Ek Samundar mere andar - 3 books and stories free download online pdf in Hindi

इक समंदर मेरे अंदर - 3

इक समंदर मेरे अंदर

मधु अरोड़ा

(3)

उस कमरे के पास पहुंचते ही कामना के दिल की धड़कन बढ़ गयी थी। पिताजी ने उन्‍हें पहले भीतर जाने के लिये कहा। वह और गायत्री कमरे के अंदर गयीं तो लगा कि मानो अम्‍मां उनका इंतज़ार ही कर रही थीं।

वे उठ नहीं सकती थीं। उन्‍होंने इशारे से दोनों को अपने पास बुलाया और सिर पर हाथ फेरा। बड़ी कमज़ोर सी लगीं अम्मां। इतने में नर्स कपड़े में लिपटे एक बच्‍चे को ले आयी थी।

नन्हें बच्‍चे को पिताजी ने अपने हाथों में ले लिया और कहा – ‘बेटा, जि अपने घर में सबसें छोटौ है, तुमें जाकौ ध्‍यान रखनौ पड़ैगौ। अपनी अम्‍मां कौं परेसान मत करियो’।

उसने उस बच्‍चे को देखा था... पतले पतले होंठ....बंद आंखें....सांवला चेहरा। वह बच्‍चा कभी धीरे धीरे हंसता और अपने होंठ बिदोरता, मानो रो रहा हो। कभी होंठ पूरे खिल से जाते, मानो सपने में उसे कोई गुदगुदा रहा हो।

कामना बड़ी रोमांचित हो रही थी कि कैसा तो रुई का फ़ाहा सा था। उसने इस डर से उसे गोद में नहीं लिया कि कहीं गिर न जाये...वह खुद भी कहां इतनी बड़ी थी भला। लेकिन पिताजी कहां मानने वाले थे?

उन्‍होंने कामना को पलंग पर पालथी मारकर बैठने के लिये कहा और उस बच्‍चे को उसकी गोद में लिटा दिया। गोद बदलते ही वह कुनमुनाया था पर फिर स्थिर हो गया था।

वह बहुत खुश थी कि उसे एक अच्‍छा खिलौना मिल गया था, जिसके साथ वह खेला करेगी और यह मार नहीं पायेगा। बित्ते भर का तो था। अम्‍मां से मिलवाने के बाद पिताजी उन्‍हें लेकर घर आ गये थे।

घर आकर उन्‍होंने रसेदार भिंडी बनाई थीं। उन्‍हें तरी वाली सब्जियां अच्‍छी लगती थीं....ताकि रोटी आसानी से गले के नीचे उतर सके। वही भिंडी जब भी वह महाराजा भोग रेस्‍तरां में खाती है तो उसे पिताजी की बनायी भिंडी ज़रूर याद आती है।

वह याद करती है। अम्‍मां फुर्सत मिलने पर तरह तरह की खूब सब्जियां बनाया करती थीं। वे कभी कभी शाम के नाश्‍ते के लिए खूब मसालेदार बेसन के सूखे गट्टे बनाया करती थीं। उस दिन कामना पीलर से तुरई छील रही थी।

उसे याद आया था कि अम्‍मां समुद्र के किनारे से बड़ी सीपी लेकर आई थीं और उसे ज़मीन पर इतना घिसा था कि उसमें ख़ासा बड़ा छेद हो गया था। वह अम्‍मां का होम मेड पीलर था। वे उससे अचार के लिये कच्ची कैरी तक छील लेती थीं।

वह याद करती है। उन दिनों समुद्र के किनारे सीपी, घोंघे, शंख और कौड़ियां आराम से मिल जाती थीं। जब कामना और गायत्री छोटी थीं तो वे पांच कौड़ियों से गुट्टे खेलती थीं। वह अब समुद्र के किनारे पर ही खड़ी होती है। अंदर नहीं जाती है। पता नहीं कौन सा इन्फेक्शन हो जाये।

उसकी त्वचा बहुत सेंसिटिव है। बहुत संभालना होता है। वह रोज़ नारियल पानी पीती है। होम डिलीवरी की सुविधा है। एक बार एक नारियल वाले ने होम डिलीवरी के लिये मना कर दिया था। कारण पूछने पर झल्लाकर बोला था –

‘बहिन जी, होम डिलीवरी में लोग सिकायत बहुत करते हैं कि नारियल में पानी कम था। आप ही बताओ क्‍या नारियल को तोड़कर हम पानी भरते हैं? फिर पैसा देने में आनाकानी करते हैं। हमको ये लफड़ा नहीं चाहिये। जितना रोड पर बिक जाता है, हम खुस हैं’। यह सुनकर कामना बहुत हंसी थी। लोग भी न....

