Mujahida - Hakk ki Jung - 21 books and stories free download online pdf in Hindi

मुजाहिदा - ह़क की जंग - भाग 21

भाग 21
कालेज कैम्पस में घुसते ही फिज़ा पुराने अहसासों से भर उठी उसके सारे ख्वाब मुँह उठाने लगे। बाहर निकलने को मचलने लगे। उसे अपने कालेज के दिन याद आ गये। वह सोचने लगी, अब उसके ख्वाबों को पूरा होने से कोई नही रोक सकता। वो हर हालत में ये इग्साम पास करके रहेगी और अपना चार्टेट अकाउंटेंट बनने का ख्वाब पूरा करेगी। जी-जान से पढ़ेगी। कोई कोर कसर नही छोड़ेगी वह अपने फर्ज़ में। ससुराल की जिम्मेदारियों के साथ-साथ वह अपना मुतालाह जारी रखेगी। ये सब सोच कर उसके दिल में अजीब सी गुदगुदी होने लगी थी।
ये कालेज का दूर तक फैला हुआ हरा-भरा ग्राउण्ड, आज उसने काफी दिनों बाद देखा था। जिसके साथ उसकी जान-पहचान तो पुरानी थी मगर उनके दरमियान ये वक्त आ गया था। अनायास ही उसके चेहरे पर मुस्कान खिल उठी। उसने खुद को आसमान में उड़ता हुआ महसूस किया। वह धीरे-धीरे आगे बढ़ी।
मैदान के दाईं तरफ कतार बद्ध चनार के ऊँचें पेड़ थे, जिसे उसने नीचे से ऊपर तक निहारा और बहुत सारी मीठी यादें उसके ज़हन में ताजा हो गयीं। ये वही हरियाली थी वही पेड़ों की कतारें थीं जिसकी छाँव में बैठ कर उसने और शमायरा ने कितने ख्यावों को बुना था? घण्टों बैठ कर बातें की थीं। उन बातों की मिठास आज भी उसके ज़हन में ताजा थी। कभी-कभी तो बातों की मिठास उन दोनों के ज़हन में इस कदर घुल जाती थी कि क्लास की घण्टी भी सुनाई नही देती थी। उन्हें पता तब लगता जब पहले क्लास के लड़के-लड़कियाँ उन्हे मैदान में टहलते दिखाई पड़ते। फिर तो वो दोनों सिर पर पैर रख कर क्लास की तरफ भागतीं, मगर देरी हो जाने की बजह से अन्दर जाने की हिम्मत नही पड़ती थी और वो लोग फिर से उसी पेड़ के नीचें आकर बैठ जातीं थीं। फिर उन दोनों के बीच एक जोर दार ठहाका गूँजता और वाकि वक्त भी कट जाता था। बस दौड़ कर कैन्टीन से कालिया के समोसे और चाय लाये जाते। वैसे उन समोसों का जायका आज तक कहीँ और नही आया। पत्ते की प्लेटों में चटनी डाल कर घण्टों बातें करते हुये खाते रहना कितना मजेदार था? कितना सुकून था उन बेफ्रिक लम्हों में? और कभी-कभी जब दूसरे दोस्त आ जाते तो उन्हीं समोसों के बीसीओं टुकड़े हो जाते और जिन्हे लेकर खूब छीना झपटी मचती और सबके हिस्सें में एक-एक टुकड़ा ही आता। उस एक टुकड़े का स्वाद आज तक नही आया।
हाय, कितना मजा था उस जिन्दगी में? बस हँसना और हँसाना। जहाँ गम के लिये कोई जगह नही थी। बल्कि गम क्या होता है उन्हें पता भी नही था। खुशियों का पूरा समुन्दर था उनके पास, जिसमें गोता लगाते, भीगते और फिर उन अहसासों में खोये रहते। सोच कर फिज़ा बेसाख़्ता ही खिलखिलाकर हँस पड़ी।
अगले ही पल वह सोचने लगी कितना बदलाव आ जाता है शादी के बाद एक लड़की की जिन्दगी में? उसे हँसने, बोलने, खाने-पीने, उठने-बैठने तक की इज़ाजत लेनी पड़ती है। वह अपनी मर्जी से कुछ नही कर सकती। अपनी इच्छाओं को सबसे नीचें वाले सन्दूक में रखना पड़ता है। लड़की से औरत बनने तक का सफर आसान नही होता। कहते हैं एक मुकम्मल औरत बनने के लिये उसे बहुत सारी कुर्बानियों से होकर गुजरना पड़ता है अपनी इच्छाओं को अपने ही पैरों से कुचलना पड़ता है। अपने ख्याबों को पामाल करना बिल्कुल वैसा ही होता है जैसे खुशिओं के दरवाजा खटकानें पर किवाड़ों का बन्द कर लेना और अफसोस जनक तो ये है कि फिर इन कुर्बानियों का नाम कुर्बानी नही रहता बदल जाता है। बदल कर फर्ज़ हो जाता है। फिर यही फर्ज, कायदा, तहजीब और तारीफ बन जाता है और इस तारीफ की भूख को औरत के अन्दर पैदा किया जाता है। कभी साजो श्रंगार के जरिये तो कभी गहनों की खूबसूरती के जरिये। जो औरत इस दायरे में रहना पसंद नही करती वह बुरी औरत हो जाती है।
फिज़ा सोचते-सोचते न जाने कौन से पहाड़ पर चढ़ गयी थी। जहाँ से उसे नीचे एक गहरी खाई दिखाई देने लगी थी।
"नही-नही ये हम क्या सोच रहे हैं? हम कमजोर औरत तो नही हैं। अगर हम कमजोर हुये तो उन मज़लूम औरतों का क्या होगा? जिनकी तमाम उम्मीदें हम पर टिकी हुई हैं। हमें तो उनको उनका ह़क दिलाना है। फिज़ा ने खुद को इस नगैटिविटी से बाहर निकाला और फीकी सी मुस्कान बिखेर दी।
"कैसी हो दीदी?" सामने से आ रहे जगदीश ने उसे इतने दिन बाद देख कर पूछा लिया।
"अरे जगदीश भाई तुम..? कैसे हो?" उसने सवाल पर सवाल किया।
"अच्छें हैं दीदी"
"हम भी बहुत अच्छे हैं। महीनों बाद कालेज आकर बहुत खुशी हो रही है।"फिज़ा ने मुस्कुरा कर कहा।
"आपने अपनी शादी की मिठाई भी नही खिलाई?" उसने नाराज़गी जताते हुये मुँह बना कर कहा।
फिज़ा ने अपने पर्स में से दो सौ रूपये निकाल कर उसके हाथ में थमा दिये-" जाओ जगदीश मिठाई खा लेना।" देना तो वह ज्यादा चाहती थी मगर उसके पर्स में बहुत ज्यादा पैसे नही थे। जानते हुये भी उसने खड़े-खड़े ही पूरे पर्स की तलाशी ले डाली थी।
"नही-नही दीदी, मैं तो मजाक कर रहा था।"जगदीश ने झिझकते हुये कहा।
फिज़ा फिर से खिलखिला कर हँस दी और कहने लगी- "जगदीश हमें याद है आज भी वो दिन जब तुम हमारी कैसे मदद किया करते थे? ब्रेक टाइम में कालेज के बाहर से कितनी बार हमें पेस्टियाँ लाकर खिलाई हैं तुमने? तुम्हारा अहसान हम कैसे भूल सकते हैं जगदीश?"
"अरे दीदी, अहसान कैसा? कालेज की कैण्टीन में चाय समोसे के अलावा और मिलता ही क्या है?"
