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सफ़र

सफर
सेठ रामहरिदास शहर के बड़े से अपोलो हॉस्पिटल के एक कक्ष मे बेड़ पर लेटे हुये शीशे की खिड़की से बाहर आकाश की ओर निहार रहे थे। भगवान भास्कर के लालिमा युक्त सुनहरी किरणों रूपी हाथ मानो खुले गगन मे शकून देने के लिये बुला रहे थे। मन हॉस्पिटल से बाहर निकलने को बड़ा उतावला हो रहा था, अभी दो दिन बाद सही से चेतना लौटी थी। सेठ जी का किडनी ट्रान्सप्लान्ट करने हेतु ऑपरेशन हुआ था, उम्र भी तो पैंसठ साल के करीब हो गयी थी। बांयी तरफ कक्ष के कोने मे, नर्सिंग स्टाफ की टेबल लगी थी, जिस पर बैठी एक युवती नर्स की पोशाक मे उनकी ओर देखते हुये मुस्कुरा रही थी। शायद उसको उनके अच्छी तरह से होश मे आ जाने पर थोड़ी खुशी हो रही होगी या उनके चेहरे पर आ रहे जिज्ञासा के भावों को देखकर कोई हल्के से आनन्द की अनुभूति हुई होगी, जिस पर सेठ जी की नजर नही पड़ी थी, जो उनकी देखभाल का जिम्मा संभाल रही थी। रात्रि को विश्राम के लिये शायद घरवाले घर चले गये थे, वैसे भी हॉस्पिटल का नियम था कि मरीज के कक्ष मे परिवार के व्यक्ति को रात्रि मे नही ठहरने दिया जाता था। पास आकर सेठ जी का हाथ छूते हुए बोली -
’’कैसा महसूस हो रहा हैं ताऊजी ? कहीं शरीर मे कोई दर्द तो नही हैं ?’’
सुनकर सेठजी ने उसकी ओर देखा और शरीर को उसकी ओर करवट लेकर मोड़ना चाहा तो अनायास मुंह से किसी दर्द की सी कराह निकली -
’’आह ! हां बेटी ठीक हूंॅ, पेट के उपरी हिस्से मे थोड़ा दर्द सा महसूस हुआ है।’’
’’ कोई खास बात नही ताऊजी, वहां ऑपरेशन हुआ हैं, कुछ दिन तो लगेंगे पूरी तरह ठीक होने मे। आप पानी पियेंगे थोड़ा ? ’’ कहते हुये उनकी गर्दन के हाथ लगाकर मुंह से गिलास लगाया, सेठ जी ने एक दो घूंट पानी पिया, फिर लेट गये। कुछ आवश्यक दवायें नर्स ने खिला दी थी।
सेठ जी पुनः खिड़की से बाहरी जगत का आवरण देखते हुये, आकलन सा करने लगे। उनका कक्ष तीसरी मंजिल पर था, जिस पर लेटे हुये ही, बेड का सिर वाला हिस्सा उपर किये, बाहर की मुख्य सड़क स्पष्ट दिखायी दे रही थी।
सब कुछ वैसा ही था, रोड़ पर अनगिनत से दुपहिये-चौपहियें वाहन दोड़ते, दिखाई दे रहे थे, जैसे सभी लोग अचानक कही भागे जा रहे हो, जैसे उन्हें एक-दूसरे से पीछे छूट जाने का डर हो। कुछ मीटर की दूरी पर स्थित बत्ती वाला चौराहा भी साफ दिखाई दे रहा था। जैसे ही लाल बत्ती होती, उस तरफ के वाहन रूक जाते, ट्रेफिक पुलिस वाला मुंह मे सीटी लिये उनके सामने आ जाता, दूसरी ओर हरी बत्ती की तरफ वाले वाहन दोड़ने लगते, किन्तु लाल बत्ती की तरफ वाले बैचेन हुए कभी बत्ती के सिग्नल की तरफ, कभी पुलिस वाले की तरफ देखते, मानो वह लाल बत्ती ही उनके जीवन की सबसे बड़ी बाधा है, यही उनके जीवन कार्यों मे देरी का मुख्य कारण बनेगी। कई मन ही मन पुलिस वाले को कोसते होंगे कि वह नही होता तो शायद वे लाल बत्ती रहते भी चकमा देते हुए निकल जाते, जैसे 50-60 सैकण्ड का वह बत्ती का सिग्नल उनके जीवन प्रवाह का बहुत बड़ा रोड़ा हो। जैसे सभी किसी उतावलेपन मे थे, अधिकांश ने तो अपने गाड़ियों के इंजन तक बन्द नही किये थे। सेठ जी मन ही मन सोच रहे थे, कुछ दिन पहले वह भी तो इसी भीड़ का हिस्सा थे, कितनी जल्दी रहती थी दुकान पर पहुंचने की।
किन्तु आज उनका नजरिया कुछ बदला हुआ सा प्रतीत हो रहा था, जैसे उन्होंने जिन्दगी की सच्चाई को बहुत नजदीक से देख लिया था। उन्हें लगा कि वह अब तक किसी अनजान सी मंजिल को पाने के लिये यूं ही दोड़ लगा रहे थे और फिर वह मंजिल किसी मृगतृष्णा की तरह इधर-उधर खिसक जाती थी। आज मानो वे किसी ऐसे चौराहे पर या कहें ऐसे पड़ाव पर पहुंच गये थे, जहां से पीछे मुड़कर देखा तो लगा कि वे यूं ही अंधी दौड़ मे मगन थे, उसकी सार्थकता बहुत ज्यादा महसूस नही हो रही थीै , सेठ जी को बीते जीवन के संस्मरण मस्तिष्क पटल पर किसी चलचित्र की भांति चलायमान होकर दस्तक सी देने लगे।
कुछ वर्षों पहले की ही तो बात हैं, जब सेठ जी शहर के मुख्य बाजार, जिसे स्थानीय लोग ’’कटरा’’ के नाम से पुकारते थे, में किराने के थोक व्यापारी थे, घी, तेल, चीनी, दाले, ऐसी मुख्य खाद्य चीजे ही बेचा करते थे और शहर के ही छोटे-मोटे दुकानदार, गांव-कस्बो के दुकानदार, कुछ आम लोग भी उनकी दुकान से सामान खरीदा करते थे। अच्छा खासा काम था, बरकत भी खूब थी, लेकिन सेठ जी के तीनो बेटे रामदयाल, हरदयाल और रघुवरदयाल एक साथ उस एक ही फर्म पर काम करने को राजी न थे। हालाकिं सेठ जी की दुकान पर हमेशा कई व्यक्तियों की जरूरत होती और 5-7 नौकर तो लगे ही रहते थे, किन्तु बेटों के लिये यह पर्याप्त नही लगता था।
बीच वाले हरदयाल ने जिद की और पत्थर - टाइल्स विक्रेता के रूप मे नये बाजार में एक फर्म खोल ली। खूब लड-झगड़कर सेठ जी से अच्छा खासा धन लगवाया, जिस पर बड़े घनश्याम को सबसे ज्यादा आपत्ति हुई, किन्तु सबसे छोटे रघुवरदयाल ने बीच वाले भाई का सहयोग किया, शायद वह भी अपने लिये कोई ऐसा ही रास्ता देख रहा था और हो सकता हैं, दोनो छोटे भाईयों ने आपस मे कोई सलाह भी की हो। महिना भी नही गुजरा होगा कि उसने सेठ जी के सामने कपड़ो का शोरूम खुलवाने की बात छेड़ दी। बोला -
’’ बाऊजी मैं ’’बजाजा बाजार’’ मे रेडीमेड कपड़ो का शोरूम खोलना चाहता हूं, वैसे भी एक ही दुकान पर दोनो भाई भविष्य मे कब तक काम करेंगे। ’’
’’ क्यो भाई ! भविष्य मे काम बन्द हो जायेगा क्या ? वैसे भी अब मै ज्यादा दिनो तक दुकान पर काम नही कर पाऊँगा, तुम दोनो भाईयों को ही संभालना हैं, हरि ने तो अपना नया काम शुरू कर ही दिया हैं। ’’ सेठ जी समझाते हुए बोले।
लेकिन रघु ने तो पहले से ही योजना बना रखी थी इसीलिये सभी तर्को के जवाब पहले से ही सोच रखे थे। बोला -
’’ बाऊजी हरि भैया ने अपना काम शुरू कर दिया हैं, वही तो मैं भी करना चाहता हूं, तीनो भाईयो के अपने-अपने काम हो जायेंगे। ’’
’’ लेकिन रघु अपनी दुकान भी कहां अकेले घनश्याम से संभलेगी, वही कई आदमियों की जरूरत होती हैं। ’’
’’ और भी कई बड़ी-बड़ी फर्मो को भी अकेले ही संभालते हैं ना बाऊजी, लाला अमरनाथ, गंगालहरी भी तो अपनी फर्म संभाले हैं, काम तो नौकर-चाकर ही करते है। ’’
’’ किन्तु तुम्हारें नये काम के लिये रूपया कहां से आयेगा ? क्या किराये पर कोई दुकान देख ली हैं ? ’’ बीच मे घनश्याम ने अपनी शंका जतायी।
’’ किराये की दुकान से कैसे काम चलेगा भैया ? मैनें एक दुकान देख ली हैं, दस लाख रूपयें तक आ जायेगी, इतना तो बाऊजी कर ही देंगे। ’’
’’ घर-गृहस्थी के और भी काम हैं रघु, अभी छोटी बहन पुष्पा भी शादी लायक हैं, उसका भी रिश्ता कोई अच्छा सा घर-वर देखकर करना हैं। ’’
’’ इतना तो मेरे हिस्से मे आ ही जायेगा भैया, मैं कोई ज्यादा मांग रहा हूं क्या ? ’’
’’ तो तुम सीधा-साधा क्यों नही कह देेते कि बंटवारा चाहते हो ? ’’
’’ आप जैसा समझे भैया, आज नही तो कल हमें अपना-अपना काम तो देखना ही हैं।’’
’’ रघु सही तो कह रहा हैं बड़े भैया, वह भी अपना काम शुरू कर आत्मनिर्भर बनना चाहता हैं तो इसमे बुराई क्या हैं ? ’’ बीच वाले हरदयाल ने रघु के पक्ष मे और एक दलील दी।
सेठ जी अपनी पारखी नजरो और अनुभवी दिमाग से दोनो छोटे बेटो का इरादा समझ चुके थे और उनके मानसिक निश्चय को भी, इसीलिये उनको और समझाना उचित नही समझा और मिल बैठकर घर के अन्दर ही बंटवारे की प्रक्रिया को शान्ति से सुलझाने मे ही सबकी भलाई समझी।
