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मिथिलेश कुमारी मिश्रा-उपन्यास के कबीर

मिथिलेश कुमारी मिश्रा के उपन्यास के कबीर

-डॉ के.बी.एल. पाण्डेय

हिन्दी के जीवनीपरक उपन्यासों में एक उपविधा यह विकसित हुई है जिसमें कवियों की जीवनी को आधार बनाया गया है। जीवनीपरक उपन्यासों के अधिकतर चरित्र नायक पुराण, इतिहास अथवा समाज के ने लोग है जिनके व्यक्तित्व और कृतित्व असाधारण रहे हैं। इनमें से अनेक व्यक्ति तो ऐसे भी हुए हैं जो अपनी असाधारण भूमिका के बाद भी प्रायः उपेक्षित बने रहे अथवा उनके प्रति परंपरा से चली आ रही धारणा ही बनी रही। इस तरह के उपन्यासों का उद्देश्य उन असाधारण व्यक्तियों के कृतित्व को समाज के सामने प्रेरणा के रूप लाना है और उन्हें आज के समय के साथ प्रासंगिक सिद्ध करना भी है।

कवियों की जीवनी पर आधारित उपन्यास इस दिशा का नया प्रयोग है जिसका श्रेय अल्प वय में ही प्रभूत परिमाण में साहित्य रचना करने वाले लेखक रांगेय राघव को है। विविध विधाओं के इस लेखक की सूजन क्षमता चकित करती है। उन्होंने विद्यापति पर 'लखमा की आँखें, कबीर पर 'लोई का ताना', तुलसी पर रत्ना की वात', बिहारी पर 'मेरी भव बाधा हरौ' और भारतेन्दु पर 'भारती का सपूत उपन्यास लिखे। इस सिलसिले का उपन्यास लेखन में ऐसा स्वागत हुआ कि अमृतलाल नागर जैसे प्रसिद्ध कथाकार जे सूश्वास पर 'ख अन्न नान' और तुलसी दास पर मानस का हंस' जैसे चर्चित उपन्यास लिखे। नागर जी की कल्पना शीलता और किस्सा गोई ने इन उपन्यासों के रूप में अनुपम कथा कृतियों का सृजन किया इस परंपरा में भगवती प्रसाद द्विवेदी का मीरा पर 'पीताम्बरा', शत्रुन्ध प्रसाद जी का कबीर पर 'सुनो भाई साधो देवेन्द्र दीपक साधु का 'संत रविदास की राम कहानी, इकबाल बहादुर देवसरे का राय प्रवीण पर 'ओराठा की नर्तकी', संजीव का भिखारी ठाकुर पर 'सूत्रधार', अम्बिका प्रसाद दिव्य का ईसुरी पर 'प्रेम तपस्वी' और मैत्रेयी पुष्या का ईसुरी पर 'कही ईसुरी फाग' उपन्यास आये।

इस कथा श्रृंखला में उत्तुंग शिखरों पर यश-केतन ले जाने का गौरव अनेक क्यों विधाओं में विपुल परिमाण की लेखिका मिथिलेश कुमारी मिश्र के खाते में जाता है। संस्कृत के प्रसिद्ध कवि और काव्यशास्त्री पंडित राज जगन्नाथ पर 'लवंगी' उपन्यास के अलावा मिथिलेश जी ने भूषण पर 'वैरागिन', घनानन्द पर 'सुजान' और कबीर पर 'कबीर' जैसे उत्कृष्ट उपन्यासों की रचना की है।

यहाँ उनके 'कबीर' उपन्यास का विवेचन अभिप्रेत है इसलिये भी कि हम उसे स्वतंत्र पति के रूप में भी पढ़ सकते है और कबीर पर लिखे गये अन्य उपन्यासों के साय रुकर भी। यह सुखद संयोग है कि यह उपन्यास कबीर की 600 वी जयंती पर 2001 ई में प्रकाशित हुआ है और यह भी हर्ष की बात है कि पटना में ही कबीर पर दो उपन्यास संभवतः एक ही समय लिखे जा रहे थे क्योंकि शुत्रुघ्र प्रसाद जी के सुनो भाई साथो' का प्रकाशन भी 1999 ई. में हुआ।

