेगा। वरना उसकी आत्मा अतृप्त रह जायेगी इस सोच में वो जीवन भर तिल तिल जलता।

उन रूपयों से रामू ने माई की तेरही ठीक ठाक ढंग से की। जो जो लोका चारा था सब कुछ पंडित के बताए अनुसार पूरा किया।

सब कुछ बीत बिता जाने के बाद अब परिवार के प्रति भी जिम्मेदारी पूरी करनी थी। इसलिए तेरहवीं के बाद अब उसे नौकरी की याद आई। आए काफी समय हो चुका था और छुट्टियां तो कब की ख़त्म हो गई थी। वो जाने को तैयार हो गया।

आखिर रोजी रोटी भी तो जरूरी था। कब तक कोई किसी का शोक मना सकता है….? चाहे कोई कितना भी अपना हो, चाहे जितना भी प्यारा हो। इंसान की मजबूरी होती है। वो जाने वाले के साथ जा नहीं सकता। एक सीमा तक ही शोक मना सकता है, एक सीमा तक ही अपने सारे काम रोक सकता है। पुनः उसे अपने कर्तव्यों को पूरा करने के लिए जीवन में आगे बढ़ना ही पड़ता है। ऐसी ही परिस्थिति का सामना रामू और उसका परिवार भी कर रहा था। रामू और उसके परिवार को भी आगे बढ़ाना ही था।

कान्ता ने जाने की सारी तैयारियां कर दी। ज्यादा कपड़े तो थे नहीं, जो भी थे उन्हें धुल के, सुखा के झोले में रख दिया रास्ते में खाने के लिए पूरी और अचार के साथ ही कुछ सूखा नाश्ता और जौ चना का सत्तू भी तैयार कर के दे दिया।

तड़के ही ट्रेन थी कांता ने भोजन बना कर बच्चों से कहा,

"जाओ.. बेटा…! अपने बाबू जी को बुला लाओ। खाना खा लें।"

रामू आया और खाना खाने बैठा। तीन महीने से घर पर था। अब जब वापस ड्यूटी पर जाना था तो उसे पत्नी बच्चो को छोड़ कर जाना अच्छा नही लग रहा था। अभी तक तो वो माई और सत्तू के भरोसे बीवी बच्चे को छोड़ कर जाता था। पर अब तो दोनो ही सहारा छिन गया था। ना ही खाने का मन कर रहा था। पर नही खाता तो कांता दुखी होती। इस लिए कांता का मन रखने के लिए उसने दो रोटी किसी तरह खा ली।

बरसात का मौसम था और कीड़े उड़ रहे थे किसी तरीके लालटेन दूर रखकर भोजन किया और फिर उठ कर हाथ मुंह धोने बाहर जाने लगा। जैसे ही दरवाजे के पास पहुंचा अचानक से ही उड़ता हुआ एक कीड़ा आया और रामू की आंख में चला गया। रामू अपनी आंखे मसलने लगा। मसलने से आंखे बंद हो गईं। उसे रास्ते में जमा बरसात का पानी नहीं दिखा। रामू का पैर उस पानी में फिसल गया। गिराए ही वो दर्द से कराह उठा।

पति की दर्द भरी चीख सुन कर कांता दौड़ी हुई बाहर आई। बच्चों से पानी लेकर आने को कहा। और पति राम देव से मुंह धुलने को बोला। राम देव ने छींटे मारकर मुंह धुला और चारपाई पर लेट गया। आंख से कीड़ा तो निकल गया। फिर थोड़ी देर बाद आंख ठीक हो गया। पर पैर थोड़ी ही देर में सूज आया।

कांता ने हल्दी, चूना सरसों के तेल में पका कर बांधा। परंतु उससे कोई आराम ना मिला। दर्द से कराहते हुए रात बिताने लगी। अब सुबह कैसे जाएगा ? इसी दुविधा में पूरी रात बीत गई।