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मधुशाला के बारे में कुछ चिंतन

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भावुकता अंगूर लता से खींच कल्पना की हाला,
कवि साकी बनकर आया है भरकर कविता का प्याला,
कभी न कण-भर खाली होगा लाख पिएँ, दो लाख पिएँ!
पाठकगण हैं पीनेवाले, पुस्तक मेरी मधुशाला।

1935 में इस काव्य की रचना हुई | सर्व विदित है कि मधुशाला प्रतीकात्मक रूप में लिखी गई है।सबसे पहले इसी विषय पर उम्र ख़ैयाम की रुबाइयों की रचना समक्ष आई जिसका अंगेज़ी में फ़िटजेरॉल्ड ने अँग्रेज़ी में अनुवाद किया | बच्चन जी ने पहले इन रचनाओं का अनुवाद किया और इनके भौतिक प्रतिमाओं और प्रतीकों ने उनका ध्यान अपनी और खींचा |

उन्‍होंने अपनी आत्‍मकथा में स्‍वीकारा भी है कि उन्‍हें लगा कि जैसे यह स्‍वयं उनकी कहानी है, उनका सत्‍य है।

कोई भी काव्‍य यदि मन को छू जाए तो पाठक की भावना, कल्‍पना और विचारशक्ति को भी झंकृत कर देता है। उस झंकार के रहते एक नई रचनात्‍मक अभिव्‍यक्ति बाहर आने के लिए छटपटाने लगती है। अनुवाद के दौरान बच्‍चन जी के मन के कल्‍पना-लोक और विचार-तंत्र में भी कुछ ऐसा हुआ जिससे उनकी अपनी मधुशाला आकार लेने लगी। निश्चित रूप से उस समय कुछ टिप्पणियां हुई होंगी। कहीं न कहीं बात कविमन को चुभी होगी। संभवत: उत्तर देने के लिए बच्‍चन जी ने भूमिका लिखी। यह भूमिका एक ओर स्‍पष्‍टीकरण है कि वे मौलिक हैं तो दूसरी ओर मधुशाला की रचना-प्रक्रिया को समझने का एक ऐसा आधार है जिसे जाने बिना हम मधुशाला के मर्म तत्वों को नहीं समझ सकते। भूमिका के जो अंश उसमें पहला अंश है प्रकृति का अपनापन।

मधुशाला की रचना के समय का वातावरण बहुत ही उलझा हुआ सा था। गांधी का सत्‍याग्रह आंदोलन राजनीतिक स्‍तर पर विफल हो रहा था। क्रांतिकारी गतिविधियां गुपचुप बढ़ती जा रही थीं। नवयुवक बेरोज़गार थे। ब्रिटिश दमन विकराल रूप लिए जा रहा था। ऐसी स्थिति में भारतीय जन-मन कुंठाओं, अवसादों में जी रहा था। बच्‍चन की ‘मधुशाला’ उस अवसाद को दूर करते हुए रूप, रस, गंध की मस्‍ती लेकर आई। एक गति, लय और प्रवाह के साथ आई। तन्‍मयता और हृदय के आंतरिक आवेग के साथ आई। जनता ने उसे तत्‍क्षण स्‍वीकार किया और वह जनता की कविता बन गई। इस भावबोध का सिलसिला यद्यपि भगवती चरण वर्मा ने प्रारंभ किया था। उसे आगे बढ़ाने वालों में नरेन्‍द्र शर्मा और अंचल भी रहे, लेकिन उसे सर्वाधिक मुखर अभिव्‍यक्ति ‘मधुशाला’ के माध्‍यम से मिली, क्‍योंकि मधुशाला सामाजिक स्‍तर पर सभी प्रकार के तनावों से मुक्‍त करते हुए जीवन के मिथ्‍या आडंबरों और विडंबनाओं के सहज निदान प्रस्‍तुत करती थी। जहाँ उमर ख़य्याम की मधुशाला का प्रभाव निराशा दुख में परिणित होता है, वहीं बच्‍चन की मधुशाला एक सुखानुभूति है, एक मस्‍ती है और उमंग है। हां, कभी-कभी इसमें भी निराशा झलकती है और जीवन की क्षणभंगुरता भी, लेकिन वह क्षणभंगुरता किसी अवचेतन के गड्ढे में नहीं गिराती बल्कि ज़िंदगी में बाहर सक्रिय होने की प्रेरणा देती है |

हम इस तथ्य से परिचित हैं कि हालावाद ईरानी, फ़ारसी या कहें तो सूफ़ी चिंतन की देन है। एक बात और कि इस्‍लाम के चिंतन में महत्वपूर्ण है कि इसमें  ईश्‍वर और जीव का एकात्‍म्‍य नहीं है। ये दोनों कभी एक नहीं हो सकते, दूरी है। उस दूरी को समाप्‍त करने के लिए सूफ़ी कवियों और साधकों ने प्रेम मार्ग अपनाया और कहा कि हम अपने ईश्‍वर के आशिक हैं। जो सघनता प्रेम में होती है वही हमारी ईश्‍वर के साथ है। एक रहस्‍यवादी आवरण में मय, मयख़ाना, जाम, सुराही, साक़ी आदि को प्रतीक बनाते हुए एक ऐसी साधना-पद्धति ईजाद की गई जिसमें दुनियादार भौतिकवादी सतही लोगों को उन प्रतीकों की रसमयता में डूबने का सहारा मिल सके, जो उसके रहस्‍यवाद में नहीं जा सकते थे। इस प्रकार सूफ़ी धर्म जनता के स्‍तर पर अपने जाने पहचाने प्रतीकों के कारण तो लोकप्रिय हुआ ही, आध्‍यात्मिक और दार्शनिक बुद्धिजीवियों को भी उसने आकर्षित किया चूंकि वह आध्यात्म के गूढ़ अर्थों तक ले गया। यही कारण है कि सूफ़ी धर्म की स्‍वीकृति न केवल जनता में बढ़ी बल्कि विद्वानों और चिंतकों में भी बढ़ी।

उमर ख़य्याम ग्‍यारहवीं शताब्‍दी के एक फ़ारसी विद्वान थे। वे मूलत: कवि नहीं थे, विचारक, चिंतक, वैज्ञानिक और समाज-शास्‍त्री थे। उन्‍होंने जो रुबाइयां लिखीं वे किसी एक समय में नहीं लिखी गईं, बल्कि उनका रचना-काल यौवन से लेकर वृद्धावस्‍था तक फैला हुआ था। अवस्‍था के अनुसार उन रुबाइयों में वैचारिक परिवर्तन आता गया। कहीं-कहीं तो लगता है जैसे उनके विचार एक-दूसरे को काटने वाले हों और परस्‍पर विरोधी हों।

उमर ख़य्याम की रुबाइयां जिन परिस्थितियों में और जिस युग में रची गई थीं बच्‍चन की रुबाइयां अपने युगीन कलेवर में उससे नितांत भिन्‍न थीं। यहां प्रश्‍न उठता है कि बिम्‍ब और प्रतीक फिर एक से क्‍यों हैं? मधुशाला की भूमिका में बड़े ही कलात्‍मक ढंग से यह बात समझाई गई है। हर रचनाकार के सोचने समझने का एक निजी विशिष्‍ट ढंग होता है। बच्‍चन जी जिसे अपनापन कहते हैं, यह अपनापन परंपरा से चला आता है। हर रचनाकार अपने पूर्ववर्ती रचनाकारों, चिंतकों और दार्शनिकों से उनके अनुभव लेता है और उन अनुभवों में अपने अनुभव मिलाकर कुछ नया सृजित करता है। प्रकृति का मानवीकरण करते हुए उन्‍होंने इस परंपरा-प्रदान-प्रक्रिया को व्‍याख्‍यायित करने के लिए बादल, बूंद, नदी और समुद्र का उदाहरण दिया। यह सभी अपने आगामी को अपना अपनापन देते हैं और सिलसिला आगे तक बढ़ता जाता है।जैसे हमारे यहाँ गुरु शिष्य परम्परा का महत्व रहा है | अपने शिष्य की प्रगति से गुरु को सदा आंतरिक सुख व आनंदानुभूति होती है |

