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श्री प्रह्लादजी

स उत्तमश्लोकपदारविन्दयोनिषेवयाकिञ्चनसङ्गलब्धया ।
तन्वन् परां निर्वृतिमात्मनो मुहुदुःसङ्गदीनान्यमनःशमं व्यधात्॥ (श्रीमद्भा० ७।४।४२)

दैत्यराज हिरण्यकशिपु के चार पुत्र थे। उनमें प्रह्लाद अवस्था में सबसे छोटे थे, किंतु भगवद्भक्ति तथा अन्य गुणों में सबसे बड़े हुए। संसार में जितने भक्त हो गये हैं, प्रह्लाद जी उन सबके मुकुटमणि हैं। वे बाल्यकाल से ही भगवान्‌ का नामकीर्तन और गुणकीर्तन करते-करते अपने आपको भूल जाते थे। कभी वे प्रेम में बेसुध होकर गिर पड़ते, कभी कीर्तन करते-करते नाचते और कभी भगवन्नामों का उच्चारण करते हुए ढाढ़ मारकर रोने लगते।

इनके पिता असुरों के राजा थे। देवताओं से सदा उनकी खटपट रहती थी। एक बार देवताओं को पराजित करने की नीयत से इनके पिता घोर तप करने लगे। वे भगवान्‌ की सकाम आराधना में इतने निमग्न हो गये कि उन्हें अपने शरीरतक का होश नहीं रहा। देवराज इन्द्र ने अवसर पाकर असुरों के ऊपर चढ़ाई कर दी, उन दिनों प्रह्लाद गर्भ में थे। इन्द्रने असुरों को मार भगाया, उनकी पुरी को लूट लिया और प्रह्लाद की माता को पकड़कर ले चले। वह बेचारी गर्भवती दीना अबला कुररी की भाँति रोती जाती थी। रास्ते में दयालु देवर्षि नारद मिले। उन्होंने इन्द्र को बहुत डाँटा और कहा—‘तुम इसे क्यों पकड़े ले जाते हो?’ इन्द्र ने कहा—‘भगवन् ! मैं स्त्री वध नहीं करूंगा। इसके पेट में हिरण्यकशिपु का जो गर्भ है, उसके उत्पन्न होने पर मैं उसे मारकर इसे छोड़ दूंगा।’ देवर्षि ने अपनी दिव्य दृष्टि से देखकर कहा—‘अरे, इसके गर्भमें परम भागवत पुत्र है, इससे तुम्हें कोई भय नहीं, इसे छोड़ जाओ।’ देवर्षि की आज्ञा पाकर इन्द्र ने उसे छोड़ दिया। देवर्षि उसे अपने आश्रम पर ले गये। यहाँ लाकर वे प्रह्लाद की माता का मन बहलाने के लिये भाँति-भाँति के भगवत्-चरित्रों को कहा करते थे। गर्भमें स्थित प्रह्लाद जीने माता के गर्भ में ही भक्ति का समस्त ज्ञान प्राप्त कर लिया। पीछे हिरण्यकशिपु के आने पर प्रह्लाद की माता घर आ गयीं और वहीं प्रह्लादजीका जन्म हुआ। ये जन्म से ही भक्ति की बातें किया करते थे, बच्चों में खेलते-खेलते ये उन्हें भगवन्नामकीर्तन का उपदेश किया करते और स्वयं सबसे कीर्तन कराते थे। पाँच वर्ष की अवस्था होने पर हिरण्यकशिपु ने अपने गुरु के पुत्र शण्ड और अमर्क के यहाँ इन्हें पढ़ने भेजा। किंतु ये तो समस्त शास्त्र माता के पेट में ही पढ़ चुके थे। गुरु बताते थे कुछ, ये पढ़ते थे प्रभु-प्रेम की पाटी। एक दिन पिता ने पूछा—‘तुमने जो सबसे अच्छी बात अब तक पढ़ी हो, उसे बताओ।’ प्रह्लाद जी बोले—‘सबसे अच्छी बात तो यही है कि इन सब प्रपंचों को छोड़कर भगवद्भक्ति में शीघ्र-से-शीघ्र लग जाना चाहिये।’ अपने पुत्र के मुँह से भगवद्भक्ति की बात सुनकर हिरण्यकशिपु बहुत क्रोधित हुआ। पुत्र को मारने दौड़ा, गुरुपुत्रोंको भलाबुरा कहा। जैसे-तैसे समझा-बुझाकर लोगों ने प्रह्लाद को छुड़ा दिया। हिरण्यकशिपुने यह कहकर कि ‘अब कभी मेरे शत्रु विष्णु का नाम मत लेना’ पुत्र को छोड़ दिया।

