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’’कठघरे’’ इतिहास का प्रतिफलन और जिजीविषा का संकट

’’कठघरे’’ इतिहास का प्रतिफलन और जिजीविषा का संकट

’’अगर आप इतिहास और भूख की सापेक्षता में आदमी की नैतिकता का विवेचन करें तो चौंकाने वाले नतीजों पर पहुँचेगे।- ’’कठघरे’’

वह इतिहास जिससे कुछ नियम निकलते है, जिसके प्रकाश में हम अपने वर्तमान को समझ सकते हैं। हमारा वर्तमान हमारे इतिहास का प्रतिफलन है।- ’’कठघरे’’

अपनी नियति में अंततः हम अकेले होते हैं। उस हाल में हमारे पास सिर्फ हमारी आत्मा होती है।- ’’कठघरे’’

कहानियों की तरह वल्लभ सिद्धार्थ का उपन्यास ’’कठघरे’’ भी रचनात्मक पूर्णता की चाह में अनेक प्रारूपों और परिवर्तनों से गुजरा है। उन्होंने इस पर दस वर्षो से अधिक तक काम किया है। यह उनकी लेखकीय गंभीरता और दायित्व चेतना तथा लेखन की प्रयोजनशीलता का परिचायक है। वल्लभ सिद्धार्थ अपनी वैचारिकता के तहत कुछ तात्त्विक प्रश्नों के माध्यम से मान्यताओं की प्रतिबद्धता तक पहुँचते है। इसके अलावा वह अपने समय की जटिलता का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में विमर्श भी करते हैं। उपन्यास ऐसे विमर्श या विवेचन के लिये कहानी की अपेक्षा बेहतर माध्यम है। फिर भी वल्लभ औपन्यासिक विस्तार में नहीं जाते। उनकी यह विशेषता है कि इतिहास के विस्तार को वह सूत्रात्मक संक्षिप्ति में कह लेते हैं।उनकी रचना-प्रक्रिया आसवन (डिस्टीलेशन) की प्रक्रिया की तरह हैं जिसमें बूँद-बूँद थिर कर सत्त्व की तरह एकत्र होती है जो उपभुक्त सारी सामग्री का सारांश होता है।

अपनी कृति के बारे में लेखक का वक्तव्य सबसे अधिक प्रामाणिक माना जा सकता है। उससे कम से कम लेखक की दृष्टि और उसके रचना-सरोकारों का पता तो चलता है। इस उपन्यास के बारे में वल्लभ ने गोविन्द मिश्र को एक पत्र में लिखा है कि ‘मैं उसमें एक साथ कई चीजें ला रहा हूँ। इसलिये इतने वर्षो तक जुटे रहकर श्रम किया है। इतिहास का आयाम, समय की क्राइसिस और अपनी समझ में उसके समाधान।’ इतिहास को विगत चेतना अथवा व्यतीत घटनाओं का निरपेक्ष कालखण्ड न मानते हुए वल्लभ उस इतिहास दृष्टि का साथ देते हैं जिसमें इतिहास अपनी पूर्वापरता में निरन्तर माना जाता है। वह अचानक या अतर्क्य नहीं होता। हमारा वर्तमान हमारे इतिहास अथवा अतीत का प्रतिफलन होता है। इन दोनों में प्रेरकता और सकारणता के सूत्र रहते हैं।

जब वल्लभ सिद्धार्थ ’’कठघरे’’ में इतिहास के नियमों के प्रकाश में वर्तमान को समझने की बात करते हैं तो वह इतिहास को संदर्भ में रखते हैं और अपने समय को प्रस्तुत के रूप में। उपन्यास का वर्तमान है मूल्यहीनता, भ्रष्टाचार, भूख और शोषण के बीच अधेड़ भीमसिंह (काका जी) जो आज़ादी की लड़ाई में दोनों पैर खोकर बैसाखियों पर टँगा है और अपनी इसी असमर्थता में अविवाहित रह गया है। वह तीस साल से स्वतंत्रता सेनानी की अपनी पेंशन के लिये असफल कोशिश कर रहा हे जबकि अंग्रेजों के पिटठू रहे और चोर बाजारी में जेल गये राय साहब स्वतंत्रता सेनानी की फर्जी पेंशन ले रहे हैं। उस पर तकाबी की झूठी रिकवरी निकाल दी गयी है जिसके मुकदमे में वह कभी भी जेल जा सकता है।

भूख अपनी भीषणता और कुरूपता के साथ उसके और उसकी परित्यक्ता भतीजी तथा उसके तीन बच्चों के सामने चुनौती बन कर खड़ी है। थोड़ी सी खेती की जमीन सूखे के कारण बेकार पड़ी है। न्याय पाने की उसकी कोशिश इस भ्रष्ट तंत्र में व्यर्थ साबित होती है। व्यवस्था के विरोध में कुछ न कर पाने की हताशा और मारक होती है पर जीवेष्णा है कि वह अब आदर्श से अधिक हर चीज के व्यावहारिक पहलू को जरूरी मानता है। उसे समय ने इस हद तक अनुभव करा दिया है कि वह अपनी भतीजी नंदिनी को समझाता है कि अन्याय सहन करने की आदत डाल लेनी चाहिए। नंदिनी की अपनी यातना है। वह परित्यक्ता है और काकाजी पर निर्भर है जिनके पास स्वयं कोई जीविका नहीं है। उसके तीन बच्चे गरीबी और दयनीता के उदाहरण बने घूमते रहते हैं और उपनी उम्र से आगे की बातें जानने लगे हैं। नंदिनी का किराये के इस जर्जर घर में दयनीता और अभावों से ग्रस्त छोटा सा संसार है। उसका जीने का संघर्ष है, विद्रूप तरीका है। उसके रोज रोज के अपमान, त्रास और प्रताड़र्नाएँ और एक सिलसिलेवार अंधी नियति है। बिना खिड़कियों वाले कमरे में उसकी अंधी नियति कैद है। इस जीवन विहीनता में सिर्फ अनादि का प्यार और संघर्ष है जो उसे तृप्त करता है, पर वह भी पूरी तरह और हमेशा उसका नहीं।

, उधर अनादि की अपनी नियर्ति और यंत्रणा है। जीवन की जो राह उसने चुनी है उसकी भयावह यंत्रणाएँ उसे ही सहनी हैं। ‘चाहकर भी कोई हमारा सहभोक्ता नहीं हो सकता’। ‘अपनी नियति में अंततः हम अकेले होते हैें। उस हालत में हमारे पास सिर्फ हमारी आत्मा होती है।8

’’अधेड़’ एक व्यक्ति नहीं बल्कि दो भिन्न समयों के मूल्यों के टकराव का ऐसा प्रतिफलन है जिसके भीतर जीवेष्णा है लेकिन जीवनदायी स्थितियाँ नहीं, आदर्श हैं लेकिन बदले हुए सिक्कों की तरह उनका चलन नहीं। यह आजादी के बाद का हमारा वह वर्तमान है जो सर्वत्र अनिश्चय, आतंक, अंधकार, भ्रष्टाचार के इतिहास से उपजा है। अधेड़ का क्षोभ और रोष सिर्फ मूल्यों के द्वन्द्व का नहीं बल्कि इस बात का भी है कि जिन मूल्यों के इतिहास के रचयिताओं में वह भी रहा है वह इतनी जल्दी पराजित हो गया। अब वह अपना वर्तमान नहीं जी रहा है बल्कि अप्रासंगिक और निरर्थक अस्तित्व बोध की पीड़ा ढो रहा है। अतीत से वर्तमान में फेंकी गयी एक असमर्थ और हताश जीवेष्णा।

यह पात्र एक भयावह समय और उसकी घातक स्थितियों के बीच जीवित रहने का संघर्ष करता रहता है। कभी भावुकता भूलकर व्यावहारिक होकर, कभी कबीर के निर्गुणांे में जी हल्का कर, कभी श्रृंगार के पदों से ऐन्द्रियता को सहलाकर और कभी अपनी कामातृप्ति में अनादि से मँगाकर सेक्स की हॉट किताबें पढ़ कर। वल्लभ की चौबीसों घंटे सजग रचनाशीलता यहाँ भी कुछ न कुछ रचती है। अधेड़ जो भी पढ़ता या गाता है वे पंक्तियाँ उस समय चल रही स्थिति का सटीक भाष्य करती हैं, चाहे वह बन्द कमरे में नंदिनी और अनादि की गोपन स्थिति ही क्यों न हो।

इस बेहद जीवन्त प्रतीक व्यक्ति की डायरी में इतिहास की घटनाएँ, आदर्श, सपने, सूक्तियाँ उद्धरण दर्ज हैं। उसके सन्दूक में इश्तहारों, पर्चो, नारों और अखबारों की कतरनों के रूप में उसका और देश का महत्त्वपूर्ण समय बन्द है। यहाँ तक कि उसकी फौजी बुशशर्ट में भी उसके पिछले जीवन का कंसेप्ट निहित है।

इतिहास के इस बेताल के पास प्रश्न ही प्रश्न है जिन्हें वह पूरी व्यवस्था के सामने रखता रहता है। ऐसे प्रश्न जिनके समाधान दूर-दूर तक नहीं है। इतिहास का यह बैताल पुरूष, पोस्टमैन, चुनाव के प्रत्याशी सभी के कंधों पर चढ़कर पूछता है और कभी डायरी या पुराने अखबार से पढ़कर समय से पूछता है। वैसे प्रश्न से तो यह उपन्यास शुरू ही होता है। प्रश्न से ही नहीं, यक्ष प्रश्न से नचिकेता और यम के संदर्भ से। भ्रष्टाचार के खिलाफ जुलूस निकालने पर जेल में बंद अनादि पैरोल पर छूट कर आता है और सोचता है कि नचिकेता ने यम से क्यों नहीं पूंछा कि संसार में आदमी आदमी के बीच इतना अंतर, इतना अन्याय और इतनी बर्बरता क्यों है ? और हमें निरपराध दंडित क्यों होना पड़ता है ? ..तरह तरह के बेडौल बेशिनाख्त सवाल उसकी चेतना पर हथौड़े की तरह बज रहे हैं।

राजेन्द्र यादव ने ’’कठघरे’’ उपन्यास को पूरी सदी की चेतना की कथाकृति माना है। ’’अधेड़’’ की डायरी में 1929 के पूर्ण स्वराज्य की घोषणा से लेकर आधी शताबदी तक की प्रमुख घटनाएँ एक ’’कैप्सूल’’ की तरह अंकित है। यह आधी शताब्दी अपनी पूर्वपीठिका का आभास भी देती है और शताब्दी के शेष का अनुमान भी। अपनी उम्मीदों से टूटा और अपने वर्तमान में स्तब्ध, स्तंभित ’’अधेड़’’ खुद को ऐसे कोलाज में देखता है जिसमें वह कँटीले, बदबूदार कीचड़ में धँसे सुअर मानव की शक्ल में है अपनी खीसों पर अपने कर्तव्यों, आशाओं और कामनाओं से भरी अपने जीवन की चिथड़ा-चिथड़ा हुई गठरी को सँभाले। अपनी इस गर्हित भूमिका में अपनी सार्थकता और मुक्ति की तलाश करता हुआ। वल्लभ सिद्धार्थ ’कठघरे’ में अपने समय का क्राइसिस दिखाते समय अधिक मूर्त हैं, हालाँकि उनकी मूर्तता स्थूलता कभी नहीं होती। स्थूलता में चीजें भी अपनी आन्तरिकता से दूर होने लगती है और उनके पास खड़ी उपस्थितियां भी तटस्थता जैसी लगने लगती हैं।

भूख जब राजनीति के मंच से उछाला गया नारा नहीं होती अथवा दार्शनिक वायवीयता या अतीन्द्रियता नहीं होती तब वह हमारी जैविक अनिवार्यता के रूप में सारे संसार पर शासन करती है। तभी उसके नैतिक विचलन या अतिक्रमण समझ में आते हैं।

यहाँ पूरी निर्ममता से पसरी भूख है। बच्चों को दोनों समय रोटी नहीं मिलती। भूख का नैतिक विचलन यह है कि अधेड़ बच्चों की चिन्ता छोड़कर खुद खा लेता है जबकि बच्चों ने कल सुबह के बाद कुछ नहीं खाया। दुकानदार का उधार चुकता करने के लिये लड़की उसे काकाजी की अनुपस्थित मेें आने का झूठा लालच देकर टालती है। अस्तित्व के इसी संकट के कारण अधेड़ नैतिकता के भावुकतापूर्ण तकाज़ों के बदलीे परिस्थिति के तर्क पर भरोसा करने लगा है। भूख की सापेक्षता में नैतिकता का विवेचन भयानक शॉक देता है। अनादि और नंदिनी के संबंधों को अधेड़ इसीलिए स्वीकार किये है क्योंकि अनादि से उसे आर्थिक अपेक्षा रहती है हालाँकि वह यह भी जानता है कि नंदिनी अनादि को कहानी उपन्यास जैसा प्रेम करती है। वह क्षण बहुत ही करूण है जब रूपये न होने की स्थिति में अनादि अपने विवाह की अँगूठी नंदिनी को देने का प्रस्ताव करता है और नंदिनी उसकी उँगली से वह अँगूठी उतार लेती है क्योंकि काकाजी ने बाईस सौ बीस रूपयों के खर्च का पर्चा अनादि को देने के लिये दिया है।

अधेड़ को भी अपनी आत्मा पर से चल कर आना पड़ता है जब वह नंदिनी से कहता है कि अगर इस हालत में भी तुम अपनी भावुकता पर काबूू नहीं पा सकती तो....। जबकि तुम साफ साफ देख रही हो कि हमारे पास कोई विकल्प नहीं। जमाने की देनदारी सिर पर लटकती हुई रिकवरी की तलवार, भरने के लिये छोटे बड़े पाँच पेट और गाँठ में सिर्फ पन्द्रह रूपये।

यह वह दारूण क्षण है जब जीवित रहने के संकट के सामने नैतिकता ध्वस्त हो जाती है। ऐसा ही झटका तब लगता है जब अपने आदर्शो के साथ आज़ादी की लड़ाई का सैनिक चुनाव में हर प्रत्याशी से रूपये लेता है। यहाँ भी वह इतनी नैतिकता बचा लेता है कि वह वोट सही प्रत्याशी को ही देगा।

अधेड़ अच्छी तरह समझ गया है कि हम सब किसी न किसी रूप में दूसरों का शोषण या उपयोग करते है। मूल्यहीनता के इस दौर में आदमी आदमी के बीच रिश्तों का एक यही आधार रह गया है। जो भी अपनी आत्मा को मारना पसन्द नहीं करते उन्हें अधेड़ की तरह ही दोनों पैर गँवा कर भी कुछ नहीं मिलता। तरह-तरह से जिजीविषा का संघर्ष करता और अपने समय से लड़ता यह अधेड़ कभी कभी निराश हो जाता है लेकिन फिर उम्मीद जुटाता है। भ्रष्टाचार इतना मजबूत और संगठित कभी नहीं था। कभी-कभी लगता है कि मैं हारी हुई लड़ाई लड़ रहा हूँ....... फिर सोचता हूँ इसमें मैं अकेला नहीं हो सकता। बहुत से होगे जिन्हें मैं नहीं जानता।

‘कठघरे’ की दुनिया के एक गोलार्द्ध में अँधेरा है, भूख है, उसके निवासियों की अपनी अपनी त्रासदी है। इसके दूसरे गोलार्द्ध में परचून की दुकान वाला, मुहल्ले का दादा, मकान मालिक और चुनाव का प्रत्याशी है। यहाँ कोई संवेदना नहीं, कोई समस्या नहीं।

