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दिव्यांग



"अम्मा ,फूल वाली बटुली में थोड़ी सी आग रख दो,हमें अपनी शर्ट प्रेस करनी है"

पदारथ तेवारी का बड़ा बेटा प्रत्यूष भले ही एक पैर से लंगड़ा था पर जिस तरह से वह पढ़ाई-लिखाई में जहीन था उसी अनुपात में साफ सुथरा रहना उसकी आदत में था..वह अक्सर मित्रों से कहता--'कपड़े भले सस्ते हों पर उनका साफ,प्रेस होना बहुत आवश्यक होता है..बाल भले लम्बे हों पर धुले और कंघी होने पर ही जंचते हैं.. यदि आपके नाखून कटे हैं और दाढ़ी बनी है तो यह नक्सेबाजी नही है..आप की गिनती सभ्य लोगों में की जायेगी'

पड़ोस के खेलावन शुकुल के छोटे बेटे का विवाह था और खेलावन दो दिन पहले पदारथ तेवारी से बारात चलने का निवेदन कर गये थे..वहीं खेलावन की विटिया रशिम जो प्रत्यूष की सहपाठिनी थी,ने भी प्रत्यूष से बारात चलने को बोली थी..

रश्मि भले ही सुन्दर और सुशील थी पर पढ़ाई में औसत रुप से सामान्य ही थी..ऐसे में जब कोई गणित का सवाल उसे परेशान करता तो वह प्रत्यूष की मदद लेती..धीरे-धीरे पता नही वह प्रत्यूष के सरल व्यवहार से प्रभावित होकर उसके करीब आ रही थी या लंगड़ा होने की वजह से मित्रों द्वारा उपेक्षित किये जाने से उसके प्रति दया भाव से..कुछ भी रहा हो पर उसे प्रत्यूष से बोलना-बतियाना अच्छा लगता था..

"प्रत्यूष कल भैया की बारात में तुम भी चलना..सब मिलकर खूब नाचेंगे.." रश्मि ने कहा था

"क्यों व्यंग्य बोल रही हो रश्मि..मैं अपाहिज भला कैसे नाचूंगा..?" प्रत्यूष आहत होकर बोला

"क्यों नही नाच सकते..अरुणिमा सिन्हा अपाहिज होकर माउण्ट एवरेस्ट फतह कर सकती है तो तुम क्यों नही नाच सकते.."

चारों तरफ से झिड़की और उपेक्षा के बीच रश्मि का मृदु व्यवहार उसके लिये टानिक की तरह होता था..घर आकर पिता से डरते-डरते पूंछा था और जब पिता ने कहा कि वह एक आवश्यक कार्य पड़ जाने के कारण नही जा सकते, तू ही चला जा..तो वह जल्दी-जल्दी कपड़े धुलकर सुखाया था और अम्मा से बटुली में आग लेकर उनपर इस्तरी करी थी..बालों को करीने से संवारा था और अब तैयार होकर खेलावन शुकुल के दरवाजे पर आया था..बाराती गाड़ियों में बैठ रहे थे..खेलावन शुकुल पीली धोती पहने बगल में एक बैग दबाये बारातियों को एक एक गाड़ी में बैठा रहे थे..लग्जरी गाड़ियों में खास खास मेहमान थे जबकि सामान्य बारातियों के लिये बस थी..प्रत्यूष ने देखा कि बस में तिल रखने की जगह नही थी..ट्रैक्टर-ट्राली सामान वा नाच वालों , बैण्ड वालों से भर गयी थी..वह एक एक गाड़ी में झांक रहा था ऐसे में एक लग्जरी गाड़ी उसे खाली दिख गयी.. आगे बैठने की हिम्मत तो नही हुयी पर पीछे जाकर बैठ गया और मन ही म‌न सोचने लगा कि जहां और गाड़ियों में तिल डालने की जगह नही है वहाँ इसमें कोई बैठा क्यों नही..तभी देखा खेलावन शुकुल के बड़े बेटे शेरवानी पहने अपने कुछ मित्रों के साथ उधर ही आ रहे हैं..
आते ही बड़ी उपेक्षित नजरों से देखा था उसे..घुड़कते हुये बोले थे..

"इसमें किसने बैठने के लिये कह दिया तुम्हें..जाओ बस या ट्राली में बैठो" प्रत्यूष ने महसूस किया कि सबने दारू पी रखी है..वह सहमते हुये बोला

"भैया किसी गाड़ी में तिल भरने की जगह नही है"

"तो क्या हम अपाहिजों के साथ बारात जायेंगे " उसका एक दोस्त लहराते हुये बोला था

"अरे पड़ा रहने दो यार एक कोने में..अब अपने पिताजी को क्या कहूं..हर ऐरे-गैरे नत्थू खैरे को उन्होंने बारात कह रखी है"

प्रत्यूष मारे अपमान के गड़ा जा रहा था पर रश्मि के निवेदन की वजह से बैठा रहा तभी एक दूसरा दोस्त गाली देते हुये उसे खींचकर उतारते हुये बोला..

"लंगड़े अपने स्तर के लोगों के साथ बैठना सीख नही तो जीवन भर उतारा जायेगा" और खींचकर उतार दिया..तथा सभी मित्र ठहाका लगाते हुये बैठ गये..सभी गाड़ियां एक एक कर जा रही थीं..जबकि प्रत्यूष अपमानित हुआ ठगा सा खड़ा गाड़ियों को जाता देखता रहा..

दिव्यांगों के विषय में लोग दो तरह से सोचते हैं.. पहला यह कि अवश्य यह पिछले जन्म का पाप भोग रहा है तथा दूसरा कि ऐसे लोग कष्ट सहने के लिये ही पैदा होते हैं..उन्हें यह पता नही होता कि इनका उपहास उड़ाने से इनकी मानसिक अवस्था कमजोर होती है..तिरस्कार से दिव्यांग अन्तर्मुखी हो जाते हैं..जीवन के प्रति इनकी सोच नकारात्मक हो जाती है..

इस घटना के हफ्तों बाद रश्मि जब स्कूल गयी तो उसकी आंखें प्रत्यूष को खोज रही थीं.. एक प्रश्न उसे मथ रहा था..'प्रत्यूष बारात क्यों नही गया'
तभी देखा वह कालेज गार्डेन में एक कोने में संज्ञा शून्य हो बैठा है..रश्मि लगभग दौड़ते हुये पहुंची वहाँ और लगभग डपटते हुये पूंछा..

"बारात क्यों नही गये थे..?"
क्या बताता वह..वह उसी के कहने से तो अपमान सहकर भी बैठा रह गया था..बहुत कुरेदने पर वह आद्योपांत सब बताता चला गया था..बताते बताते पूंछ बैठा था वह..

"सभ्य समाज की कल्पना में लोग केवल सामान्य के विषय में ही क्यों सोचते हैं.. यह कहां का कानून है कि यह संसार केवल पूर्ण मनुष्यों के ही खातिर है"

रश्मि को यह सब सुनकर बड़ा धक्का लगा..अचानक से गम्भीर हो उठी वह..बोली..

"प्रत्यूष, दुनिया की सबसे बड़ी ताकत शरीर नही, किसी भी व्यक्ति का विवेक होता है और वह है तुम्हारे पास..तुम पूर्ण मनुष्य हो "

"क्यों बहला रही हो रश्मि.. सच भाषणों से नही बदलते" प्रत्यूष उदासी में ही बोला

"भाषण नही दे रही मैं.. तुमसे ही तुम्हारा परिचय करा रही हूँ.. किसी भी व्यक्ति को शत प्रतिशत ईमानदार नही होना चाहिए.. बहुत सीधा-साधा सज्जन नही होना चाहिए.. सीधे पेड़ ही पहले काटे जाते हैं..तुमको इस बेरहम दुनिया से लड़ने के लिये अपनी क्षमता का अहसास कराते रहना पड़ेगा..यदि तुम दंश नही दे सकते तब भी दंश दे सकने की क्षमता का अहसास कराना जीवन जीने के लिये बहुत आवश्यक है "

"टूट चुका हूँ रश्मि..अब जीवन का मोह भी नही रहा " प्रत्यूष गहरी सांस छोड़ते हुये बोला

रश्मि ने अचानक से प्रत्यूष के हाथों को पकड़ा और लगभग डाटते हुये बोली.."बिना विवाह के ही विधवा करने को सोच लिये हो क्या..खबरदार यदि पुनः ऐसी बात की तो.."

प्रत्यूष को ऐसी किसी भावना का एहसास नही था..वह तो सोचता था कि वह दया भाव में हमदर्दी दिखा रही है..पलक झपकाते हुये केवल रश्मि को घूरता रहा जबकि रश्मि आगे कह रही थी..

"सुगंध का प्रसार हवा का मोहताज होता है प्रत्यूष..सफलता के लिये अनुकूल हवा बनानी पड़ती है..कुछ भी करो..पर अब तुम्हें मेरे लिये अपने आपको साबित करना पड़ेगा " कहकर रश्मि चली आयी थी..

रश्मि के चले आने के बाद प्रत्यूष घण्टों अकेले बैठा रहा..जाने क्या क्या सोचता रहा..रश्मि के एक एक शब्द उसके कानों में बजते रहे..घर की स्थिति बहुत ठीक नही थी..फिर अचानक से उसे शहर में अपने मामा की दूकान याद आयी..उसके मामा मोबाइल के अच्छे मिस्री थे..स्कूल से सीधे वह मामा की दूकान पर ही गया था..

इधर रश्मि स्कूल से वापस आते ही भिड़ गयी थी बड़े भाई से..भाई चिल्लाये थे उस पर..