प्रह्लाद जी भला हरिनाम कब छोड़ने वाले थे, वे नये उत्साह के साथ भगवत्-कीर्तन में तल्लीन हो गये। अपने सहपाठियों से भी कहते— ‘सच्चा पढ़ना तो भगवान्‌ की शरण जाना ही है। सांसारिक पदार्थो के नाम पढ़ना अज्ञान की ओर बढ़ना है। वे दिन-रात भगवान्के नामों और गुणों के कीर्तन में ही निमग्न रहते। इनके पिता ने जब देखा कि यह किसी प्रकार भी भगवद्भक्ति नहीं छोड़ता तो उसने इन्हें सूली पर चढ़वाया, मदमत्त हाथियों के नीचे डलवाया, अथाह जल में गले में पत्थर डालकर डुबाया, हलाहल विष का प्याला पिलाया, धधकती हुई अग्नि में जलवाया, पर्वत-शिखर से गिराया, किंतु इनका बाल भी बाँका नहीं हुआ। काँटों की सूली फूलों की सेज के समान सुखद हो गयी, हाथियों ने इन्हें उठाकर पीठ पर बिठा लिया, जलके ऊपर पाषाण तैरने लगे। विष अमृत बन गया, अग्नि जल की भाँति शीतल हो गयी और इन्हें जलाने की इच्छा से ईंधन जलाकर बैठनेवाली होलिका स्वयं जलकर भस्म हो गयी। पर्वत-शिखरसे ये हँसते-हँसते नीचे आ गये। सारांश यह कि कोई यातना इन्हें दुखी न बना सकी। शण्डामर्क फिर इन्हें पाठशाला ले गये, वहाँ प्रह्लाद ने फिर बड़े जोर से अपना वही काम शुरू कर दिया। लड़के सब हरिकीर्तन करने लगे। शण्डामर्क ने गुस्सेमें आकर कहा—‘या तो हमारी बात मान जाओ, नहीं तो कृत्या उत्पन्न करके हम तुम्हें भस्म कर देंगे। विश्वासी भगवद्भक्त प्रह्लाद क्यों डरने लगे। उन्होंने कहा—‘गुरुजी ! कौन किसको मार सकता है और कौन किसको बचा सकता है? सब भगवान् ‌की लीला है।’ इस पर क्रुद्ध होकर शण्डामर्क ने महान् विकराल ज्वालामयी कृत्या को उत्पन्न किया। कृत्या ने प्रह्लाद के हृदयमें शूल मारा, भक्तभयहारी भगवान्‌ की शक्ति से सुरक्षित प्रह्लादकी छातीपर लगते ही शूल टूक-टूक हो गया। कृत्या परास्त होकर लौटी और दोनों ब्राह्मणोंको मारकर स्वयं भी नष्ट हो गयी। अपने कारण गुरुओंकी मृत्यु होते देखकर प्रह्लादका सन्त-हृदय पिघल गया। उन्होंने कातर कण्ठसे भगवान्‌ से बार-बार प्रार्थना की और कहा कि मुझे मारनेवाले, जहर देनेवाले, सूली पर चढ़ाने वाले, आगमें जलानेवाले, पहाड़ से गिराने वाले, समुद्रमें फेंकने वाले मनुष्योंसे, हँसनेवाले सर्पो से, पैरोंतले रौंदने वाले हाथियों से यदि मेरे मनमें कुछ भी द्वेष न हो, मैं सबको अपना आत्मा और मित्र ही मानता होऊँ, किसी के भी अनिष्ट की जरा भी मेरी इच्छा न हो तो ये मेरे दोनों गुरु जी उठे।'

प्रह्लाद की प्रार्थना से शण्डामर्क जी उठे और प्रह्लाद को आशीर्वाद देने लगे, क्षमाशील प्रह्लाद की महिमा अनन्त काल के लिये सुप्रतिष्ठित हो गयी! सन्त की यही तो विशेषता है, वह बुरा करने वाले का भी भला करता है
उमा संत कइ इहइ बड़ाई। मंद करत जो करइ भलाई॥

जब किसी तरह भी ये न मरे तब तो इनके पिताको बड़ा क्रोध आया। एक खम्भे से बाँधकर हाथ में खड्ग लेकर वह इन्हें मारने को तैयार हुआ और बोला—‘अब बता, तेरे भगवान् कहाँ हैं?’ प्रह्लाद ने निर्भीकता से कहा—भगवान् सर्वत्र हैं, मुझमें, तुममें, खड्ग और खम्भे में-सर्वत्र वे श्रीहरि व्याप्त हैं। हिरण्यकशिपु ने कहा—‘तब फिर इस खम्भे में क्यों नहीं दीखते ?’ इतना कहना था कि भगवान् आधे मनुष्य और आधे सिंह के रूपमें उस खम्भेमेंसे प्रकट हुए। उस अद्भुत नृसिंहरूप को देखकर हिरण्यकशिपु डर गया, भगवान्‌ने जल्दी से उसे घुटनों पर रखकर उसका पेट फाड़ दिया। सब देवता प्रसन्न हुए। सभीने भगवान् ‌की स्तुति की। भगवान्‌ने प्रेमपूर्वक प्रह्लाद को गोदमें बिठाया, उसे खूब प्यार किया और वरदान माँगनेको कहा। प्रह्लाद ने कहा—‘प्रभो ! मेरे पिता ने आपसे वैर किया था, इनकी दुर्गति न हो।’ भगवान् हँसे और बोले ‘भैया, जिस कुलमें तुम्हारे-जैसे भगवद्भक्त हुए हैं, उस कुल की सात पीढ़ी पहली, सात आगे की और सात मातृपक्ष की, इस प्रकार इक्कीस पीढ़ियाँ तो स्वतः तर गयीं। तुम्हारे पिता भी तर गये।’ अन्त में प्रह्लाद ने भगवान्‌में अहैतुकी भक्ति का वरदान माँगा। भगवान् ऐसा वरदान देकर और प्रह्लाद का राजतिलक करके अन्तर्धान हो गये। प्रह्लाद बहुत कालतक असुरों के सिंहासन पर राज्य करते रहे। अन्त में अपने पुत्र विरोचन को राज्य देकर वे भगवान्‌की भक्तिमें तल्लीन हो गये। इसीलिये प्रह्लाद प्रात:स्मरणीय भक्तों में सर्वप्रथम स्मरण किये जाते हैं।