Jaha Ishwar nahi tha - 1 books and stories free download online pdf in Hindi

जहाँ ईश्वर नहीं था - 1

गोपाल माथुर

1

आँख कुछ देर से खुली. बाहर सुबह जैसा कुछ भी नहीं लगा, हालांकि सूरज निकल चुका था, पर वह घने बादलों के पीछे कैद था. बारिश बादलों में लौट गईं थीं और हवाएँ भी थक कर पेड़ों की डालों पर सुस्ता रही थीं. घर के सामने वाली सड़क पर जगह जगह पानी के चहबच्चे जमा थे. जब कोई कार या स्कूटर गुजरता, रुका हुआ पानी हवा में उड़़ने लगता था. बारिश में भीगी कुछ चिड़ियाएँ बिजली के तारों पर अपने पंख सुखा रही थीं.

सब कुछ ठीक वैसा ही था, जैसा बारिश की किसी सुबह हो सकता है. बस, मुझेे ही सुबह में सुबह की अनुभूति नहीं हो पा रही थी. क्षण भर के लिए मुझे लगा कि कहीं यह शाम का धुँधलका तो नहीं ! पर मैं जिस खिड़की पर खड़ा हुआ था, वह पूर्व दिशा की ओर ही खुलती थी. घने बादलों के बावजूद भी सुबह का पहला आलोक वहाँ से मुझे ही ताक रहा था. समय तो सुबह का ही था !

मैं एक बार फिर बिस्तर पर लेट गया. मुझेे न तो उठने की इच्छा हो रही थी और न ही सो जाने की. लेटे लेटे मैं देर तक छत की ओर ताकता रहा. मुझे लगा, जैसे वहाँ एक नीला समुन्दर हो, जिसकी उत्ताल तरंगें सूरज को लील जाना चाहती हों. पर कुछ समुद्री परिन्दों ने उन्हें रोक रखा था.

यह मुझे कैसे अनुभव हो रहे थे !

खिड़की पर लगा पर्दा जोर से हिला, तब मैं तन्द्रा से जागा. रुकी हुई हवा फिर से चलने लगी थी. जैसे स्टेशन पर रुकी हुई रेलगाड़ी फिर चल पड़ी हो. मैं उसकी आवाज़ को सुन सकता था. वह मुझे रौंदती हुई गुज़र गई, पर मैं कुछ भी महसूस नहीं कर सका. न ठंड, न कोई कँपकँपी, कुछ भी नहीं. मुझे ज़रा सी खरौंच तक नहीं आई थी. बस, इतना अवश्य हुआ कि अब मेरे लिए और देर लेटे रह पाना असंभव हो गया था.

मैं उठा और आदतन सीधा रसोई में चला गया. मैंने चाय का पानी चढ़ाया, हालांकि सुबह का समय होने के बाद भी मुझे चाय की तलब महसूस नहीं हो रही थी. गैस पर पानी किसी चिड़चिड़ी बुढ़िया की तरह खदके जा रहा था.

सहसा मेरा ध्यान अपने पाँवों की ओर गया. मुझे आश्चर्य हुआ कि मैं नंगे पाँव था. मैंने चप्पलें नहीं पहनी हुई थीं, जिन्हें मैं बिस्तर से उठते ही पहना करता था. मैं चाहता तो जाकर चप्पलें पहन सकता था, पर मुझे इसकी कोई आवश्यकता महसूस नहीं हुई. आश्चर्य तो यह था कि मैं अपने नंगे पांवों के नीचे कुछ भी महसूस नहीं कर पा रहा था.

लौटते समय मैंने देखा कि दीवार पर लगी घड़ी की दोनों सूूईयाँ टूटी पड़ी थीं और एक तिलचट्टा वहाँ बिखरा हुआ समय खा रहा था.

चाय का मग लिए मैं बाॅलकनी में आ बैठा. आदतन मैं ऐसा ही किया करता था. आराम कुर्सी पर बैठ कर मैंने चाय की एक घूँट भरी, लेकिन मुझेे कोई स्वाद नहीं आया. हाॅकर अखबार फैंक गया था, जो मेरी कुर्सी के पास हीं पड़ा हुआ था. मैंने अखबार उठाया और बिना तह खोले ही छपे हुए काले अक्षरों को ताकता रहा. उन्हीं चिर परिचित समाचारों की टूटी बिखरी लाइनें बाहर निकल कर जोर जोर से चींख रही थीं. वे चीखें मेरी पुरानी परिचिता थीं पर मेरी उत्सुकता जाग्रत नहीं कर पा रही थीं. मैंने तहाया हुआ अखबार वैसे ही रख दिया. वे चीखें भी कट गईं.

मैं फिर से चाय पीने लगा. चाय मीठी थी कि कड़वी, या फिर स्वादहीन, मुझे कुछ भी पता नहीं चल पा रहा था.

पहली बार मुझे लगा कि मुझे कुछ हो गया था. कुछ ऐसा, जो नहीं होना चाहिए था. मैं वह ‘मैं’ नहीं रह गया था, जो कल रात सोते समय था. भीतर कहीं कुछ खाली सा अवश्य लग रहा था, वैसे नहीं, जैसे बर्तन उंडेल देने के बाद वह खाली हो जाया करता है, बल्कि जैसे गिलहरी के फुदक कर चले जाने के बाद मुंडेर खाली लगा करती है. पता नहीं क्यों, बाॅलकनी में बैठे रह पाना संभव नहीं हो पा रहा था. अन्ततः मैं उठा और अन्दर चला आया. मैं क्यों बाॅलकनी में बैठ नहीं पा रहा था और क्यों उठ कर अन्दर चला आया था, मेरेे पास इन प्रश्नों का भी कोई मुकम्मल उत्तर नहीं था.

क्या मैं रोबो में तब्दील हो गया था ?

मैंने अपने हाथ पर च्यूँटी काटी, लेकिन मुझेे कुछ भी महसूस नहीं हुआ. न च्यूँटी का काटा जाना और न ही कोई दर्द. लाल त्वचा मुझेे विद्रूपता से ताक रही थी. सहसा मैंने अपने दोनों हाथों में मुट्ठियाँ   बाँधी और उन्हें जोर से दीवार पर कई बार दे मारा. दोनों मुट्ठियों की सरहदों पर लाल खून के चिकत्ते जमा हो गए थे, लेकिन मैं कुछ भी महसूस कर पाने के दायरे से परे चला गया था.

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पहली बार मुझे लगा कि मैं मर चुका था.

पहली बार मुझे लगा कि वह चिड़िया उड गई थी, जो मेरेे अन्दर घर बना कर रहा करती थी.

पहली बार मुझे लगा कि मैं देह से जीवित था, लेकिन भीतर से मर चुका था.

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यह एक विचित्र अनुभव था. पर चूँकि यह ंअनुभव मैं महसूस कर पा रहा था, इसलिए इसका सीधा सा अर्थ मैंने यह निकाला कि मैं मरने और नहीं मरने की सीमा रेखा पर खड़ा हुआ था. एक ऐसी सीमा रेखा, जहाँ जीवित रह कर भी मरा जा सकता था और मर कर भी जीवित रहा जा सकता था, जहाँ अनुभूतियाँ दस्तक तो देती थीं, पर उन्हें महसूस नहीं किया जा सकता था. यही वह नीला समुन्दर था, जिसके न तो पार जाया जा सकता था और न ही इस पार रहा जा सकता था.

ऐसा भी नहीं कि मुझेे इस अजीबोगरीब स्थिति से डर लगा हो. मेरे मन में  कहीं कोई बेचैनी नहीं थी और न ही कोई छटपटाहट थी. सिर्फ एक अथाह खालीपन था, जो मुझमें पैर पसारे बैठा हुआ था. जिसके गोल घूमते भँवर में मेरे महसूस करने की क्षमता कहीं गहरे में समा गईं थीं.

तभी मेरी पत्नी मोर्निंग वाॅक से लौटी.

“तुमने चाय पी ली ?“ घर में आते ही उसने पूछा.

“हाँ.”

“मैं अपने लिए बना रही हूँ. तुम और लोगे ?”

“अ.... हाँ......... नहीं, रहने दो.“ मैं यह निर्णय नहीं कर पा रहा था कि मुझे और चाय पीनी चाहिए कि नहीं !

महत्वपूर्ण चाय नहीं थी, बल्कि यह अहसास था कि मैं निर्णय ले पाने की स्थिति में नहीं रह गया था. ऐसा भी नहीं कि इस अहसास ने मुझे असमंजस में डाल दिया था अथवा भयभीत कर दिया था. मैं पूर्ववत् शान्त और संवेदनहीन महसूस कर रहा था...... कोरा और निचाट !

मैं सोफे पर बैठ गया और मैंने टीवी आॅन कर दिया. टीवी के दृश्य बाहर निकल कर कमरे में फैल गए थे और आवाजें मेरेे कानों से टकरा कर लौट रहीं थीं. छत का नीला समुन्दर सब कुछ निगलता जा रहा था. निरर्थकता पांव पसारे बैठी हुई थी.

कुछ देर बाद पत्नी भी वहीं आ बैठी. मेरेे मना कर देने के बाद भी वह दो कप चाय बना लाई थी. चाय का कप देखते ही मुझेे उबकाई सी महसूस हुई. अन्दर कुछ था, जो बाहर आना चाह रहा था. सुबह की पहली चाय भी जैसे बाहर आने का रास्ता ढूँढ़ रही थी. मैं टीवी पर से निगाह हटाकर चाय को ताकने लगा था.

“तुम्हें क्या हो गया है ?“ पत्नी की चिन्ता किसी गैंद की तरह लुढ़क कर मुझ तक आ गई थी.

“क्या हो गया है !” मैंने प्रतिप्रश्न किया.

“पता नहीं, पर हुआ कुछ जरूर है. सारी रात तुम बड़बड़ाते रहे थे.”

“क्या कह रही हो !”

”सच कह रही हूँ. कल रात तुम बहुत हो गया, बहुत हो गया बड़बड़ा रहे थे...... क्या बहुत हो गया ?“ पत्नी चाय पी रही थी.

“मुझे क्या मालूम !” मैं निर्विकार भाव से पत्नी को देखने लगा था, “जरूर कोई सपना देख रहा होऊँगा.”

“नहीं, वह सपने में बड़बड़ाना नहीं था...... जैसे तुम पूरी तरह जागे हुए थे और कुछ कहना चाह रहे थे. ”

“मुझे कुछ याद नहीं..... ऐसा कैसे हो सकता है कि मैं स्वयं तो नींद में होऊँ और मेरी आवाज बाहर भटकती रहे !“

उसेे मेरी बात समझ में नहीं आई, “नहीं बताना चाहते तो मत बताओ, पर इस तरह की उलझी हुई बातें तो मत करो !”

एक बार मन हुआ कि मैं पत्नी को सब कुछ बता दूूँ, उसे नीले समुन्दर के बारे में बता दूँ जिसे मैंने लेटे लेटे अपने कमरे की छत पर देखा था, उस भंवर के बारे में बता दूँ जिसने मेरे अहसासात लील लिए थे..... पर मुझसे एक शब्द भी नहीं बोला गया. यह भी नहीं कि कैसे मैं सुबह से ही बुझा हुआ और निचाट महसूस कर रहा था ! भाषा किसी शब्दकोश में जा छिपी थी.

चाय खत्म करते हुए पत्नी ने कहा, “आज आॅफिस में एक मीटिंग है. मुझे जल्दी जाना होगा. मैं कार ले जाऊँ ?“

हालांकि वह मुझसे कुछ पूछ रही थी, लेकिन वह प्रश्न कम और सूचना ज्यादा थी. पर मुझे कोई खीज महसूस नहीं हुई थी. पत्नी ने मानो कोई प्रश्न किया ही नहीं था. मैं वैसे ही निर्विकार बैठा रहा.

”तुम स्कूटर ले जाना.“ पत्नी ने निर्णय सुनाया.

“ठीक है.”

मैं चुप रहा. पत्नी के लिए गए निर्णय से दरअसल मुझे कोई अन्तर नहीं पड़ा था. वह अपने रोजाना के कामों में व्यस्त हो गई थी, जबकि मेरा मन कुछ भी करने का नहीं हो रह था. पेट में कुछ ऊब डूब होने लगी थी, पर वह कम से कम भूख तो किसी हाल में नहीं थी.

खिड़की के बाहर बिजली के तार पर बैठा एक कौवा मुझे घूर रहा था. क्या वह अपना हिस्सा लेने आया था ?

इस बार बैठे रहना दूभर हो चला था...... नहीं, मैं पूरी तरह मरा नहीं था. कुछ अहसासात अभी भी मुझमें साँस ले रहे थे. यह जान कर मुझेेे खुश होना चाहिए था, पर चाह कर भी खुश होने का कोई भाव मैं अपने भीतरं जगा नहीं पा रहा था. यह अवश्य लगा कि मुझे कुछ ऐसा करना चाहिए, जिससे इस जड़ता को तोड़ा जा सके. लेकिन क्या, यह निर्णय कर पाना अब मेरे लिए संभव नहीं रहा था.

मुझे याद आया कि मुझेे भी दफ्तर जाना होता है. मैं उठा और मैंने यन्त्रवत दफ्तर जाने के लिए अपने कपड़े निकाले, जूते पाॅलिश किए, प्रतिदिन की तरह बैडरूम व्यवस्थित किया, और शेव बनाने शीशे के सामने जा खड़ा हुआ. हर घटना एक व्यर्थ के रुटीन में बदल चुकी थी, जैसे कोई कैसेट बार बार बजाया जा रहा हो.