आखिर सेठ जी ने फैसला सुनाया कि अपनी पुश्तैनी फर्म-दुकान का मालिक घनश्याम होगा, वह रघु को 10 लाख रूपयें दुकान क्रय करने के लिये और 4 लाख रूपयें और सामग्री क्रय हेतु देगा, 10-12 लाख रूपयें पुष्पा की शादी मे खर्च हेतु अब तक की जमा पूंजी से सेठ जी खर्च करेंगे और शेष जमा पूंजी पर जिसका सही आकलन सेठ जी के ही पास था , उन्हीं के पास रहेगी। हरदयाल जिसने अभी अपनी नई फर्म खोली थी, उसका मालिक होगा। मकान काफी बड़ा था या यूं कहे कि बड़ी सी पुरानी हवेली थी, जिसमे सभी के लिये कम से कम 3-4 कमरे आ सकते थे, उस पर तीनो का हक होगा। रसोई जब तक सभी की इच्छा हो साथ चलती रहेगी, जिसके हिसाब-किताब का जिम्मा सेठानी सुमनलता का होगा, सभी को अपनी कमाई से अपने हिस्से का मासिक खर्च देना होगा।
फैसले पर सबसे ज्यादा नाखुश बड़ा बेटा घनश्याम ही था, अब तक परिवार मे बाऊजी के बाद उसी का निर्णय चलता था, बोला -
’’ बाऊजी मैं एकदम से रघु को 14 लाख रूपयें कहां से लाकर दूंगा, मेरे पास खुद की कोई रकम हैं क्या ? ’’
’’ उसकी चिन्ता तुम मत करो, मै व्यवस्था करवा दुंगा, तुम एकटका ब्याज के साथ जितने दिनो तक लौटाना चाहते हो, लौटा देना। अपनी दुकान अभी अच्छी-खासी चलती है।’’
बाकी सभी ने अन्तर्मन से खुशी के साथ निर्णय को स्वीकार कर लिया, दोनो छोटे बेटों की तो मानो मन की मुराद ही पूरी हो गयी। पुष्पा ने इन सबके बीच कोई दखल नही दिया, शायद उसको अपने पिता पर भरोसा था।
सेठ जी अनवरत दुकान पर जाते, रोज की तरह काम संभालते, हां, अब लेन-देन का हिसाब घनश्याम को सुपुर्द कर दिया था। अब उसका हानि-लाभ सब उसके ही जिम्मे था। पुराने ग्राहकों को समझाने, दुकानदारी के तौर-तरीके संभालने में वह घनश्याम की पूरी मदद करते थे। घनश्याम भी इससे सन्तुष्ट था, कम से कम बाऊजी का तो सहारा था, इसकी एवज मे वह मां को उन दोनो का मासिक खर्च घर-गृहस्थी हेतु अपने आप बढाकर दे देता था।
उन दिनो हरिराम नाम का एक व्यक्ति उनकी दुकान पर ठेली रिक्शा चलाता था और उनकी दुकान से अन्य छोटे दुकानदारो तक माल पहुंचाता था। बड़ा ही नेक नीयत और लगन से काम करने वाला आदमी था। धीरे-धीरे सेठ जी को बहुत अच्छा लगने लगा था। उसको होली-दीवाली कुछ ईनाम स्वरूप दे देते, कपड़े आदि सिलवा देते, कभी-कभार घर से आया खाना ज्यादा रहता तो खिला देते। हरिराम सेठ जी के प्रति बहुत कृतज्ञ रहता एवं और भी जी तोड़कर मेहनत करता, उनसे कोई आत्मिक श्रद्धा सी हो गई थी और सेठ जी को भी कोई अनजाना सा लगाव उससे होने लगा था। धीरे-धीरे सेठ जी उसकी घर गृहस्थी का हाल जानने लगे थे।
पता लगा कि 200 फीट रोड़, देहली बाइपास के निकट जो कच्चे घरों की सी बस्ती थी, उसी में उसका परिवार रहता था। उसके भी तीन बेटे थे, सभी बाल-बच्चेदार, सभी छोटी-मोटी मेहनत-मजदूरी कर अपनी गृहस्थी का जुगाड़ करते थे और बस्ती के अन्य लोगोे की तरह रोजाना पेट भरने के फेर में ही लगे रहते थे। बस्ती मे निम्न जाति के लोग ही ज्यादा रहते थे और तंगहाली से जीते घर खर्च के लिये जद्दोजहद करते थे, इसीलिये तीन बेटे होने के बावजूद भी हरिराम को रिक्शा खींचकर उनको सहारा देना पड़ता था। दुकान पर सभी उसक ो ’’ हरिया ’’ कहकर पुकारते थे।
कुछ दिनों से हरिया दुकान पर नही आ रहा था। अन्य नौकरो से सेठ जी ने जानने की कोशिश की, लेकिन कोई भी स्पष्ट रूप से कुछ नही बता पा रहा था। सेठ जी ने सोचा, क्यों ना उसकी बस्ती जाकर ही पता करें, कोई तो उसका घर बता ही देगा, लेकिन दुकान पर काम की व्यवस्तता के चलते सेठ जी समय ही नही निकाल पा रहे थे। पन्द्रह दिन हो गये, फिर महिना निकल गया, शायद वे भी उसकी अनुपस्थिति के अभ्यस्त हो गये थे। सोचा घर मे कुछ बात हो गयी होगी या कहीं और कुछ काम मिल गया होगा, इसीलिये शायद शर्म की वजह से ही वह सेठ जी से मिलने नही आया होगा।
फिर एक दिन अचानक हरिया किसी सवारी रिक्शे मे बैठकर सेठ जी की दुकान पर लगभग दो महिने बाद पहुँचा। रिक्शे से उतरते हुए हाथ में कोई लकड़ी की छड़ी सी लिये लंगड़ाते हुये आकर सेठ जी के पैरों मे गिर पड़ा। उसकी आँखें नम थी, जो उसकी दयनीयता की कथा बयान कर रही थी।
’’ क्या हुआ हरिया ? तुम लंगड़ा कैसे रहे हो ? ’’ सेठ जी ने व्याकुल होकर पूंछा।
वह कुछ बोलता उससे पहले आँखों ने जवाब दे दिया, फूट-फूटकर रोने लगा, गला रूंध गया, भर्रायी सी आवाज मे बोला -
’’ अन्नदाता आप ही मेरे भगवान हैं, अब और कोई सहारा नही बचा हैं, शरण मे आये की रक्षा करो, नही तो जीवन की गाड़ी नही चल पायेगी। ’’
’’ क्या हुआ हरिया ? आखिर बात क्या हैं और तुम्हारे पैर मे क्या हुआ ? ’’ सेठ जी भी थोड़े से भावुक हो गये थे।
’’ उस दिन रिक्शा लेकर दुकान से घर लौट रहा था माई-बाप, एक कार वाले ने टक्कर मार दी, दाहिना पैर टूट गया। ’’
’’ अरे ! ऐसे कैसे हो गया, तुमने कोई खबर भी नही की और उस कार वाले को जाने दिया ? ’’
’’ गलती मेरी ही रही होगी अन्नदाता, मैं गली की ओर मुड़ रहा था, शायद हाथ से ईशारा नही कर पाया होऊंगा, बाईपास पर पीछे से कार तेज आ रही होगी, टक्कर के बाद होश ही नही रहयो, दो दिन मे होश आयो। ’’
’’ और कार वाला .........? ’’
’’ कोई भला आदमी थो साहब, उसी ने अस्पताल पहुँचाया, बेटो को खबर लगी तो इलाज को सारो खर्च भी उसी से ले लियो, उतने तो उन्होनें लगाये भी नही होंगे। ऊपर से यह कहते हैं कि बूढे़ ने बर्बाद कर दिया। दो महिनों मे खड़ा हुआ हूं। ’’
’’ बहुत बुरा हुआ हरिया, भगवान को पता नही क्या मंजूर हैं ? ’’
’’ कोई बुरे कर्म पिछले जन्म मे किये होंगे माई-बाप, उनको हिसाब भगवान ने चुकतो कियो होगौ, जीणा बदहाल होग्यो, अब आगे कैसे कटेगी वही जाणे। तीनो बेटो के लिये बोझ बण ग्यो हूं, रोज बहुवें ताणा दे-देकर मार देवे हैं, पतो ना आगे कैसी बसर होगी साहब। ’’
सेठ जी अन्दर से बहुत भावुक हो गये थे। मन ही मन शायद सोच रहे थे कि वह भी कितने स्वार्थी हैं, कभी हरिया के घर तक जाने की जहमत नही की, कुछ अपराध बोध सा महसूस कर रहे थे। तभी पुनः हरिया ने उनको झकझोरा -
’’ रिक्शा नही चला पाऊंगा अन्नदाता, कोई छोटा-मोटा घर-गृहस्थी का कोई काम दे दो, गरीब को पेट पड़ जायेगो, जीवन भर थारी गुलामी करूँगो। ’’
सेठ जी ने हरिया को गले लगा लिया, बोले -
’’ तुम चिन्ता मत करो हरिया मैं कुछ करता हूं। ’’
हरिया को सेठ जी में जैसें सचमुच भगवान के दर्शन हो गये थे, वह उनके पैरों को पकड़कर जोर-जोर से रोने लगा था। नीच जात का होते हुए भी आज पहली बार उसे सेठ जी ने अपने पास बैठाया, खाना खिलाया और कुछ रूपये उसकी जेब मे रखते हुए बोले -
’’ हरिया कल शाम को आज की तरह जैसे भी दुकान पर आ जाना, मै कुछ इन्तजाम करता हूं। ’’
हाथ जोड़ता हुआ हरिया चला गया और सेठ जी विकल होकर उस दिन, रात सोने तक सिर्फ हरिया के बारे मे सोचते रहे। सोच रहे थे कि उन दोनो के नाम मे कितनी समानता थी, किन्तु उसको भगवान ने ’’राम हरि’’ से ’’सेठ रामहरि दास’’ बना दिया और उसको ’’हरिराम’’ से ’’हरिया’’ बना दिया। तीन बेटो के होते हुए भी वह कितना मजबूर लाचार दिखाई दे रहा था, ऐसी सन्तान होने का क्या फायदा, इससे तो आदमी निःसन्तान रह जाये वही अच्छा। रह-रहकर उनको अपने मन मे भी अपराध बोध सा हो रहा था। इतने दिन से हरिया पूरी निष्ठा व ईमानदारी से उनके साथ दुकान पर काम कर रहा था, उन्हें उसकी कुछ खोज खबर तो लेनी ही चाहिए थी, खैर बीत गया सो चला गया, अब उसकी आगे की फिक्र सेठ जी को थी। घर मे चर्चा की, सेठानी को बताया तो उन्होंने साफ इन्कार कर दिया - ’’ सुनो जी, नीच जात को मैं घर के अन्दर नही घुसने दुंगी, तुम जानो, तुम्हारी दुकान जाने। ’’
सेठ जी का मकान काफी बड़ा हवेली के रूप मे था, जिसके बाहर काफी खाली जगह फुलवारी, घास को छोटा सा लॉन विकसित था, जिसकी देखभाल के लिये नियमित अन्तराल से माली आता था, बाकी पानी देने का काम शौकीने तौर पर घर का कोई सदस्य या अन्य कोई नौकर कर देता था। सेठ जी के दिमाग में एकदम विचार कोंधा -
’’ सुनो, घर के बाहर अपने लॉन-फुलवारी, पेड़-पौधे की देखभाल कर लेगा, बाहरी चार दीवारी के पास कोने मे जो छोटा सा कक्ष हैं, उसमे रह लेगा, तुम्हारें बाहर के छोटे-मोटे काम भी कर दिया करेगा। ’’
’’ देख लो जी, मेरे चूल्हे-चौके का ख्याल रहे। ’’
’’ एक नौकर का अतिरिक्त खर्च बढ़ा रहे हो बाऊजी। ’’ बीचवाला हरदयाल जो बाते सुन रहा था, बीच मे बोला।
’’ अरे कौन खर्च बढ़ा जाता हैं तुम्हारा ? तुम्हारे माली के पैसे बचेंगे और छोटे-मोटे काम कर वह तुम्हारा कितना समय बचा देगा, तुम तो चले जाते हो दुकान पर, पीछे से औरतों को परेशान होना पड़ता हैं, छोटे-छोटे काम के लिये भी। ’’ सेठ जी जरा कड़क कर बोले।
हरदयाल चुप हो गया, और किसी में इतनी हिम्मत भी नही थी कि कोई सेठ जी की बात का प्रतिकार कर सके।
दूसरे दिन दुकान से लौटते वक्त सेठ जी हरिया को भी साथ लिवा लाये। उसके वस्त्र, बिस्तरों और खाने-पीने की सामग्री का इन्तजाम कर बाहरी कक्ष में रहने की व्यवस्था कर दी और समझाते हुए बोले -
’’ देखो हरिया, घर की औरतें पुराने विचारों की हैं, जात-पांत के बारे मे कुछ ज्यादा ही सोचती हैं, सो इन चीजो का थोड़ा सा ध्यान रखना, बाकी दिल के बुरे नही हैं, अन्दर से कुछ खाना मिल जाये तो ठीक हैं, वरन् तेरे पास सामान हैं, अपना खुद कर लेना, खर्च की चिन्ता मत कराना। ’’
’’ सेठ जी शिकायत का मौका नही दुंगा। ’’ हरिया हाथ जोड़े आभार व्यक्त कर रहा था जो उसकी आवाज व आंखों की नजर से स्पष्ट प्रतिबिम्बत हो रहा था कि उसका मन सेठ जी के प्रति बहुत कृतज्ञ था। सेठ जी ने उसको सारा काम समझा दिया।
हरिया का वक्त चैन से गुजरने लगा। धीरे-धीरे उसने अपनी ईमानदारी, काम के प्रति लगन और निष्ठा ने घर की औरतों के दिल में जगह बना ली। फुलवारी अब और भी सुन्दर होकर महकने लगी। अब उसको अपना खाना भी नही बनाना पड़ता था, अक्सर सेठानी अन्दर से रोज खाना भिजवा देती। कभी-कभार हरिया अपने घर पोते-पोतियों से मिलने भी जाता था, सभी को कुछ चीजे लेकर जाता। अब तो बहु-बेटों को भी लगने लगा कि बूढे के पास कुछ धन जुड़ गया हैं, सो उससे बार-बार घर आते रहने की गुजारिश करने लगे और बहुवें कहती कि उसके बिना घर सूना-सूना लगता है, हरिया उनकी भावनाओ को अच्छी तरह समझता था।
कुछ दिनो बाद सेठ जी की लड़की पुष्पा का विवाह तय हुआ। सेठ जी ने मन से खूब खर्च किया, धूमधाम से सारे कार्य सम्पन्न हुए और हरिया ने दिन-रात काम कर सबका मन जीत लिया। अब वह घर के अन्दर भी घुस जाता था तो सेठानी को बुरा नही लगता था, बस केवल रसोई में उसका पैर नही पड़ने देती थी, अन्यथा वह मानो उनके घर का ही सदस्य बन गया था। अब वह बिना किसी लकड़ी के सहारे चलता था, बस थोड़ी लचक रह गयी थी जिससे उसे लंगड़ा कर चलना पड़ता था। घर की महिलायें और सभी बच्चे उसको ’’ हरिया काका ’’ कहकर सम्बोधित करने लगे थे।
ईश्वर का विधान और भाग्य लेखा भी विचित्र हैं जो हमारी समझ और नियन्त्रण से परे है। कभी-कभी जब हमें लगता हैं कि सब कुछ अच्छा चल रहा है तभी कुछ ऐसा पता चलता हैं या कुछ ऐसा घटित होता है कि सभी अच्छा एक पल में ही विषाद और आपदा मे बदल जाता है। सेठ जी के साथ कुछ ऐसा ही घटित हुआ।
पिछले कई दिनो से पेट में दर्द महसूस हो रहा था। आज तेज दर्द हुआ तो हॉस्पिटल मे भर्ती करवा दिया। डॉक्टरों द्वारा जाँच परीक्षण करने के बाद पता चला कि सेठ जी की दोनो किड़निया (गुर्दे) पूरी तरह खराब हो चुकी हैं और अब उनके जीवन की गाड़ी को आगे ले जाने में बिल्कुल असमर्थ है। सभी को जैसे एक बड़ा सदमा लगा, यह सब क्योंकर हुआ, सेठ जी में तो ऐसा कोई बड़ा व्यसन भी नही, केवल पान-सिगरेट के शौकीन थे, शराब आदि को तो कभी छूकर भी नही देखा। लेकिन पता नही किस वजह से, शायद बहुत देर तक दुकान की गद्दी पर बैठे रहने से या कुछ और, भगवान का विधान यह हो चुका था।
उन दिनों आज की तरह किड़नी ट्रान्सप्लान्ट करना उसकी उपलब्धता आसानी से केवल पैसे के दम पर संभव नही था। यदि कोई अपनी किड़नी दान देना चाहे, तभी मुश्किल से संभव हो पाता था। परिवार के सदस्यो के लिये यह सिर पर पहाड़ टूटने से भी ज्यादा घातक लग रहा था। इतना बड़ा त्याग तो शायद भगवान राम ने 14 वर्ष के वनवास को स्वीकार करके भी नही किया होगा, कर्ण ने अपने कवच-कुंडल दान देकर भी नहीं, वे कम से कम स्वस्थ रूप से जिन्दा तो रह सकते थे, अपनी एक किड़नी देने के बाद तो पता नही शरीर स्वस्थ भी रह पायेगा या नहीं अथवा जीवन भर दवाओं के सहारे ही रहना पड़ेगा जबकि विज्ञान और डॉक्टर बेशक यह कहे कि एक किड़नी के सहारे भी जीवन जिया जा सकता है।
उस दिन इसी बात पर विचार-विमर्श करने के लिये सभी चौक मे इकट्ठा थे। सबसे पहले सेठानी ही बोली -
’’ भई बेटो देख लो! जिसको उचित लगे, यदि तुम में से कोई तैयार हैं तो तुम्हारे पिताजी का जीवन बचाया जा सकता हैं। ’’
’’ मां जी, इनका तो पहले से ही बी.पी. हाई रहता हैं, फिर तीन-तीन बेटियां हैं मेरी, कुछ हान-जोख हो गई तो देवरों से सहारे की भी उम्मीद नही है। ’’ बड़े बेटे घनश्याम की पत्नी रूकमणी ने सबसे पहले पल्ला झाड़ा जिसको घनश्याम ने मौन स्वीकृति प्रदान की।
’’ भाभी बी.पी. तो आजकल सामान्य सी बात है, मम्मी को तो बी.पी. और शुगर दोनो हैं, हीमोग्लोबिन भी बहुत कम है और मुझे भी पिछले दिनो चैक अप करवाया था तो पता चला कि शूगर लेवल थोड़ा ज्यादा हैं, शूगर वाले व्यक्ति का तो ऑपरेशन संभव ही नही है। ’’ हरदयाल ने पलट कर जवाब देते हुए, अपनी सफाई भी दे डाली।
सभी सबसे छोटे रघु की ओर देखने लगे तो तपक कर उसकी पत्नी स्नेहलता ने उद्गॉर व्यक्त किये -
’’ अभी इनकी तो उम्र ही क्या हैं ? बड़े भैया ने तो जीवन देख लिया, हमारे आगे तो सारा जीवन पड़ा है, फिर बाऊजी पैंसठ के हो गये है, किड़नी बदलने पर भी कौन गारन्टी हैं कि आगे लम्बा जीवन जीयेंगे। ’’ यह कहते हुए एक साथ रघु और स्वयं को इससे अलग कर लिया। और बहुवें तो तैयार होने का मतलब ही कहां था और जहां बेटो की भावना ही ऐसी हो तो बहुओं से अपेक्षा करना ही बेमानी है।
पुष्पा जो पिता की खबर सुनकर मिलने आ गई थी, वह भी नजरे नीचे किये बोली -
’’ काश मैं दे सकती, लेकिन मम्मी अब उनसे (पति से) पूंछना पड़ेगा, वे क्या कहेंगे। ’’
’’ नही बेटी, तुम पराया धन हो, तुम्हारे पर अब हमारा हक नही। ’’
अन्त में शायद मन रखने के लिये या पता नही सेठानी ही बोली - ’’ तो तुम डॉक्टर से सलाह कर लो, मैं ही अपनी एक किडनी दे दुंगी। ’’
’’ यह क्या कह रही हो मम्मी, आपको बी.पी. और शुगर कितना ज्यादा हैं, हम दोनों को एक साथ नही खोना चाहते, जब तक ईश्वर चाहे, तुम उनकी सेवा तो कर सकती हो, यह भी तो कर्तव्य हैं, तुम दोनो को एक साथ संभालना बहुत मुश्किल हो जायेगा। ’’ घनश्याम ने जैसे निष्कर्ष निकाल कर समझाया, उसके एक-एक शब्द की भावना को सभी समझ रहे थे और कमोबेश सबकी भावना एक जैसी ही थी।
चौक से सटी हुई बैठक वाले कक्ष मे लेटे सेठ रामहरि के कानों में उनके ये शब्द किसी नश्तर की भांति चुभते हुए दिल में गहरे घाव कर गये थे। वे जिन्दगी की सच्चाई को बहुत नजदीक से देख रहे थे, उन्हें लगा कि उनका अन्त समय आ गया है। मन उद्विग्न होकर अब तक बुने गये समस्त तानो-बानो को मानो उधेड़कर तार-तार करना चाहता था, फिर मुश्किल से धैर्य की डोर पकड़कर अपने आपको समझाने की कोशिश करने लगे कि शायद इस सांसारिक दुनियां की यही वास्तविकता है। तो क्या आज तक वह सबके लिये मरता-खपता रहा, सब कुछ निरर्थक, महत्वहीन व झूंठा था। एक पल में ही मानो उनकी आंखो के सामने सारा जीवन वृतान्त घूम गया। कल ही की सी तो बात लगती थी, कैसे अपने हाथों से अपने बेटों को निवाला खिलाते थे, जगन्नाथ जी का मेला दिखाने ले जाता था, कैसे उनकी हर ख्वाहिश का ध्यान रखते हुए परवरिश की, अपने पैरो पर खड़े होने काबिल बनाया, फिर खड़ा भी किया। कभी अपने बारे में सोचा ही नहीं, अभी भी कोल्हूं के बैल की तरह दुकान पर काम करता था। यहां तक कि जिसके साथ जन्मों का साथ निभाने की कसम लेकर सात फेरे लिये थे, उसने भी एक पल मे ही सब्र कर लिया और अब सदा के लिये जुदा होना तय मान लिया। तो क्या सचमुच यही जीवन हैं, पूरे पैंसठ साल खपने के बदले झूठें ही सही, कम से कम कोई यह कह देता कि वह पिताजी को किड़नी देने के लिये तैयार हैं, क्या पता वह स्वीकार करता या नही ? उनकी आंखो से अनायास ही एक पानी की सी लकीर कनपटी की ओर बह निकली।
आज उनको सेठ रामहरिदास और हरिया मे कोई अन्तर नही दिखाई दे रहा था, दोनो एक जैसे कंगाल थे, बाहरी आवरण, कुल-मर्यादा का भेदभाव, बड़े-बड़े ताम-झाम, सबकुछ जैसे दिखावा मात्र था, झूंठा छलावा था, अन्दर से वे एक जैसे ही थे बिल्कुल तन्हा, बिल्कुल समान।
सेठ जी के पैरों की तरफ बैठा हरिया सारे वृतान्त का मूक साक्षी था, उसके धैर्य का बांध टूट गया, शायद अपने भावावेश को संभालने की शिक्षा या कहें बुद्धि-काबिलियत उसमें नहीं थी। फूटकर रोने लगा, फिर अचानक मन को दृढ़ सा करते हुए खड़ा होकर चौक मे आ गया और बोला -
’’ सेठ जी को मैं अपनी किड़नी दे दूंगा, वैसे भी यह जीवन उनका ही दिया हुआ हैं, वरना क्या पता अब तक तो घुटकर कहीं मर-खप जाता। ’’
सभी अवाक् होकर हरिया की तरफ देखते रह गये, मुंह खुले रह गये। कुछ देर के लिये सभी निःशब्द हो गये, एक दम सन्नाटा सा, कुछ पल बाद जैसे आंखों की जुबां से एक-दूसरे की भावनाओं को समझने की कोशिश करने लगे। फिर बड़े ही शालीन समझदार की तरह बड़े भैया बोले -
’’ हरिया काका, यह क्या कह रहे हो ? तुम्हारें बेटों को पता चलेगा तो वो हमें कोसेंगे ? ’’
’’ कौन किसका बेटा हैं भाई, वक्त पड़े जो सहारा दे वही अपना है, वे कौन होते हैं मेरे बारे मे फैसला करने वाले। ’’
पुनः कुछ पल के लिये शान्ति छा गयी, फिर सेठानी बोली -
’’ देखो हरिया, मेरे यदि बीमारी नही होती तो मैं ही दे देती, लेकिन ये लोग कहते हैं कि मेरे स्वास्थ्य के कारण यह संभव नही है। ’’
’’ मैं जानता हूं सेठानी जी, सभी कुछ तो आपकी बाते सुनी है। ’’
’’ देखो एक बार फिर तसल्ली से सोच लो, फिर कल सुबह तय कर लेना। ’’ अबकी बार बीच वाले हरदयाल ने बड़े सदे अन्दाज मे कहा।
’’ सोच लिया मंझले भैया, यदि मैं सेठ जी के काम नही आ सका तो इस जीवन का कोई लाभ नहीं, और घणा दिमाग भगवान ने दिया नहीं लगाने को, ना ही बाकी जुर्रत है। ’’
सभी पुनः शान्त होकर ईशारों मे ही जैसे एक-दूसरे को समझाने लगे। फिर तय किया कि अगले दिन अस्पताल चल कर डॉक्टर से सलाह करेंगे।
सेठ जी ने हरिया को ऐसा करने से मना भी किया, शायद जीवन के प्रति उनका मोह थोड़ा कम हुआ होगा, किन्तु फिर भी कोई सांसरिक प्राणी इतनी आसानी से प्राण कहां छोड़ना चाहता हैं, वह भी दुख पाते हुए। किसी परिवार वाले की तो सेठ जी को कुछ कहने की हिम्मत नही हुई, लेकिन हरिया ने ही उन्हें मना किया -
’’ देखो अन्नदाता, मैं थारे काम नही आ सकूं तो या जीवन वैसां भी बेकार हैं, आज भी थारो ही सहारों हैं, आगे भी बनाये रख ज्यो, फेर देखी जावेगी। ’’
सेठ जी की आंखे पुनः नम हो गयी, लेकिन अबकी बार उनकी आंखों के पानी का रंग दूसरा था, उनमे कुछ शुकून, कुछ स्नेह का अहसास था।
आखिर डॉक्टर से सलाह कर हरिया ने अपनी एक किडनी सेठ जी को अर्पण कर दी। दोनो का सफल ऑपरेशन हो गया।
अचानक सेठ जी विचारों की दुनियां से बाहर आ गये, नर्स से बोले -
’’ हरिया कहां हैं ? ’’
’’ कौन हरिया ताऊजी ? ’’
’’ अरे, जिसकी वजह से मैं जिन्दा हूं, जिसने अपनी किड़नी मुझे दी है। ’’
’’ अरे वे! ताऊजी बिल्कुल ठीक हैं, दूसरे वार्ड मे है। ’’
’’ मै मिलना चाहता हूं उससे ? ’’
’’ थोड़ा धैर्ये रखो ताऊजी, एक-दो दिन मे सब ठीक हो जायेगा, डॉक्टर साहब आयेंगे तो कोई व्यवस्था करायेंगे। ’’
सेठ जी ने शायद अस्पताल से स्वस्थ होकर निकलने से पहले ही खूब तसल्ली से सोच विचार कर निर्णय कर लिया था कि आगे का जीवन कैसे बिताना है। घर आकर, दोनो के पूर्ण स्वस्थ होने के बाद, हरिया को बोले -
’’ देखो हरिया, अब मैं आगे का जीवन अपने लिये, भगवान के ध्यान में और कुछ समाज सेवा करते हुए बिताना चाहता हूं। फिलहाल हरिद्वार मे रहने का फैसला किया हैं, तुम मेरे साथ चल सकते हो, जैसे मै रहुंगा, वैसे ही तुम भी अन्यथा चिन्ता की कोई बात नही हैं, मै तुम्हारा कोई स्थायी इन्तजाम किये देता हूं। ’’
’’ अन्नदाता, मेरे लिये इससे बड़ी खुशी क्या होगी, थारे साथ मुझ गरीब को भी भगवान के शरण मे जगह मिल जायेगी। ’’
’’ और ये अन्नदाता-अन्नदाता कहना बन्द करो, सिर्फ भाई साहब या भैया कह दिया करो। ’’
आज हरिया के मन को भी जैसे अतीव सुख का खजाना मिल गया था, बड़ी शान्ति सी महसूस हो रही थी। आंखे छलक आयी थी, पता नही शायद कोई अनजानी सी भावना दिल से उमड़कर आंखों के जरिये बयां होना चाहती थी।
रेलगाड़ी किन्हीं हरी-भरी वादियों से गुजर रही थी। सेठ जी तकिया लगाये बर्थ पर लेटे हुए कभी खिड़की से बाहर खुशनुमा दुश्यों को देखते, कभी हरिया की ओर, जो सामने की बर्थ पर सोया हुआ था, साफ-सुथरे कुर्ते-पायजामा पहने, शायद पहली बार ए.सी. ट्रेन के कोच मे सफर कर रहा था। आज वह सेठ जी को बहुत अपना लग रहा था। मन ही मन सेठ जी सोच रहे थे कि हरिया में और उनमें कितनी समानता है। आज दोनो के हालात व मनोस्थिति एक जैसे ही लग रहे थे, ’’रामहरि’’ और ’’हरिराम’’ मे बस केवल दो शब्दों के आगे-पीछे लिखने का ही अन्तर था, वरन् अन्दर के सारे अक्षर एक जैसे ही थे।
दोनो को यह सफर सुहाना लग रहा था। गाड़ी कहीं नदी की धार के साथ-साथ पटरी पर दोड़ रही थी। सेठ जी सोच रहे थे कि जिन्दगी का सफर भी किस तरह नदी के अनवरत प्रवाह की तरह गतिमान रहता हैं। रेलगाड़ी के सफर की तरह प्रत्येक की जीवन यात्रा विधाता द्वारा तय किये गन्तव्य पर जाकर रूक जायेगी, इस बीच कई मुसाफिर आते हैं, कुछ कदम साथ चलते हैं और फिर उतर जाते हैं, फिर कोई नया मुसाफिर साथ हो लेता है। नदी की धार को देखते हुए मानों आंखों को बहुत ठण्डक महसूस हो रही थी, मन को बड़ी शान्ति, बड़ा ही शुकून भरा तनावमुक्त अहसास हो रहा था।