Kataasraj.. The Silent Witness - 44 books and stories free download online pdf in Hindi

कटासराज... द साइलेंट विटनेस - 44

भाग 44

अशोक बोले,

"अरे..! नही मेरा वो मतलब नहीं था। क्या मैं देखता नही कि सुबह से शाम तक तुम घर के काम काज में जुटी रहती हो। तुम आराम से करो। मेरा तो ये कह रहा था कि पहले चाय बना देती। फिर चाहे जो करती।"

उर्मिला बोली,

*आपको चाय ही चाहिए ना। वो तो पुरवा ही बना देगी।"

फिर पुरवा को आवाज लगाई।

पुरवा किताब पुराना अखबार पढ़ने में व्यस्त थी। जब से अमन ने कहा था कि सिर्फ कॉलेज जाने से ही ज्ञान नही बढ़ता। अगर कॉलेज जाना संभव नहीं है तो खुद भी पढ़ कर ज्ञान लिया जा सकता है। तब से वो कुछ न कुछ लगातार पढ़ती ही रहती। किसी भी बच्चे की कोई भी किताब मांग लेती और उसे पढ़ती।

"पुरवा….! बिट्टो..! देख तेरे बाऊ जी क्या कह रहे हैं..? उनको मेरे हाथ की चाय नही अच्छी लगती। कह रहे तुम्हारी बनाई ही पियेंगे। बिटिया जल्दी से बना दे तो।"

नाज़ के निकाह का थोड़ा सा असर पुरवा पर भी हो गया था। वो ये समझ गई थी कि बहुत दिन उसे भी अपने अम्मा बाऊ जी के साथ इस घर में रहना नसीब नही होगा। फिर अम्मा बाऊ जी के साथ को, इस घर की शीतल छांव लिए वो तरस जायेगी। सब कुछ मीठे स्वपन सा हो जायेगा।

अम्मा की आवाज सुनते ही पुरवा ने हाथ की किताब को बगल में रक्खा और ”आई अम्मा..! " कहती हुई फुदकती हुई आई और रसोई में चाय बनाने चली गई।

उर्मिला फिर से जांता चलाने में लग गई।

अशोक वही पास में बैठे उर्मिला को सतुआ पिसते देख रहे थे। मेहनत की वजह से पसीने की बूंदें उसके माथे पर चुहचुहा गई थीं। जिन्हे वो थोड़ी थोड़ी देर बाद अपने आंचल से पोंछ रही थी।

अशोक समझ रहे थे कि इसे चलाने में बहुत मेहनती लगती है। वैसे चाची के घर और गांव के दूसरे घरों में दो औरतें मिल कर इसे चलाती थीं और साथ में गाती भी रहती थीं जिससे थकान नहीं महसूस हो। पर उर्मिला अपने घर की अकेली औरत थी। इस लिए उसे अकेले ही जांत चलाना पड़ता था।

अशोक को मुस्कुराते हुए खुद को निहारते देख उर्मिला ने अशोक से पूछा,

"बड़ा मुस्कुरा रहे हो…? क्या सोच रहे हो..?"

अशोक बोले,

"बहुत मेहनत लगती है ना इसे चलाने में…!"

उर्मिला बोली,

"हां..! लगती तो है ही।"

अशोक बोले,

"अच्छा पुरवा की अम्मा ये बताओ….कोई अगर तुम्हारी मदद कर दे तो तुम्हें कैसा लगेगा..?"

उर्मिला बोली,

"ये भी कोई पूछने की बात है..! बे शक मुझे अच्छा लगेगा। मदद भी क्या किसी को बुरा लगता है. !"

अशोक झट से उठ गए और उर्मिला के सामने की तरफ जांते के पास बैठ गए।

फिर हाथों में उसकी मुठिया पकड़ कर घुमाने लगे।

उर्मिला पति कि ऐसी हरकत देख कर भौचक्की रह गई। आज इतने साल हो गए इस घर में ब्याह के आए पर आज तक कभी अशोक ने ऐसा नहीं किया था।

आज अचानक से क्या सूझा इन्हें..!

वो नाराज होते हुए बोली,

"छोड़िए… छोड़िए… इसे। ये सब आपका काम नहीं है। तभी मैं सोचूं कि मेरी मदद कौन करेगा…? अच्छा तो इस लिए पूछ रहे थे आप..!"

