Amma Mujhe Mana Mat Karo - Part - 4 books and stories free download online pdf in Hindi

अम्मा मुझे मना मत करो - भाग - 4

सुखिया की आँखों में आँसू थे, उसे दुख था लेकिन अपने हाथों पर उसे विश्वास भी था। वह सब कर लेगी बस यही सोच उसे मजबूती दे रही थी।

वैजंती ने अपनी बेटी के पास आकर कहा, “सुखिया अब हमारा क्या होगा बिटिया?”

फिर अपने हाथ की तरफ़ इशारा करते हुए आगे कहा, “मैं तो लाचार हूँ, जैसे तैसे घर का काम कर लेती हूँ।”

सुखिया ने अपनी माँ को प्यार से निहारते हुए कहा, “अम्मा रो मत, बाबू जी ने मुझे सब कुछ सिखा दिया है। मैं हूँ ना मैं सब कर लूंगी।”

वैजंती को नन्ही सुखिया की बातों पर विश्वास नहीं था। वह जानती थी कि ख़ुशी से दो चार बर्तन बना लेना अलग बात है और जीविका चलाने के लिए घंटों चाक घुमाना आसान काम नहीं है। उसे लगा कि सुखिया जोश में ऐसा कह रही है।

रामदीन के गुजर जाने के बाद चौथे दिन सुबह-सुबह जब वैजंती अपनी खोली से बाहर आने के लिए उठी तो उसकी नज़र सुखिया के बिस्तर की तरह गई लेकिन रोज़ की तरह आज सुखिया अपने बिस्तर पर नहीं थी। यह तो उसका घोड़े बेच कर सोने का समय था। बाहर से कुछ आवाज़ आई तो वैजंती ने बाहर आकर देखा। वह यह देखकर हैरान थी कि सुखिया ने मिट्टी बाँध ली थी और वहाँ पर बैठकर बर्तन बना रही है। सुखिया के चाक पर चलते हाथों को देखकर उसे ऐसा लग रहा था मानो वह रामदीन के हाथ हों। बिल्कुल रामदीन की ही तरह सुखिया के हाथ चाक पर घूम रहे थे। वैजंती ने सोचा बच्ची है अभी कुछ ही देर में आवाज़ लगाएगी अम्मा भूख लगी है खाना दो।

काफी समय तक वैजंती उस आवाज़ इंतज़ार करती रही लेकिन वह आवाज़ नहीं आई। तब वैजंती ने हाथ से तवे की रोटी को पलटाया और आवाज़ लगाते हुए बाहर आई, “अरी सुखिया सो गई क्या? आज भूख नहीं लगी तुझे,” कहते ही उसकी नज़र सुखिया पर पड़ी।

उसके आश्चर्य का तब ठिकाना ही नहीं रहा। सुखिया अभी भी उतनी ही एकाग्रता के साथ चाक घुमा रही थी और छोटे-छोटे खिलौने, मटके आदि बना रही थी।

वैजंती उसके पास गई और कहा, “बिटिया थक जाएगी चल कुछ खा ले। यह सब तुझसे ना हो पाएगा। पढ़ लिख ले।”

“अम्मा आज छुट्टी है, कल मैं स्कूल जाऊंगी। तुम चिंता मत करो।”

“अरे पर तू थक जाएगी बिटिया।”

सुखिया ने वह मटका पूरा करते हुए कहा, “अम्मा जिस काम में मज़ा आती है, उसमें थकना कैसा? थकान तो मुझ से कोसों दूर है। तुम चिंता मत करो मैं ठीक हूँ।”

धीरे-धीरे सुखिया एक से बढ़ कर एक मिट्टी के बर्तन, चिलम, खिलौने, मटके आदि सब कुछ बनाने लगी।

खाना खाते समय एक बार फिर वैजंती ने कहा, “सुखिया यह काम छोड़ कर पढ़ाई पर ध्यान दे। पढ़ लिख कर काम पर लग जाएगी तो दोनों वक़्त की रोटी का जुगाड़ हो जाएगा। मैं जानती हूँ यह तेरा शौक है पर यह शौक ज़्यादा दिन नहीं रहेगा।”

“अम्मा मैं अच्छे से पढ़ाई तो ज़रूर करूंगी पर यह काम नहीं छोडूँगी, कभी नहीं। मैं तुम्हें कभी भूखा नहीं सुलाऊँगी, फटे कपड़े भी नहीं पहनाऊँगी । बस अम्मा मुझे यह करने दो, मना मत करो।”

“ठीक है बेटा जैसी तेरी मर्जी।”

अगले चार माह बाद शहर में मेला भरने वाला था, जहाँ सुखिया अपने पिता के साथ जाती थी। रामदीन की दुकान वहाँ ख़ूब चलती थी। शहर के लोग मिट्टी के बर्तनों की तरफ़ आकर्षित होकर दुकान पर आते और कुछ ना कुछ खरीद कर भी ले जाते थे। सुखिया को याद था कि मेले का समय नज़दीक आ रहा है। वह स्कूल से लौटते ही चाक पर काम करने बैठ जाती। अब तक वैजंती ने भी हार मान ली थी। वह अब उसे कुछ नहीं रहती। वैजंती ने उसके स्वयं के मन को समझा दिया था कि करने दे उसे उसके मन की। जब मन भर जाएगा तो ख़ुद ही छोड़ देगी।

 
रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः