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सुख की स्मृति

तुम आए ही क्यों मेरी जिंदगी में ,जो वापसी के लिए इतने नाटक कर रहे हो ?क्या एक बार भी तुम्हारा मन नहीं कसकता कि तुम मेरे साथ कितना अन्याय कर रहे हो ?क्या हमारा रिश्ता इतना कमजोर था कि जरा -सी बात पर टूट जाए ?क्या दुनिया की दीवारें इतनी मजबूत होती हैं कि प्यार को रोक सकें |हाँ,प्यार खुद रूकना चाहे तो रोक ही लेती हैं |शायद तुम खुद रूकना चाहते हो |तुम ही मेरे साथ आगे नहीं बढ़ना चाहते |सुना था प्यार के रास्ते में दुनिया दीवार बनती है पर जब प्रेमी ही खुद दीवार खड़ी कर दे तो प्रेमिका क्या कर सकती है ?मेरा तो नायक ही खलनायक है |क्या करूँ मैं ?
तुम मेरे थे ही कब ?तुम तो हमेशा किसी और के थे या फिर किसी के नहीं थे |तुम्हारा मेरे पास आना बस लोभ था ,प्रेम नहीं |हमारे बीच सिर्फ रोमांच था ,रोमांस नहीं और रोमांच खत्म तो रिश्ता भी खत्म |पर मैं तो रोमांच के लिए नहीं ,प्रेम के लिए जुड़ी थी तुमसे |तभी तो एक क्षण के लिए भी नहीं भूला पाती तुम्हें |इतने दिनों की हर पल की तुम्हारी उपस्थिति मेरे साथ है |तुम्हारा हँसना ,बोलना ,लेटना ,छूना ,प्यार करना कोई झूठ तो था नहीं ..ना ही सपना था |तुम मेरी जिंदगी की जीती-जागती हकीकत थे |इतने सहज सरल कि तुम पर बरबस प्यार आ गया पर आज तुम ही किसी भी हद तक गिरने को तैयार हो |अब यदि तुम्हारा कोई मित्र मेरा पक्ष लेता है ,तो उसे तुम गलत कहते हो |साथ ही मेरे बारे में उससे तमाम उल्टी-सीधी बातें करते हो |अपने घर वालों तक से तुमने मेरे बारे में कुछ अच्छा नहीं कहा है और यह सब इसलिए कि कभी हम अलग हों तो तुम नहीं सिर्फ मैं दोषी ठहराई जाऊँ....कि कोई तुम पर मुझसे विवाह कर लेने का दबाव न बना सके |तुम जरूरत से ज्यादा चालाक हो ....अपना भविष्य सुरक्षित रखकर ही रिश्ता बनाते हो ....|मैं यह सब समझती हूँ और मेरी समझदारी इसी में है कि मैं तुम्हें हमेशा के लिए छोड़ दूँ पर मैं तुम्हें प्यार भी करती हूँ और तुम्हें अपनी जिंदगी से नहीं निकाल सकती |तुम कहते हो कि स्त्री संबंधी तुम्हारी सारी इच्छाएँ ...सारे शौक मैं पूरा कर चुकी हूँ और अब तुम्हारा मन किसी भी लड़की की तरफ नहीं भागता पर तुम ज्यादा दूर मेरे साथ चल भी नहीं पाओगे |अब कोई तुमसे पूछे कि साथ चले ही कब थे कि वापसी कर रहे हो ..?.वह तो मैं थी कि तुम्हें खुद तक खींच लाई थी |तुम कहते हो हम सिर्फ अच्छे दोस्त हैं तो क्या दोस्त प्रेमी और पति में कोई अंतर नहीं होता ?तुमने तो तीनों रिश्तों को एक में मिला दिया है |मेरे साथ तीनों रूपों को जीया है|अब सिर्फ दोस्त कहकर दूर जाना चाहते हो | क्या दोस्ती का मतलब यह है कि दोस्त के दुख-दर्द की अपेक्षा उसकी देह और दौलत में दिलचस्पी ली जाए और फिर उसे भंवर में अकेला छोड़कर खुद किनारे जा खड़ा हुआ जाए |नहीं ...तुम अच्छे दोस्त तो न बन सके ….. अच्छे प्रेमी और सच्चे पति बनोगे ,इसमें भी मुझे संदेह है |
