Mann Ki Baat - 3 books and stories free download online pdf in Hindi

मन की बात - 3 - मेरे भैया

सावन का महीना था। दोपहर के 3:00 बजे थे। रिमझिम शुरू होने से मौसम सुहावना पर बाजार सुनसान हो गया था।

एक साइबर कैफे में काम करने वाले तीनों युवक चाय मंगा पर चुस्कियां ले रहे थे। अंदर केबिन में एक-दो बच्चे वीडियो गेम खेलने में मस्त थे तथा कुछ किशोर दोपहर की वीरानगी का लाभ उठाकर मनपसंद साइट खोल कर बैठे थे। तभी वहां एक महिला ने प्रवेश किया। युवक महिला को देखकर चौंक उठे क्योंकि शायद बहुत दिनों बाद एक महिला और वह भी दोपहर के समय उनके कैफे पर आई थी। वे व्यस्त होने का नाटक करने लगे और तितर-बितर हो गए।

महिला किसी सभ्रांत घराने की लगती थी। चाल और वेशभूषा से पढ़ी-लिखी भी दिख रही थी। छाता एक ओर रखकर उसने अपने बालों को जो कि वर्षा की बूंदो व तेज हवाओं से बिखर गए थे, कुछ ठीक किया तथा काउंटर पर बैठे लड़के से बोली, “मुझे एक संदेश टाइप करवाना है। काम बहुत जरूरी है। मैं खुद कर लेती परंतु मेरे घर में इंटरनेट की व्यवस्था नहीं है इसलिए मुझे यहां आना पड़ा।”

“आप मुझे लिखवाएंगी या खुद………।”

“हां मैं बोलती जाऊंगी और तुम टाइप करते जाना। कर पाओगे? हिंदी में है? शुद्ध वर्तनी का ज्ञान है तुम्हें?”

लड़का थोड़ा सकपका गया पर हिम्मत करके बोला, “अवश्य कर दूंगा।” शायद मना करने से उसकी आत्म-सम्मान को ठेस पहुंचने की आशंका थी।

महिला ने बोलना शुरु किया,” लिखो, मेरे भैया शायद मेरी ओर से यह अंतिम पत्र होगा क्योंकि अब मुझ में इतना सब्र नहीं बचा है कि मैं भविष्य में भी ऐसा करती रहूं। नहीं, तुम गलत समझ रहे हो। मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं क्योंकि शिकायत करने का हक तुम वर्षों पूर्व ही खत्म कर चुके हो।” इतना बोल कर वह महिला थोड़ी रुक गई। भावावेश से उसका चेहरा तमतमाने लगा।

उसने कहा, “थोड़ा पानी मिलेगा।” लड़के ने कहा, “जरूर!” और एक बोतल लाकर उस महिला को थमा दी। लड़के को बड़ी उत्सुकता थी कि महिला आगे क्या बोलेगी। उसे यह पत्र बड़ा रहस्यमयी लगने लगा था। महिला ने थोड़ा पानी पिया। पसीना पोंछा तथा फिर से लिखवाना शुरू किया, “कितना खुशहाल परिवार था हमारा। हम पांच भाई-बहनों में तुम सबसे बड़े थे और मां के लाडले तो शुरू से ही थे। तभी तो पापा की साधारण कमाई के बावजूद तुम्हे उच्च शिक्षा के लिए शहर भेज दिया गया। पापा की इच्छा के विरुद्ध जाकर मां ने तुम्हारी यह इच्छा पूरी की थी।. तुम भी वह बात नहीं भूले होगे कि मां ने अपनी बात मनवाने के लिए दो दिन तक खाना भी नहीं खाया था।

जब तुम्हारा दाखिला मेडिकल कॉलेज में हो गया तो मैंने मेरी सारी सखियों को चिल्ला-चिल्ला कर इसके बारे में बताया था और मुझे उनकी ईर्ष्या का शिकार भी होना पड़ा था। एक ने तो चिढ़कर यह भी कह दिया था, “तुम तो ऐसे खुश हो रही हो जैसे तुम्हारा ही दाखिला हुआ हो।”

जिसका उत्तर मैंने दिया था,मेरा हो या भैया का, क्या फरक पड़ता है? दोनों एक ही हैं।”

पर अब महसूस होगे है कि मैंने गलत कहा था। तुम हॉस्टल चले गए थेऔर जब -जब आते थे, मैं और मां सपनों के सुनहरे संसार में खो जाते थे।

मां सपने में देखती थी- तुम एक क्लीनिक में बैठे हो और तुम्हारे सामने मरीजों की लंबी लाइन है। तुम एक-एक करके सब को परामर्श देते हो और बदले में तुम्हे एक अच्छी खासी राशि मिलती है। शाम तक रुपयों से दराज भर जाती है और तुम वह सब ला कर मां की झोली भर देते हो। तुम बातें ही ऐसी करते थे,मां सपने ना देखती तो क्या करती?

और मैं देखती कि मैं दुल्हन के वेश में हूं और एक बहुत ही उच्च घराने से सुंदर, सुशिक्षित वर मुझे ब्याहने आया है। तुम अपने हाथों से मेरी डोली सजा रहे हो और विदाई के वक्त फूट-फूट कर रो रहे हो।

पिताजी हम को अक्सर सपनों से जगाने की कोशिश करते थे पर हम मां बेटी नींद से उठकर आंखें खोलना ही नहीं चाहती थीं, तुम अपनी मीठी-मीठी बातों से ठंडी हवा के झोंके जो देते रहते थे। मां ने साथ-साथ तुम्हारी शादी के सपने भी देखने शुरू कर दिए थे।

उन्हें एक सुंदर-सजीली दुल्हन, आंखों में लाज लिए घर में प्रवेश करते हुए नजर आती थी। मां का पद ऊंचा उठकर सास का हो जाता था और घर उपहारों से उफनता सा नजर आता था। हॉस्टल से आते-जाते मां तुम्हें तरह-तरह के पकवान बना कर खिलाती और बांध कर भी देती थी। पता नहीं यह सब करते समय मां म में कहां से हिम्मत व ताकत आ जाती थी वरना तो सिर दर्द की शिकायत से पूरे घर को वश में किए रखती थी।

सपने पूरे होने का समय आ गया था। तुमने अपनी डिग्री हासिल कर ली थी होस्टल छोड़ कर घर आने की तैयारी कर ही रहे थे कि अचानक से तुम्हें एक प्रस्ताव मिला। प्रस्ताव एक सहपाठिन के पिता की ओर से था- विवाह का। तुमने मां को बताया और मां को अपने सपने दूनी गति से पूरे होते नजर आने लगे। माँ सहर्ष हामी भर दी। मैं आज तक नहीं समझ पाई की मां ने स्वयं को इतनी भाग्यवान कैसे समझ लिया था? इठलाती-इतराती सी माँ घर-घर में समाचार देने लगी थी कि डॉक्टर बहू आएगी हमारे घर।

तुम्हारा विवाह हो गया। अब सब को मेरी विवाह की चिंता सताने लगी थी। मां बहुत खुश थी। मां ने जो थोड़े बहुत गहने मेरे लिए बनवाए थे उनको दिखाते हुए तुमसे कहा, “बेटा इतना तो मेरे पास है। कुछ नगद भी है। कोई अच्छा वर तलाश कर बाकी इंतजाम भी हो जाएगा। अब तो तूं यहीं रहेगा तो क्या चिंता है?। समाज में मान प्रतिष्ठा भी बढ़ेगी तथा आर्थिक समृद्धि भी आएगी।

