Ek Ruh ki Aatmkatha - 47 books and stories free download online pdf in Hindi

एक रूह की आत्मकथा - 47

उमा सोचने लगी थी कि कल की गऊ -सी सीधी जया आज कितनी बोल्ड व मुखर हो गई है |जया कहती- "होना पड़ता है ,वरना पुरूष भेड़िए नोंचकर खा जाएँ|"
कभी-कभी उमा सोचती -'इतनी बोल्ड छवि भी क्या बनाना कि लोग आपको गलत समझने लगें |' पर उमा इतना तो जानती थी कि जया को अपने शरीर और मन पर बड़ा नियंत्रण है |एक दिन उमा ने उसे छेड़ा –‘क्या तुम्हें पुरूष की आकांक्षा नहीं होती जया,सब तुम पर फिसल जाते हैं पर तुम किसी पर नहीं फिसलती ,ऐसी कौन सी साधना करती हो तुम ...|’
वह हँस पड़ी -’ऐसा नहीं है ...हूँ तो आखिर मैं भी हाड़-मांस की स्त्री ही ,पर जानती हो स्त्री की इच्छाएँ उसके मन से जुड़ी होती हैं |जब वह किसी से प्रेम करती है ,तो वे इच्छाएँ पूरे आवेग के साथ उसकी देह में संचारित होने लगती हैं ,तब समागम उसे ब्रहमानन्द तक पंहुचाता है ,वरना वह नित्य क्रिया या कोरम बन कर रह जाता है ,जिससे वह कोई सुख नहीं पाती ,बस सामाजिक दायित्वों को निभाती चली जाती है |जानती हो हमारे देश की स्त्रियों का दुर्भाग्य है कि वे यौन को या तो घृणा की दृष्टि से देखती हैं या फिर बोझ की दृष्टि से |उसमें संसार का सबसे बड़ा सुख भी निहित है ,इसकी तो वे कल्पना भी नहीं कर पातीं '
-'क्यों ?-उमा ने आज उससे पूछ ही लिया ,तो वह दार्शनिक भाव से बताने लगी –
‘क्योंकि इस देश का पुरुष मन से स्त्री देह की कद्र नहीं करता और उसके मन तक पहुँचने की तो जरूरत ही महसूस नहीं करता |दिन भर उसे नाना तरह से अपमानित –प्रताड़ित करने के बाद वह उससे देह-सुख चाहता है ,जो उसे कभी नहीं मिलता |न ही वह स्त्री को ही वह सुख दे पाता है ,क्योंकि स्त्री का मन उसके प्रति प्रेम नहीं वितृष्णा से भरा होता है |पुरूष जो अतृप्त -सा इधर-उधर भटकता है न ,इसके पीछे यही कारण है कि वह देह तो पाता है ,मन नहीं |यदि तन -मन का सच्चा समागम हो जाए ,तो सारी भटकन खत्म हो जाए |’
--अच्छा ,एक बात और बता ,पुरूष जो एक से अधिक स्त्रियों को पाने में गर्व महसूस करता है ,इसकी क्या वजह है ?क्यों स्त्री को ‘देने वाली’और पुरूष को ‘पा लेने’ वाला माना जाता है |'
‘अज्ञान है और क्या ?यह जान ले ,जो पुरूष एक स्त्री को प्रसन्न नहीं कर सकता ,वह कई स्त्रियों को तो कदापि प्रसन्न नहीं कर सकता |कुदरत ने पुरूष को एक ही स्त्री को संतुष्ट करने लायक बनाया है |जो कई स्त्रियों में खुद को बांटता है ,वह अपनी पत्नी तक को संतुष्ट नहीं कर सकता |यदि पत्नी यह सच कह दे तो वह कहीं मुंह नहीं दिखा पाएगा |पर पत्नी इस विषय में चुप ही रहती है क्योंकि सुनियोजित ढंग से इसे’मर्यादा’का नाम दे दिया गया है |रही ‘खोने’ और ‘पाने ‘की बात ,तो कई गालियां भी इसी भ्रम पर गढ़ी गयी हैं ,पर सच तो यह है कि पुरूष ही खोता है ,पर मूर्खता और अहंकार में सोचता है कि उसने पाया है |’
--बाप रे ,तुम्हें तो बड़ा ज्ञान है |कहाँ से मिला यह ज्ञान ?- उमा ने हँसकर पूछा तो वह रहस्य से मुस्कुराई—"बहुत पढ़ा है इस विषय को ..समझो ..शोध किया है ...|"
-"और प्रयोग ...." उमा ने उसे छेड़ा |जया जैसे कहीं खो गयी |उसका चेहरा दिप-दिप करने लगा |
-‘अरे कुछ बताओगी भी ...सच कहना ...क्या कभी ब्रह्मानन्द प्राप्त किया ?वैसे कैसा महसूस करती है स्त्री उस वक्त ...|’ उमा ने उसे कुरेदा |
‘उस समय ऐसा महसूस होता है जैसे पूरा शरीर एक मधुर धुन पर थिरक रहा है| मस्तिष्क से टप-टप आनंद की बूंदें देह में टपक रही हैं और मन साथी के प्रेम से लबालब भर गया है ।’
जया जाने और क्या-क्या बताती रही ,पर उमा जैसे वहाँ होकर भी वहाँ नहीं थी |वह सोच रही थी कि इतने वर्षों के वैवाहिक जीवन में उसने तो कभी इस ब्रहमानन्द को महसूस नहीं किया |हमेशा देह -संबंध एक पीड़ा से शुरू होकर छटपटाहट पर खत्म हुआ |इसकी क्या वजह है ?
‘कहाँ खो गयी ?’-जया की आवाज़ से उमा चौंकी |
--"कुछ नहीं ..|" उमा उदास थी |
‘तुम खुश तो हो न...तुम्हारे पति तुमसे प्यार तो करते हैं न |’
-"हाँ-हाँ बहुत ....|"उमा ने जल्दी से कहा।
उमा जया की तरह साहसी नहीं थी कि सच कह सके |
‘अब तुम जाओ ...तुम्हारे पति के आने का समय हो गया है |कहीं तुम्हें ढूंढते हुए यहाँ न आ जाएँ और तुम्हें मेरे पास आने के लिए डाँटें...|’जया ने उमा से कहा
-"नहीं ...नहीं ऐसी तो कोई बात नहीं है... वे तुम्हारा बहुत सम्मान करते हैं |"
उमा सफ़ेद झूठ बोल रही थी ,क्योंकि उसके पति स्वतंत्र जया के नाम से चिढ़ते थे ,जबकि पहले ऐसा नहीं था |पहले तो जया को देखते ही वे खिल उठते थे |फिर एक दिन झल्लाए हुए घर आए और कहने लगे –"वह जया एक चरित्र हीन औरत है उसे अपने घर नहीं आने देना है ...बदनामी होगी |वैसे भी ऐसी औरतें घर तोड़वा देती हैं |
उमा ने सफाई दी-"मैं उसे बचपन से जानती हूँ वह ऐसी नहीं है |"
-‘चुप रहो ,तुम क्या जानो ?फिर मैंने कह दिया तो कह दिया ...यह मेरा घर है ...मेरी इच्छा के बिना यहाँ कोई नहीं आएगा ...समझी ...|’ वे चिल्ला पड़े थे |उमा को बहुत बुरा लगा | कुछ कहा तो नहीं ,पर सोच लिया –'जया मेरे घर नहीं आएगी तो क्या मैं जाऊँगी उससे मिलने |'
उमा ने अपनी माँ से सीखा था कि औरतों को मर्दों से भेद -नीति अपनानी चाहिए ,सीधे उसका विरोध नहीं करना चाहिए ,वरना घर टूट जाता है |उसकी सुनो पर करो अपने मन की |कहाँ चौबीस घंटे पहरेदारी कर पाएगा |
उमा को अभी तक बैठा देखकर जया उठ खड़ी हुई थी |उसके चेहरे पर तनाव था |उमा ने उसका हाथ पकड़ लिया –"जया बस एक अंतिम बात ...तुम्हें मेरी कसम है सच बताना |एकाएक मेरे पति तुमसे चिढ़ने क्यों लगे।"
‘ऐसी कोई बात नहीं ...तुम जाओ न ....तुम्हें देर हो रही है |’ जया ने उसे टालना चाहा।
उमा जान गयी कि वह कुछ छिपा रही है |उसने जिद की –"तुम्हें बताना ही होगा जया |"
‘क्यों अपने घर की शांति खत्म करना चाहती हो ?’
-- "मैं बचन देती हूँ कि कुछ नहीं होगा ....तुम बताओ तो ... |"
और जया ने जो बताया उससे उमा के पैरों के नीचे से मानों जमीन निकल गयी |