जब वे मामा के यहां आगरा जाते तो वह यमुना नदी के किनारे से चिकने गोल पथ्‍थर ज़रूर लेकर आती थीं। खूब खेली थीं वे लोग गुट्टों से। वक्‍त़ बदला तो लकड़ी के, लाख के भी गुट्टे मिलने लगे थे जो स्‍कूल में उसकी मारवाड़ी सहेलियां खेलने के लिये लाती थीं।

अनंतवाडी फिर खो गई? कामना भी बस..... उन्‍हीं दिनों रोज़ सुबह एक तोता छत की मुंडेर पर बैठता था और ‘मिट्ठू मिट्ठू’ बोलता था। कामना को बड़ा आश्चर्य होता उसे बोलता देखकर। उसने पिताजी से एक पिंजरा लाने के लिये कहा...

कहा ही नहीं, एक तरह से चिरौरी की थी – ‘इस तोते को पालने का मन है। रोज़ रोज़ आता है। हम तुम्‍हें परेशान नहीं करेंगे। उसके पिंजरे की सफाई करेंगे और उसे अमरूद और हरी मिर्च खिलायेंगे’।

पिताजी को इस बात में कोई हर्ज़ नहीं लगा था और वे एक पिंजरा ले आये थे। वह बहुत खुश हुई थी। रात को खाना बनाते हुए पिताजी बोले – ‘तुमाई अम्‍मां कौं अस्पताल में सात दिन है गये हैं। अब घर लायेंगे। उनें परेसान मत करियो’।

उसने पिताजी से वादा किया कि वे अम्‍मां को बिल्‍कुल तंग नहीं करेंगी। अगले दिन सुबह छ: बजे वह पिंजरे में दो हरी मिर्चें और अमरूद की दो फांकें लेकर तोते का इंतज़ार करने लगी। तोता अपने नियत समय...साढ़े छ: बजे आया था और मिट्ठू बोलकर मानो अपनी उपस्थिति दर्ज़ करा दी थी।

उसने पिंजरे का दरवाज़ा खोलकर तोते के आगे सरका दिया था। उसे जब पिंजरे में खाने की चीज़ दिखी तो अपनी मस्तानी चाल से चलकर आया और पिंजरे में घुसा। उसका पिंजरे में घुसना और पिताजी का वह खुला दरवाज़ा नीचे खिसका देना..

यानी दरवाज़ा बंद और तोता पिंजरे में कैद हो गया था। अब वह उड़ नहीं सकता था। कैद हो गया था। वह परेशान सा पिंजरे में इधर से उधर घूम रहा था। विवश हो गया था, बाहर नहीं निकल सकता था। धीरे धीरे उसने अपने को समझा लिया था कि पिंजरा ही उसका घर था।

तोते ने पिंजरे की नसेनी पर बैठकर खेलना सीख लिया था। वह दिन भर अपनी चोंच से अमरूद और हरी मिर्च खाता था...फिर नीचे उतरकर कटोरी में रखा पानी पीता था। कभी कभी वह उसे भीगे हुए अंकुरित चने देती थी। वह उन्‍हें अपने पंजों में फंसाकर छील-छीलकर खाता था। कामना उसे टुकुर टुकुर देखती रहती थी।

अम्‍मां छोटे से बेटे को लेकर घर आ गई थीं। अब उस घर में छ: सदस्य रह रहे थे। तोता भी तो परिवार का हिस्‍सा ही था। पिताजी ने कमरे के कोने में एक गद्दा लगा दिया था। वे छोटे बच्‍चे के साथ वहीं सोती थीं।

वे सुबह खाना बना कर कटोरदान में रख जाते थे। अम्‍मां ने पिताजी से कहकर बाज़ार से पोस्‍त, मखाने, थोड़े बादाम और किशमिश मंगा ली थीं। गृहस्थी की गाड़ी पटरी पर आने लगी थी।

गरमी के दिन आ गये थे और बाज़ार में हापुस आम भरा पड़ा था। पिताजी को अमरस बहुत पसंद था। अमरस के लिये बादाम आम सर्वोत्तम माना जाता था। अमरस तो रोज़ शाम को बनना तय था। उसमें दूध ठंडा करके डालते थे। फिर बर्फ़ को कूटकर डालते थे।

बर्फ़ सिल्ली के रूप में बुरादे में लिपटी रहती थी और किलो के हिसाब से मिलती थी। कामना ने सीख लिया था कि कौन सी बर्फ़ नुक़सान नहीं करेगी। जो बर्फ़ शीशे की तरह चमकती है, वह पक्की बर्फ़ होती थी और उसे खाने से गला खराब नहीं होता था

जबकि धुंधली सी चमक वाली कच्ची बर्फ़ गला खराब करती थी। अम्‍मां बची हुई बर्फ़ रख देती थीं और बाद में उसे साफ तौलिये में रखकर कूटती थीं और शक्कर मिलाकर सबको खाने के लिये देती थीं। वह बिल्‍कुल बर्फ़ के गोले सा स्‍वाद देती थी।

उसने देखा था कि आगरे में मशीन से कुटी बर्फ़ दीये में रखकर दी जाती थी और वहां उसे दियलिया कहा जाता था। तोता भी मज़े से पल रहा था। एक दिन अचानक उसने तोते की आवाज़ सुनी....

‘कम्मो कम्मो’ ..वह तो खुशी के मारे पगला गई थी। तोते के पिंजरे के आस-पास घूमती रही थी कि शायद फिर पुकार ले उसका नाम। वह दिन भर सबके नाम सुनता था और फिर सबके नाम लेने लगा था। पता करने पर बताया गया कि वह पहाड़ी तोता था और पहाड़ी तोते बोलते हैं।

फिर अम्‍मां ने उसकी गर्दन को टूथब्रश से सहलाते हुए ये दो पंक्तियां बोलना सिखाया था, ‘चित्र कूट के घाट पर भई संतन की भीर...तुलसी दास चंदन घिसें, तिलक देत रघुबीर। वह भी रोज़ सुबह और जब उसका मन होता था, ये पंक्तियां आधी अधूरी बोलता था।

तभी तोते के बुरे दिन आ गये थे। वह पिताजी के गुस्‍से का शिकार हुआ था। बात ऐसी ख़ास भी नहीं थी कि पिताजी ऐसा कदम उठाते...पर आखिरकार वे पिताजी थे...ग़लत कैसे हो सकते थे।

कामना सुबह पिताजी के जूते पालिश करती थी। वह बहुत अच्‍छी पालिश करती थी। उस दिन वह तोते का पिंजरा साफ कर रही थी कि पिताजी की आवाज़ आई – ‘अभैं तक जूतन पर पालिश नहीं की। हमें देर है रई है। पिंजरा बाद में साफ़ नहीं हो सकता क्‍या...’।

उन्‍हें यह बिल्‍कुल बर्दाश्त नहीं था कि उनके काम की अवहेलना की जाये। गुस्‍से में आकर उन्‍होंने पिंजरे का दरवाज़ा खोल दिया। तोता भी मानो इसी ताक़ में था। वह फुर्र से उड़ गया था। उस दिन कामना को पहली बार पिताजी पर गुस्सा आया था।

दूसरे दिन सुबह तोता पानी की टंकी पर आया और कम्मो कम्मो पुकारने लगा...पर वह बाहर गई ही नहीं। दो-चार बार पुकारने के बाद वह उड़ गया था कभी वापिस न आने के लिये। अम्‍मां ने बताया था – ‘बेटा, तुमाये पिताजी के खानदान में तोते या कोई भी पक्षी पालने की आंट है। पाल भी लिये...तो उड़ जाते हैं...कारण कछु भी है सकतै’। कामना को इसका सबूत मिल गया था।

अनंतवाड़ी में ही एक म्युनिसिपल स्‍कूल था, आज भी है….जहां से गायत्री का और खुद उसकी पढ़ाई का शुभारंभ हुआ था। स्‍कूल घर के पास ही था। उन दिनों यूनिफॉर्म नहीं हुआ करती थी। अम्‍मां ने दोनों बेटियों के लिये फुटपाथ से तीन-तीन फ्रॉकें खरीद ली थीं।

उनका तर्क़ यह था कि लड़कियां वैसे भी जल्‍दी बढ़ती हैं...फ्रॉक छोटी हो जायेंगी तो बेकार हो जायेंगी। उन दिनों मूलजी जेठा मार्केट के कपड़ा मार्केट के पास फुटपाथ पर अच्‍छे कपड़े मिल जाया करते थे।

उस स्‍कूल में जाने का एक लालच ये भी था कि स्‍कूल के पास ही पानी पूरी, पेटिस वाले और कुल्‍फीवाले खड़े हुआ करते थे। पैसे हों न हों, बाजार की रौनक तो थी ही। उन दिनों चौपाटी पर कुल्‍फीवाले लाल कपड़े से ढके मटके लिये आवाज़ देते हुए घूमते थे।

वे मटके के ऊपर गीला लाल कपड़ा लपेट देते थे....ताकि बर्फ़ ज्‍य़ादा देर तक बनी रहे, पिघले नहीं। वे पत्‍ते पर कुल्‍फी काटकर देते थे। उसमें थोड़ा नमकीन स्‍वाद होता। पूछने पर पता चला था कि मटके में बर्फ़ और नमक मिलाकर कुल्‍फी की डिब्बियां रखी जातीं थीं

…ताकि कुल्‍फी कड़क रहे। कुल्‍फेईई….’बाई देऊ का? घ्‍या हो, खूप टेश्‍टी आहे’। गायत्री हंस कर जवाब देती – ‘नको भाऊ, मला नको...खूप सर्दी झाली आहे’।

उन दिनों कुल्‍फी खाना भी एक लक्‍ज़री था। कभी किस्‍मत बहुत अच्‍छी हो और पास में पैसे हो वे ये लक्‍ज़री उठा लिया करते थे। स्‍वाद से उसे याद आता है। वहीं पास में ‘महालक्ष्‍मी बेस्‍ट चिवड़ा’ की दुकान थी।

वहां जैसा स्‍वाद मुंबई की किसी भी दुकान के उस चिवड़े में नहीं मिलता... और उसी दुकान में गांठिया और कच्चे पपीते का अचार....अहा..। बाक़ायदा लाइन लगती थी गांठिया खरीदने के लिये...और वह फणसवाड़ी में मथुरावालों की मिठाई की छोटी सी दुकान, वहां की मावे की मिठाई की कोई सानी नहीं थी।

पता नहीं, पापा के नसीब में क्‍या लिखा था...ज़रा सैटिल होते थे कि कोई न कोई अड़ंगा लग ही जाता था। इस चाल के मालिक ने भी एक महीने का नोटिस देकर कमरा खाली करने के लिये कह दिया था।

एक बार फिर मकान की तलाश शुरू। इस बार खेतवाड़ी में एक चाल में कमरा मिला, जो अब तक के कमरों की बनिस्बत बड़ा था। चाल में चार-पांच कमरे थे और इनकी मालकिन गुजराती वृद्धा थी और चलने के लिये लाठी का सहारा लेती थी।

विधवा थीं वे...पर उनके चेहरे से कोई उसके वैधव्‍य का पता नहीं लगा सकता था। हमेशा हंसती रहती थीं। चाल से जो भाड़ा आता था, उससे उनका आराम से गुज़ारा हो जाता था। उन्‍हें सभी दादी कहते थे।

वे कामना से कहा करतीं – ‘धीकरी, मारा माटे दही लाउ पडसे’। पापा ने उनकी मामूली सी शर्त सहर्ष मान ली थी और एक बार फिर सामान पैक करना शुरू हो गया था। बंजारों सी ज़िंदगी जी रहे थे वे। सामान था ही कितना...दो अदद गद्दे, कुछ बर्तन, कपड़े, किचन का सामान, स्टोव, घासलेट का डिब्बा और साबुन वगैरह।

उन दिनों कपड़े धोने के लिये सन लाइट साबुन और नहाने के लिये लाइफबॉय साबुन का प्रयोग किया जाता था। वे संघर्ष के दौर से गुजर रहे थे, तो कई बार ये मामूली सी चीजें भी मयस्सर नहीं हो पाती थीं।

उसके बाल लहरों से टकरा कर आती नम हवा से हौले हौले उड़़ रहे हैं। वह अपने कंधों तक सिमट आये बाल संवारती है। वह याद करती है। जब वह छोटी थी उसके बाल सुनहरे, घुंघराले, खूब घने और कमर से नीचे तक लंबे थे।