सब कुछ ठीक चल रहा था कि एक दिन भाभी ने घोषणा कर दी, “अभी यहां क्लीनिक खोलने से कोई लाभ नहीं है। इतना पैसा तो है नहीं आप लोगों के पास की सारी मशीने ला सके इसलिए नौकरी करना ही ठीक रहेगा। मेरे पिताजी ने हम दोनों के लिए सरकारी नौकरी देख ली है। हमें वही जाना पड़ेगा और तुम चले गए थे। उसके बाद तुम जब भी आते, तुम्हारे साथ-साथ भाभी की फरमाइशों व शिकायतों का पुलिंदा भी आता था। पर पापा की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि वह तुम्हारी सभी इच्छाएं पूरी कर पाते। उन्हें अन्य भाई-बहनों की भी चिंता थी। भैया मैंने उन दिनों तुम्हारे चेहरे पर परेशानी व विवशता दोनों का संगम देखा था। तुम्हारी वह स्वप्नीली आंखें, वह मुस्कुराहट, न जाने कहां गायब हो गई थी। हर वक्त तनाव और चिड़चिड़ाहट ने तुम्हारे चारों ओर घेरा बना लिया था। भाभी को माँ गंवार, मैं बोझ और पापा तानाशाह नजर आने लगे थे। तुमने बहुत कोशिश की कि मां कुछ ऐसा करती रहे कि भाभी संतुष्ट रहे परंतु ना माँ में इतना सामर्थ्य था, ना भाभी में सहनशक्ति। धीरे-धीरे तुम भी हमें भाभी की निगाहों से देखने लगे थे। इसमें कुछ तुम्हारी मजबूरी थी कुछ तुम्हारा स्वार्थ ।

एक दिन तुम ने मां से कहा, “मां मुझे दोनों में से एक को चुनना होगा। आप सब या मेरा निजी जीवन। माँ ने भी इसमें अपना ममत्व दिखाया और तुम्हें अपने बंधन से मुक्त कर के भाभी के सुपुर्द कर दिया था ताकि तुम्हारा वैवाहिक जीवन सुखमय बन सके। उस दिन के बाद तुम यदाकदा ही घर आने लगे थे। और अपनी खातिर करवा कर लौट जाते थे।

पापा ने मेरा रिश्ता तय कर दिया था और शादी भी। इसे मेरा विश्वास कहो या नादानी मुझे लगता था कि यदि तुम मेरे लिए वर ढूंढते तो पापा से बेहतर होता। मैं कई दिनों तक तुम्हारा इंतजार करती रही थी। पर तुम्हारा सहयोग नहीं मिला। शादी के वक्त तुम आए परंतु सिर्फ एक मेहमान बनकर। सीधे-सादे पापा ने अपने बलबूते पर ही सभी भाई बहनों का विवाह कर दिया। उसके बाद तो तुमने घर में आना ही बंद कर दिया।

अब मैं भी पराई हो गई थी। जब भी मैं मां से मिलने जाती, मां की सूनी आंखों में तुम्हारे इंतजार के अलावा कुछ नजर नहीं आता था। मां मुझसे कहती, “एक बार भैया को फोन मिला कर पूछ तो सही कैसा है। वह घर क्यों नहीं आता? कहो ना उससे एक बार तो मिलने आए। वह हमसे तो बात करता नहीं तूं उससे बात करती रहना।” यह कहकर माँ रोने लग जाती थी। पापा पुरुष थे उन्हें रोना शोभा नहीं देता था परंतु मायूसी उनके चेहरे पर भी झलकती थी।मां के पास सब कुछ होते हुए भी जैसे कुछ नहीं था। तुम मां के लाडले जो चले गए थे मां को छोड़कर। पर माँ को अपना दोष कभी समझ में नहीं आया था। वह सोचती, “क्या मुझे उसको पढ़ने बाहर नहीं भेजना चाहिए था? या फिर मैंने उसका यह रिश्ता कर के ही गलती की? अंत में यही परिणाम निकलता कि सारा दोष मध्यम वर्गीय परिवार से संबंध रखना ही था। सिर्फ खर्चा ही खर्चा और कुछ ना मिलने की उम्मीद से यह सब हुआ था।


पापा ने तो आस छोड़ दी थी पर माँ को कौन समझाता? वह पापा से छिप-छिप कर अपनी टूटी-फूटी भाषा में चिट्ठी लिखकर पड़ोसियों के हाथ डलवाती रहती थी तथा उसकी चार-पांच चिट्ठियों का उत्तर भाभी की फटकार के रूप में आता था- हमें परेशान मत करो। चैन से जीने दो।

मां का अंतिम समय आ गया था। पर तुम नहीं आए। तुमसे मिलने की आस लिए माँ दुनिया छोड़कर चली गई और किसी ने तुम्हें भी खबर कर दी। तुम आए तो सही पर अंतिम संस्कार के वक्त नहीं क्योंकि शायद तुम्हें एहसास हो गया था कि अब मैं इसका हकदार नहीं हूं। मां सदा तुम्हारा इंतजार करती रही और मरते वक्त भी तुम्हारा हिस्सा मुझसे अलग रखवाकर गई है क्योंकि वह माँ थी और मैंने भी उसे मना नहीं किया क्योंकि मैं भी आखिर बहिन हूं । पर तुम ना बेटे बन सके,ना भाई।

भैया, क्या इंसान स्वार्थवश इतना कमजोर हो जाता है कि हर रिश्ते को बलि पर चढ़ा देता है? तुम ऐसे कब थे? यह कभी मत कहना कि यह सब भाभी की वजह से हुआ है। क्या तुममें इतना भी साहस नहीं था कि अपनी इच्छा से एक कदम भी चल पाते। यदि तुम्हारे जीवन में रिश्तों का बिल्कुल महत्व नहीं है तो मेरी राखी न मिलने पर विचलित क्यों हो जाते हो? भैया, सिर्फ राखी भेजने या बांधने से ही रक्षाबंधन का पर्व सार्थक नहीं होता है। इसके लिए दायित्व निभाने भी जरूरी होते हैं। भैया बस तुम मुझे सिर्फ एक बार बता दो कि यदि हम बहनें ना होतीं तो क्या तुम मम्मी-पापा को छोड़कर नहीं जाते? क्या तुम्हारे पलायन का कारण हम तीन बहने ही थीं? हम तुम्हें कैसे विश्वास दिलातीं कि हम तुमसे कभी कुछ नहीं मांगेंगीं। तुम अपनी विवशता कहते तो सही। खैर अब वक्त बीत गया है। हो करे तो इस पत्र को मेरी अंतिम निशानी समझ कर संभाल कर रख लेना।

पत्र लिखवाती-लिखवाती व महिला उत्तेजना व शोक वश कांपने लगी। परंतु उसकी आंखों से आंसू नहीं निकले। शायद वह सूख चुके थे। पर टाइप करने वाले लड़के की आंखें नम हो गई थीं।

काम पूरा हो गया था। उस महिला ने लड़के से कहा, “तुम इसकी एक प्रतिलिपि निकाल कर मुझे दे दो ताकि मैं यह संदेश मेरे भैया तक पहुंचा सकूं। तुम जानते हो आज पच्चीस वर्षों बाद मैं यह सब लिखने का साहस कर सकी हूं। मैं सदा छोटी बहन बन कर ही रही। हां एक कष्ट और दूंगी तुम्हें। तुम इस संदेश को ऐसे ब्लॉग में डाल दो जहां इसे अधिकाधिक लोग पढ़ सकें। हो सकता है दुनिया में ऐसी और भी बेटे हो जिनमें आत्म-निर्णय और आत्म-सम्मान की कमी हो, उनको इस पत्र के कुछ लाभ हो जाएगा। मैं यह संदेश मेरी मां को अंतिम श्रद्धांजलि के रूप में देना चाहती हूं ताकि जो दुख में अपने सीने में दबाए हुए इस दुनिया से विदा हो गई उससे उसे कुछ राहत मिल सके।

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