रचनाकार में इन सिलसिलों को आगे बढ़ाने की उतावली होती है। बच्‍चन जी इस उतावली को समर्पण कहते हैं। सूर्य धरती के लिए भले ही प्रकाश और ऊर्जा का स्रोत हो लेकिन वह भी चाहता होगा कि स्‍वयं से महान किसी ज्‍योति को समर्पित होकर वह बुझ जाए। समर्पण की भावना रचनाकार के लिए एक तृप्ति का बोध है कि उसने रचना प्रभावी-वर्ग को सौंप कर अपना काम पूरा किया।

मधुर भावनाओं की सुमधुर नित्य बनाता हूँ हाला,
भरता हूँ इस मधु से अपने अंतर का प्यासा प्याला,
उठा कल्पना के हाथों से स्वयं उसे पी जाता हूँ,
अपने ही में हूँ मैं साकी ,मैं  ही हूँ पीनेवाला|

‘मधुशाला’ की भूमिका के जो अंश लिए गए हैं वे भले ही अपनी तत्‍सम शब्‍दावली के कारण कठिन लगें लेकिन सरल और बोधगम्‍य भाव समझाने में मददगार सिद्ध होते हैं। कवि के हृदय की जो व्‍याख्‍या बच्‍चन जी ने की है वह रोमानी लगते हुए भी कवि-कर्म की व्‍यापकता दिखाती है। भूमिका के ये अंश बार-बार पढ़े जाने से ‘मधुशाला’ की रुबाइयों के प्रतीकार्थ समझ में आते हैं ।अवस्‍था के अनुसार उन रुबाइयों में वैचारिक परिवर्तन आता गया। कहीं-कहीं तो लगता है जैसे उनके विचार एक-दूसरे को काटने वाले हों और परस्‍पर विरोधी हों।

कविता संवेदना की वह आकृति है जो शब्द ब्रह्म के माध्यम से साकार होती है।

कविता की स्पष्टता देखें।

लाल सुरा की धार लपट सी कह न इसे देना ज्वाला,
फेनिल मदिरा है, मत इसको कह देना उर का छाला|

संवेदना की अभिव्यक्ति से ही रचना का जन्म होता है|वह पीड़ा हृदय के छालों से जैसे छनती हुई रचना को आकार देती है | इसीलिए कवि ऐसे संवेदनशील मनुष्यों को पुकारता है |

दर्द नशा है इस मदिरा का विगत स्मृतियाँ साकी हैं,

पीड़ा में आनंद जिसे हो, आए मेरी मधुशाला।

जो कविता में रची-बसी पीड़ा को समझ सके ,जो उसे महसूस का सके,जो उसे अपनी पीड़ा सी ही महसूस हो उसका ही उनकी कविता के मदिरालय में आने के लिए स्वागत है |

यहां एक और बड़ी बात कवि कह जाते हैं -----

बिना पिये जो मधुशाला को बुरा कहे, वह मतवाला,

पी लेने पर तो उसके मुह पर पड़ जाएगा ताला,
दास द्रोहियों दोनों में है जीत सुरा की, प्याले की,
विश्वविजयिनी बनकर जग में आई मेरी मधुशाला|

यहाँ पर बड़े स्पष्ट रूप से बच्च्चन जी की ललकार परिलक्षित होती है ;

पंक्तियों में मधुशाला यानि जीवन के प्रति सकारात्मकता का चित्र देखते हैं ---

एक बरस में, एक बार ही जगती होली की ज्वाला,

एक बार ही लगती बाज़ी, जलती दीपों की माला,
दुनियावालों, किन्तु, किसी दिन आ मदिरालय में देखो,
दिन को होली, रात दिवाली, रोज़ मनाती मधुशाला| संवेदना से भीगी हुई इन पंक्तियों पर गौर करना आवश्यक है ---

पथिक बना मैं घूम रहा हूँ, सभी जगह मिलती हाला,

सभी जगह मिल जाता साकी, सभी जगह मिलता प्याला,
मुझे ठहरने का, हे मित्रों, कष्ट नहीं कुछ भी होता,
मिले न मंदिर, मिले न मस्जिद,मिल जाती है मधुशाला| जात,बिरादरी,ऊंच नीच गरीब अमीर कहीं कुछ भेद भाव नहीं जो है वह शब्द ब्रह्म के माध्यम से स्वयं की पहचान करने की बात है |

कितनी सत्यता के साथ नीचे की रुबाई उकेरी गई है ---

कभी न सुन पड़ता, 'इसने, हा, छू दी मेरी हाला',
कभी न कोई कहता, 'उसने जूठा कर डाला प्याला',
सभी जाति के लोग यहाँ पर साथ बैठकर पीते हैं,
सौ सुधारकों का करती है काम अकेले मधुशाला |

इन पंक्तियों में जीवन की वास्तविकता का परिचय कितनी सच्चाई के साथ दिखाई देता है ;

छोटे-से जीवन में कितना प्यार करुँ, पी लूँ हाला,
आने के ही साथ जगत में कहलाया 'जानेवाला',
स्वागत के ही साथ विदा की होती देखी तैयारी,
बंद लगी होने खुलते ही मेरी जीवन-मधुशाला।।

जैसा हमने जाना है कि बच्चन साहब ने कभी शराब को हाथ नहीं लगाया था ,इसमें चित्र देखे ---लेकिन इसमें एक और भी बात स्पष्ट है कि 'पर उपदेश कुशल बहुतेरे' कवि इस तथ्य को स्वीकारते हैं|

स्वयं नहीं पीता, औरों को, किन्तु पिला देता हाला,
स्वयं नहीं छूता, औरों को, पर पकड़ा देता प्याला,
पर उपदेश कुशल बहुतेरों से मैंने यह सीखा है,
स्वयं नहीं जाता, औरों को पहुंचा देता मधुशाला।

ऊपर की बात के साथ जुड़ती हुई ये पंक्तियाँ विचारणीय हैं | कहीं इनमें विरोधाभास भी प्रदर्शित होता है | ;

मैं कायस्थ कुलोदभव मेरे पुरखों ने इतना ढ़ाला,
मेरे तन के लोहू में है पचहत्तर प्रतिशत हाला,
पुश्तैनी अधिकार मुझे है मदिरालय के आँगन पर,
मेरे दादों परदादों के हाथ बिकी थी मधुशाला।

मधुशाला के अंतिम बंदों पर आत्मकेंद्रित होना आवश्यक है ;

पितृ पक्ष में पुत्र उठाना अर्ध्य न कर में, पर प्याला,
बैठ कहीं पर जाना, गंगा सागर में भरकर हाला| 
किसी जगह की मिटटी भीगे, तृप्ति मुझे मिल जाएगी,

तर्पण अर्पण करना मुझको, पढ़ पढ़ कर के मधुशाळा|

मधुशाला को जितनी बार पढ़ा जाता है ,गीता की भाँति उसके अर्थों का प्रवाह निरंतर गहराता जाता है | ज़िंदगी के मदिरालय में जब कविता का सुरपान होता है तब आनंदानुभुति शिखर पर होती है। तन्मयता में निमग्न कविता की हाला का पान करने वाले को अपने आप ही बहुत से अर्थ प्राप्त होते चलते हैं।

डॉ प्रणव भारती