Mahantam Ganitagya Shrinivas Ramanujan - 28 books and stories free download online pdf in Hindi

महानतम गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन् - भाग 28

[ बिगड़ता स्वास्थ्य ]

रामानुजन बीमारी की दशा में भारत आए थे। इंग्लैंड में डॉक्टरों ने उनके रोग को क्षय रोग बताया था। भारत लौटने पर लगभग तेरह माह तक वे अपनी इस बीमारी से संघर्ष करते रहे। इस बीच उनकी पत्नी, माँ, पिता, दो भाई, नानी आदि उनके साथ रहे। बीमारी के कारण उन्होंने कई स्थान बदले-पहले नौ महीनों में छह स्थान। एडवर्ड इलियट रोड के बँगले में रामानुजन लगभग तीन माह तक वेंकट विलास (मद्रास) में रहे। तब मद्रास का तापमान अधिक हो जाने के कारण स्थान-परिवर्तन करके स्वास्थ्य लाभ के लिए वह कोडुमुदी चले गए। वहाँ दो माह रुके। वहाँ भी स्वास्थ्य में सुधार न होने के कारण थोड़े समय कोयंबटूर में रहकर फिर अपने जन्म स्थान कुंभकोणम गए। वहाँ उनकी स्थिति में तेजी से गिरावट आई। अतः सन् 1920 में जनवरी के आरंभ में, जब मद्रास में गरमी कम हो गई तब पुनः उन्हें मद्रास लाया गया। अपने जीवन के शेष लगभग चार माह वह कुदेसिया, बैरिंटन रोड, चेटपुट तथा मद्रास में रहे। पहले घर का नाम 'क्रायंट' था। इसमें 'क्राई' शब्द में उन्हें अपशकुन नजर आता था। अतः बाद में वह ‘गौमित्र’ नामक घर में रहने चले गए थे।
इंग्लैंड में डॉक्टरों ने कितने ही, और कई बार अलग-अलग परीक्षण किए थे। भारत आकर प्रत्येक नए स्थान पर अलग-अलग डॉक्टरों ने पुनः बार बार परीक्षण किए। इन परीक्षणों, सबकी अलग-अलग रिपोर्टों तथा दवाइयों से वह तंग आ गए थे और पुरानी आदत के अनुसार डॉक्टरों से सहयोग नहीं करते। थर्मामीटर को तोड़ देना, दवा न खाना और बात-बात पर बिगड़ना उनका स्वभाव बन गया था। दिसंबर 1919 में मद्रास विश्वविद्यालय के श्री ड्यूसबरी ने प्रो. हार्डी को एक पत्र में लिखा था— “उनका स्वास्थ्य अब भी बहुत खराब है और अपने परिवार के साथ दूर अपने जन्म स्थान पर रहते हुए उनका व्यवहार बड़ा दूभर एवं कष्टप्रद है। श्री रामचंद्र राव अपनी ओर से हर संभव सहायता कर रहे हैं, परंतु स्वयं रामानुजन ही उचित वातावरण में रहकर अपना उपचार करने के लिए सहमत नहीं होते हैं। यह बड़े दुर्भाग्य की बात है।”

[ बीमारी की स्थिति में भी उत्कट शोध ]
बीमारी के कारण रामानुजन अब क्षीणकाय हो गए थे। उन्हें ज्वर सदा बना रहता था तथा बलगम के साथ आने वाली खाँसी से दुःखी रहते थे। एक बार अपने मित्र सारंगपाणि से उन्होंने कहा था “मेरा एक ऐसा मित्र है, जो कभी मेरा साथ नहीं छोड़ता। वह है मेरा क्षय रोग का ज्वर।”
वह कॉफी पीने के अभ्यस्त हो गए थे, जबकि पहले वह कॉफी छूते तक नहीं थे। अपने पुराने मित्रों तथा परिवार के सदस्यों से बातें करने में उन्हें कष्ट होता था। उनके कटु, चिड़चिड़े एवं उद्विग्न व्यवहार से सभी मित्र एवं परिजन आहत थे। इंग्लैंड जाने से पूर्व अपनी पत्नी जानकी से पहले उनका नाममात्र का संबंध था, परंतु अब वह उनकी सेवा में लगी रहती थीं। अपनी दिनचर्या में रामानुजन उनपर पूर्णरूप से आश्रित हो गए थे।
हाँ, कदाचित् वह अपनी पत्नी के प्रति माता के कटु व्यवहार को समझ गए थे। वह पत्नी का पक्ष लेने लगे थे, परंतु बात-बात पर पत्नी को उनके क्रोध का शिकार होना पड़ता था। जब थोड़ा एकांत होता तो पत्नी को वह अपने इंग्लैंड-प्रवास के अनुभव बड़े चाव से सुनाते थे। वह जानकी से कहते “तुम मेरे साथ लंदन गई होतीं तो निश्चय ही मैं बीमार नहीं होता।”
बीमारी एवं कष्ट के अतिरिक्त उनके कम बोलने तथा चिड़चिड़े स्वभाव के अन्य कारण भी थे। उनको कदाचित् अपने जीवन का अंत निकट होने का आभास हो गया था। गणित में शोध के कितने ही विचार उनके मस्तिष्क में काँधते रहते थे और वह उनपर आवश्यक कार्य करके लेखनीबद्ध करना चाहते थे। बौद्धिक रूप से वह निरंतर गणित के नए शोध में रमे रहते थे। उनकी पत्नी उनको गणित करने के लिए स्लेट साफ करके देती रहती थीं। बाद में गणित के जिन सूत्रों को वह कागजों पर लिख देते थे, वह चमड़े के एक थैले में रख दिए जाते थे। बीच-बीच में
वह थककर लेट जाते और थोड़ी शक्ति आने पर पुनः लिखने लगते थे। उसी समय उन्होंने एक नए प्रकार का शोध किया, जिसको ‘रामानुजन मॉकथीटा फंक्शन’ के नाम से जाना जाता है।
12 जनवरी, 1920 को लंबे अंतराल के बाद उन्होंने प्रो. हार्डी को एक पत्र लिखा—
“आपको एक भी पत्र न लिख पाने का मुझे खेद है। कुछ समय पूर्व ही मैंने एक बहुत ही रुचिकर फलन (फंक्शन) खोज निकाला है। इसको मैं 'माकथीटा फंक्शन' कहता हूँ। (प्रो. रेजर द्वारा स्थापित) 'फाल्स थीटा फंक्शन' के विपरीत ये साधारण थीटा फंक्शन की भाँति ही गणित में आते हैं। मैं इस पत्र के साथ कुछ उदाहरण भेज रहा हूँ। ...”
उन्होंने जो निष्कर्ष भेजे उनमें 4 तीसरी श्रेणी के 10 पाँचवीं श्रेणी आदि 'मॉकथीटा फंक्शन' के बहुत से नए सूत्र थे। उनका यह कार्य बहुत ही उत्कृष्ट माना जाता है। प्रो. वाटसन ने लंबे समय तक उनपर कार्य किया और सोलह वर्ष बाद लंदन मैथेमेटिकल सोसाइटी में अपना अध्यक्षीय भाषण इसी विषय पर दिया था। उन्होंने लिखा था– “अपने पूर्व में किए गए शोध कार्य की भाँति ही मॉकथीटा फंक्शन अपने आप में रामानुजन की ऐसी उपलब्धि है, जो चिरकाल तक उनका नाम स्मरण रखने के लिए पर्याप्त है।”
इस काल में उनका मॉकथीटा, क्यू-सीरीज आदि पर किया गया कार्य विशद है। सब मिलाकर 650 नए सूत्र इसमें हैं। अमेरिकी गणितज्ञ प्रो. ज्योर्ज एंड्रुज, जो रामानुजन के कार्य पर बहुत जाने-माने अधिकारी गणितज्ञ माने जाते हैं, ने पचास वर्ष बाद उस कार्य की महत्ता से प्रभावित होकर लिखा है
“इनको समझना किसी अच्छे गणितज्ञ तक के लिए कठिन है। एक वर्ग के पाँच सूत्रों में से पहला मैंने अवश्य पंद्रह मिनट में सिद्ध कर लिया था, परंतु दूसरे को एक घंटा लगा, चौथा दूसरे से निकल आया और तीसरे तथा पाँचवें को सिद्ध करने में मुझे तीन महीने लग गए।”
मॉकथीटा फंक्शन रामानुजन का अंतिम शोध माना जाता है। उनके अंतिम दिनों का वर्णन करते हुए प्रो. शेषु अय्यर ने लिखा है— ‘‘उनका अन्य कोई भी शोध-लेख इतना मूल्यवान् एवं उनकी अंतश्चेतना का द्योतक नहीं है, जितना वह है, जो उन्होंने अपनी रुग्णावस्था में जीवन के अंतिम दिनों में दिया। निःसंदेह उनका शरीर काम नहीं कर रहा था, परंतु उनकी मेधा-शक्ति उसी अनुपात में कुशाग्र होकर चमक उठी थी।” कदाचित् क्षय का रोग इस प्रकार मौलिक सृजन-शक्ति को और तीव्र कर देता है। जॉर्ज एंड्रुज के शब्दों में— “उनके पास हार्डी के संग किए कार्य की विचार-शक्ति एवं सनकी प्रतिभा का अपूर्व बल था। अंतिम वर्ष में उनकी 'नोट-बुक' इसका सबल प्रमाण है।”
रामानुजन का मॉकथीटा फंक्शन केवल गणितज्ञों के लिए ही महत्त्व का नहीं था। इसका उपयोग अन्य विषयों में भी हुआ। नवंबर 1988 में ‘अमेरिकन फिजिकल सोसाइटी’ की राले (नॉर्थ कैरोलिना) में हुए सम्मेलन में एक शोधपत्र पढ़ा गया। उस शोधपत्र का शीर्षक था— “ए स्टडी ऑफ सेलिटन स्वीचिंग इन मैलिग्नेंसी एंड प्रोलिफरेशन ऑफ... यूजिंग रामनुजन्स मॉकथीटा फंक्शन” जिससे यह स्पष्ट होता है कि रामानुजन द्वारा खोजे गए इस फलन का उपयोग कैंसर को समझने में भी किया गया है।