यों तो वल्लभ ने कठघरे के सभी पात्रों की ऐसी संरचनाएँ की हैं जिनमें नाभिकीय संक्रेन्द्रण भी है और उनका एक के बाद दूसरी परिधि बनाता विशद विस्तार भी है फिर भी उन्होंने अधेड़ की कल्पना करते समय बहुत विवेक और सन्तुलन से काम लिया है। वह इस बात से सचेत थे कि बयालीस के आन्दोलन की पृष्ठभूमि और अपनी खुद की प्रेम और सेक्स की अतृप्ति के साथ यह पात्र अपने वर्तमान के प्रति किस तरह रिएक्ट करे कि अनैतिक, अमानवीय या अतिचारी न लगे। वह सचमुच ऐसे व्यक्ति की तरह उपन्यास में उतरा है जिससे हम उसकी कई दुर्बलताओं को स्वाभाविक मानकर उससे घृणा नहीं करते। तब भी नहीं जब वह ‘पुरूष’ से कहता है कि मैं उस प्राकृतिक उद्दामता को समझना चाहता हूँ जो अलग-अलग समय प्रेम और वितृष्णा है, करूण और हिंसा है, पाप और पुण्य है और सृष्टि के क्रमिक विनाश के बीच सृजन और निरन्तरता की ध्ुारी है।

’कठघरे’ में नंदिनी और अनादि के सम्बधों की नैतिकता के निर्वचन के लिये अच्छा-बुरा या हाँ-नहीं जैसे सपाट पाप-पुण्यात्मक मानदंड नहीं लगाये जा सकते। समान दुःख से परिचालित नंदिनी औैर अनादि एक दूसरे में अपनी पूर्णता खोजते हैं। यंत्रणाओं के बीच भी अपनी जीवेष्णा लिये अनादि नंदिनी को प्यार भी करता है और उसके प्रति मानवता की निकटता से भी प्रेरित है। नैतिकता को नयी तरह परिभाषित करते हुए अनादि का फेथ है कि जो चीज तुम्हारी जिजीविषा को शक्ति दे वह संसार के किसी सिद्धान्त से अनैतिक नहीं। छोटे से अन्तराल में एक पूरी अनन्तता देने वाला यह प्यार दोनों को शक्ति देता है, भले ही उसकी सामाजिक सीमाएँ और वर्जनाएँ हों।

पूरा का पूरा उपन्यास वल्लभ के वैचारिक और रचनात्मक मूल्योें के अनुसार करूणा से भरा है। व्यंग्य, क्षोभ और रोष अगर करूणा से प्रेरित नहीं होते तो वे केवल हिंसक होते हैं। करूणा उन्हें आक्रामकता के बाद सुखद मानवीय स्थिति का विकल्प देती है। जब वल्लभ नियति, आत्मा, आस्था और यंत्रणा की बात करते हैं तो वह करूणा के परिष्कारक वातावरण की चर्चा करते हैं। सिर्फ अधेड़ नंदिनी और अनादि के जीवन ही त्रासद नहीं बल्कि हमेशा की तरह अनमनी लेकिन बोलती हुई आँखों वाली नौ साल की उस अन्नी का बचपन भी करूण है जो दस पैसे में आईसकैण्डी के बदले रामदाने के लड्डू इसलिये खाती है क्योंकि उन्हें खाने से भूख नहीं लगती। इन बच्चों की रूपरेखा उनके जीवन का विस्तृत परिचय देती है। ग्यारह साल का राजे। खाकी जीन की घिसी हुई नेकर और लट्ठे की आस्तीनोंदार बनियान पहने। सिर पर बड़े-बड़े बाल। .....साँवली दुबली नौ साल की अन्नी। ......मटमैली चड्डी और कई जगह से फटी नीली जाली की फिराक पहने।..........गहरी अदासीनता का स्थायी भाव ।...... पाँच साल का पाण्डु। गैर धुली मारकीन का कुरता पहने। कमर के नीचे नंगा। तीनों नंगे पैर। राजे के नेतृत्व में उसका कोरस ऊपर से उसका उद्घत भाव लगेगा पर कोरस के शब्द भूख का बयान बनाते हैं।

‘हम भूखे बच्चे हैं। भूखे बच्चे झूठ नहीं बोलते। हमने कल से नहीं खाया। रात को हम भूखे सोये थे।’ नियति, इतिहास के प्रतिफलन और वर्तमान की निर्ममता का विश्लेषण करते हुए वल्लभ अन्त में पूरी व्यवस्था और समय को नैतिकता के बहाने सबसे बड़ा शॉक तब देते हैं जब काका जी की सेक्स की किताब में नग्न पुरूष और स्त्री के चित्रों पर राजे ने मम्मी और मामाजी (अनादि) लिखदिया है। लगता है समय और उसकी नैतिकता नंगी होकर भद्दी स्थिति में सब के सामने खड़ी है। निर्वसनता के आगे की कोई स्थिति नहीं होती।

वल्लभ सिद्धार्थ सिर्फ अपने कथ्य पर ही श्रम नहीं करते। उनका स्थापत्य भी बहुत कलात्मक है। यह कलात्मकता पूरी अभिव्यक्ति की है। वह चित्रित करते हैं, बिम्ब गढ़ते हैं। यह वल्लभ की भाषा की विशेषता है कि वह एक साथ ऐन्द्रिय भी है और स्थूलता के परे भी। वह दृश्यांकन ही नहीं करते बल्कि मन के भीतर चल रहे विचार या भाव की क्रियाएँ भी चित्रित करते हैं। ’’कठघरे’’ उपन्यास ऐसा लगता है जैसे उसमें एक के बाद दूसरा फ्रेम रख दिया गया हो जो अपनी अन्तर्वस्तु का स्वयं वाचक है।

’’कठघरे’’ में भी और अपनी कुछ कहानियों में भी वह एक और तकनीक का प्रयोग करते हैं। ’’कठघरे’’ में तीनों पात्रों के नाम हैं पर वल्लभ उन्हें ’’अधेड़’’ ‘‘लड़की’’ और ‘‘पुरूष’’ भी कहते हैं। नामों की व्यक्तिवाचकता भी कभी आवश्यक होती है और वे कभी सामान्य होकर जातिवाचकता में बदल जाते हैं। यह विशिष्टता (एक) को सामान्यता का रूप देना है। जब निजता के संदर्भ होते हैं तो वही पात्र सनाम हो जाते हैं। वल्लभ ने कुछ कहानियों में भी ’’मैं’’ वह दोस्त जैसे शब्दों से ही काम चला लिया है।

’’कठघरे’’ ही नहीं उसके अध्यायों के शीर्षक भी बहुत व्यंजक हैं। लोग ’’कठघरे’’ में खड़े हैं पर क्या उनसे सच्ची आत्मस्वीकृतियों और फैसला देने वालों से न्याय की उम्मीद है? दूसरे लेखकों और विशेष रूप से विदेशी लेखकों के सार्थक और सदृश उद्धरणों की तो वल्लभ के पास कोई कमी ही नहीं है। ’’कठघरे’’ के आरंभ में सार्त्र का यह कथन पूरे उपन्यास की संवेदना का पूर्वाभास देता है- ‘‘आपका फैसला स्वयं आपको निर्णीत और परिभाषित करता है।’’ यह कथन रचना के समीक्षाकर्म पर भी लागू होता है। हम रचना के अपने आस्वाद से केवल रचना के बारे में बयान नहीं देतेे हैं बल्कि अपनी प्रकृति और प्रवृत्ति का भी परिचय देते हैं।

’’कठघरे’’ में अधेड़ का ‘पुरूष’ से पूछा गया यह प्रश्न पूरे उपन्यास में गूँजता रहता है- ‘‘हमारे वर्तमान के लिये इतिहास जिम्मेदार है, इतिहास के लिये कौन जिम्मेदार है ?’’

यह उपन्यास अपने समय की विडम्बनाओं और अन्यायों की तात्कालिकता या समकालिता से आगे जाकर जीवन के मूलभूत आशयों की संवेदना के विस्तार को इतनी सघनता में व्यक्त करता है कि यह कहना बहुत सार्थक लगता है-

’सिमटे तो दिले आशिक फैले तो जमाना है’’