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Chandramauli

चन्द्रमौलि

‘शुभा का चन्द्रमौलि'

सुमन शर्मा


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अनुक्रम

अध्याय — 1

अध्याय — 2

अध्याय — 3

अध्याय — 4

अध्याय — 5

अध्याय — 6

अध्याय — 7

अध्याय — 1

मार्च का महीना था। शीत ऋतु अपना पड़ाव समेट चुकी थी। ग्रीष्म ऋतु के कदमों की आहट अभी कुछ दूर थी। पवन की शीतलता मन को गुदगुदाने लगी थी। चारों ओर हरियाली ही हरियाली छाई हुई थी। पेड़ पौधे रंग बिरंगे फूलों से लदे हुए थे। फलों के बोझ से पेड़ों की डालियाँ झुकी जाती थीं। पक्षी डाल—डाल पर फुदक रहे थे। भॅंँवरे और तितलियाँ फूलों पर मंडरा रहे थे। नीला आकाश मानों अपना अाँचल पसारे पक्षियों को पुकार रहा हों ‘आओ! अपने पंख फैलाओ और मेरी सीमा को छू लो' और जैसे पक्षी भी उसकी चुनौती स्वीकार कर दूर नील गगन में उड़ने लगते हैं। जहाँ चारों ओर प्रकृति उल्लास में डूबी हुई थी, वहीं मेरा घर भी खुशियों से अछूता न था।

दिल्ली शहर की एक शांत बस्ती में है मेरा छोटा सा घर। मेहमानों का आना लगातार बना हुआ था। इसका कारण था, आज हमारे घर ‘नामकरण' हो रहा था, मेरे नन्हें से भतीजे का, जो दो महीने पहले ही, इस धरती पर आया था।

दिल्ली के बाहर से मेहमान तो पहले दिन ही आ गये थे। दिल्ली में रहने वाले मेहमान लगातार आ रहे थे।

कमला चाय के प्यालों की टे्र लेकर पूरे घर में घूम रही थी। अरे! मैं कमला का परिचय तो आप से करवाना भूल ही गई, कमला सोलह सत्तरह साल की दुबली पतली लड़की थी, जो हमारे घर काम करती थी, रंग थोड़ा सांवला था, लेकिन चेहरा आकर्षक था, थोड़ी—सी शर्मीली थी, अपने बालों का बहुत ध्यान रखती थी, उसके बाल काले और घने थे, एक मोटी—सी चोटी कमर तक झूलती रहती थी। मेहमानों की देखभाल करने में वह बहुत खुश थी।

‘‘हवन सामग्री कहाँ है शुभा?'' ये आवाज हमारे बड़े भाई साहब की थी, बड़ी कड़क आवाज है, भाई साहब की, शरीर से लंबे चोड़े हैं, और रंग गोरा है, एक प्राईवेट कम्पनी में उच्च पद पर कार्यरत हैं।

‘‘हवन सामग्री ऊपर सुखाने रखी है, भाई साहब!'' मैंने उत्तर दिया। कमला बड़े उत्साह से बोली ‘‘क्या मैं हवन सामग्री छत से ले आऊँ दीदी?''

‘अरे जल्दी लाओ' हवन में विलम्ब हो रहा है, पंडित जी बोले। पंडित जी हवन की पूरी तैयारी कर चूके थे और लाल रंग के आसन पर बैठे झूम रहे थे, साथ ही गुनगुना रहे थे ‘‘हरे रामा हरे रामा रामा रामा हरे हरे। हरे कृष्णा हरे कृष्णा कृष्णा कृष्णा हरे हरे।''

मैंने रसोईघर की तरफ रूख किया, वहाँ बड़ी मामीजी चाय बनाने का कार्य भार संभाले हुए थीं। मेरे वहाँ पहुंचते ही वह तपाक से बोलीं ‘‘अभी तुम्हारी छोटी बुआ जी नहीं आई?'' ‘‘हाँ आ तो जाना चाहिए था,'' कहते हुए मेरे माथे पर चिंता की लकीर खिच गई।

कमला छत से हवन सामग्री लेकर हाँफती हुई आ रही थी। मेरे पास आकर बोली, ‘‘दीदी, बाहर टैक्सी में आपकी छोटी बुआ जी आई हैं! मैं खुशी से सड़क की तरफ दौड़ी। मेरे पीछे—पीछे कमला भी आ गई। कमला टैक्सी से सामान उतारने लगी। साथ ही बुआ जी की बेटी, हेमा और बेटा कपिल भी उसकी मदद करने लगे। मैं बुआ जी से गले मिली, बुआ जी की आँखे खुशी से चमक रही थीं, मैं बुआ जी को लेकर अंदर आ गई। फूफाजी टैक्सी चालक को किराया देकर पीछे—पीछे आ रहे थे।

पंडित जी बोले, ‘र् सब जजमान व मेहमानए हाथ धोकर हवन के लिए आ जाईए हमें दूसरी ओर भी जाना है।''

‘‘चलिए चलिए सब हवन के लिए चलिए।'' चाचा जी पूरे घर ंमें घूम—घूम कर सबको हवन के लिए एकत्र कर रहे थे। हवन कुंड के पास दो विशेष गद्देदार स्थान भाई साहब और भाभी जी को लिए बनाये गये थे। बाकी सभी मेहमान दरी पर बैठ गये।

पंडित जी ने मन्त्रे—चारण प्रारम्भ कर दिया। सारा घर हवन की खुशबू से भर गया। लगभग आधे घण्टे तक पंडित जी के मंत्रें के पीछे सब ‘स्वाहा' शब्द का उच्चारण करते रहे, फिर पंडित जी ने सबको ‘सम्पूर्ण आहुति' के लिए खड़ा किया। सभी ने बड़े उत्साह के साथ सम्पूर्ण आहुति में भाग लिया।

पंडित जी ने सबको बैठने का इशारा किया और अपने थैले से एक मोटी—सी किताब निकाली आँखों पर चश्मा चढ़ाया और गर्दन झुका कर उँगलियों पर जाने क्या हिसाब—किताब कर रहे थे, बुआ जी का बेटा कपिल उनकी नकल कर रहा था। जिसे देखकर सब अपनी हँसी दबाये बैठे थे। शीघ्र ही पंडित जी ने चश्मा आँखो से उतार कर जेब में डाला, किताब बन्द कर, थैले में ठूँसी और गर्दन ऊपर उठाकर बोले ‘‘बच्चे का नाम ‘च' से निकला है।'' ‘‘च से?'' कई स्वर एक साथ गूँंजे। फिर क्या था सब लगे अपने—अपने सुझाव देने। बच्चे का नाम ‘ये' रख लो। बच्चे का नाम 'वो' रख लो।

लेकिन पंडित जी को कोई नाम अच्छा नहीं लग रहा था। हर नाम पर मुँह सिकोड़ लेते ‘‘ऊहूँ, ये नहीं, यह भी कोई नाम हुआ भला? कोई और अच्छा सा नाम बताइए।''

‘चन्द्रमौलि' नाम कैसा है?'' पंडित जी।' मैंने, सकुचाते हुए कहा।

‘‘उत्तम अति उत्तम।'' पंडित जी के चेहरे पर हल्की से मुस्कुराहट थी।

सभी मेहमानों ने ताली बजा कर नाम का समर्थन किया। बस मेरे भतीजे का नाम ‘चन्द्रमौलि' रख दिया गया।

चाचा जी जो कि बड़ी देर से हलवाईयों का काम काज देख रहे थे, उठकर आये और बोले ‘‘खाना तैयार है, सब लोग हॉल में आ जाइये।'' बस फिर क्या था, देखते ही देखते खाने की मेज के पास भीड़ जुट गई। चूहे तो सभी के पेट में दौड़ रहे थे भला ऐसे में सभ्यता दिखाकर खाने से दूर कौन खड़ा रहता? गाजर का हलवा, गुलाब—जामुन, पूरी—छोले, बूंदी का रायता, चावल, आलू की सब्जी और ना जाने क्या—क्या बना था। खाने की खुशबू भूख को और भी बढ़ा रही थी।

‘‘अच्छा शुभा हम जा रहे हैं।'' रूमाल से मुँह पोंछते हुए गुप्ता आंटी ने कहा, मैंने उन्हें एक मिठाई का डिब्बा थमा दिया ‘‘अरे अभी इसकी कसर बाकी थी?'' गुप्ता अंकल ने कहा। मैंने ओठों पर हल्की से मुस्कुराहट बिखेर कर उन्हें विदा किया। एक के बाद एक करके पड़ौसियों ने विदा ली।

मैंने एक थाली में सभी व्यंजन सजाए और भाभीजी के कमरे में चली गई नन्हा चन्द्रमौलि, भाभीजी की गोद में सिमटा हुआ सब को टुकुर—टुकुर देख रहा था, ‘‘ओह! तुम कितने प्यारे हो चन्द्रमौलि'' अनायास ही मेरे मुँह से निकल गया। कमला मेरे साथ—साथ ही घूम रही थी।

‘‘तू भी खाना खा ले कमला'' बड़ी मामीजी ने कमला का हाथ पकड़ा और उसे खाने की मेज तक ले गई। कमला थोड़ी सकुचा रही थी, ‘‘मैं शुभा दीदी के साथ खा लूँगी।'' कमला ने कहा और वापिस मेरे पास आ गई।

बैठक में बच्चों का अच्छा खासा समूह बन गया था, जो अंताक्षरी खेलने में व्यस्त था। ‘‘शुभा दीदी ‘र' अक्षर से कोई अच्छा सा गाना बताइये।'' मौसी जी की छोटी बेटी नीलू बड़े प्यार से मेरे पास आकर बोली। ‘‘कमला से पूछ लो कमला को बहुत सारे हिन्दी गाने आते है।'' मैं कमला को वहाँ फँसा कर खुद वहाँ से बच निकली, मैं वहाॅँ से दूसरे कमरे में आ गई जहाँ महिला मंडली बैठी हुई थी।

‘‘चाय बन रही है क्या?'' फरीदाबाद वाली चाचीजी ने चेहरे पर कुछ थकावट सी दिखाते हुए पूछा। ‘‘चाय बनाने के लिए कोई मन्त्र थोड़े ही पढ़ने हैं?'' मौसीजी ने चुटकी ली। ‘‘चाय तो हम भी पीयेंगे'' वॉशबेसिन में पान की पीक थूकने के बाद मौसाजी बोले। मैं चाय की व्यवस्था करने रसोईघर में जा रही थी, बीच में मुझे मौसा जी ने रोक लिया और बोले ‘‘हमारी कानपुर की गाड़ी छः बजे की ह,ै पाँच बजे टैक्सी बुला देना।'' ‘‘जी बहुत अच्छा'' मैंने कहा और रसोईघर में चली गई। पीछे—पीछे मौसी जी भी आ गई और बोली ‘‘थोड़ा—सा खाना डिब्बे में भर लेती हूँ, रास्ते में काम आएगा।'' और वह खाना बाँधने में जुट गईं। मौसा जी रसोईघर में आए और चुटकी लेते हुए बोले ‘‘अरे सारा खाना तुम ही ले जाओगी? यहाँ कुछ छोड़ोगी या नहीं।'' मौसी जी तुनक कर बोली ‘‘इतना—सा तो बॉंँधा है।''

दिन बीता और शाम के पाँच बज गये टैक्सी घर के बाहर खड़ी थी और मौसाजी उसमें सामान रख रहे थे। नीलू और मौसाजी की बड़ी बेटी, निशी सामने बगीचे में झूला झूल रही थी। टैक्सी देखते ही झूलना छोड़ कर टैक्सी के पास आकर खड़ी हो गई। मौसाीजी अपने भारी भरकम शरीर को संभालते हुए, सब से मिल रहीं थीं। मेरे पास आईं और मेरे माथे पर आये हुए बालों को अपने हाथों से पीछे करते हुए बोलीं ‘‘शुभा एक बात तो बता।'' मैंने प्रश्न भरी दृष्टि से उन्हें देखा।

वह बोलीं, ‘‘तेरे ससुराल वालों ने तुझे क्यों छोड़ दिया?'' इतना सुनते ही वह मुस्कान जो सुबह से मेरे चेहरे पर थी, होंठो में सिमट गई। मेरी पलकों को अश्रु भिगो चुके थे, न चाहते हुए भी वह सब लम्हें जिन्हें मैं भूलाने की कौशिश कर रही थी, मेरी आँखों में तैरने लगे। इससे पहले की मैं कुछ बोलती मौसाजी ने आवाज लगाई, ‘‘अरे भई! जल्दी आ जाओ गाड़ी छूट जायेगी।'' मौसी का परिवार टैक्सी में बैठ गया। टैक्सी देखते ही देखते आँखो से ओझल हो गई। मेरी आँखों से आँसू लुढ़क कर गालों तक आ गये थे। पता नहीं इसलिए कि मुझसे किसी की विदाई सहन नहीं की जाती या फिर इसलिए कि जाते—जाते मौसी जी मेरे जख्मों को कुरेद गईं थीं।

बहुत मुश्किल से आँसुओं को रोक कर गालों को अपने दुपट्टे से पोंछ कर मैं घर के अन्दर गई। अन्दर जाते ही मेरी नजर चन्द्रमौलि पर पड़ गई। वह बहुत प्यारा लग रहा था। मैं उसे देखते ही अपना दुःख भूल गई और उसे गोद में उठा लिया।

हलवाई अपना सामान समेट रहे थे और बचा हुआ सामान चाचाजी के हवाले कर रहे थे, ‘‘ लो बाबूजी छोटी इलायची सम्भाल कर रख लो बहुत सारी बच गईं हैं। मीठी चटनी फ्रिज में रख लो एक महीना भी खराब नहीं होगी।'' ‘‘अरे इनसे रात का खाना तो बनवा लेते'' चाचीजी ने अपनी राय दी। ‘‘इनका हिसाब तो मैंने कर दिया है। अब रात का खाना तुम लोग ही मिलकर बनाना'' चाचा जी बोले।

‘‘सब तो थक कर चूर—चूर हो रहे हैं'' बड़ी बुआ जी लेटे—लेटे बड़बड़ाई। ‘‘तुम ने कौन से पहाड़ खोद दिये?'' फूफाजी ने आँखों के सामने से अखबार हटाकर बुआ जी की तरफ देखा। ‘‘चावल और साबूत मूँग बना लेंगे बाकी दोपहर का खाना बचा हुआ है।'' बड़ी मामीजी ने अपनी राय दी। मैंने कमला से कहा एक बार और चाय पिला दे सबको, फिर रात के खाने की तैयारियाँ करेंगे।

चाय पीने के बाद महिलाओं का मोर्चा खाना बनाने में जुट गया। चाचाजी के दोनों बेटे राजीव और सांची गाजर के टुकड़ों और मटर के दानों से लूडो खेल रहे थे। कपिल अकेला ही कपड़े कूटने वाले डंडे से क्रिकेट खेल रहा था और गेंद बना रखा था एक आलू को।

भाई साहब अच्छा गिटार बजा लेते हैं। भला वह अपनी कला का प्रदर्शन करने का यह मौका कैसे चूक जाते? वह गिटार पर हिन्दी फिल्मों के गानों की धुने निकाल रहे थे और सबकी वाह वाही लूट रहे थे।

मामीजी ने मॅँूंग में जीरा और हींग का बघार लगाकर कमला को आवाज दी, ‘‘कमला खाने के बर्तन तैयार करो, खाना बन गया है।'' कमला सलाद काटने का काम बीच में ही छोड़ कर, रसोईघर में चली गई। उसका छोड़ा हुआ अधूरा काम चाचीजी पूरा करने बैठ गइंर् और बोली, ‘‘देवेश! अब ये टेैं टेैं बन्द कर आकर खाना खा ले।'' देवेश हमारे भाई साहब का नाम है और वह उन्हें गिटार बजाना बन्द करने के लिए कह रही थीं। भाई साहब का नाम तो आपने जान लिया अब मैं आपको अपनी भाभीजी के नाम से भी अवगत करा देती हूँ उनका नाम है ‘विभूति'।

सब लोगों ने साथ बैठकर भोजन किया आज भोजन बहुत ही स्वादिष्ट लग रहा था। सब ने थोड़ी—सी गप्प—शप्प की और अपने—अपने बिस्तरों की ओर चल दिए। मैं भी थक कर चूर हो चूकी थी। बिस्तर पर लेटी, कुछ देर तो आँखों के सामने दिन भर के खूबसूरत लम्हें घुमते रहे, फिर पलके उन्हें आँखों में कैद करके कब बन्द हो गई पता ही नहीं चला।

सुबह दूध वाले की घण्टी ने निंद्रा को तोड़ा। तब तक सूरज अपनी सुनहरी किरणें धरती पर बिखेर चुका था। धरती भी अलसाई हुई सी जाग रही थी और हमारे घर के मेहमान भी। चाचाजी और बुआ जी का परिवार तो आज दिल्ली भ्रमण के मूड में था। मामीजी का परिवार आज दोपहर अपने घर वापिस जाना चाहता था।