किसी भी रिश्ते के लिए ईमानदारी जरूरी शर्त है और तुम ईमानदार तो कतई नहीं हो और यह तुमने प्रूफ भी कर दिया है |तुम अपनी वर्षों की प्रेमिका को छोड़कर मेरे पास आए थे और मुझसे अंतरंग संबंध बना लिए |फिर तुम अपने घर वालों के बहाने किसी और को भावी पत्नी बनाने का वचन दे आए हो और उससे मिलते रहते हो |वह भी तुमसे मन से इतना जुड़ गयी है कि जब भी तुम मेरे पास होते हो उसका फोन जरूर आ जाता है |शायद उसे आभास होता हो कि उसके प्रेम का बादल कहीं और बरस रहा है |वह तुमसे प्रेम करने लगी है| मैं भी तुम्हें प्रेम करती हूँ पर तुम किससे प्रेम करते हो ?शायद तुम किसी से भी प्रेम नहीं करते बस अपने-आप से प्रेम करते हो |तुम मुझे अपना शरीर सौंप देते हो पर इस गिल्टी में भी रहते हो कि उसे धोखा दे रहा हूँ |शायद मैंने तुम्हें सिर्फ तन से पाया है और उसने मन से पा लिया है पर हम दोनों ही तुम्हारे अधूरेपन के साथ छटपटा रही हैं | तुम बंटे हुए हो इसलिए किसी के साथ सम्पूर्ण रूप से नहीं रह पातेतुम सोचते हो विवाह से पूर्व तुम मेरे साथ रहोगे और विवाह के बाद उसके साथ |तुम्हें मेरी अच्छाई पर इतना भरोसा है कि तुम सोचते हो कि मैं तुम्हें इसी रूप में स्वीकार कर लूँगी और जब तुम जाओगे तो बिना किसी शिकवा –शिकायत के तुम्हें विदा कर दूँगी |तुम सोचते हो कि सब कुछ तुम्हारी इच्छानुसार होगा |पर यदि मैं विद्रोही हो जाऊँ तो .....पर नहीं मैं बागी नहीं बनूँगी |मैं जबर्दस्ती के रिश्तों में विश्वास नहीं करती |जानती हूँ सच्चा सुख तो मन में होता है ...प्यार में होता है |सिर्फ देह के रिश्ते खुशी नहीं दे सकते और तुम मन से कभी मेरे बन ही नहीं सकते |तुम्हें पाकर भी नहीं पाया मैंने |पर एक सच यह भी है कि तुमसे अलौकिक सुख भी मिला है ..तुमने देना नहीं चाहा पर तुम्हारे साथ से ...आवेगमय प्यार से अनायास ही मुझे मिल गया |तुम अपने सुख के लिए मेरे पास आए थे पर मुझे सुख से सराबोर कर गए |मेरी अपूर्णता को पूर दिया तुमने और तुम्हें इसका पता भी नहीं है |तुम्हें लगता है कि तुमने मुझसे लिया ही लिया पर क्या दिया ...यह नहीं जानते |पुरूष हमेशा इसी भ्रम में तो रहता है कि वह स्त्री से सिर्फ पाता है |वह नहीं जानता कि वह पाने के उपक्रम में वह खोता है जिससे स्त्री सम्पूर्ण होती है |उसका अहंकार इस दिशा में सोचता ही नहीं |