इस बात पर दोनों हँस दिये। जगदीश को फिज़ा से मिलना बहुत अच्छा लगा था। बहुत कम लोग थे जो जगदीश की दिल से इज़्ज़त किया करते थे।
फिज़ा उसे रुपये देकर आगे बढ़ गयी। जगदीश कालेज का चपरासी था और दिल का बहुत अच्छा था। वह उन सभी की छोटी-मोटी मदद कर दिया करता था जो उसे इज्जत देते थे। अपनी इज्जत की भूख हर इन्सान को होती है चाहे वह गरीब हो या अमीर। फिज़ा ने हमेशा सभी के साथ अच्छा सुलूक ही किया था इसीलिए सब उसे बहुत चाहते थे। जगदीश का भी उसने कभी नाम नही लिया हमेशा भाई लगा कर ही बात की। जगदीश भी उसकी इस बात की अन्दर ही अन्दर बहुत कद्र करता था।
कालेज में आकर फिज़ा का दिल गुनगुना उठा था। उसका झूमने का दिल कर रहा था। जोर से चीखने का दिल कर रहा था। यहाँ सब कुछ संभव था। उसने फूलों की क्यारी में झाँका वो आज भी बिल्कुल वैसी ही थी। बस एक गुलाब का छोटा पौधा मुरझा गया था। जिसका उसे बहुत अफसोस हुआ। गुडहल के फूल का पेड़ पहले से ऊँचा हो गया था और पूरा का पूरा फूलों से लदा हुआ था। फिज़ा को ये पेड़ बहुत पसंद था और उसे फूल तोड़ने से सख्त नफरत थी। इसीलिये गुडहल का पेड़ भी उसे अपनी छाँव देने से पीछे नही हटता था। फिज़ा ने उसे छू कर अपनी मौजूदगी दर्ज कराई। तभी हवा के झोकें से वो झुक कर उसके नजदीक आ गया मानों कह रहा हो- "फिज़ा मैं खुश हूँ। तुम्हारी नजदीकी को महसूस कर रहा हूँ।"
आज उसे अपना ये कालेज हमेशा से अलग लग रहा था। पहले से और ज्यादा करीब, और ज्यादा खूबसूरत, और ज्यादा अपना-अपना सा। वह फिर से आसमान में उड़ने लगी थी। जैसे जीने लगी थी। दिल -ही-दिल में हिरनी के जैसे कुलाचें भरने लगी थी। वह बहुत खुश थी। ख्याबों के पँख उड़ने के लिये फड़फड़ाने लगे थे।

ये ख्वाब ही तो होते हैं जो जिन्दगी को हसीन बनाते हैं। उनमें रंग भरते हैं, तरह-तरह के रंग, कुछ सुनहरे, कुछ चटकीले और कभी सतरंगी। ख्वाबों से ही मौजूदा वक्त तो खुशनुमा होता ही है मुस्तकबिल भी रंगीन हो जाता है।

ये नजारा, जिसे देखते ही वह खुशी से उछल पड़ी। आज उसे अहसास हो रहा था कि आजादी क्या चीज होती है जहाँ पूरे दुनिया की दौलत फीकी पड़ जाती है। उसने ठान लिया आज घर जाकर सबसे पहले वो सिकड़ी, उनके घर में पला हुआ पहाड़ी तोता, जिसे आज वह आजाद करेगी। चुपके से जब सब सो रहे होगें तब वह उसका पिंजरा खोल देगी और उसे उसकी दुनिया में उड़ने के लिये छोड़ देगी। बेचारा कितना घुटता होगा? कितना तड़पता होगा? पँख होते हूये भी वह उड़ नही सकता। बिल्कुल वैसे ही जैसे पैरों के होते हुये भी किसी को जँजीरों से बाँध दिया जाये। "उफ्फफफ कितना दुख झेला है तुमने? तुम चिन्ता मत करो सिकड़ी हम आ रहे हैं। आज ही तुम अपनी दुनिया में वापस लौट जाओगे। उसने सिकड़ी को खुले आसमान में उड़ते हुये तसब्बुर किया और खुशी से पागल हो गई।
क्रमश: