Ek Ruh ki Aatmkatha - 46 books and stories free download online pdf in Hindi

एक रूह की आत्मकथा - 46

चाचा-चाची जब चले गए, तो जया के पति ने जया को बहुत मारा। उसका शरीर जगह-जगह टूट-फूट गया, पर वह भी हाथ-पाँव चलाती रही। मारकर जब वह चला गया, जया ने मांग का सिन्दूर धो डाला, चूड़ियाँ तोड़ डालीं और अपने मन से इस निरर्थक रिश्ते को धो-पोंछ डाला। लौकर पति ने उसकी यह हालत देखी तो वह मुहल्ले की गँवार औरतों को बुलाकर उसे दिखाने लगा कि ‘कोई सुहागिन स्त्री ऐसा करती है।’ सभी औरतों ने उसे कोसा....बुरा-भला कहा। वह असती व बुरी स्त्री करार दे दी गई पर वह वैसे ही पत्थर बनी बैठी रही। उसका दिमाग बस एक ही दिशा में सोच रहा था कि यहाँ से निकलना है। दूसरे दिन एकांत होने पर उसने किशोर को बुलाया और पूछा-‘क्या तुम मुझे मेरे घर पहुँचा सकते हो?’
किशोर उत्साह से बोला-‘क्यों नहीं।’
उसने डर जताया-‘कहीं पकड़े गए, तो मार डाले जायेंगे।’
‘आप निश्चिंत रहें...मैं अकेले दिल्ली-बाम्बे घूम चुका हूँ... कब चलना चाहेंगी।’
‘जब मौका मिले और घर में ये न रहें।’
-‘तो कल ही सुबह।’
‘क्यों?’
‘क्योंकि कल भइया अपने स्पेशल दोस्त से मिलने उसके घर जायेंगे....कई घण्टे वहाँ रुकेंगे ही |(वह अर्थपूर्ण ढंग से मुस्कुराया) कुंजड़े भी बाजार चले जायेंगे.... सन्नाटा होगा, मैं रिक्शा लेकर आऊँगा, आप तैयार रहिएगा। हाँ, मेरे पास पैसा नहीं है, यह आपको देखना है। अभी मैं चलता हूँ। भइया से यह बताऊँगा कि घर जा रहा हूँ। वे निश्चिंत हो जायेंगे क्योंकि सात हाथ के घूँघट में रहने वाली आपको तो रास्ता भी नहीं पता। फिर वे इस बात की कल्पना ही कहाँ कर सकते हैं कि आप... ।’
वह चला गया, तो जया के मन में द्वन्द्व मच गया-‘क्या यह उचित होगा, पति के घर से भागने की बात क्या दुनिया पचा पायेगी? कहीं कुछ....।’
‘ऊँह’ उसने सिर झटका –‘जिन्दगी से बढ़कर कुछ नहीं, ये तो उसे मार ही डालेंगे। इनके मन में उसके लिए जरा-सी भी सहानुभूति होती, तो वह इनकी सारी गलतियों को साफ कर देती, पर इनका अहंकार तो सीमा पार कर गया है |इन्हें सबक देना ही पड़ेगा।’
'पर क्या यह धर्म के अनुरूप है। सतियों ने तो पति के असंख्य अत्याचार सहकर भी धर्म निभाया था। फिर पति के बिना गति भी तो नहीं होती।’ उसके भीतर से आवाज उठी।
-यह गुजरे जमाने की बातें हैं तुम्हें इस नर्क से निकलना ही होगा। जब सक्षम हो जाओ और यह सुधर जायें, तो फिर सोचना।’
‘नहीं...नहीं यह उचित नहीं।’
‘तो क्या वे जो कर रहे हैं, वह उचित है। गनीमत कहो कि सास तीर्थ यात्रा पर गई है। लौट आई तो निकल नहीं पाओगी...निकल जाओ...निकल जाओ। अवसर फिर तुम्हारा दरवाजा नहीं खटखटायेगा। तुम्हारी परीक्षा छूट गयी, तो पता नहीं फिर पढ़ पाओगी या नहीं। माँ भी तो परेशान है। इनके नंगई के डर से कुछ नहीं कर पा रही है। बहुत बन चुकी सती....उठो हिम्मत करो।’
वह उठ खड़ी हुई... सोचा कि अटैची लेगी तो लोगों को शक होगा, खाली हाथ रहेगी तो किशोर डॉक्टर वगैरह का बहाना बना देगा पर पैसे भी तो नहीं। अरे हाँ, गुल्लक में पचास रूपए होंगे। नरकटियागंज से बगहा तक पहुँच जायेगी तो फिर नाव से छितौनी घाट तक इतने रुपये में पहुँच ही जायेगी। छितौनी में उसके एक रिश्तेदार रहते हैं, उनसे पैसा माँग लेगी। ज्यादा कुछ होगा, तो पैरों की पायल ही दे देगी, और तो कुछ उसकी देह पर है नहीं। छितौनी से घर तक खतरा कम है... । अब चलें जो होगा, देखा जाएगा।
मात्र पचास रुपये लेकर जया किशोर के साथ अपने घर के लिए निकली थी। पूरे रास्ते उसका हाड़-हाड़ काँपता रहा। इतनी दहशत थी कि लगता था कि उसकी साँस रुक जायेगी। रिक्शा जब उसकी माँ के घर के दरवाजे पर रुका, तब वह संज्ञाहीन हो गई। किस तरह कई लोगों ने मिलकर उसे रिक्शे से उतारा और माँ के कमरे में ले गये... उसे कुछ याद नहीं। जब उसकी आँख खुली, तो लगा कि जगमगाते स्वर्ग में है। गोरे-गोरे स्वस्थ माता-पिता, भाई-बहन, ट्यूब लाइट की दूधिया रोशनी और तरह-तरह के स्वादिष्ट पकवान सामने थे।
जया रोती रही। देर तक रोती ही रही जैसे सारा का सारा अतीत एक बार फिर से जी लिया हो ।उमा शर्मिन्दा हो गई कि इतनी कम उम्र में इतने अंधेरों से गुजरने वाली स्त्री को उसने ईर्ष्या से देखा। उसके जख्मों को कुरेदा।
जया बताती रही कि कुछ दिन तो सब उसकी दयनीय हालत देखकर चुप रहे |फिर टिप्पड़ियाँ शुरू हो गईं |उसने जब ससुराल न लौटने का निर्णय सुनाया तो हंगामा मच गया |भाई-बहन,पास-पड़ोस, नात -रिश्तेदारों किसी को भी उसका निर्णय अच्छा न लगा ,पर माँ चुप रही |सबने उससे ससुराल न लौटने का कारण पूछा ,तो उसने उस घर के अभावों को गिनाया ,जिसे वह खुद भी ज्यादा महत्व नहीं देती थी [क्योंकि उसके अनुसार आर्थिक स्थिति सुधर सकती है]पर ‘वह’ न बताया जिसके कारण उसने इतना बड़ा निर्णय लिया था |बताती भी तो,क्या समझ पाता यह समाज ,जहां स्त्री का ‘यौन’ पर बात करना भी अपराध है |
जया ने बड़ी हिम्मत से पढ़ाई पूरी की |भाइयों ने बड़ा विरोध किया …रिश्तेदारों ने नाक-भौंह सिकोड़े |पिता ने हाथ तक उठा दिया |एम॰ए॰ में एडमिशन के लिए हजार रूपए की जरूरत पड़ी तो माँ ने उसके शरीर का एकमात्र जेवर सोने की चेन ले ली और छोटी बहन को दहेज में दे दिया |वह चुपचाप ट्यूशनें करती रही ,तमाम तानों –उलाहनों व अपमान सहकर भी उसने पढ़ाई नहीं छोड़ी और अंतत: नौकरी में लग गयी |इस बीच उसके पति ने उसकी खूब निंदा की |पति के घर से भाग आई खराब स्त्री के रूप में प्रचारित किया पर जया उसे मन से छोड़ चुकी थी ।ऊपर से उसके ओछे हथकंडों ने उसका मन और खट्टा कर दिया |हालांकि अपने आत्मनिर्भर होने के बाद और पति के सुधर जाने पर उसको माफ कर देने का भी मन बनाया था ,पर फटे दूध से माखन नहीं बनना था ....सो नहीं बना |
जया शहर में नौकरी करने लगी ,छोटा-सा अपना घर भी बना लिया |फिर शुरू हुआ एक नया सिलसिला |उसका विवाह उसके जीवन का एक बड़ा अध्याय था,जो बंद हुआ |अब पन्ने जुड़ने लगे .....जो अध्याय बनने से पहले ही फाड़ दिए जाते |कई बार उमा ने उससे कहा कि दूसरी शादी कर लो |वह हँसकर कहती –'ढूंढकर ला दे ,पर मर्द लाना |तन-मन –वचन से मर्द |सिर्फ जन्म या बनावट से नहीं |’ उमा सोचने लगती –'कल की गऊ -सी सीधी लड़की आज कितनी बोल्ड व मुखर हो गई है |' जया कहती-" होना पड़ता है ,वरना पुरूष भेड़िए नोंचकर खा जाएँ|"