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सफ़र एहसासों का

लीना खेरिया

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एक गुलदस्ता होता है न जिसमें ख़ुशबू होती है, छुअन होती है, रफ़्ता-रफ़्ता चलते कुछ सवाल होते हैं और उसी रफ़्तार से चलते उनके जवाब भी ! वे सब गुम होती दिशाओं के साथ कदम से कदम मिला चलते ही तो रहते हैं | वे जज़्बातों को दिल की मुट्ठी में कैद कर एक सुहानी सी भोर से लेकर  साँझ के पल्लू में ऐसे झरते हैं जैसे हारसिंगार के ऐसे फूल जो अपने प्रियतम को पूरी रात प्रतीक्षा करवाते हैं | लेकिन ---लेकिन उन खुशबुओं की तैरती फ़िज़ाओं में ख़ुश्बू फीकी नहीं पड़ती | ये ताक़त है एहसासों की !

मेरी दृष्टि में एहसास की ख़ुशबू जीवन जीने का वो ख़ूबसूरत सलीका है जिससे सिर्फ़ और सिर्फ़ प्यार झरता है | संवेदना जब मन के भीतर तंबूरा बजाती है, तब संध्या-बेला में घर लौटते पंछियों की चहचहाहट मन के कोनों को एहसासों से भर देती है | उन एहसासों से कभी खिलखिलाते, कभी बिसुरते, कभी आँखों की कोरों में जलजले की भाँति सौ-सौ बहाने तैरते हैं | कोई कवि या साहित्यकार जबरदस्ती अपने भावों को कोमलता की छुअन से नहीं भर पाता | एहसास वही छुअन हैं, एहसास सरगम हैं, एहसास गीत हैं, ग़ज़ल हैं, छंदयुक्त हैं, अछांदस भी हैं | अहसास किसी सीमा के बंधन में बँधकर मुस्कुरा नहीं पाते | उन्हें खुली मुहब्बत पसंद है |

लीना को मैंने इस एहसास की छुअन की पतली सी डोर को पकड़े चलते देखा है | मैंने उसकी तड़प देखी, उसकी बेचैनी ने मुझे झिंझोड़ा है |  उसके आँसू देखे, महसूस किए हैं | यदि आप सबके मन में किसी समीक्षा की तस्वीर बनी हुई है, मैं वहाँ फ़ेल हो जाऊँगी। असफ़ल हो जाऊँगी क्योकि मैं किसी समीक्षा की बात नहीं कर पाती, समीक्षा बड़ी गंभीर व निष्ठुर होती है, जो मेरे बसका रोग भी नहीं है या कहें मुझे समीक्षा करनी आती नहीं है  | मैं बात  कर रही हूँ एहसासों की जो एक किनारे से लेकर मन  के दूसरे किनारे तक तंबू तानकर ऐसे खड़े रहते हैं  कि निकलने का  रास्ता तक नहीं देते | उन्हें दिल की कोरों से ऐसे छनकर निकलना होता है जो किसी अँधियारे कोने से झाँकती कसमसाती, गुनगुनाती वो किरण जिसे अंक में भरकर हताश मन आलौकित हो जाता है |

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पुस्तक के समर्पण में ही ये एहसास ;झंझोड़ रहे हैं, मन नहीं, बिंधता रहता है  और एहसासों के घेरे में गोल-गोल घूमकर शब्दों की पगडंडी बना देता है जिस पर चलकर कवयित्री की क़लम बोल उठती  है  --

काल का ये कैसा कुचक्र है कि आपके हाथों इस पुस्तक का विमोचन करवाना चाहती थी ---

नहीं जानती थी कि इसे  आपको समर्पित करुँगी --

आप हैं, यहीं कहीं, आसपास ---

और मुझ पर अपना स्नेह व आशीष लुटा रहे हैं ---

हाँ न पापा ----!!

बिलकुल सही लिखा है ा प्रिय लीना ----

उनका आशीष है, तभी एहसासों की डोर नाज़ुक लेकिन मज़बूत है |

इस संग्रह पर कई चर्चित साहित्यकारों की टिप्पणियाँ आ चुकी हैं, सम्मान प्राप्त हो चुके हैं | और भी प्रगति होती रहे, ढेरों सम्मान तुम्हारी झोली में आने के लिए पंक्तिबद्ध हैं |

मेरी बहुत सारी प्यार भरी बधाई व शुभकामनाएँ |

स्नेहाशीष