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केसरिया बालम - 14

केसरिया बालम

डॉ. हंसा दीप

14

अहं से आह तक

धीर-धीरे काम कम होता गया, पैसे भी खत्म होते गए। किसी ने सूचित किया कि बाली के पीछे कुछ लोग पड़े हैं जो अपना पैसा वापस चाहते हैं। जिसके तनाव में वह ऐसे काम करने लगा जो उसे नहीं करना चाहिए। पीता तो पहले भी था पर सिर्फ खुशी में। अब जब पीता था तो कमजोरियों को छुपाने के लिये जो पीने के बाद और अधिक सामने आ जाती थीं। पीने के बाद भी जीवन की मजबूरियाँ कहाँ पीछा छोड़ती हैं। वे और अधिक उकसाती हैं। इंसान को लगता है कि वह अपना गम भूलने के लिये पीता है पर सच तो यह है कि पीकर वह अपने गम को और ज्यादा याद करता है।

धानी को अब यकीन होने लगा था कि वह कृष्ण पक्ष के अंधेरों से बाहर ही नही निकल पा रही है। कब तक उस हौसले की उजास बनाए रखे जो प्रयास करते-करते उसे और गहरे अंधेरे में धकेल जाती है। कभी-कभी उसका मन होता कि इस बिस्तर पर अनमने पड़े-पड़े, खिड़की से बाहर के आकाश की कालिमा को ताकते, इन थक चुकी आँखों को हमेशा के लिये बंद कर ले। पर आर्या की छाया उसके सामने खड़ी हो जाती। बाली का प्यारा अतीत उसे वहीं थाम लेता। जैसे-तैसे वह रात खुली आँखों से कटती तो अगली रात फिर वही मंजर और गहराता, भीतर तक घुसता चला आता।

इच्छा होती थी कि वह सोए हुए बाली को उठाए, उससे बहस करे, चीखे चिल्लाए, रोये। उसके इस दर्द से पिघलकर कुछ तो कहे बाली। बर्फ की बड़ी सी चट्टान भी जरा-सी आँच से कोर-कोर पिघलने लगती है। धानी की मनोदशा से वह इस कदर बेखबर है कि प्यार का कोई अहसास उसे अब समझ में नहीं आता। बंजर होते जा रहे हृदय के हर कोने से निकलती पुकार से बेखबर क्यों है वह। पत्थर हो गया है वह, नुकीला पत्थर जो धानी को आहत करता है।

पर फिर भी धानी चुप रह जाती। बाली के मनमानी करने के लिये कुल तीन प्राणी थे घर में, वह स्वयं, पत्नी धानी और बेटी आर्या। बेटी से वह जी-जान से अधिक प्यार करता था। पत्नी से भी करता था पर उसके सामने छोटा महसूस करता। हारी हुई मनोग्रंथि की जकड़न में छटपटाता अपनी दमित इच्छाओं को बाहर निकालता। पुरुष का दंभ उसमें यह उन्माद पैदा करता कि वह सब कुछ कर सकता है। वही उन्मादी आवेग रात के अंधेरे में जब धानी पर धावा बोलता तो वह ऐसी हो जाती जैसे किसी ने एक ही बार में उसे निचोड़ कर रख दिया हो। हमले के बाद जैसे किसी हारे हुए सेनापति की दुर्गति होती होगी वैसे ही वह महसूस करती। उस जंग में हार झेलते, उसकी देह लकड़ी-सी होती जा रही थी।

उस नोच-खसोट में, उस रात के सन्नाटे को चीरते हुए जब पत्नी की धीमी-धीमी कराहें सुनाई देतीं तो शायद उसे संतोष मिलता होगा कि वह अकेला ही परेशान नहीं है कोई और भी है उसके साथ। लेकिन उसका प्यार झिंझोड़ता उसे। धानी की आहें सुनकर अंदर कहीं दर्द भी होता उसे। अपने किए पर पछतावा होता। लेकिन सुबह धानी को तत्परता से काम करते देख कर अंदर कहीं सुकून मिलता कि “धानी बिल्कुल ठीक है, उसे कोई दर्द नहीं है।”

बाली और धानी दोनों इसी जीवन को जीते रहे। आर्या बिटिया के लिये सब कुछ खुशनुमा था। वह अब किशोरावस्था में प्रवेश कर चुकी थी। बिटिया के लिये ममा-पापा दोनों का अथाह प्यार था। वहाँ किसी की ओर से कोई कोताही नहीं होती। आर्या जो कहती, बाली अवश्य करता। उसकी हर फरमाईश को पूरी करता। उसके साथ बैठकर चेस खेलता, बैडमिंटन भी खेलता। आर्या को कभी किसी बात के लिये मना नहीं करता था।

पापा की कई चुलबुली आदतें बिटिया के अंदर भी वैसी की वैसी थीं। जरा-सी भी देर होते ही तुंरत हल्ला मचाना शुरू कर देती – “ममा खाना, खाना-खाना। भूख लगी, ममा खाना दो।”

प्लेट में चम्मच के टकोरे बजाती रहती आर्या। इतनी जोर से कि कानों को चुभने लग जाए।

“ला रही बाबा, पाँच मिनट।”

“पाँच मिनट! मैं भूख से मर रही हूँ, ममा, खाना, खाना।”

उस गूँजती हुई आवाज से फटाफट खाना लग जाता। तब बाली फोन में उलझा रहता। एक समय था जब वह भी जोर-जोर से चम्मच से प्लेट बजाता था। धानी नहीं सुनती तो किचन में आकर उसके कान में बजाता – “खाना-खाना-खाना”

“खाना आ रहा है, बैठो तो जाकर।”

बाली हटता नहीं वहाँ से, और नजदीक आकर लगातार बजाता रहता – “खाना-खाना-खाना, खाने के साथ कुछ और भी खाना।”

और तब धानी उसे धकेल कर खाना लगाती टेबल पर। जब तक धानी आकर बैठ नहीं जाती उसके पास, वह खाना खाना शुरू नहीं करता था। अब आर्या को वैसे ही प्लेट बजाते देखकर ये बातें बाली को याद क्यों नहीं आतीं? उसी का बनाया हुआ वह सिस्टम उसी की मेमोरी से चला गया था। ये सारी बातें धानी को ही क्यों याद आती हैं, बाली को क्यों नहीं?

बीतते दिनों के साथ बाली के हाथ से सब कुछ फिसलता जा रहा था, रेत की तरह। अपने धंधे को आगे बढ़ाने के लिये उठाए गए खतरे बर्बादी की ओर ले जाते रहे। उसकी आँखों को वे रास्ते ही दिखते जहाँ से नफ़ा चार गुना तो नुकसान भी चार गुना। महत्वाकांक्षाओं की दौड़ में बहुत कुछ पीछे छूट रहा था। जीवन को लील जाने वाली दौड़ थी यह। बेटी आर्या के साथ समय बिताने के अलावा उसे सिर्फ अपना काम ही दिखाई देता।

धानी की उन्नति के आगे अपना हुनर दिखाने की होड़ ऐसी लगी कि धानी का काम नहीं उसके व्यक्तित्व से भी जलन होती। दिखती सुंदर है, लगती सुंदर है! दिल जीतने में माहिर है! वह कहीं उससे पीछे रह गया है, बहुत पीछे। वह आगे और आगे बढ़ती जा रही है। इतना लायक वह नहीं जितनी लायक धानी है। पति की असफलता और पत्नी की सफलता आपस में टकरा रही थीं, बगैर किसी आवाज के।

वह भी राजस्थान का एक होशियार लड़का था, उस पर धानी का पति। धानी की अच्छाइयाँ चुभती रहतीं। अलगाव की परतों पर परतें जमती रहतीं। धानी कैसे जान पाती कि बाली से उसके प्यारे से रिश्ते के बीच उसका बहुत अच्छा होना भी एक रुकावट है। न बताया जाए तो उसे पता भी कैसे चले कि ‘एक्स्ट्रा नाइस’ पत्नी की ‘एक्स्ट्रा अच्छाइयाँ’ पति को चुभने लगी थीं।

आर्या के जन्म के बाद बेकरी से सब लोग उसे देखने आए थे। कई तोहफे भी लाए थे। सब एक दूसरे को झप्पी दे रहे थे। खुशी का मौका था। ग्रेग ने जब कहा – “आप तो नयी माँ की तरह बिल्कुल नयी लड़की लग रही हैं।”

इज़ी ने जोड़ दिया था – “प्रसव के बाद की आभा है यह, सुंदर नवजात बेबी और सुंदर नयी ममा।”

उस दिन भी बाली गुमसुम-सा था, उसे पसंद नहीं आया था यह सब। शायद कहना चाहता था कि ये लोग, इनकी बातें, उसे अच्छे नहीं लगते। बहुत गुस्सा आता है जब वे इतने प्यार से धानी से बातें करते हैं। उसके दिमागी जालों में और कई जाले बनकर उसे और अधिक उलझाते जाते।

बेकरी का अधेड़ मालिक, अपनी नाक पर टिके चश्मे को उतार कर कितने प्यार से देखता है धानी को। वह भी खुश होकर उससे बातें करती है। अपनी नयी-नयी योजनाओं का जिक्र करते, हाथ फैलाती है, समझाती है। लंबी बातचीत के बाद ही तो उसकी सहमति लेती होगी। सहमति तो सिर्फ एक औपचारिकता ही होती होगी। जैसा वह कहती होगी, वैसा ही वह करता होगा। धानी की बात को कैसे टाला जा सकता था जिसने बेकरी की प्रगति के रास्ते खोलने में अहम भूमिका निभायी थी। और तब बाली की कल्पना में वह अधेड़ मालिक और धानी वह सब करते दिखते जो खुद बाली किया करता था। बुरी नज़र बुराइयों की फेहरिस्त खड़ी कर देती और बाली को अपने शिकंजे में कसती रहती।

रेयाज़ वापस बाँग्लादेश चला गया था वरना सबसे पहले उसी पर शक जाता। प्यार से नाचता-नचाता जो था। बेचारे को डिपोर्ट कर दिया गया था। गैरकानूनी तरीके से घुसा था अमेरिका में, एक दिन कागज मिला कि एक सप्ताह के भीतर देश छोड़ना होगा। जाते हुए बहुत रोया था – “अपने सारे सपने अधूरे छोड़ कर जा रहा हूँ, धानी। अब शायद कभी आप लोगों से नहीं मिल पाऊँगा।”

यह पहला मौका था जब बेकरी के साथियों ने उसकी आँखों में आँसू देखे थे, वह तो सबके आँसू पोंछने का आदी था, सबके होठों पर मुस्कान वही लाता था। उसके आँसुओं के रेले सबकी आँखें भिगो गए थे।

“सब कुछ ठीक होगा रेयाज़, हिम्मत रखो। तुम बहुत याद आओगे।”

और उसे सबने भारी मन से विदा किया था। उस दिन के बाद से बेकरी में नाचना-नचाना लगभग बंद ही हो गया था।

फिलीपीनो ग्रेग बाली को बहुत खटकता था। नाटा-सा, सुडौल शरीर वाला ग्रेग धानी के आगे-पीछे लगा रहता, अपने ऑर्डर की पर्चियाँ लेने के लिये। जल्दी-जल्दी डिलीवरी करके फिर से आ जाता उसके आसपास मँडराने के लिये। जब वह सबको कॉफी बनाकर पिलाता है तब धानी कितने प्यार से उसे देखती है और गरम-गरम कॉफी की चुस्कियों के साथ वे बैठकर ठहाके लगाते हैं। तब ग्रेग और धानी कितनी देर तक हँसते होंगे, कितनी देर तक बातें करते होंगे, क्या-क्या बातें करते होंगे। कई बार हाई-फाइव करते हुए तो बाली ने भी देखा है उन्हें। ऐसा तमाम कचरा दिमाग में उड़-उड़ कर आता और गंदगी फैला कर चला जाता।

सफाई करने वाला लीटो नया था बेकरी में। वह तो बाली को फूटी आँखों न सुहाता। उसका सुगठित शरीर देखकर ही बाली जल उठता। हर भारी सामान को इधर से उधर करने के लिये तत्पर। धानी का बायाँ हाथ। जो लोग धानी को देखकर जिस तरह से खुश होते, उसका स्वागत करते वे चेहरे बाली के दिमाग में घुस जाते। उन सबके चेहरों पर धानी को देखते ही जो बड़ी-सी मुस्कान छा जाती उससे बाली के मन में टीस उठती। आते-जाते, छोड़ते-वापस ले जाते हुए कई बार देखा था, धानी के लिये उन लोगों का स्नेहिल स्वागत-सम्मान।

ऐसे अड़ंग-बड़ंग विचारों के बीच बाली का मस्तिष्क संघर्ष करता रहता। उसे बेकरी के मालिक, ग्रेग, लीटो सबके साथ धानी दिखाई देती, बस उसके खुद के साथ न दिखती। अपने साथ तो अब बिल्कुल भी नहीं दिखाई देती।

जैसे-जैसे समय आगे बढ़ता रहा उसका गुस्सा, तनाव, हताशा व्यवहार में भी नज़र आने लगे। आज उसकी इस हताशा में एक और कड़ी जुड़ गयी क्योंकि उसे धानी की कार बेचनी पड़ी थी। वही कार जो उसने बड़े प्यार से धानी के अमेरिका आने के बाद उसके पहले जन्मदिन के तोहफे के रूप में दी थी।

जब कार लेने गए थे तो धानी ने बरबस ही कह दिया था – “इतना कीमती तोहफा!”

“कीमती तुम हो, तोहफा नहीं”

“पर मुझे तो कार चलाना नहीं आता”

“पता है”

“न ही लाइसेंस है मेरे पास”

“अब रोज चलाना सीखोगी और लाइसेंस भी लोगी। लिखित परीक्षा के लिए बुक कर दिया है तुम्हें।”

और वह रोज उस नयी कार से उसे ड्राइविंग लेसन देने लगा। शुरू में गंभीरता से सिखाता, डाँट भी लगाता कि “सामने देखो, साइनबोर्ड को देखो, ध्यान कहाँ है तुम्हारा।”

“सामने तो देख रही हूँ, तुम्हें तो देख नहीं रही।”

फिर उसकी शरारतें शुरू हो जातीं। स्टियरिंग पकड़वाता उसका एक हाथ, और दूसरा धीरे-धीरे उसके बहुत नजदीक तक पहुँच जाता।

तब वह कहती – “हो गया आज का लेसन। अब घर चलो।”

“नहीं, आज कार में, कार का टैक्स भी तो देना पड़ेगा” धानी आँखें तरेर देती तो वह घर की ओर मोड़ लेता।

वही कार जिसके साथ कई प्यारे पल जुड़े थे, बेच दी गयी थी। धानी को इसका कोई मलाल नहीं था। होता भी कैसे, जब अपने ही अपने नहीं रहे तो इन बेजान चीजों से कैसा लगाव। हालाँकि वह ये भी जानती थी कि यह झटका बाली को और अधिक परेशान करेगा।

क्रमश...