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मंगलसूत्र - 4

मूल लेखक - मुंशी प्रेमचंद

दुविधा में पड़ कर बोला - मगर सभी स्त्रियाँ मिस बटलर तो नहीं हो सकतीं?

पुष्पा ने आवेश के साथ कहा - क्यों? अगर वह डॉक्टरी पढ़ कर अपना व्यवसाय कर सकती हैं तो मैं क्यों नहीं कर सकती?

- उनके समाज में और हमारे समाज में बड़ा अंतर है।

- अर्थात उनके समाज के पुरुष शिष्ट हैं, शीलवान हैं, और हमारे समाज के पुरुष चरित्रहीन हैं, लंपट हैं, विशेषकर जो पढ़े-लिखे हैं।

- यह क्यों नहीं कहती कि उस समाज में नारियों में आत्मबल है, अपनी रक्षा करने की शक्ति है और पुरुषों को काबू में रखने की कला है।

- हम भी तो वही आत्मबल और शक्ति और कला प्राप्त करना चाहती हैं लेकिन तुम लोगों के मारे जब कुछ चलने पाए। मर्यादा और आदर्श और जाने किन-किन बहानों से हमें दबाने की और हमारे ऊपर अपनी हुकूमत जमाए रखने की कोशिश करते रहते हो।

संत कुमार ने देखा कि बहस फिर उसी मार्ग पर चल पड़ी है जो अंत में पुष्पा को असहयोग धारण करने पर तैयार कर देता है,औ3र इस समय वह उसे नाराज करने नहीं, उसे खुश करने आया था।

बोला - अच्छा साहब, सारा दोष पुरुषों का है, अब राजी हुई। पुरुष भी हुकूमत करते-करते थक गया है, और अब कुछ दिन विश्राम करना चाहता है। तुम्हारे अधीन रह कर अगर वह इस संघर्ष से बच जाए तो वह अपना सिंहासन छोड़ने को तैयार है।

पुष्पा ने मुस्करा कर कहा - अच्छा, आज से घर में बैठो।

- बड़े शौक से बैठूँगा, मेरे लिए अच्छे-अच्छे कपड़े, अच्छी-अच्छी सवारियाँ ला दो। जैसे तुम कहोगी वैसा ही करूँगा। तुम्हारी मर्जी के खिलाफ एक शब्द भी न बोलूँगा।

- फिर तो न कहोगे कि स्त्री पुरुष की मुहताज है, इसलिए उसे पुरुष की गुलामी करनी चाहिए?

- कभी नहीं, मगर एक शर्त पर।

- कौन-सी शर्त?

- तुम्हारे प्रेम पर मेरा ही अधिकार रहेगा।

- स्त्रियाँ तो पुरुषों से ऐसी शर्त कभी न मनवा सकीं?

- यह उनकी दुर्बलता थी। ईश्वर ने तो उन्हें पुरुषों पर शासन करने के लिए सभी अस्त्र दे दिए थे।

संधि हो जाने पर भी पुष्पा का मन आश्वस्त न हुआ। संतकुमार का स्वभाव वह जानती थी। स्त्री पर शासन करने का जो संस्कार है वह इतनी जल्द कैसे बदल सकता है। ऊपर की बातों में संतकुमार उसे अपने बराबर का स्थान देते थे। लेकिन इसमें एक प्रकार का एहसान छिपा होता था। महत्व की बातों में वह लगाम अपने हाथ में रखते थे। ऐसा आदमी एकाएक अपना अधिकार त्यागने पर तैयार हो जाए, इसमें कोई रहस्य अवश्य है।

बोली - नारियों ने उन शस्त्रों से अपनी रक्षा नहीं की, पुरुषों ही की रक्षा करती रहीं। यहाँ तक कि उनमें अपनी रक्षा करने की सामर्थ्य ही नहीं रही।

संतकुमार ने मुग्ध भाव से कहा - यही भाव मेरे मन में कई बार आया है पुष्पा, और इसमें कोई संदेह नहीं कि अगर स्त्री ने पुरुष की रक्षा न की होती तो आज दुनिया वीरान हो गई होती। उसका सारा जीवन तप और साधना का जीवन है।

तब उसने उससे अपने मंसूबे कह सुनाए। वह उन महात्माओं से अपनी मौरूसी जायदाद वापस लेना चाहता है, अगर पुष्पा अपने पिता से जिक्र करे और दस हजार रुपए भी दिला दे तो संतकुमार को दो लाख की जायदाद मिल सकती है। सिर्फ दस हजार। इतने रुपए के बगैर उसके हाथ से दो लाख की जायदाद निकली जाती है।

पुष्पा ने कहा - मगर वह जायदाद तो बिक चुकी है।

संतकुमार ने सिर हिलाया - बिक नहीं चुकी है, लुट चुकी है। जो जमीन लाख-दो लाख में भी सस्ती है, वह दस हजार में कूड़ा हो गई। कोई भी समझदार आदमी ऐसा गच्चा नहीं खा सकता और अगर खा जाए तो वह अपने होश-हवास में नहीं है। दादा गृहस्थी में कुशल नहीं रहे। वह तो कल्पनाओं की दुनिया में रहते थे। बदमाशों ने उन्हें चकमा दिया और जायदाद निकलवा दी। मेरा धर्म है कि मैं वह जायदाद वापस लूँ, और तुम चाहो तो सब कुछ हो सकता है। डॉक्टर साहब के लिए दस हजार का इंतजाम कर देना कोई कठिन बात नहीं है।

पुष्पा एक मिनट तक विचार में डूबी रही, फिर संदेह भाव से बोली - मुझे तो आशा नहीं कि दादा के पास इतने रुपए फालतू हों।

- जरा कहो तो।

- कहूँ कैसे - क्या मैं उनका हाल जानती नहीं? उनकी डॉक्टरी अच्छी चलती है, पर उनके खर्च भी तो हैं। बीरू के लिए हर महीने पाँच सौ रुपए इंगलैंड भेजने पड़ते हैं। तिलोत्तमा की पढ़ाई का खर्च भी कुछ कम नहीं। संचय करने की उनकी आदत नहीं है। मैं उन्हें संकट में नहीं डालना चाहती।

- मैं उधार माँगता हूँ। खैरात नहीं।

- जहाँ इतना घनिष्ठ संबंध है वहाँ उधार के माने खैरात के सिवा और कुछ नहीं। तुम रुपए न दे सके तो वह तुम्हारा क्या बना लेंगे? अदालत जा नहीं सकते, दुनिया हँसेगी, पंचायत कर नहीं सकते, लोग ताने देंगे।

संतकुमार ने तीखेपन से कहा - तुमने यह कैसे समझ लिया कि मैं रुपए न दे सकूँगा?

पुष्पा मुँह फेर कर बोली - तुम्हारी जीत होना निश्चित नहीं है। और जीत भी हो जाए और तुम्हारे हाथ में रुपए आ भी जाएँ तो यहाँ कितने जमींदार ऐसे हैं जो अपने कर्ज चुका सकते हों? रोज ही तो रियासतें कोर्ट ऑफ वार्ड में आया करती हैं। यह भी मान लें कि तुम किफायत से रहोगे और धन जमा कर लोगे, लेकिन आदमी का स्वभाव है कि वह जिस रुपए को हजम कर सकता है उसे हजम कर जाता है। धर्म और नीति को भूल जाना उसकी एक आम कमजोरी है।

संतकुमार ने पुष्पा को कड़ी आँखों से देखा। पुष्पा के कहने में जो सत्य था वह तीर की तरह निशाने पर जा बैठा। उसके मन में जो चोर छिपा बैठा था उसे पुष्पा ने पकड़ कर सामने खड़ा कर दिया था। तिलमिला कर बोला - आदमी को तुम इतना नीच समझती हो,तुम्हारी इस मनोवृत्ति पर मुझे अचरज भी है और दुख भी। इस गए-गुजरे जमाने में भी समाज पर धर्म और नीति का ही शासन है। जिस दिन संसार से धर्म और नीति का नाश हो जाएगा उसी दिन समाज का अंत हो जाएगा।

उसने धर्म और नीति की व्यापकता पर एक लंबा दार्शनिक व्याख्यान दे डाला - कभी किसी घर में कोई चोरी हो जाती है तो कितनी हलचल मच जाती है। क्यों? इसीलिए कि चोरी एक गैर-मामूली बात है। अगर समाज चोरों का होता तो किसी का साह होना उतनी ही हलचल पैदा करता। रोगों की आज बहुत बढ़ती सुनने में आती है, लेकिन गौर से देखो तो सौ में एक आदमी से ज्यादा बीमार न होगा। अगर बीमारी आम बात होती तो तंदुरुस्तों की नुमाइश होती, आदि। पुष्पा विरक्त-सी सुनती रही। उसके पास जवाब तो थे, पर वह इस बहस को तूल नहीं देना चाहती थी। उसने तय कर लिया था कि वह अपने पिता से रुपए के लिए न कहेगी और किसी तर्क या प्रमाण का उस पर कोई असर न हो सकता था।