पर अशोक कहां मानने वाला था। वो लगातार जांता चलाता रहा।

उर्मिला हाथ जोड़ते हुए बोली,

"मैं आपके हाथ जोड़ती हूं। रहने दीजिए। कहीं कोई आ पड़ा, देख लिया तो क्या कहेगा..! मैं आपसे पिसवाती, कुटवाती हूं। क्यों मेरी बदनामी करवाना चाहते हैं, नाक कटवाना चाहते हैं पूरे गांव में।"

अशोक ने आवाज लगाई,

"पुरवा…! बिटिया.. बाहर का दरवाजा बंद कर ले तो..।"

पुरवा भी अम्मा की तेज आवाज रसोई में सुन रही थी। और मन ही मन सोच रही थी कि क्या बात है जो अम्मा बाऊ जी में बहस हो रही है।

वो जल्दी से जांत के पास आई। जब बाऊ जी को उसके पास बैठ कर चलाते देखा तो उसकी हंसी फूट पड़ी। दोनो हाथो से मुंह दबा कर हंसी रोकने का प्रयास किया। अच्छा तो ये बात है। इसी लिए बहस हो रही थी अम्मा बाऊ जी के बीच।

अशोक ने जब पुरवा को मुंह दबा कर हंसते देखा तो बनावटी गुस्सा दिखा कर आंखे तरेरा और बोले,

"पुरवा..! अब अपनी खीखी खिखी बंद कर। जा जल्दी से दरवाजा बंद कर के आ। वरना अगर कही धनकू बहू आ गई तो अंधेरा होने से पहले पूरे गांव में ढिंढोरा पीट जायेगा कि तेरी अम्मा मुझसे पिसवाती, कुटवाती है। वैसे भी आज कल तेरी अम्मा उस पर बहुत दया उड़ेल रही है।"

पुरवा गई और घर का मुख्य दरवाजा बंद कर आई।

फिर हंसते हुए अशोक से बोली,

"बाऊ जी अब बे धड़क हो कर पिसवाओ अम्मा के साथ। हमने दरवाजा बंद कर दिया है। अच्छा बाऊ जी..! ये बताओ आपको आता है ये सब।"

पुरवा अपनी आंखे चौड़ी कर बोली।

"अशोक बोले,

"इसमें करना ही क्या है..? बस थोड़ी थोड़ी देर में मुट्ठी से थोड़ा थोड़ा चना डालते जाओ . और मुठिया घुमाते जाओ बस हो गया।"

पुरवा मचलते हुए बोली,

"बाऊ जी..! हम भी आपके साथ पिसवाएंगे।"

उर्मिला बिगड़ते हुए बोली,

"ठीक है फिर मैं छोड़ ही देती हूं। तुम दोनो बाप बेटी ही पीस कर किनारे लगा दो।"

अशोक ने पुरवा को मीठी डांट पिलाई और बोले,

"तू हट जा यहां से। जो कहा गया है तुझे तू बस वही कर। जा चाय बना ला।"

उर्मिला समझ गई कि अब अशोक आज हटने वाले नही हैं। वो बहस में समय बर्बाद करने की अपेक्षा जल्दी से काम निपटाने का सोची और जल्दी जल्दी अशोक के साथ हाथ चलाने लगी।

बीच बीच में हाथ बदलते हुए अशोक उर्मिला की उंगलियों पर अपनी उंगलियां रख देते। इस छुअन की शरारत को महसूस कर जब वो अशोक की ओर देखती तो उन आंखों में तैरता अगाध प्यार और शरारत नजर आता। उर्मिला एक नव विवाहिता की भांति शरमा गई। और अपनी उंगली, अशोक की उंगली से बचाने का जतन करने लगी। धीरे से बोली,

"क्या करते हो..? कहीं पुरवा ने देख लिया तो… क्या सोचेगी वो..?"

अशोक बोले,

"चलो पुरवा की अम्मा.. एक लगनी हो जाए। तुम्हारे मुंह से बड़ा ही सुन्दर लगता है।"

पति की इच्छा का मान रखते हुए उर्मिला एक पुराना लगानी गीत गुनगुनाने लगी,

"मोरे ससुर राजा.. बोए है चनवा..

उन कर बनाई हम सतुअवा हो रामा।"

अब पति का साथ पा कर जो जांता मन भर भारी था। अब उसे फूल सा हल्का लग रहा था।

बस थोड़ी ही देर में सारा सतुआ पिस कर तैयार हो गया।