Tash ka aashiyana - 36 books and stories free download online pdf in Hindi

ताश का आशियाना - भाग 36

गंगा तुम मुझे बताओ की भी कि आखिर तुम दोनों के बीच क्या हुआ है ऐसा जो सिद्धार्थ पर इस तरह की नौबत आ गई।
गंगा वहां रखे डाइनिंग टेबल की कुर्सी पर बैठ गई।
"अपने हाथों को अपने माथे पर लगा पीटने लगी। मैं ही अपने बेटे की जान की दुश्मन बन गई। मुझे तभी समझ जाना चाहिए था कि जब वह शादी नहीं करना चाहता था।अपनी जिंदगी नहीं बसाना चाहता था तो वह सही था।"
"गंगा यह तुम क्या बोल रही हो मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा तुम थोड़ा साफ-साफ बोलोगी।"
सिद्धार्थ और रागिनी का रिश्ता टूटने के बाद वह मुझे एक दिन माता रानी के मंदिर में मिली।
वह अपनी मां के साथ आई थी। मैं बस उससे बात करना चाहती थी।लेकिन मुझे नहीं पता की कब मैं अपने बेटे के प्यार में इतना अंधी हो गई कि मैंने रागिनी से सिद्धार्थ को एक मौका देने के लिए गुहार लगाई और वह बेचारी मान भी गई।
उसने सिद्धार्थ से नजदीकियां बढ़ाने की कोशिश की और सिद्धार्थ भी शायद उसके लिए कुछ महसूस करने लगा लेकिन...
"लेकिन?" नारायणजी की अधीरता बढ़ गई।
"सिद्धार्थ का अचानक एक्सीडेंट हुआ और सब बिखर गया।"
नारायण जी को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ।
गंगा ने आगे बढ़ते हुए तुषार से जुड़ी हुई बातें भी नारायण जी को बताई।
"मैंने तुषार को ब्लैकमेल किया कि वह रागिनी की मदद करें ताकि रागिनी सिद्धार्थ के करीब आ सके।"
गंगा और तुषार ने जो भी कांड किए वह सब एक-एक कर नारायण जी के सामने खोल कर रख दिए।
तुषार की बचकानी हरकत के कारण सिद्धार्थ का यह हाल हुआ था यह जानकर उनके रोम-रोम में गुस्सा भर गया था लेकिन इसका कारण उनकी खुद की पत्नी है, यह जानकर वह अपनी भावनाओं के प्रति अस्पष्ट थे।
नाक के नीचे से यह सब बातें हो रही थी लेकिन उन्हें कानों कान खबर भी नहीं थी।
उनके मन में आखिरकार यही सवाल था की इन सब की क्या जरूरत थी?
सिद्धार्थ सिजर्स के बाद से होश में नहीं आया था।
नारायण जी और गंगा जी के बीच में बातें ना के बराबर हो गई थी।
बातें सिर्फ तब होती जब सिद्धार्थ उस बातचीत का हिस्सा होता।
नारायण जी ने अपने बेटे के कपड़े बदले, शरीर को गुनगुने पानी से पोछा।
जो कि बाहर ठंड थी तो जाड़े के कपड़े भी पहना दिए।
इन सब में, बस गंगा जी का रोल थोड़े बहुत काम करना ही था।
जैसे कबोर्ड से कपड़े चाहिए हो, पानी गर्म करना हो या फिर खाना बनाना हो बाकी इन दोनों में कोई बातें नहीं थी।
गंगा जी खुद के किए पर काफी शर्मिंदा थी।


2 दिन निकल गए थे।
सिद्धार्थ को अभी भी होश नहीं आया था।
जब नारायण जी ने डॉक्टर को फोन किया तो डॉक्टर ने यह सलाह दी कि उसे अस्पताल भर्ती कर देना चाहिए।
लेकिन जब गंगा और नारायण जी ने सभी इंतजाम कर दिए। एंबुलेंस का खर्चा, एक दिन के बेड का खर्चा पूछा, पैसों का इंतजाम कर दिया तभी सिद्धार्थ होश में आ गया।
यह सब भगवान की कृपा है यही उसके माता-पिता का मानना था।
सिद्धार्थ के जागते बराबर ही उसके पिता ने डॉक्टर को फोन लगाया।
डॉक्टर ने कहा, "पेशेंट ठीक होते ही उन्हें मेरे क्लीनिक में लेकर आइएगा और खाने में कुछ हल्का-फुल्का ही खिलाइएगा।"


दूसरी तरफ,
गंगा उठते बराबर ही सिद्धार्थ के पास जाकर बैठी थी। वह काफी जोर-जोर से रो रही थी।
उसे देखकर सिद्धार्थ थोड़ा घबरा गया।
डॉक्टर से बाहर बात करने पर नारायण जी भी अंदर आए।
गंगा को रोते देख उन्हें भी बहुत दुख हुआ लेकिन सिद्धार्थ जिस प्रकार घबराया हुआ था इससे वह थोड़ा सिहर गए की सिद्धार्थ को फिर से कुछ ना हो जाए।

"अभी-अभी वह बेहोशी से जगा है। उसे परेशान मत करो जाओ। उसके लिए खिचड़ी बना कर लेकर आओ।"

गंगा मान नहीं रही थी, "मेरी गलती हो गई।" ऐसा बार-बार दोहरा रही थी। सिद्धार्थ का हाथ उनके हाथों में कसके पकड़कर रखा था।
नारायणजी गंगाजी का हाथ पकड़ कर उन्हें बाहर लेकर गए। "संभालो खुद को उसकी अभी ऐसी हालत नहीं है कि वह ऐसी बातें सुन सके।‌ अगर फिर से कुछ हो गया तो क्या उसकी जिंदगी की जिम्मेदारी तुम ले सकती हो?"
नारायणजी ने इससे ज्यादा कुछ भी बातें उनसे नहीं की।
वह सीधा सिद्धार्थ के कमरे में चले गए।
गंगा सिर नीचे कर सिर्फ रोने लगी और आदेशानुसार सिद्धार्थ के लिए खाना बनाने किचन में चली गई।
सिद्धार्थ बस इधर-उधर देख रहा था। उसके कपड़े बदले हुए थे। बदन पर स्वेटर पहना हुआ था। रुम अच्छा खासा साफ था और खिलखिला रहा था।
वो जागते बराबर ही सीज़र्स के बारे में भूल गया था।
सीज़र्स के साथ ही रागिनी के साथ बिताया गया दिन उसके दिमाग से धुंधला पड़ चुका था।
जो कि उसका मस्तिष्क अभी भी खुद के आजू-बाजू से जान पहचान नहीं बन पाया था इसमें रागिनी तो बहुत दूर की बात थी।
नारायणजी ने सिद्धार्थ से पूछा, "कैसे हो?"
"मैं ठीक हु।"
"क्या हुआ था मुझे।"
"कुछ नही बस, तबियत खराब हो गई थी।"
नारायणजी के मन में खुद के लिए इतनी चिंता देख सिद्धार्थ डर गया था।
नारायणजी के स्वभाव के अनुसार वह कभी सिद्धार्थ के किसी भी बात पर राजी नहीं होते या प्यार भी नहीं जताते।
लेकिन आज उनके आंखों में आंसू देख उसे लग रहा था की कुछ तो भी गड़बड़ हुआ है, कुछ तो भी बुरा हुआ है।
"आप तो गांव गए थे ना! कब वापस आए?"
"2 दिन पहले।"
"मुझे कैसे नहीं पता?"
"तू सोया हुआ था।"
सोने की इस बात से सिद्धार्थ को 2 दिन पहले हुई घटना याद आने लगी।
उसे याद आने लगा की कैसे रागिनी उसे आखिरी बार लंदन जाते हुए मिली। कैसे उसने उसे रिजेक्ट कर दिया और उसके बॉडी पर छूटा हुआ कंट्रोल।
उसने नारायण जी से सवाल पुछा,
"क्या मैं बेहोश हुआ था?"
नारायणजी ने हा में सिर हिलाया।
एक और एक दो करने में ज्यादा देर नहीं लगी उसे।
"सीज़र्स आई थी ना मुझे?"
"कैसे पता चला।"
"मुझे लगा ही था मेरे साथ कुछ गलत होगा। यह कोई पहली बार थोड़ी है !"
सिद्धार्थ ने फिर से एक बार आंखे बंद कर ली।
नारायण जी वही बैठे रहे कुछ देर, फिर वहा से चले गए।
उनके जाते बराबर ही सिद्धार्थ ने आंखे खोल ली। वो खिड़की से आती धूप को देख रहा था।
आज वो कितने दिन बाद उठा था। रागिनी शायद अब तक चली गई होंगी। उसने एक गहरी सांस ली।
गंगा उसके लिए खिचड़ी बनाकर लेकर आई।
सिद्धार्थ अभी भी कुछ करने की हालत में नहीं था।
"कैसे हो बेटा?"
"ठीक हु मां, आप क्यों रो रही हो?"
"कुछ नहीं बस, तेरी ऐसी हालत देख।"
"अरे मां! अभी तो आपको इसकी आदत हों जानी चाहिएं थी। जब तक जिंदा हु, तब तक मुझे संभालना है आपको।"
गंगा यह बात सुन और जोर जोर से रोने लगी।
"ऐसा कुछ मत बोल बेटा, जिसे हम जीते जी मर जाएंगे। हाथ जोड़ती हु मै तेरे सामने।" गंगा की यह अवस्था देख सिद्धार्थ के भी दिल के टुकड़े हो रहे थे।
सिद्धार्थ ने उनके हाथों को आपने हाथों में पकड़ लिया।
"प्लीज मां हाथ मत जोड़िए, और कर्मों का बोझ ना बढ़ाए, मुझे फिर से जनम नही लेना।"
यह कहकर उसने गंगा को गले लगा लिया। गंगा फुटफुट कर रोने लगी। "मैं ही तेरी इस हालत की जिमेदार हु।"
पीठ पर हाथ सहलाते हुए, "यह आपसे पापा ने कहा ना! घर में कुछ भी हो तो उन्हे आप ही मिलते हो मुझे लगा, सिर्फ मैं ही उनका एक टारगेट हु।"
गंगा जी ने सिद्धार्थ के पीठ पर हाथ मारते हुए कहा, "वो तेरे पिता है कितनो दिनों से तेरे लिए परेशान हो रहे थे। ढंग से नींद नहीं, खाना नही।"
सिद्धार्थ हस दिया, "ऊप्स मैं सोया हुआ था।"
"बहुत हो गया मजाक खाना खा लो।" गंगाजी ने डटाते हुए कहा।
"नही मां भूख नही है।"
"मैं तुम्हे पूछ नही रही बता रही हु, खाना खाओ फिर गोलियां भी लेनी है।"
सिद्धार्थ ने नाक भौं सिकुड़ खींचडी खत्म की, गोलियां ली और सो गया।
वो गहरी नींद में था की तभी उसका फोन बज उठा।

