Kataasraj.. The Silent Witness - 97 books and stories free download online pdf in Hindi

कटासराज... द साइलेंट विटनेस - 97

भाग 97

फिर अमन विनती करते हुए बोला,

"पुरु..! चलो ना..उतर चलते हैं। कही बिना पहचान के अपनी नई जिंदगी शुरू करेंगे। सारी मुसीबत की जड़ ये पहचान ही तो है कि मैं मुस्लिम हूं तुम हिंदू हो। हन एक अच्छे इंसान बन कर अपनी नई जिंदगी शुरू करेंगे।"

पुरवा ने बिना अमन की ओर देखे हुए बोली,

"भाग कर सब से अपनी पहचान छुपा कर क्या हम खुश रह पायेंगे..! क्या हमारी पुरानी पहचान हमारा पीछा छोड़ देगी..? कब तक हम अपनी जन्मभूमि और अपने परिवार को भूल कर दूर रह पायेंगे..? दोनो ही धर्मों के लोग एक दूसरे के खून के प्यासे बने बदला लेने के लिए घूम रहे है। क्या हमें पहचान गए तो जिंदा छोड़ देंगे..? मुझे मेरी फिक्र नहीं है पर क्या बाऊ जी को भी अम्मा की तरह खोना स्वीकार है तुम्हें..? नही . नही.. अमन मुझे ऐसी राह पर चलने को मत कहो जिस पर चल कर मैं अपना आखिरी सहारा.. बाऊ जी को भी खो दूं। मुझे अब घर संभालना है, बाऊ जी की देख भाल करनी है। चंदू और नंदू को बड़ी बहन नही बल्कि मां बन कर प्यार देना है।"

इतना कह कर बड़ी ही उदास मायूसी भरी नजरों से उसने अमन को देखा।

अमन जनता था, सच्चा प्यार कुर्बानी मांगता है, समर्पण मांगता है। उसने खुद को अपनी पुरु के प्यार में कुर्बान भी कर दिया था और समर्पित भी। जब भी वो आवाज देगी.. बिना एक पल की देरी किए वो उसके सामने खड़ा होगा।

छोटे छोटे कस्बे गांवों को पार करते हुए उनकी ये बस बिना कहीं रुके तीन घंटे में सिवान पहुंच गई।

बुद्ध चौक पर अच्छा खासा इंतजाम पहले से किया हुआ था। कनात लगा हुआ था, जमीन पर जाजिम बिछी हुई थी। कई सारे तख्ते को जोड़ कर मंच भी बनाया गया था।

अमन पुरवा और अशोक को छोड़ कर बाकी के सभी लोग नीचे उतर गए।

होटल मालिक के बताए अनुसार अमन ने ड्राइवर से बात की। उसे अपनी बात समझाई। साथ में जो भी वो कहे रकम देने का प्रस्ताव भी दिया।

ड्राइवर एक जिंदादिल आदमी था। उसे किसी जरूरतमंद की मदद करने में कोई परेशानी नही थी। और उस मदद के बदले इस खाली समय का सदुपयोग करके कुछ अतिरिक्त आमदनी हो जाती है तो अच्छा ही है।

अमन ने ये भी बताया कि उसे चार बजे तक फिर से गोरखपुर पहुंचाना है। ड्राइवर बोला,

"आप फिकर ना करो बाबू..! ये मुझ पर छोड़ दो। मैं आपको गांव भी पहुंचा दूंगा और फिर वापस समय से गोरखपुर भी पहुंचा दूंगा।"

अमन ने अपनी जेब से दस दस के दो नोट निकाले और ड्राइवर की जेब में डाल दिया। उसने खुश हो कर बस स्टार्ट कर दी।

लगभग खाली बस पूरी रफ्तार से सिंधौली की और दौड़ने लगी।

बीस मिनट, आधे घण्टे में वो पुरवा के गांव के बाहर थे।पुरवा को किसी अनहोनी का अंदेशा हो गया था। उसने अमन को गांव के बाहर ही रुक कर इंतजार करने को कहा।

अमन ने बस से उतरते हुए बेकरारी से पुरवा को देखा। आज इतने दिन साथ रहने के बाद वो उससे जुदा हो रही थी। जैसे उसका शरीर पीछे रह जा रहा है आत्मा तो उसकी पुरु के साथ ही चली जा रही है। बस से उतरते हुए उसके हाथों को पकड़ा हुआ था। जो बस के आगे बढ़ते ही छूट गया। जब तक वो दिखा, पुरवा मुड़ कर देखती रही।

गांव में बस घुसते देख बच्चे जवान सब उत्सुकता से उसके पीछे पीछे हो लिए। आखिर किसके घर ये इत्ती बड़ी गाड़ी आ रही है..? कौन बैठा हुआ है इसमें..?

अपने घर के पास पहुंचने से पहले ही उसने ड्राइवर से कहा,

"भईया..! वो साहब वहां इंतजार करते होंगे उनकी गाड़ी कहीं न छूट जाए। हम उतर जाए तो आप बिना एक भी मिनट रुके वापस लौट जाइयेगा।"

पुरवा के कहे अनुसार जैसे ही वो बाऊ जी को ले कर उतरी। बस तुरत मुड़ कर वापस चल दी अमन को लेने।

बच्चे की उसमे चढ़ने, देखने की लालसा अधूरी हो रह गई।

दोपहर हो गई थी। चाची अपने घर में थी।

धनकू अपनी बीबी और बच्चो के साथ बरांडे में बैठा हुआ था। उसकी तो मौज हो हो गई थी, जब से अशोक चले गए थे।

पुरवा और अशोक को आते देख तेजी से चल कर पास आया और अशोक से पाय लागन किया। फिर समान उठा कर अंदर आ गया। पुरवा बड़े ही जतन से कमरा खोल कर पहले बाऊ जी को लेता दिया।

फिर समान अंदर रखने लगी।

जिस प्रश्न से उसे डर लग रहा था, वही प्रश्न धनकू की पत्नी ने पूछ लिया,

"पुरवा बबुनी..! तुम्हारी अम्मा नही दिख रही..! कहां है..? पीछे ही उतार गई क्या..?"

अभी वो उसकी बात का कोई जवाब देती उससे पहले ही चाची अपने बेटे का हाथ थामें आ गई और उलाहना देते हुए बोली,

"क्या. रे.. अशोकवा..! बड़ा घमंडिया गया है, एक तीरथ क्या कर लिया..? जाते समय तो तुम दोनों हमारा पांव छूने आए थे। अब वापस आए तो सीधा घर में घुस गए। ये नही हुआ कि दुनिया तीरथ कर के आती है तो अपने बड़े बुजुर्ग का आशीर्वाद लेती है। और ये तो अंदर ही घुस गए।"

चाची को उनके बेटे खटिया पर बिठा कर बाहर से ही चले गए। उर्मिला से वो बड़े थे। वो उनसे परदा करती थी। इसलिए अंदर नही आए।

पुरवा के लिए बड़ी ही मुश्किल घड़ी थी।

सच को कैसे सब को बताए..? ये उसे समझ नही आ रहा था।

जब चाची का बड़बड़ाना बंद नही हुआ तो वो आई और चाची के गले से लिपट कर रोने लगी।

चाची घबरा गई कि आखिर ये पुरवा क्यों रो रही है।

बुरी आशंका से चाची का दिल घबरा गया वो पुरवा को खुद से अलग कर उसके आंसू पोछ्ते हुए बोली,

"क्या.. हुआ बबुनी.. अम्मा कहां है तेरी..? सब ठीक तो है ना। मेरा दिल बैठा जा रहा है। जल्दी बता मुझे मेरी उर्मिला कहां है..?"

पुरवा रोते हुए अटक अटक कर बोली,

"इया..! अम्मा नही रही..। हमको छोड़ कर चली गई। इया..! अम्मा हमको अकेले छोड़ कर चली गई।"

इतना सुनना था कि चाची के मन का डर सच साबित हो गया। वो चिल्ला चिल्ला कर रोने लगी,

"अरे..! मेरी कनिया..! (बहू) कहां चली गई रे.. हमारे बेटवा को छोड़ के कहां चली गई रे..!"

चाची का तेज स्वर में रुदन सुन कर जिस ने भी सुना सब भाग कर आए। थोड़ी ही देर में पूरा गांव अशोक के घर के सामने था।

कोई कुछ कहता कोई कुछ कहता। सब की अपनी अपनी कल्पना थी कि उर्मिला की मौत कैसे हुई होगी..? सभी अपने अपने हिसाब से अटकलें लगा रहे थे।

इन सब के विपरीत अशोक पर कोई असर नहीं था। वो चुप चाप खटिया पर लेटा सबको देख रहा था।

सब गांव वाले ये समझ रहे थे कि अचानक उर्मिला के जाने से अशोक अपना दिमागी संतुलन खो बैठा है।