"उस विकलांग के लिये इतनी हमदर्दी क्यों है..?"

"यदि वह विकलांग है तो आप भी तो विकलांग हो..वह शरीर से दिव्यांग है आप दिमाग से अपंग हो "

मां ने डाटा था उसे..तो वह विफर पड़ी..

"उसके पैर नही है तो वह विकलांग है और इनके बुद्धि नही है तो ये विकलांग क्यों नही हैं मां..? कहकर रो पड़ी थी रश्मि..
रश्मि के इस व्यवहार से तूफान आ गया था घर में.. उसका स्कूल बदल दिया गया..पदारथ तेवारी के यहाँ से खेलावन शुकुल ने अपना सारा सामाजिक सम्बन्ध समाप्त कर लिया था..रश्मि पर निगाह रखी जाने लगी थी..

दृढ़ संकल्प वह महान शक्ति है जो मानव की आंतरिक शक्ति को विकसित कर प्रगति पथ पर सफलता की इबारत लिखती है..प्रत्यूष पढ़ाई के साथ-साथ मामा की दूकान पर बैठने लगे तथा रात्रि में एक दो टियुशन करने लगे जिससे कुछ ही दिन में वे पारंगत मोबाइल मिस्त्री बन गये..कुछ पैसा टियुशन वगैरा से इक्ट्ठा किया कुछ पिता ने व्यवस्था करी और गाँव पर ही मोबाइल रिपेयर की दूकान खोल ली..कुछ ही दिन बीते थे कि मोबाइल एससरीज भी रखने लगे..वर्तमान दौर में मोबाइल की उपयोगिता किचेन के बाद प्रथम स्थान पर है..गरीब तपके का भी जीवन बिना मोबाइल के प्रभावित होने लगता है..गाँव में एक भी मोबाइल की दूकान नही थी..सो बढ़िया से चल निकली दूकान..अब प्रत्यूष भले दिव्यांग थे पर चार पैसा हाथ में आने लगा था..व्यवहारिक जीवन की एक विशेष बात है कि हर मित्रता के पीछे स्वार्थ अवश्य होता है..प्रत्यूष के हाथ में फन और पैसा दोनों आये तो मित्रों में भी इजाफा होने लगा..जहां लोग उपेक्षित नजरों से देखते थे वहीं आज अपने बच्चों को उदाहरण देने लगे..

किसी के पास पैसे की कमी होती है तो किसी के पास खुशी की..खेलावन शुकुल के पास पैसा तो था पर बड़े बेटे की तरफ सन्तान नही थी..बड़ी दवा-दारू..झाड़ फूंक के बाद बड़ी बहू की तरफ उम्मीद जगी..समय पूरा होने में अभी कुछ दिन शेष ही थे कि अचानक से एक रात पेट में असहनीय दर्द उठा और रक्त स्राव होने लगा..महिला डाक्टर करीब बीस किमी दूर मुख्यालय में थीं.. कुल छ: घर के इस पुरवे में ऐसे किसी मरीज को ले जाने के लिये कोई चौपहिया वाहन नही था..तय हुआ कि अस्पताल से एम्बुलेंस बुलाया जाय..घर में एक अदद फोन बड़े लड़के के पास था..दुख आता है तो चारों तरफ से आता है..फोन से नेटवर्क गायब था..बड़े लड़के के दरुहल गुस्सैल स्वभाव के कारण खेलावन शुकुल के यहाँ से किसी की निभती नही थी..ऐसे में बड़े बेटे की पत्नी ने अपनी सास खेलावन शुकुल की पत्नी से कहा ..

"अम्मा यदि रश्मि बहिनी प्रत्यूष के यहाँ जायें तो वह अपना फोन लेकर आ जायेंगे या फिर इनका फोन ही सही कर देंगे "

बात सबको जंच गयी..खेलावन रश्मि को लेकर तुरंत प्रत्यूष के यहाँ पहुँच गये..
प्रत्यूष रश्मि को इंकार कैसे करते भला..अपने दुआर से एम्बुलेंस को फोन किया था और रात्रि में ही फोन बनाने उनके घर भी आ गये थे..फोन सही करके प्रत्यूष बोले थे..

"लो भैया, फोन में नेटवर्क तो आ गया है फिर भी यदि कोई समस्या होगी तो रात्रि समझकर संकोच मत करियेगा..तुरंत बताइयेगा हम फिर चले आयेंगे "

बड़ा बेटा तो संकोच में था..कुछ बोल नही पाया..खेलावन ही बोले थे..

"बेटा संकोच कैसा..तुमने इस घर की उम्मीद जगाई है..पिताजी से कहना सुबह पण्डित बुला कर रखेंगे..सोच रहा हूँ इस लगन में रश्मि को तुम्हारे पल्ले बांध दूं.."
रश्मि दरवाजे पर खड़ी मुस्करा रही थी

राजेश ओझा