फोन का आवाज आते ही, गंगा ने वो फोन उठा लिया।
वो फोन, उन्होंने नारायणजी को जाकर दिया क्योंकि फोन कर रहा व्यक्ती इंग्लिश में बोल रहा था।
नारायनजी सोफे पर सोए हुए थे जब गंगाजी ने उन्हें फोन लाकर दिया।

"अजी, सुनते हो किसका फोन आया, इंग्लिश में बातें कर रहे है वो।"
"Hello, I am speaking to Siddharth? "
"No I am his father."
"Ok sir, will you please give him a call. it's for his new upcoming project with us, in London."
"No, no, he is not in good state."
"State?"
"I will give you a number, assistant. talk to him."
अपने टूटी-फूटी इंग्लिश में बातें खत्म की।

बात खत्म होते ही, गंगा जी ने उन्हें सवाल पूछा।
"किसका फोन था?"
"कोई लंदन के लोग उसे लंदन बुला रहे, नए प्रोजेक्ट के सिलसिले में।"
"तुषार का नंबर देने जा रहा हूं। वो उससे बात कर लेगा।"
"आप उसे लंदन भेज रहे हैं।"
" ऐसा मैंने कब कहा?"
"आप ही तो उन्हें तुषार का नंबर भेजने जा रहे हैं।"
"इसीलिए की तुषार उन्हें समझा सके कि वह अब नहीं आएगा काम पर वापस।
हमें उसके पैसे से कोई लेना देना नहीं है, हमें सिर्फ अपना बच्चा चाहिए। मैं अपने बॉस से बात करके उसे यही जॉब लगा देता हूं। ताकि वह हमारे नजर के सामने रहे,‌ बहुत हो गया घूमना फिरना।"

गंगा जी ने सिर्फ नारायण जी की बातों में हामी भर दी।


दूसरी तरफ
तुषार अपने ही दुनिया में मस्त था।

रागिनी को नंबर देने से लेकर आज तक वह इंदौर में ही रुका था। वह फिलहाल एक अलग व्यक्ति बन चुका था।

एक नौजवान जिसे अभी–अभी प्यार का अहसास हुआ था।
प्रतीक्षा के रिक्वेस्ट के चलते वो इंदौर रुका हुआ था। भले ही होटल में क्यों ना रुका हो।

होटल में रुकने की बावजूद भी प्रतीक्षा और तुषार की मुलाकातें इन दोनों बढ़ गई थी।

आज फाइनल राउंड था।
प्रतीक्षा, अपने बातो में ही खोई हुई थी, "आज सेमीफाइनल राउंड है। इंदौर से जो सिनेमेटोग्राफर चुना जायेगा। उसे ही मुंबई में होने वाले शॉर्ट फिल्म फेस्टिवल के फाइनल राउंड में पार्टिसिपेट करने का मौका मिलेगा।"

प्रतीक्षा अपने बातो में इतना खोई हुई थी की उसे यह भी पता नहीं था की उसने तुषार का हाथ कबसे पकड़ रखा है।
तुषार के लिए एक अलग एहसास था। वो प्यार में पूरी तरह लिप्त हो चुका था, गुम हो चुका था।
ऑडिटोरियम में अलग अलग फिल्म चल रही थी।
जिसका उसके दिल से कोई वास्ता नहीं था।
लेकिन यह अहसास कोई ज्यादा देर तक टिका नही, जब
उसे नारायणजी का फोन आया।
"हेलो तुषार"
"हा बोलिए ना अंकल।"
"सिद्धार्थ को सिजर्स आए है।"
"अंकल यह सब कैसे हुआ और कब?"
"अभी यह बताने का समय नहीं है। तुम जब आओगे तब पता चल ही जाएगा।
बस मैं तुम्हें एक नंबर भेज रहा हूं। वह लंदन से है।
सिद्धार्थ को नए प्रोजेक्ट देने के बारे में बात कर रहे थे, उन्हें सीधा तुम्हें ना बोलना है ।"

"मैं कुछ समझा नहीं अंकल आप क्या कह रहे हैं?"
आज सुबह सिद्धार्थ के फोन पर किसी का फोन आया वह बोल रहे थे कि वह लंदन से है और सिद्धार्थ के साथ प्रोजेक्ट बनाना चाहते हैं, लंदन में।
लेकिन मैंने उन्हे तुम्हारा नंबर दिया है। सिद्धार्थ की ऐसी हालत नहीं कि वह लंदन जा सके।
मैं चाहता हूं कि वह यह प्रोजेक्ट छोड़ दे पर वह मानेगा नहीं।
इसलिए तुम्हें उन्हें खुद मना करना होगा।
मैं यह चाहता हु की वह यह काम हमेशा के लिए छोड़ दे।
हम अपने बेटे को अपने से दूर नहीं करना चाहते।
अभी बस मैंने तुझे जितना कहा है, उतना ही कर। उन लंदन वालों को मना कर दे।
तुषार कुछ नहीं बोल पाया। वह विमुख (स्पीचलेस) हो चुका था। नारायण जी को मना करने का उसके पास कोई कारण नहीं था। नारायण जी सिद्धार्थ के पिता थे उनका पूरा हक बनता था कि वह अपने बेटे के लिए फैसला ले।
तुषार ने बस हामी भरी।


नारायण जी ने लंदन वाले व्यक्ति को तुषार का नंबर दे दिया।
तुषार ने बातो की गहराई समझते हुए,
he got into a major accident. His Doctor suggest him for the complete bed rest. (उसका एक्सीडेंट हुआ है और डॉक्टर ने उसे आराम करने की सलाह दी है।)
साथ-साथ यह भी कहा कि, " if we get opportunity in future then we will love to do a project with you."
(अगर कभी जाकर हमें मौका मिलता है तो आपके साथ प्रोजेक्ट करना हमें पसंद आएगा।)


उन लोगों को दोनों बातों से कुछ ज्यादा परेशानी नहीं हुई क्योंकि सिद्धार्थ ने उन्हें खुद रिक्वेस्ट भेजी थी कही बार।
उन्हें अपने शो के लिए एक एशियाई व्यक्ति की तलाश थी। सिद्धार्थ ने मौका पकड़ते हुए लंदन प्रोजेक्ट के लिए रिक्वेस्ट भेजी थी। इसलिए वह उसका खर्चा उठा कर, उसे मौका देना चाहते थे।

वैसे तो जितनी बताई जा रही है उससे भी ज्यादा बातें हुई थी तुषार और लंदन वाली पार्टी के बीच
लेकिन कुछ 15 मिनिट के डिस्कशन के बाद लंदन वाले मान गए थे।
उनके लिए यह अच्छा ही था। एक व्यक्ति का खर्चा कम हो जाता अगर वह दोनों एंकर्स को एक ही देश से ले–ले। जहा एक एशियाई हो।
लंदन के सामने भारत का अंतर बहुत बड़ा था।
सिद्धार्थ का खर्चा ना उठाना पड़ना ही, उनके हामी भरने का एक प्लस पॉइंट था।


लंदन वालों से बातें करने के बाद शायद से ही तुषार ने इंदौर और दिन रहने का फैसला लिया हो, वह अगली ही ट्रेन से बनारस जाने की सोच रहा था। उसने इंदौर में ठहरने का कारण और मूड दोनों ही खो दिया था।
जब यह बात प्रतीक्षा को पता चली तो उसका दिल टूट गया।

नया-नया प्यार था दोनों में, ऐसा उन दोनों को लग रहा था।
क्योंकि चाय में शक्कर की तरह घुल गए थे, दोनों।
प्रतीक्षा के तुषार से मिलने के इतने चर्च थे कि पूरे होटल स्टाफ को उन दोनों की शक्लें याद हो गई थी।

तुषार को भी कुछ मानवी भावनाएं महसूस हो रही थी, प्रतीक्षा के साथ। शारीरिक एवं मानसिक दोनों तरह लगाव उसे हो गया था। एक परफेक्ट पार्टनर वह उसमें ढूंढने लगा था।

"लेकिन प्यार बाद में, पहले दोस्ती" यही विचार उसके मन में चल रहा था।
जाने से पहले सिर्फ प्रतीक्षा को उसने ऑल द बेस्ट कहा।
और यह भी कहा कि," मुझे पूरा विश्वास है कि तुम यह कंपटीशन जीत जाओगी। अगर जीत गई तो मुंबई पहुंचते ही फोन करना। रहने की सुविधा मैं कर दूंगा।"
प्रतीक्षा ने आंखों में आंसू लेकर उसे विदा किया।

दोनों में कहीं तरह के अरमान उमड़ आ रहे थे लेकिन जहां वह खड़े थे वह पब्लिक प्लेस होने के कारण उन्होंने अपने सारे भावनाओं पर नियंत्रण कर लिया लेकिन आंखों ही आंखों में अपनी सारी इच्छाएं बया (express) कर दी।

और इस तरह के ताम-झाम के बाद आखिरकार तुषार ने इंदौर छोड़ दिया।


तुषार एक तरफ वाराणसी के लिए निकला था।
और वही बनारस में सिद्धार्थ उठ भी नहीं पा रहा था।
सांस धीमी पड़ चुकी थी। आंखों में बेहोशी अभी भी नजर आ रही थी। चाल लड़खड़ा रही थी।

उसे ऐसी जिंदगी से छुटकारा चाहिए था। उसने ठान लिया था कि वह ठीक होते ही, अपने काम पर फिर से एक बार वापस लौट जाएगा।

अब उसका यहां मन नहीं लग रहा था क्योंकि उसका मानना था कि यह फीलिंग कुछ समय के लिए ही है।
कुछ समय बाद यह फिलिंग्स अपनी आप चली जाएंगी।

शायद मुझे किसी के अटेंशन की आदत सी हो गई थी। ऐसा ही उसका दिमाग उसे जताने की कोशिश कर रहा था।
लेकिन उसका दिल उसे यही जताने की कोशिश कर रहा था कि, वह रागिनी से प्यार करने लगा है।
दिमाग और दिल की इस लड़ाई में उसने दिमाग की सुनना ज्यादा समझदारी समझी।

क्योंकि जब एक व्यक्ति को होश नहीं रहता तब बस वह सही की तरफ भागता है, जो उसके मायने में सही हो।
बाकी विचार करना उसका दिमाग बंद कर देता है।
दिमाग में आने वाली सभी चीजें उसे सही और अपनी-अपनी सी लगने लगती है। सिद्धार्थ के साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा था।

उसे यहां से निकलना था तुषार के इंदौर से आते बराबर ही उसे वह यह बात छेड़ने वाला था।
लेकिन सिद्धार्थ इस बात से अनजान था की तुषार ने नारायण जी की बातें मान ली थी और लंदन प्रोजेक्ट कैंसिल कर दिया था।

कभी जिंदगी एक पल में गुजर जाती है,
और कभी जिंदगी का एक पल नही गुजरता।