Geeta se Shree Krushn ke 555 Jivan Sutra - 65 books and stories free download online pdf in Hindi

गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 65

भाग 64 जीवन सूत्र 73 और 74



जीवन सूत्र 73: सेवा के लिए आगे बढ़ने में उठाएं खतरे



गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है: -


सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।

कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्।।3/25।

इसका अर्थ है, हे भारत!कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जैसे कर्म करते हैं वैसे ही विद्वान् पुरुष आसक्ति का त्यागकर लोकसंग्रह अर्थात जन कल्याण की इच्छा से कर्म करें।

फल की तीव्र इच्छा से कार्य करने वाले व्यक्तियों में लक्ष्य प्राप्ति के लिए एक गहरा समर्पण होता है।श्री कृष्ण ने ऐसे व्यक्तियों को अज्ञानी कहा है।जिनके लक्ष्य केवल स्वार्थ केंद्रित,भोग के साधनों की प्राप्ति तथा आडंबर और यश लिप्सा तक सीमित हों,वे अज्ञानी ही हैं।


जीवन सूत्र 74:ज्ञानियों का समर्पण भी गहरा होता है



अज्ञानी और विद्वान व्यक्तियों में यही अंतर होता है कि ज्ञानियों का समर्पण भी गहरा होता है लेकिन अंतर यह है कि यह समर्पण स्व के बदले पर और स्वार्थ के बदले परमार्थ की भावना से प्रेरित होता है।यही फर्क है दृष्टिकोण का,जिससे जीवन की पूरी गति बदल जाती है।

रोटी,कपड़ा और मकान (सिर पर छत) जैसी जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मनुष्य का श्रम करना आवश्यक है। अगर व्यक्ति को अपनी आर्थिक स्थिति के कारण यह सुविधाएं पहले से ही उपलब्ध हैं तो भी उसका कर्तव्य अपने श्रम की रोटी खाना है ताकि उसके भीतर आत्मनिर्भरता आ सके। विद्यालयों - महाविद्यालयों में पढ़ाई के बाद बच्चा एक वयस्क व्यक्ति के रूप में संस्कारित और शिक्षित होता है। इसके बाद वह अपने कर्म क्षेत्र में उतरता है। अपनी योग्यता और क्षमता के अनुसार सही कार्य को प्राप्त करना न सिर्फ मनुष्य का कर्तव्य है बल्कि समाज के लिए भी आवश्यक है कि सही व्यक्ति सही जगह पर पहुंच जाए। चाहे वह नौकरी करे, चाहे वह व्यापार करे, चाहे वह स्व सहायता समूह में कार्य करे या चाहे वह केवल और केवल सेवा के कार्य में स्वयं को समर्पित कर दे,उसमें समाज के प्रति समर्पण दिखना चाहिए और लोक कल्याण की भावना सर्वोपरि होना चाहिए।

हमारे पास पड़ोस से लेकर शहर तक ऐसे अनेक लोग दिखाई दे जाएंगे जिनको सहायता की आवश्यकता होती है। कभी सहायता करने के बदले मुसीबत गले पड़ने वाली स्थिति बनती है क्योंकि जिस व्यक्ति को सहायता दी जाती है वह सहायता पहुंचाने वाले व्यक्ति से और अधिक सहायता की अपेक्षा करने लगता है। तब ऐसे में होम करते हाथ जलने वाली स्थिति हो जाती है। समाज में यह वातावरण बनना चाहिए कि व्यक्ति नि:संकोच किसी की सहायता कर सके।यही है आसक्ति को त्याग कर धीरे-धीरे लोक कल्याण अर्थात लोक संग्रह की ओर बढ़ना और इसके लिए सब कुछ छोड़ कर वैराग्य धारण करने की भी आवश्यकता नहीं है।


वास्तव में इस श्लोक के माध्यम से एक सामान्य मनुष्य और एक सेवाभावी मनुष्य के दृष्टिकोण में अंतर को स्पष्ट किया गया है। सामान्य मनुष्य एक ओर जहां कर्मों के फल को सामने रखकर ही कर्म करते हैं और उनकी आसक्ति कर्मों में भी हो जाती है।वहीं लोक कल्याण की इच्छा वाले मनुष्य के मन में सेवा और परोपकार का भाव होता है। जन-जन की पीड़ा और कष्ट को अपने वैयक्तिक आवश्यकताओं के ऊपर वरीयता देने वाले लोग बहुत कम होते हैं। इसलिए एक सामान्य मनुष्य की जिंदगी एक बंधे बंधाए ढर्रे और दिनचर्या में शुरू होती है और उसी तरह खत्म भी हो जाती है।

जनवादी कवि पाश के शब्दों में:-

सबसे खतरनाक होता है

मुर्दा शांति से भर जाना

तड़प का न होना सब सहन कर जाना

घर से निकलना काम पर

और काम से लौटकर घर जाना

सबसे खतरनाक होता है

हमारे सपनों का मर जाना।

सार्वजनिक सेवा में अपना सर्वस्व समर्पित कर देने वाले समाजसेवकों व मनीषियों के अनेक उदाहरण हैं। अगर महात्मा गांधी ने सेंट मेरिट्ज़बर्ग रेलवे स्टेशन में टिकट होने के बाद भी ट्रेन के प्रथम दर्जे के डिब्बे से उतारे जाने के अपने व्यक्तिगत अपमान को दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले समस्त भारतीय लोगों की पीड़ा से नहीं जोड़ा होता तो आज इतिहास नहीं बनता। स्वामी विवेकानंद, भगत सिंह,बाबा साहब डॉ.भीमराव आंबेडकर आदि महापुरुषों ने देश और समाज के लिए बहुत बड़े उद्देश्य को लेकर कार्य किया।सामान्य मनुष्य भी अपने नियमित कार्यों के अतिरिक्त यथासंभव समाज के लिए कुछ करने की कोशिश अवश्य करे। एकदम अपने स्तर पर, प्रारंभिक स्तर पर, एकदम अपने आसपास से, पास-पड़ोस से, बगैर किसी महान अवसर या महान क्षण के आगमन की प्रतीक्षा किए।


डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय