उदासी का कोई मौसम नही होता लेकिन सर्दियां तो उदासी का पर्याय कही जाती तो रोमांस का चरम भी। कभी यह सर्दियां मेरे लिए एक रूमानी बहार रही है । वो किसी गर्मी की दोपहर में मुझसे वादा करके गया था कि जल्द आऊँगा तुझको हमेशा के लिए लिवाने के लिए लेकिन हाय रे मजबूरियां उसको 8 माह लग गए अपने घर से मेरे मायके की देहरी तक आते आते। फिर सुख की सुबह हमारी जिंदगी में आ गयी लेकिन यह कहाँ पता था कि सुबह बहुत जल्द दौड़ती है ।सूरज में इतनी फुर्ती होती कि वो दौड़ कर दोपहर का आलिंगन करने को आतुर होता है । और लम्बी सी दोपहर उसको अपनी आगोश में लिए रोमांस का रोमांचक रसपान करते हुए आंखें मूंद लेता है ।यह सुख जब कभी शाम की तरफ बढ़ता है तो भूल जाता है अपनी अवधि ।उसको बस गुजरना होता है समय बनकर लेकिन फिर भी बहते पानी में पड़ी चट्टान से ठहर जाता है ।
शामें बहुत उदास होती है, जानते हुए भी कि दरवाज़े पर कोई कुंडी खड़का कर खोलने को नही कहेगा मन का कोई कोना आहट को आतुर होता है ।
ऐसी ही किसी एक सर्द शाम को हीटर के सामने बैठ सरसों का साग मक्की की रोटी खाते हुए उसने कहा था
" मेरे साथ चलोगी, सर्द शाम जब घर के दरवाजे तक आता हूँ न तो कई बार बेल बजा देता हूँ,वो बेल की आवाज़ भी सर्द सी चीखती है कि क्यों छू दिया मुझे , एक ठंडी सिरहन मेरी रीढ़ तक लहर बन दौड़ जाती हैकि कोई नही प्रतीक्षा करता हुआ यहाँ और हाथ बेल से हटकर जैकेट की जेब तक आ जाता है और वहाँ खनकती है घर की चाबियाँ , ठंडी सख्त सी चाबी से 10 फ़ीट चौड़े गेट को खोलकर अंदर आना और फिर घर का अगला ताला खोलना तुम नही समझ सकती हो ।"
हीटर की गर्मी के सामने भी सर्द लहज़े में उसकी नम आँखें बहुत कुछ कहना चाह रही थी और जुबान लफ्ज़ तलाश कर रही थी जैसे ...
"माइक्रोवेव में एक गिलास पानी गर्म कर खुद को सम्हालता हूँ कि मौसम सर्द है ,लेकिन मुझे ठंडे तरीके से नहीं जीना ,तुम सब हो न मेरी जिंदगी और अचानक एक जोश से भर उठता हूँ"
उसकी प्लेट में कैसरोल से गाजर का हलवा परोसते हुए हाथ काँप रहे थे लेकिन शब्द बोल उठे
"हलवा पैक भी कर दिया है ,लेते जाना ,जब कभी खाना पकाने के मन न हो तो गर्म करके खा लेना"
"लेकिन कई बार अकेले जीने का मन भी नहीं होता न तब ...... चल न साथ....
थाली परे रखते हुए उसने कहा था
कैसे कहती लड़की ....
मन का चाहा कब होता है ? जिम्मेदारियां भी तो तुमने ही अच्छे से निभाना सीखाया था , और तुम्हारी ही जिम्मेदारियाँ मैंने अपने सिर पर रख ली। कहो एक बार छोड़ सब जिम्मेदारियां ...एक पल न लगेगा यूँ ही हाथपकड कर चलते हुए। मुझे भी याद आती वो पीली धूप ,वो सर्द शाम औऱ रजाई में बैठकर मूंगफलियाँ ख़ाना।
इस बार बर्फ भी बहुत पड़ रही है लेकिन अब उम्र भी तो बढ़ गयी है और एक उम्र के बाद देह की नही दिल की जरूरत होती है । देहरादून की देहरी से जुड़ा है उन का रिश्ता ओर मेरा ....उनके दिल से।
दिल देहरादून देह दिल्ली हो जाये तो क्या कीजे ।
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