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व्यंग्य से शल्य-क्रिया

व्यंग्य लेख


व्यंग्य से शल्य-क्रिया

रामगोपाल भावुक

आज नगर में खूब चहल-पहल है। एनाउंसमेंट करने वाले एनाउंस करते फिर रहे हैं-’’आज नगर में पहलीबार हास्य के अवतार काका चोखेलाल पधार रहे हैं। सिंधी धर्मशाला में शाम सात बजे आना न भूलें।’’

मुझे भी कवि सम्मेलन में बुलाया गया है। काका का नाम सनुकर मेरा दिल धड़क रहा है। इतने बड़े कवि के सामने मेरी कविता को कौन सुनेगा? सारे दिन सोचता रहा, वहाँ कौनसी कविता सुनाऊँ? मजदूरों वाली कविता, नही-नही वहाँ कविता सुनने वाले मजदूर नहीं कैपीटलिस्ट होंगे। यह कविता उन्हें पसन्द नहीं आएगी। वे मजदूरों की पीड़ा को क्या समझें? उन्होंने तो काका को दस हजार रुपए देकर एक रात के लिए बुलवाया है। वे तो काका से अपने चन्दे के पैसे वसूल करेंगे। हमें वहाँ कौन सुनेगा? हम तो घर के जोगी जोगिना हैं।

अनमने मन से मैंने कविता छाँटने के लिए डायरी उठा ली। कविताओं पर दृष्टि डालने लगा। श्रंगार की रचना सामने खुल गई। गुनगनाने लगा-

पिलाया तो तुम्हीं ने था, अपने नयनों से वो जाम।

पी के हम बहकने लगे तो क्यों देने लगे इल्जाम।।

तभी याद हो आई काका के साथ श्रृंगार के कवि प्रेमी जी भी पधार रहे हैं। उनके सामने मेरे श्रृंगार को कौन पसंद करेगा? पन्ना उलट गया। हास्य की कविता निकल आई, पर काका के सामने इस कविता को पढ़कर मैं अपनी हँसी उड़वाना नहीं चाहता था। एक पेज और पलट गया। एक दार्शनिक कविता निकल आई। यह ठीक है जब आदमी अन्य बातों में हार मान जाए उसे दर्शन का सहारा लेकर अपनी इज्जत संतों की तरह बचाने का प्रयास करना चाहिए।

एक दार्शनिक कविता व दो क्षणिकाएँ सैट कर लीं। इन्हें सुनाकर मैं अपना पीछा छुडा़उँगा।

कवि-सम्मेलन में यथासमय पहुँच गया। कार्यक्रम प्रारम्भ हो गया। मैं मंच पर एक कोने में सिमटकर बैठ गया। काका की फुलझड़ियाँ सुनाई पड़ने लगीं। उन्हें सुनकर श्रोता फूहड़ हँसी हँसने लगे। काका ने ढेर सारी काकी की बातें सुनाकर मंच लूट लिया। सभी काका को दाद दे रहे थेे। श्रोताओं ने तालियाँ बजा-बजाकर वाह-वाह की गूँज शुरू कर दी और मैं ढूँढ़ रहा था कोई बटेर जिसके सहारे मैदान मार सकूँ। सोचने में पता ही नहीं चला, काका कब बैठ गए? और कब सुदर्शनजी को मंच पर बुला लिया गया, उनके बुलाते ही भीड़ से आवाजें आने लगीं-’’अरे इन्हें क्यों बुला लिया! इनसे तो उत्सुक जी को ही बुला लेते।’’

मेरा नाम नीचे से सुन पड़ते ही, दिल धड़कने लगा। हाय अब क्या करूँ? कैसे मंच पर भागूँ? लोग हैं कि बेचारे सुदर्शन जी को कविता ही नहीं पढ़ने दे रहे हैं। कैसे मनहूस लोग हैं? इन लोगों का व्यवहार ठीक नहीं है। मंच के नीचे से आवाज ऊपर आने लगीं-’’सुदर्शन जी की कविता हमारी समझ में नहीं आती।’’

बेचारे जमने का, जी-तोड़ प्रयास कर रहे थे। मगर कुछ चटोरों ने चिल्लाना शुरू कर दिया औेेेर कविता के बीच में तालियाँ बजाकर उन्हें बंद हो जाने का आदेश देने लगे, पर वे घाघ थे जमने की घर से सोचकर आए थे। अब उन्होंने डायरी के कुछ पन्ने पलटे और व्यंग्य विधा पर लिखे कुछ दोहे पढ़ना शुरू कर दिये-

भैंसे की भैंसे गई भड़ियन बैर विसाय।

जे बातिन ने सभी को कायर दियो बनाय।।

श्रद्धा दण्ड के मेल की कबहूँ देखी रीति।

पूजे पाँव पीठ नहीं, कही दामाद सप्रीति।।

पुत्रीं पिता कें साठ हैं तोऊ बाकी नाँठ।

कहन पुरातन चल बसी निकस रही अब गाँठ।।

कुल-कुल बाती धारिकें चना चवाते जाँय।

देशभक्ति आराधना ऐसे नर कर पाँय।।

ऐसे कुछ दोहे सुनकर कुछ आवाजें इनके पक्ष में उभरीं। फिर तो कुछ ही क्षणों में सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा। यों सुदर्शन जी ने तालियों के मध्य अपना काव्य-पाठ पूरा किया। मैं समझ गया कि अब मेरा नंबर आ गया है।

भाग्य अच्छा था कि संचालक ने स्वेतवस्त्र धारी नगर के प्रमुख नेता बटुकनाथजी को उनकी खुशामद में चार-छह दोहे सुनाकर काव्य पाठ के लिए ससम्मान अमंत्रित कर लिया।

मैं सोचने लगा, ये कवि कब से बन बैठे ! बैेसे हमारे देश के नेता तो सर्वज्ञ होते हैं , कभी भी किसी रूप में प्रकट हो सकते हैं । वे हर नेता की तरह मायक समलते हुये बोले-‘‘ मैं कवि तो नहीं हूँ लेकिन संचालक जी के आग्रह को टाल नहीं पा रहा हूँ इससिले एक कविता सुना देता हूँ । यह कविता मेरी तो नहीं है किन्तु मेरी पसन्द की आवश्य है । अतः आप मेरी इस कविता को अवश्य ही पसन्द करंेगे और मेरा उत्साह बढ़ायेंगे। यह कह कर उन्होंने राष्ट्रीय भावना की एक कविता सुना डाली-

माँ का कट रहा है सिर

फडफडा रहे है चरण

कुछ बेटो को असह्य पीड़ा है ।

............और कुछ

माँ को काटने बँाटने पर तुले हैं ।।

मंच के नीचे से उनकी विपक्ष की पार्टी का सदस्य चिल्लाया-‘‘अरे साहब ,ये बातें रहने दंे । आप ने तो पूरी नगरपालिका ही साफ कर दी है ।’’

वे मंच से ही बोले-‘‘ विपक्ष की पार्टी को कुछ कहना है तो नगर पालिका के सदन में ही आकर कहंे , यहाँ के वातावरण को दूषित न करें ।

अब तो संचालन ने पुनः बागडोर सँभाली -

उसने श्रोताओं पर अपना प्रभाव जमाने के लिए जाने किस-किस कवि की रचनायें उनका नाम लिये बिना सुना डाली । इस पर श्रोता गण संचालक की वाह वाह! क्रने लगे। इसी समय संचालकजी मुश्कराते हुये मेेरे कान के पास आकर बोले-’’क्यों साहब आपके पास कोई वीररस अथवा राष्ट्रीय भावना की कविता तो होगी।’’

मैंने कहा-’’यहाँ तो नहीं है, वह डायरी तो घर छोड़ आया।’’

संचालक जी माइक पर पहुँच गए, मैं सिर धुनने लगा- हाय ये क्या हो गया! बेचारी पत्नी ने तो ऐसी कविताओं की तीन बार याद दिलाई थी । उनका कहना था-’’फूहड़ हास्य की काट वीररस की कविताओं में होती है।’’

आखिर वह समय आ ही गया । जब संचालक जी ने मेरा कविता पाठ के लिए लिया। मुझे खुद पता नहीं चला कि मैं कब माइक के सामने पहुॅँच गया ? सभी की निगहें मेरे ऊपर लग गई । मैं ’भटावली’ कविता पढ़ने लगा । लोग-चिल्लाए-’’अरे! साहब कोई श्रृंगार की कविता सुना देते ।’’

मैं उसे खोजने लगा । डायरी के कई पृष्ठ इधर से उधर पलट गए । नीचे से आवाज सुनाई पड़ी -’’अरे साब! जोे भी मिल गई हो उसे ही जल्दी से सुना दो ।’’

भाग्य अच्छा था अब तक श्रृंगार की कविता मिल गई थी ।

मैंने जमने के रागनियों का स्मरण किया । वे सभी रूठी बैठी थीं । मैंने झठ से श्रोताओं से छमा मांगी-’’आज मेरा गला खराब है । इसलिए मैं कविता पढ़कर सुना देता हूँ।’’

भीड़ में से कोई मनहूस चिल्लाया-‘‘साहब आप जल्दी कीजिए , क्यों हमारा समय बर्बाद कर रहे हैं ? काका की कुछ रचनाएॅं और सुन लेने दो । सुबह दुकान खोलना है ।

यह सुनकर मुझे चेतना आ गई और एक छोटी-सी रचना पढ़ डाली । मेरी काव्य‘पाठ की समाप्ति पर तालियॉँ बजीं । मैं समझ गया, मैं जम नहीं पाया । उदास चेहरा लेकर मंच से लघुशंका के बहाने खिसका । बाहर आया, सोचा-वाकई मंच के वातावरण मंे बड़ी घुटन है । यहाँ मैं अपने को मुक्त महसूस कर रहा था ।

अब मैं बाहर भी खड़ा न रह सका। घर आने लगा । पास एक मित्र खड़े कविताएॅं सुन रहे थे । बोले-कहॉंँ चल दिए कवि महोदय ? मेरे मुुँह से निकल गया-‘‘यार यहाँ तो मेरा जी घबड़ा रहा है ।’’ मेरी यह वेदना सुनकर वो ठहाकर मारकर हॅँसे । मुझे बहुत बुरा लगा । रास्ते भर उनकी हॅँसी कानों में गॅॅूँजती रही । घर आ गया, दरवाजा खटखटाया । अंदर से पत्नी की आवाज सुनाई पड़ी-‘‘जरा भी नींद लगने दी होती, अब तो सारी रात नींद नहीं आएगी ।’’

मैं कुछ नहीं बोला, अंदर पहुँच गया, सभी जाग गए । कवि-सम्मेलन के हालचाल पूछने लगे ं। मैंने कहा-‘‘श्रोताओं को स्तर ठीक नहीं था । सभी व्यापारी वर्ग के लोग थे । वे तो बस काका के सुनने के इच्छुक थे । उन्हांेने काका को चन्दा देकर बुलाया था ।’’

पत्नी बोली-‘‘छोड़ो इन बातों को, क्यों इस उम्र मंे अपनी किरकिरी कराने पर तुले हो । अरे ! मैं हूँ कि सुन भी लेती हूँ।’’

इस घटना से यह निश्चिय हो गया कि व्यंग्य ही एक ऐसी विधा है जो आदमी को सोचने क लिए विवश कर देती है । उसके प्रहार से आदमी ऊपर की हॅँसी मे तो हॅँसेने लगता है, किन्तु अंदर ही अंदर उसकी आत्मग्लानी उसे सोचने को मजबूर कर देती है।

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