जब अम्‍मां उसकी दो चोटियां बनाकर रिबन के फूल बनाती थीं तो लगता था कि मानो कमर के नीचे दो गुड़ियां इठलाती हुई चल रही हों। उसे अपने लंबे बालों पर बहुत गर्व था। वह बहुत खूबसूरत बालों की मलिका थी।

जब वह अपने बाल खोलती थी तो वे झट से घुंघराले हो जाते थे। तब वह अपनी एक एक लट को गिन सकती थी। ये भी था कि वह बहुत बड़ी हो जाने तक अपने बालों को वह ख़ुद नहीं धो पाती थी।

अम्‍मां ही उसके बालों में नारियल का तेल लगातीं थीं। अम्‍मां तेल लगातीं, खूब मालिश करतीं बालों की और फिर दो घंटे बाद बालों को परात में रखकर रीठे के पानी से धोती थीं। रीठों का क्‍या तो झाग बनता था और एक तरह की खुशबू फैल जाती थी पूरे घर में।

बालों को एक सूखे तौलिये से बांधतीं और फिर दस मिनट बाद तौलिया खोलकर बालों को पीछे से आगे लाकर पोंछतीं और उन्‍हें हाथों से फटकारतीं। पानी की छोटी छोटी बूंदें उसके मुंह पर पड़तीं और वह शिकायत करती –

‘ज़रा धीरे से करो न....’। फिर वे बालों को सीधा करतीं और कहतीं – ‘बालों को खुला ही रखना। बांधना मत। गीले बालों में औंसायद भर जाती है’।

बाल उड़-उड़कर गालों पर आ जाते और वह उन्‍हें अपने छोटे छोटे हाथों से पीछे की ओर करते करते थक जाती थी। वह बाल जितने ही पीछे करती, वे हवा के झोंके से उतनी ही तेजी से गालों पर आ जाते थे।

सूरज की चमकती किरणों में उसके बाल सोने से चमकते थे....गोल्डन ब्राउन जो थे। उन किरणों को भी उसके घुंघराले बालों से लुका छिपी का खेल खेलने में मज़ा आता था। वह याद करती है। उस समय वह पांच साल की रही होगी। उसे पैरा टाइफाइड हो गया था।

एक दिन अम्‍मां ने उसके बाल धोये और तौलिये में लपेट दिये थे। जब तौलिये को खोला था तो उसके के ढेर सारे बाल उस तौलिये में आ गये थे। कुछ बाल ही बचे थे। वह खूब रोई थी अपने बालों को इस तरह से विदा होते देखकर।

अम्‍मां ने दिलासा दिया था – ‘अब रोयबें सें का होयेगौ। कमजोरी से झड़ गये हैं। हम हैं न, तुमाये बालन की सेवा करबे कों’…और सच में अम्‍मां की मेहनत रंग लाई थी। बीमारी खत्‍म होने पर बाल फिर से खूब घने और लंबे हो गये थे।

बालों को प्राकृतिक रूप से सूखने देने के लिये उनका अपना नुस्खा था। वे कहतीं - एक काम करो, बाज़ार से आठ आने का दही ले आओ। काम भी हो जायेगा और बाल भी सूख जायेंगे’।

अम्‍मां की बात सुनकर वह जल्‍दी से दूसरी फ्रॉक पहनती और रबड़ की चप्पलें पहनकर खटाखट सीढ़ियां उतरकर चल देती थी। खुली खुली धूप और उसके बालों को सूखने में समय नहीं लगता था।

इस तरह बालों और गालों के बीच होती आंख-मिचौली के बीच वह दही की दुकान पर पहुंच जाती थी। अम्‍मां की दी और रूमाल में बंधी अठन्नी निकालती और कहती – ‘भईया जी, दही दे दो और हां, थोड़ी सी मलाई डाल देना ऊपर से’।

दुकानदार को पता था कि वह दुकान से चलते चलते दही के ऊपर की मलाई खाती जाती थी। वह हंसकर कहता था – ‘चटोरी कहीं की। मुझे पता है तू रस्‍ते में खाती जाती है। तेरी अम्‍मां पूछ रही थीं उस दिन कि क्‍या दही में मलाई की परत डालना बंद कर दिया है