प्रेम में पुरूष पहल करते हुए आगे बढ़ता है स्त्री पीछे हटती है पर जब स्त्री आगे बढ़ती है तो पीछे नहीं मुड़ती |ईमानदारी के साथ निभाती है रिश्ता |उसके प्रेम में देह भी शामिल हो जाए तो उसे कुछ अप्राकृतिक नहीं लगता |प्रेम के आगे 'देह-शुचिता' की भावना दब जाती है|यह भावना उस मामले में प्रबल होती है,जहां प्रेम नहीं होता | स्त्री मन से पहले जुड़ती है और देह देह से बाहर तो है नहीं |जब मन जुड़ गया तो देह तो जुड़ेगी ही |दिक्कत तब आती है जन पुरूष ‘पा लेने’ के गर्व से भर जाता है और स्त्री ‘खो देने’की मानसिकता से पीड़ित हो जाती है |पुरूष पाकर पीछे हटता है और स्त्री खोकर पुरूष के पीछे |फिर पुरूष भागता स्त्री उसका पीछा करती है |पुरूष झल्लाता है स्त्री गिड़गिड़ाती है |स्त्री रिश्ते में स्थायित्व चाहती है पुरूष भ्रमर है |एक मंजिल पाने के बाद दूसरी मंजिल की जद्दोजहद में लग जाता है पर स्त्री के लिए वही मंदिर वही पूजा वही देवता जिसके चरणों में चढ़ाई जा चुकी है |वह खुद को बासी फूल मान बैठती है उसके लिए अन्य देवता की तलाश संभव नहीं |वह जानती है कि हर देवता को अनाघ्रात ताजा अक्षत पुरूष ही चढ़ाया जाता है |अब स्त्री रोती है पुरूष हँसता है उसे पिछड़े दिमाग की कहता है |स्त्री सोचती है उसकी देह अपवित्र हो चुकी ...जिसने की ......वह चाहे जैसा हो,उसके अलावा किसी और के बारे में सोचना भी पाप है |पुरूष सोचता है कि वह कितना सक्षम है कि स्त्री ने उसे अपना सब कुछ समर्पित कर दिया |वह खुद को अपवित्र नहीं मानता |उसके लिए देह ही सब कुछ नहीं है जबकि स्त्री के लिए देह ही उसका मापदंड है |यहीं से दिक्कतें शुरू होती हैं |स्त्री खुद को हारा हुआ ....छला हुआ महसूस करती है |कई बार तो आत्मघात भी कर लेती है |मामला वही देह-शुचिता |समाज भले ही न जान पाया हो कि उसकी देह पवित्र नहीं रही ,वह तो जानती है |उसे घुट्टी में पिलाया गया है कि उसके लिए देह ही सब कुछ है ....उसकी अस्मिता .....पहचान सब कुछ |और देह स्वेच्छा या जबरन किसी तरह अपवित्र हुआ तो वह खत्म हो गयी |जाने कब वह समझ पाएगी कि वह देह से ऊपर है ...एक पूर्ण व्यक्तित्व और किसी पुरूष छू लेने मात्र से अपवित्र नहीं हो जाती ...उसका जीवन खत्म नहीं हो जाता |
प्रेम में अगर वह कुछ खोती है तो पाती भी है |पुरूष का यह भरम ही है कि वह सिर्फ पाता है |वह स्त्री को पाने के उपक्रम में खुद को खोता भी है |सच तो यह है कि स्त्री ही पाती है क्योंकि वह देह-मन से मुक्त होकर प्रेम को महसूस करती है |पुरूष तो प्रेम के क्षणों में भी गणित में उलझा रहता है |फिर भी अगर वह पाने के अभिमान से भरा है तो रहे |चला भी जाए तो जाए |लेकर तो कम जाएगा देकर ज्यादा जाएगा |अगर वह अपवित्र नहीं हुआ तो स्त्री कैसे हो गयी ?क्या नैतिकता ,पवित्रता ,चरित्र की परिभाषा दोनों के लिए अलग है |अलग है तो स्त्री को इसे तोड़ फेकना होगा |जब तह स्त्री खुद को सिर्फ देह मानती रहेगी मुक्त नहीं होगी |
मैं तुम्हारे साथ की उस सुंदर सुखद सुख की स्मृति को बचाए रखने के लिए तुम्हें क्षमा कर दूँगी और तुम्हें जाने को नहीं कहूँगी| पर अगर तुम जाना चाहोगे तो जाने दूँगी ...बाँधूँगी नहीं |