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साहित्य संस्कृति एव सिनेमा के विविध आयाम

साहित्य संस्कृति एवं सिनेमा के विविध आयाम -

संस्कृति -

1-संस्कृति किसी समाज मे गहराई तक व्याप्त गुणों के समग्र स्वरूप का नाम है जो ज़मा जो समाज के सोचने विचारने कार्य करने के स्वरूप में अंतर्निहित होता है समूह के साथ साथ जीवन व्यतीत करने के लिए कुछ नियमो विधानों की आवश्यकता पड़ती है जो पारस्परिक सम्बन्धो व्यवहारों व क्रियाओं को निर्देशित कर सके।

दूसरे शब्दों में संस्कृत हमारे द्वारा सीखा गया वह व्यवहार है जो पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होता है

एडवर्ड टाइटलर के अनुसार-

संस्कृति वह जटिल समग्रता है जिसमे ज्ञान विश्वास कला ,आदर्श कानून प्रथा एव आदतों एव क्षमताओं का समावेश होता है।

रेडफील्ड के अनुसार -

संस्कृति कला एव उपकरणों में जाहिर परम्परागत ज्ञान का वह संगठित रूप है जो परम्परा के द्वारा संक्षिप्त होकर मानव समूह की विशेषता बन जाता है ।

श्री कूंन के अनुसार -

संस्कृति उन विधियों का समुच्चय है जिसमें मनुषयः एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक सीखने के कारण रहता है।

हाबल का मत है-

संस्कृत सीखे हुये व्यवहार व प्रतिमानों का कुल योग है।

बोगाडर्स के अनुसार -

सांस्कृति किसी समूह के कार्य करने तथा विचार करने की समस्त रीतियों को कहते है।
हर्ष कोविट के अनुसार-

संस्कृति मानव व्यवहार का सीखा हुआ भाग है।

जार्ज पीटर के अनुसार-

किसी समाज के सदस्यों की उन आदतों से संस्कृति बनती है जिनमे वे भगीदार हो आदिम जन जाती हो या एक सभ्य राष्ट्र संस्कृत एकत्रित आदतों की प्रणाली है।

एडंसन होबेल के अनुसार-

किसी समाज के सदस्य जो आचरण और लक्षण अभ्यास से सीखते है उनका प्रदर्शन करते है संस्कृति उन सबका एकीकृत जोड़ हैं ।

डॉ दिनकर के अनुसार-

संस्कृति जीवन का एक तरीका है यह तरीका सदियों से जमा होकर समाज मे छाया रहता है जिसमे हम जन्म लेते है ।

पिडिंगटन के अनुसार-

संस्कृत उन भौतिक एव बौद्धिक साधनों या उपकरणों का योग है जिनके द्वारा व्यक्ति अपनी प्राणि शास्त्रीय तथा सामाजिक आवश्यकताओं की संतुष्टि अपने पर्यावरण के अनुकूल करता है।

सी एम पफोर्ड के अनुसार-

संस्कृति समस्याओं के सुलझाने के परम्परागत तरीके या समस्याओं से सीखे हुये हलो का समावेश होता है संस्कृति कि परिभाषाएं जानने के बाद हम सांस्कृतिक विशेषताओं को जानेंगे।

फेयर चाईड के अनुसार-

प्रतीकों द्वारा सामाजिक रूप से प्राप्त एव संचारित सभी व्यवहार प्रतिमानों के लिए सामूहिक नाम संस्कृति है।

क्लू खान के अनुसार-

एक समाज विशेष के सदस्यों द्वारा ग्रहण किये गए एक जीवन का ढंग ही संस्कृति है।

पावेल के अनुसार -

संस्कृत सीखा हुआ व्यवहार है जो सीखा जा सके वही संस्कृति है।

ब्रूम व सेल्जनिक के अनुसार-

समाज विज्ञानों में संस्कृति का अर्थ मनुष्य की सांमजिक विरासत से लिया जाता जिसमे ज्ञान विज्ञान विश्वास व प्रथाएं आती है।
सदकपे के अनुसार -

संस्कृति वह दुनिया है जिसमें व्यक्ति जन्म से लेकर मृत्यु तक निवास करता है चलता है फिरता है और अपने अस्तित्व को बनाये रखता है।



2-साहित्य-

सहित या साथ होने कि व्यवस्था शब्द एव अर्थ कि सहीतता सार्थक शब्द सभी भाषाओं में गद्य एव पद्य जिनमे नैतिक सत्य और मनभाव बुद्धिमत्ता तथा व्यपकता से प्रगट किये जाते है।

किसी भाषा के वाचिक और लिखित शास्त्र समूह को साहित्य कह सकते है।
दुनियां में सबसे पुराना वाचिक साहित्य आदिवासी भाषाओं से मिलता है इस दृष्टि से आदिवासी साहित्य सभी साहित्य का मूल स्रोत है साहित्य -स हित य के योग से बनता है।

साहित्य ज्ञान और अनुभव के संचित कोष को कहा जाता है साहित्य विशिष्ट और कलात्मक शैली में लखी गयी रचनाओं का भंडार होता है ।

लैटिन साहित्य से उत्पन्न जिसका अर्थ है अक्षरों के साथ गठित लेखन साहित्य आम तौर पर रचनात्मक कल्पना के कार्यो को संदर्भित करता है जिसमे कविता नाटक कल्पना पत्रकारिता गीत आदि शामिल हैं।

साहित्य लिखित कार्यो का एक निकाय नाम पारंपरिक रूप से कविता और गद्य लेखन के उन कल्पनाशील कार्यो पर लागू किया गया है जो उनके लखको के उद्देश्यों और उनके निष्पादन की कथित सौंदर्य उत्कृष्टता से प्रतिष्ठित हैं।

साहित्य का उद्देश्य का उपयोग मनोरंजन करने और सौंदर्य परक आनंद के लिये किया जाता है साहित्य उद्देश्य का ध्यान शब्दो पर होता है और मनभावन या समृद्ध प्रभाव उत्पन्न करने के लिये शब्दो की एक सचेत और जानबूझकर व्यवस्था होती है।

साहित्यिक उद्देश्य का उपयोग करते समय लेखक अक्सर एक विश्व दृष्टि व्यक्त करता है।

3-सीनेमा

जनसंचार एव मनोरंजन का लोकप्रिय माध्यम है जिस प्रकार साहित्य समाज दर्पण होता है उसी प्रकार सिनेमा भी समाज को प्रतिबिंबित करता है ।

भरतीय युवाओ में किसी भी आकर्षण की बात हो सिनेमा का ही प्रभाव पड़ता है।

सिनेमा औऱ टी वी युवाओं को बुरी तरह प्रभावित करते हैं मनोरंजन पर अधिक समय व्यतीत करने के कारण शिक्षा और शारीरिक विकास पर ध्यान नही दे पाते हैं।

लोकप्रिय कला सरभौमिक अपील परम्परागत कलाओं का
एकत्रीकरण विश्व सभ्यता का मूल्यवान खजाना है याथार्त एव यथार्थ से परे लेकर जाने की जादू की छड़ी समय एव समय के प्रतिबिम्ब को अंकित करने साधना अपनी दुनियां का प्रदर्शन करने का तरीका सबके लिए उपलब्ध सार्वजनिक कला दुनियां को चौकाने वाली चमत्कारिक करने करने वाली कला।

सिनेमा राष्ट्रीय एकता तथा भावनात्मक एकता को बढाने में सहायक सिद्ध होते है सभी देशों की फिल्मों का आदान प्रदान प्रदर्शन विश्व मानव की समस्या से परिचित होकर सबृद्धि और शांति का मार्ग ढूढते है ।

फिल्मों के माध्यम से कला अभिनय संगीत विज्ञान आदि
अभिनय संगीत आदि की शिक्षा प्रभवी रूप से दी जा सकती है।

4-सिनेमा एव साहित्य-

हिंदी साहित्य पर आधारित अनेक फिल्मों का निर्माण हुआ हिंदी उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेम चंद के उपन्यासों पर अधिकाधिक फिल्मों का निर्माण हुआ ।

बोलती फिल्मों के दौर शुरू होते ही प्रेम चंद जी ने फिल्मों की ओर अपना रुख बदल दिया मोहन भवनानी 19934 में मजदूर फ़िल्म बनाई इस फ़िल्म में क्रांतिकारी तेवर होने के कारण अनेक जगहों पर प्रतिबंध लगाए गए सेवासदन पर नानूभाई ने वकील फ़िल्म बनाई तदुपरांत एम एस शुभलक्ष्मी को नायिका बनाकर तामिल फ़िल्म बनाई सिनेमा एक बहुत सशक्त विधा है जो स्वयं में पूर्ण है लेकिन इसका सृजन साहित्य के समान स्वान्तः सुखाय व्यक्तिगत संतुष्टि के लिए नही किया जा सकता है ।

विमल मित्र की साहब बीबी गुलाम के साथ पर्दे पर आदि उपन्यासों पर काम करना आसान नही था जब गुरुदत्त अबरार अस्वी के द्वारा पत्रों को मंचित किया गया तो उपन्यास के पात्र स्वंय जीवित होकर समाज के सामने आए ।

सिनेमा कि परिभाषा-

डॉ रोजर्स चल चित्र किसी क्रिया को उत्प्रेरित करने हेतु उत्तरोत्तर अनुक्रम में अपेक्षितिज छाया चित्रों की लंबी श्रृंखला द्वारा विचारों के सम्प्रेषण का माध्यम है।

सत्यजित रे-

फ़िल्म चित्र है फ़िल्म आंदोलन है फ़िल्म शब्द है फ़िल्म नाटक है फील कहानी है फ़िल्म संगीत है फ़िल्म हज़ारों अभिव्यक्त श्रव्य तथा दृश्य आख्यान है।

5-साहित्य और सिनेमा-

सिनेमा के जन्म से ही उसे किसी कथा की आवश्यकता होती है जो साहित्य के द्वारा ही पूरी होती है हिंदी के सन्दर्भ में अमृत लाल नागर भगवाती चरण वर्मा सेठ गोविंद दास चतुरसेन शास्त्री की रचनाओं पर फिल्में बनी है फणीश्वरनाथ रेणु कि कहानी मारे गए गुलफाम पर बसु भट्टाचार्य ने तीसरी कसम वासु भट्टाचार्य ने राजेन्द्र यादव के सारा आकाश उपन्यास और मन्नू भंडारी की कहानी पर रजनीगंधा फिल्में बनाई गई।

साहित्य पढ़ते समय पाठक सिर्फ मनोरंजन की उम्मीद नही करते जबकि सिनेमा देखते समय मनोरंजन की उम्मीद करते है सिनेमा में मनोरंजन प्राथमिकता सिनेमा की प्रथम अनिवार्यता है।

साहित्य में मानव जीवन के बिभन्न अनुभूतियों की अभिव्यक्ति दी जाति है साहित्य विचारों का संवाहक होता है सांमजिक मुल्यों की स्थापना एव एकता के लिये महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता है।

सिनेमा भी सांमजिक परिवर्तनों का दर्पण है सिनेमा अपने उद्देश्यों को लेकर सामने आता है सिनेमा के द्वारा मनोरंजन के साथ साथ ज्ञान प्रप्ति भी होती है समाज विकास में सिनेमा एव साहित्य दोनों की महत्वपूर्ण भूमिकाओं को कत्तई नकारा नही जा सकता स्वीकार करना ही होगा ।

सिनेमा और साहित्य से समाज जनजीवन आदि घटकों की जानकारी आसानी से होती है दोनों ही समाज से जुड़े है सिनेमा समाज तक गतिशीलता से पहुंचता है साहित्य पढ़ने की बजाय लोग सिनेमा देखना अधिक पसंद करते है ।

कहानी कि सफलता के कारण मुगले आजम जैसी फिल्में जन मानस में अविस्मरणीय है ।

एक दौर ऐसा भी आया जब सिनेमा निर्माताओं ने कहानियों एव उपन्यासों पर फिल्मों का निर्माण किया शरद चंद चटर्जी की देवदास पर तीन बार फिल्मों का निर्माण हुआ आर के नारायण के जपन्यास पर गाइड फ़िल्म बनी ।

आचार्य चतुरसेन शास्त्री के उपन्यास पर धर्मपुत्र फ़िल्म बनी उर्दू साहित्य पर भी अनेको फिल्मों का निर्माण हुआ मिर्ज़ा मोहम्मद हादी रुसवा की कृति उमराव जान फ़िल्म बनी अमृता प्रीतम के पंजाबी उपन्यास पिंजर पर पर फ़िल्म बनी गोवर्धन राम त्रिपाठी कि गुजराती उपन्यास पर सरस्वती चंद्र आदि।

साहित्य और सिनेमा का मुख्य उद्देश्य आनंद का सृजन करना है मनोरंजन करना है साहित्य और सिनेमा का सम्बंध मूक फिल्मों के दौर से ही है साहित्य एव सिनेमा के सम्बंध को किसी न किसी रूप में सतत है।

साहित्यकारों द्वारा स्क्रिप्ट लिखे जाते है धीरे धीरे सिनेमा के रुख में बदलाव हुआ है सिनेमा का पूरी तरह से व्यवसायीकरण हो चुका हैं सिनेमा और साहित्य के मध्य संवाद एक ऐसी प्रक्रिया है जो निरंतर चली आ रही है ।

वर्तमान समय की आवश्यकता है कि वर्तमान समय मे साहित्य एव सिनेमा को अपनी सृजनात्मक भावनाओ को ध्यान में रख कर साथ साथ चलना होगा।

सीनेमा जनसंचार एव मनोरंजन का लोकप्रिय माध्यम है जिस प्रकार साहित्य समाज दर्पण होता है उसी प्रकार सिनेमा भी समाज को प्रतिबिंबित करता है ।

मनोरंजन लोकप्रिय कला सरभौमिक अपील परम्परागत कलाओं का एकत्रीकरण विश्व सभ्यता का मूल्यवान खजाना है।

याथार्त एव यथार्थ से परे लेकर जाने की जादू की छड़ी समय एव समय के प्रतिबिम्ब को अंकित करने साधना अपनी दुनियां का प्रदर्शन करने का तरीका सबके लिए उपलब्ध सार्वजनिक कला दुनियां को चौकाने वाली चमत्कारिक करने करने वाली कला।

सिनेमा राष्ट्रीय एकता तथा भावनात्मक एकता को बढाने में सहायक सिद्ध होते है सभी देशों की फिल्मों आदान प्रदान प्रदर्शन विश्व मानव की समस्या से परिचित होकर सबृद्धि और शांति का मार्ग ढूढते है फिल्मों के माध्यम से कला अभिनय संगीत विज्ञान अभिनय संगीत आदि की शिक्षा प्रभवी रूप से दी जा सकती है।

हिंदी साहित्य पर आधारित अनेक फिल्मों का निर्माण हुआ हिंदी उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेम चंद के उपन्यासों पर अधिकाधिक फिल्मों का निर्माण हुआ बोलती फिल्मों के दौर शुरू होते ही प्रेम चंद जी ने फिल्मों की ओर अपना रुख बदल दिया ।

मोहन भवनानी 19934 में मजदूर फ़िल्म बनाई इस फ़िल्म में क्रांतिकारी तेवर होने के कारण अनेक जगहों पर प्रतिबंध लगाए गए सेवासदन पर नानूभाई ने वकील फ़िल्म बनाई तदुपरांत एम एस शुभलक्ष्मी को नायिका बनाकर तामिल फ़िल्म बनाई सिनेमा एक बहुत सशक्त विधा है
जो स्वयं में पूर्ण है लेकिन इसका सृजन साहित्य के समान स्वान्तः सुखाय व्यक्तिगत संतुष्टि के लिए नही किया जा सकता है ।

विमल मित्र के साहब बीबी गुलाम के साथ पर्दे पर आदि उपन्यासों पर काम करना आसान नही था जब गुरुदत्त अबरार अस्वी के द्वारा पत्रों को मंचित किया गया तो उपन्यास के पात्र स्वंय जीवित होकर समाज के सामने आए ।

6- साहित्य और सिनेमा-

सिनेमा के जन्म से ही उसे किसी कथा की आवश्यकता होती है जो साहित्य के द्वारा ही पूरी होती है।

हिंदी के सन्दर्भ में अमृत लाल नागर भगवाती चरण वर्मा सेठ गोविंद दास चतुरसेन शास्त्री की रचनाओं पर फिल्में बनी है।

फणीश्वरनाथ रेणु कि कहानी मारे गए गुलफाम पर बसु भट्टाचार्य ने तीसरी कसम वासु भट्टाचार्य ने राजेन्द्र यादव के सारा आकाश उपन्यास और मन्नू भंडारी की कहानी पर रजनीगंधा फिल्में बनाई ।

साहित्य पढ़ते समय पाठक सिर्फ मनोरंजन की उम्मीद नही करते जबकि सिनेमा देखते समय मनोरंजन की उम्मीद करते है सिनेमा में मनोरंजन प्राथमिकता सिनेमा की प्रथम अनिवार्यता है।

साहित्य में मानव जीवन के बिभन्न अनुभूतियों की अभिव्यक्ति दी जाति है साहित्य विचारों का संवाहक होता है सांमजिक मुल्यों की स्थापना एव एकता के लिये महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता है ।

सिनेमा भी सांमजिक परिवर्तनों का दर्पण है सिनेमा अपने उद्देश्यों को लेकर सामने आता है सिनेमा के द्वारा मनोरंजन के साथ साथ ज्ञान प्रप्ति भी होती है।

समाज विकास में सिनेमा एव साहित्य दोनों की महत्वपूर्ण भूमिकाओं को कत्तई नकारा नही जा सकता स्वीकार करना ही होगा ।

सिनेमा और साहित्य से समाज जनजीवन आदि घटकों की जानकारी आसानी से होती है दोनों ही समाज से जुड़े है सिनेमा समाज तक गतिशीलता से पहुंचता है ।

साहित्य पढ़ने की बजाय लोग सिनेमा देखना अधिक पसंद करते है कहानी कि सफलता के कारण मुगले आजम जैसी फिल्में जन मानस में अविस्मरणीय है ।

एक दौर ऐसा भी आया जब सिनेमा निर्माताओं ने कहानियों एव उपन्यासों पर फिल्मों का निर्माण किया शरद चंद चटर्जी की देवदास पर तीन बार फिल्मों का निर्माण हुआ आर के नारायण के जपन्यास पर गाइड
फ़िल्म बनी ।

आचार्य चतुरसेन शास्त्री के उपन्यास पर धर्मपुत्र फ़िल्म बनी उर्दू साहित्य पर भी अनेको फिल्मों का निर्माण हुआ मिर्ज़ा मोहम्मद हादी रुसवा की कृति उमराव जान फ़िल्म बनी अमृता प्रीतम के पंजाबी उपन्यास पिंजर पर पर फ़िल्म बनी गोवर्धन राम त्रिपाठी कि गुजराती उपन्यास पर सरस्वती चंद्र साहित्य और सिनेमा का मुख्य उद्देश्य
आनंद का सृजन करना है।

मनोरंजन करना है साहित्य और सिनेमा का सम्बंध मूक फिल्मों के दौर से ही है साहित्य एव सिनेमा के सम्बंध को किसी न किसी रूप में सतत है साहित्यकारों द्वारा स्क्रिप्ट लिखे जाते है धीरे धीरे सिनेमा के रुख में बदलाव हुआ है सिनेमा का पूरी तरह से व्यवसायीकरण हो चुका हैं।

सिनेमा और साहित्य के मध्य संवाद एक ऐसी प्रक्रिया है जो निरंतर चली आ रही है वर्तमान समय की आवश्यकता है कि वर्तमान समय मे साहित्य एव सिनेमा को अपनी सृजनात्मक भावनाओ को ध्यान में रख कर साथ साथ चलना होगा।

सिनेमा जनसंचार एव मनोरंजन का लोकप्रिय माध्यम है सिनेमा का अविष्कार उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हुआ सिनेमा के आविष्कार का प्रयास 1870 से ही शुरू हो गया था विश्वविख्यात वैज्ञानिक एडिसन एव फ्रांस के ल्युमिर बंधुओ ने 1895 में एडिसन के सिनमोटोग्राफी पर आधारित यंत्र बनाया यंत्र के माध्यम से चित्रों को चलते हुए प्रदर्शित करने में सफलता पाई और सिनेमा का अविष्कार हुआ।

सिनेमा की शुरुआत से ही समाज का गहरा संबंध है प्रारंभिक दौर में सिनेमा का उद्देश्य मात्र मनोरंजन करना था अभी भी सिनेमा निर्माण के पीछे यही महत्वपूर्ण उद्देश्य रहता है बावजूद इसके सिनेमा का समाज पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है ।

समाज मे यह भी अवधारणा है कि सिनेमा अपसंस्कृति को बढ़ावा देता हैं समाज मे फिल्मों के प्रभाव से फैली अश्लीलता एव फैसन के नाम पर नंगेपन को इसके उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है ।

यह अवधारणा की सिनेमा केवल समाज मे विकृतियों को जन्म देता है सिनेमा के साथ अन्याय होगा सिनेमा का समाज पर प्रभाव समाज की मानसिकता पर भी निर्भर करता है।

सिनेमा अच्चाई एव बुराई दोनों पहलुओं को दर्शाता है समाज यदि बुरे पहलुओं को आत्म साथ करता है तो इसमें सिनेमा का क्या दोष है ।

स्वामी विवेकानंद जी के अनुसार संसार मे प्रत्येक चीज अच्छी है पवित्र है सुंदर है यदि कही कोई बुराई दिखती है तो स्प्ष्ट है कि सही रोशनी में नही देखा गया हैं ।

द्वितीय विश्व युद्ध के समय ऐसी फिल्मों का निर्माण हुआ जो युद्ध की त्रदासी को प्रदर्शित करने में सक्षम थी ऐसी फिल्मों से समाज को एक सार्थक संदेश मिलता है।

सांमजिक बुराईयों को दूर करने में सिनेमा सक्षम है सांमजिक समस्याओं प्रथाओं कुरीतियों के पृष्ठ भूमि पर अनेको सिनेमा बने जिसने समाज सकारात्मक प्रभाव डाला ।

भारत मे पहली मूक फिल्म दादा साहब फाल्के द्वारा 1913 में बनाई गई तब फिल्मों में काम करना समाज मे अच्छा नही माना जाता था और महिला पात्रों कि भूमिका भी पुरुष ही निभाते थे दादा साहब फाल्के से उस दौर में कोई पूछता की आप क्या कर रहे तो उनका जबाब होता हरिश्चंद्र की फैक्टरी में काम करते है।

धीरे धीरे सिनेमा का समाज पर सार्थक प्रभाव पडना शुरू हुआ आम जन का दृष्टिकोण भी सिनेमा के प्रति सकारात्मक होता गया आर्देशिर ईरानी के निर्देशन वर्ष 1931 में पहली बोलती फ़िल्म आलम आरा बनाई गई।

सिनेमा के प्रारंभिक दौर में पौराणिक एव ऐतिहासिक फिल्मों का बोलबाला रहा समय बीतने के साथ राजनीतिक साहित्यिक सामाजिक फिल्मों का निर्माण भी बड़े पैमाने पर शुरु हुआ छत्रपति शिवा जी,झांसी की रानी,मुगले आजम ,मदर इंडिया ,आदि फिल्मों का समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा ।

उन्नीसवी सदी के साठ सत्तर के दशक में ऐसे फिल्मकार हुये जिन्होंने समाज के लिए उपयोगी फिल्मों का निर्माण किया जिसमें सत्यजीत रे व्ही शान्ता राम, कत्विक घटक ,मृणाल सेन ,अडूर गोपाल कृष्णन,श्याम बेनेगल बासु भट्टाचार्य, बिमल राय प्रसिद्ध फिल्मकार हुये जिनकी महत्वपूर्ण फिल्में जिनकी महत्त्वपूर्ण फिल्मों में पाथेर
पांचाली ,चारुलता,शतरंज के खिलाड़ी, डॉ कोटनिस की अमर कहानी ,दो आंखे बारह हाथ ,शकुंतला, मेघा टांके तारा,ओकी उरी कथा,स्वयम्बर, अंकुर ,निशांत सूरज का सातवां घोड़ा, तीसरी कसम,प्यासा ,कागज के फूल,साहब बीबी और गुलाम,दो बीघा जमीन,बंदिनी,मधुमती आदि फिल्मों ने समाज पर अपने प्रभाव डालने में सफल हुए।

चूंकि सिनेमा बनाने हेतु अधिक धन कि आवश्यकता होती है अतः सिनेमा ऐसी बातों पर ध्यान देना शुरु कर देता है जो स्वच्छ मनोरंजन न होकर दर्शकों की संख्या को ध्यान में रखकर होता है संगीत ,मारधाड़ से परिपूर्ण इसी दृषिकोंण से किया जाता है जिसे सार्थक समाजोपयोगी सिनेमा कहा जाता है।

समाजपयोगी सिनेमा में लगे धन की वापसी की संभावना नही होती अतः ऐसे फिल्मों के निर्माण से सिनेमा जगत के लोग बचते है।

ऐसे भी फ़िल्म निर्माता है जो समाज के हितों संस्कृतयों को धयान में रख कर बनाये जाते है जो फ़िल्म की लागत भी नही वसूल पाते है और विरोध का सामना भी करते है।

भारतोय समाज पिछले कुछ वर्षों से राजनीतिक सामाजिक आर्थिक भ्र्ष्टाचार का शिकार हुआ है इसका भी प्रभाव फ़िल्म निर्माण पर पड़ता दिख रहा है।

आज कल सेक्स हिंसा को कहानी का आधार बनाया जा रहा है जो युवा वर्ग को आकर्षित करने एव धन कमाने की दृष्टिकोण से बनाया जाता है इसका कुप्रभाव समाज पर पड़ता दिखता है।

दुर्बल चरित्र वाले लोग फिल्मों में दिखाई वाली हिंसा एव अश्लीलता को देख कर समाज मे आचरण करना शुरू कर देते है जिससे समाज पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है ।

हिंसा अपराध को कहानी का हिस्सा बनाने के पीछे इसे समाप्त करने का ही उद्देश्य निहित होता है।

वर्तमान समय मे भारतीय फ़िल्म उद्योग वैश्विक स्तर पर दूसरे स्थान पर है जो भारत भारतीयों के लिए गर्व का विषय है
निर्देशन,तकनीकी, फिल्मांकन, लेखन संगीत आदि शत्रो पर भरतीय फ़िल्म जगत विश्व मे सम्मानित स्तर पर स्थापित है।
साहित्य संस्कृति एव सिनेमा-

साहित्य एव संस्कृति का साथ युग के प्रारम्भ अर्थात आदि काल से है समाज की संस्कृतियो के परिपेक्ष्य में अनेको ग्रंथ स्मृतियां लिखी गयी है जो समाज का मार्गदर्शन करती है एव प्रेरक प्रेरणा है संस्कृति के बिना साहित्य और साहित्य के बिना संस्कृति अपूर्ण है ।

संस्कृतयों को आधार बनाते हुए अनेको लेख नाटक उपन्यास काव्यों का सृजन हुआ है और नियमित होता रहेगा क्योंकि दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे है एव दोनों के बिना वर्तमान इतिहास के समाज का निर्माण ही नही हो सकता है ।

संस्कृति सांमजिक व्यवहार आचरण है तो साहित्य उसका सर्वकालिक सर्वश्रेष्ठ दर्पण दोनों के समन्वयक संगम को ही सामाजिक अस्तित्व के जागरण जागृति का आधार है।

सिनेमा एव टेलिविज़न वैज्ञानिक युग में सांचार संवाद के माध्यम है जो पहले आकाशवाणी की महत्वपूर्ण भूमिका थी अब सिनेमा एव टेलीविजन ने अपना अहम स्थान बना लिया है जो वर्तमान समय मे संस्कृतयों साहित्य के तेज गतिमान संवाद का आधार तो है ही नई नई संस्कृतयों का जन्मदाता भी बन चुका है।

नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखुर उतर प्रदेश।।