मिथिलेश कुमारी जी के 'कबीर पर विचार करते समय पुस्तक के 'प्रकाशकीय' का सन्दर्भ उपयोगी होगा । इस उपन्यास के विषय में शीर्षक से प्रकाशक की ओर से कहा गया है कि इस उपन्यास में नायक कबीर मात्र सन्त नहीं है। वह अन्ध विश्वासों और रूढ़ियों के विरुद्ध लोहा लेता एक अति साधारण आदमी का प्रतिनिधित्व करता सशक्त क्रान्तिकारी एवं संघर्षशील, जुझारू व्यक्ति है जो समय-समय पर उग्र होता है किन्तु हिंसा पर कतई विश्वास नहीं करता। वह तर्क करता है पूरे आत्मविश्वास से किन्तु गर्व का स्पर्श उसके व्यक्तित्व के निकट तक नहीं आ पाता। इस उद्धरण से सिद्ध होता है कि लेखिका की दृष्टि में कबीर भक्ति की अमूर्त दार्शनिकता और एकान्त साधना में लीन समाज निरपेक्ष वैरागी नहीं थे। इससे बहुत आगे वह जीवन के सत्य और तत्त्व को समाज के व्यावहारिक पक्ष में घटित करना चाहते थे। उनके तर्को की काट किसी के पास नहीं थी। क्योंकि वे जीवन की प्रयोग शाला के परीक्षण से निकले थे। यह परीक्षण कथनी और करनी के अद्वैत से समर्थित था । मूल कबीर में भी और इस उपन्यास के कबीर में भी आत्मविश्वास होते हुए भी गर्व नहीं है। एक तो कबीर जानते हैं कि लोग सत्य से भटक कर पथ भूले हुए हैं । इस लिए भी वे स्वयं पर गर्व नहीं करते, दूसरे भक्ति की जिस पद्धति को वह मानते हैं उसमें भक्त की विनमता स्वाभाविक है।

इतिहास पुराण अथवा समाज के किसी व्यक्ति या घटना पर उपन्यास लिखने में लेखक को एक ओर मूला सत्य की रक्षा करनी पड़ती है ताकि प्रासंगिकता बनी रहे, दूसरी ओर अपनी कल्पना से कुछ घटनाओं और पात्रों का इस तरह निर्माण करना पड़ता है। जिससे सत्य को कथात्मक शिल्प मिल सके। मूल की यथातथ्यता तो पुर्नलेखन हो जायेगा और मूल से हट कर अधिक कल्पना से प्रमाणित आहत होगी। इसलिए दोनों का संतुलन आवश्यक है। मिथिलेश कुमारी मिश्रा ने इस संतुलन को अच्छी तरह संभालते हुए कबीर उपन्यास को एक रोचक कृति का रूप दिया है।

कबीर के जीवन पर लिखित प्रामाणिक जानकारी अधिक नहीं है। जो कुछ है वह जनश्रुतियों पर आधारित है। यह बात अवश्य सुविधाजनक हैं कि कबीर के बारे में जन्म से नृत्यु तक जो भी जातियों प्रचलित हैं उनमें प्रायः समानता है। इसलिये कधीर पर जो भी उपन्यास लिखे गये हैं उनमें उनके जीवन का अधिकतर वृत्तान्त समान है। जो भी काल्पनिक स्थितियों है। ये फमाणिकता को क्षति नहीं पहुंचाती हैं। मिथिलेश कुमारी जी के कबीर' उपन्यास में कबीर के जन्म, पालन पोषण, माता-पिता, विवाह, सन्तान, गुख रामानन्द से भेंट और मगहर में निधन के विषय में लोक प्रचलित मत ही स्वीकार किया गया है। जो परिवर्तन हैं वे हैं कबीर और लोई का बचपन से ही जाति पांति के विरूद्ध सोच और मानवतावादी विचार।

यहाँ एक प्रश्न उठ सकता है कि कबीर अपने ज्ञान मार्ग के अनुसरण में सत्य की अनुभूति करके हिन्दू और मुसलमान दोनों के अन्य विश्वासों और धार्मिक पाखण्डों की कठोर आलोचना कर रहे थे तो दोनों में उसकी प्रतिक्रिया क्या हुई होगी? क्या दोनों धर्मों के लोगों ने इसका विरोध नहीं किया होगा ? धार्मिक मामले तो हमेशा बड़े नाजुक रहे हैं और लोग उनके कारण बड़ी जल्दी आहत होते रहे हैं। इसी के साथ एक और बड़ा प्रश्न है कि क्या तत्कालीन मुस्लिम शासक तक कबीर के इस वैचारिक दुःसाहस का समाचार नहीं पहुँचा होगा ? और यदि पहुँचा था तो अपने धर्म से जुड़े कर्मकाण्ड की इतनी तीखी आलोचना सुनकर सिकन्दर लोदी ने कबीर के साथ क्या व्यवहार किया होगा?

मिथिलेश कुमारी मिश्र ने इस संभावना को समझा और मौसम अली तथा दुबरी दुबे जैसे पात्रों के माध्यम से कबीर को प्रताड़ित दिखाया है। जो श्रम जीवी हैं धर्म जिनके लिए व्यवसाय नहीं हैं, जीवन के साथ जुड़ी नैतिकता है वे कबीर के साथ हैं। यह कबीर के सत्य का प्रभाव है कि अन्त में मौसम अली और दुबरी दुबे भी अपना कट्टरपंथ छोड़ देते हैं। सिकन्दर लोधी की प्रतिक्रिया पर भी लेखिका ने अपनी कल्पना शीलता का उपयोग किया है। बादशाह कबीर की तेजस्विता और उसके सत्य से प्रभावित होकर स्वयं कबीर का अनुयायी हो जाता है। इतिहास में या लोकश्रुति में इसका प्रमाण हो अथवा नहीं पर लेखिका को यह उपाय अधिक स्वाभाविक लगा। प्रगतिशील विचार के पक्षधर रांगेय राघव इस प्रसंग को अलग तरह लिखा है। बादशाह के आदेश से कबीर पर मस्त हाथी छुड़वा दिया जाता है। बादशाह की सेना और जनता में युद्ध होता है। जनता की विजय होती है और कबीर में बचा लिये जाते हैं। शत्रुन्ध प्रसाद जी के कबीर को सिकन्दर लोधी, गंगा फिकवा देता है। मल्लाह उन्हें बचा लेते हैं।

'कबीर' उपन्यास में मिथिलेश कुमारी जी ने संयोग और चमत्कार का भी उपयोग किया है। संयोग भले ही आश्चर्यजनक लगे पर जीवन में घटित तो होता ही है। जिस विधवा स्त्री ने लोक भय से कबीर को जन्म के बाद छोड़ दिया था वह लहर तारा के मह में प्रकट हो जाती है। उसे नहीं पता है कि कीर ही वह शिशु है। लोई उस स्त्री की कला कला सुन कर माँ बेटे का मिलन करा देती है। यह संयोग बहुत ही रचनात्मक और सुसाद है। चमत्कार के रूप में मगहर में कबीर के शव से जड़ी घटना है। कबीर का जीवन मिलक्षणताओं. विरोधों और चुनौतियों से भरा रहा है। यह विहस्वाना ही है कि जिस कबीर को जन्म से हिन्दू माना गया और पालन पोषण से मुसलमान, जिसने दोनों के धार्मिक अन्धविश्वासों पर खुले शब्दों में प्रहार किये उसी व्यक्ति के शव को हिन्दू अपनी कौम का और मुसलमान अपना मानकर आपस में लड़ रहे थे। समाधान क्या हो सकता था जब कोई उस शव को जलाना और कोई दफनाना चाहता हो ? तब लेखिका का समाधान ही अधिक उचित था कि वहाँ शव की जगह फूल रखे मिले। तेज आँधी में मानो वह शव अदृश्य हो गया। भौतिक तव्य की दृष्टि से भले ही यह चमत्कार लगे ।

उपन्यास में जाय और सूफी सम्प्रदाय की चर्चा पृष्ठभूमि का निर्माण करती है। कबीर से दोनों सम्प्रदायों के संतों की बहस होती है और दोनों ही कबीर के सत्य से सहमत हो जाते हैं कबीर जिस विचार के प्रतीक के रूप में लोक में प्रतिष्ठित हैं उसकी ओर उपन्यास लेखिका का पूरा, अवधान है। निर्गुण ब्रह्म की दार्शनिकता के गंभीर विवेचन के अतिरिक्त कबीर की छवि धार्मिक पाखण्ड और अज्ञान के आलोचक की है। कबीर अपने समय के सबसे बड़े समीक्षक हैं। 'इस उपन्यास के विषय में' शीर्षक में कहा भी गया है कि उसकी कथनी और करनी में कहीं कोई अन्तर नहीं है। लेखिका ने कबीर को महामानव के रूप में प्रस्तुत नहीं किया है। जाति पांति के बारे में कबीर कथनी और करनी में एक हैं। वह उससे ऊपर मनुष्यता के पक्ष में हैं। वह कहते हैं-मुझे जान से भी मार डालोगे तो भी चिल्लाता रहूँगा कि जाति पांति दोग है।

अतीत के किसी आख्यान अथवा चरित्र पर लिखना एक तरह से पुनर्पाठ है। इस पुनर्पाठ की सार्थकता तभी है जब उस आख्यान अथवा चरित्र की व्याख्या आज के साथ प्रासंगिक लगे जाति पाँति का विरोध कबीर की निर्गुण भक्ति की दृष्टि से तो संगत है ही, वह आज के नवजातीय उभार के समय भी ज्वलन्त है। प्रासंगिकता के तौर पर लेखिका ने एक और विषय पर भी बल दिया है वह है धर्म के क्षेत्र में श्रम की चर्चा । कबीर के समाज में सभी जातियों के लोग हैं और कुछ कट्टर पात्रों का छोड़कर सभी हिन्दू और मुसलमान पात्र सामान्य स्तर के हैं। वे सब कामगार हैं, श्रमिक हैं। निर्गुण संतों की यह विशेषता बहुत आदर्शपूर्ण थी कि इसके सभी सन्त गृहस्थ थे और जब गृहस्य थे तो उन्हें परिवार पालने के लिए कुछ काम भी करना पड़ता या अर्थात श्रम करना पड़ता या। वे वैरागी, निष्क्रिय और केवल भंडारा खाते वर्णनात्मक शैली में लिखे गए इस उपन्यास में बीच-बीच में जीवन के सामान्य सत्यों अथवा निष्कर्षों का वैचारिक विश्लेषण भी होता रहता है। यह विवेचन प्रायः अध्यायों के आरंभ में आता है और फिर शेष अध्याय उसी सन्दर्भ में विकसित होता है। अपने उद्देश्य को पूरा करता मिथिलेश जी का यह उपन्यास द्वन्दात्मक स्थितियों और हलचलों से गुजरता हुआ शान्ति पाठ की तरह समाप्त होता है। प्रकाशकीय वक्तव्य के अनुसार कबीर बालपन से ही एक सहज आम आदमी की तरह विकसित होता है। यह अभिप्राय अपनी फलश्रुति तक पहुंचता है जब रामानन्द जी कबीर के बारे में कहते हैं-अविश्वा और विद्या को साथ लेकर तुम जिस लक्ष्य की ओर बढ़ रहे थे, वह पूरा हो गया। भारत का इतिहास इस बात की साक्षी देगा कि एक साधारण अपढ़ व्यक्ति इस देश की भावी पीढियों को जो सहज बोध दे गया है उसके वे आजीवन ऋणी रहेंगे। 'जाति पॉति पूछे नहिं कोई। हरि मों भजे सौ हरि का होई' यह कह देना सरल है परन्तु तुमने इस सत्य को यथार्थ में बदल दिया, इसी सिद्धि ने तुम्हें मुक्त कर दिया।

कबीर व्यक्ति-मुक्ति के नहीं लोक जागरण और लोकमुक्ति के नायक थे। यह उपन्यास इसे बहुत पठनीयता के साथ सिद्ध करता है। ।

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