एक—एक करके मेहमान विदा लेते रहे।

दो तीन दिन बाद ही घर सूना—सूना सा हो गया लेकिन जल्द ही चन्द्रमौलि की किलकारियों ने घर का सूनापन हर लिया। उसकी प्यारी सी सूरत के सामने दुनिया का कोई दुःख दर्द नहीं टिक पाता था।

भाभीजी पास के स्कूल में नौकरी करती थीं। वह वापिस नौकरी पर जाने लगीं। चन्द्रमौलि का अधिकांश समय मेरे साथ व्यतीत होने लगा। चन्द्रमौलि के साथ कब सुबह से शाम हो जाती थी, पता ही नहीं चलता था। समय को तो जैसे पंख लग गये हो। दो वर्ष कैसे बीत गये पता ही नहीं चला।

चन्द्रमौलि अपनी तोतली भाषा में मुझे ‘तुभा' कहता सारे दिन पूरे घर में घूमता रहता था और मुझसे बहुत प्यारी—प्यारी बातें करता रहता था। मेरे दिल के जख्म लगभग भर चुके थे। मैं ‘चन्द्रमौलि' की नजर से दुनिया देखने लगी थी।

अध्याय — 2

चन्द्रमौलि ढाई वर्ष का होने वाला था। उसे अच्छे स्कूल में दाखिला दिलवाने के लिए घर में जोर शोर से तैयारियाँ चल रही थी। घर में तरह—तरह की किताबों का ढेर लग चुका था। मुझे सबसे ज्यादा पसंद था, उसे ए—बी—सी— पढ़ाना। क्योंकि वह ए फॉर एप्पल बी फॉर बॉल के बाद पुस्तक में बने चित्र पर हाथ रख कर कहता था, सी फॉर ‘माऊँ बिल्ली।' मैं अपनी हँसी रोक नहीं पाती थी और उसे कहती थी सी फॉर बिल्ली नहीं सी फॉर कैट होता है। अंग्रेजी में बिल्ली को कैट कहते हैं। पर वह कहाँ मानने वाला था। कमला को आवाज लगाकर पूछता, ‘‘कमला ये माऊँ बिल्ली है ना?'' कमला भी उसकी हाँ में हाँं मिला देती थी। उसे पढ़ाते—पढ़ाते मेरा सिर घूम जाता था। हर बात पर सवाल पूछता था।

मैंने उसे कविता सिखाई, ‘‘ऊपर पंखा चलता है नीचे बेबी सोता है———'' बस लग गया सवाल पर सवाल पूछने ‘‘बुआ बेबी के ऊपर पंखा क्यों चल रहा है? बेबी पंखे से डरता नहीं?'' ‘‘चलो दूसरी कविता सीखते हैं'', कहकर जब मैं दूसरी कविता शुरू करती, ‘‘चुन्नू—मुन्नू थे दो भाई, रसगुल्ले पर हुई लड़ाई———'' तो वह पूछता, ‘‘ बुआ उनके लिए रसगुल्ले कौन लाया था?'' उफ्‌ उसको कुछ भी सीखाना बहुत मुश्किल था।

आखिर हमारी मेहनत सफल हुई और चन्द्रमौलि को दिल्ली के एक प्रसिद्ध स्कूल में दाखिला मिल गया। उसके स्कूल में जाने का पहला दिन मैं कैसे भूल सकती हूँ। सुबह से ही घर में ऐसे भाग दोड़ हो रही थी जैसे चन्द्रमौलि नर्सरी स्कूल में नहीं बल्कि किसी मोर्चे पर लड़ने जा रहा हो। चन्द्रमौलि तो बस अपने ‘मिक्की माऊस' वाले बस्ते को देखकर फूला नहीं समाता था। पहले दिन तो भाई साहिब छोड़ने गए थे उसे।

पाँच घण्टे बाद जब वह स्कूल से वापिस आया तो स्कूल की थकान साफ नजर आ रही थी। भाभीजी तो घर पर नहीं थीं चन्द्रमौलि ने सारी स्कूल की बातें मुझे बताईं। पहला सारा दिन खेल—खेल में और अध्यापिका द्वारा बच्चों का परिचय लेने में बीत गया। असली समस्या तो तब पैदा हुई जब स्कूल में पढ़ाई होने लगी और गृहकार्य मिलने लगा। स्कूल से आते ही मेरे पीछे लग जाता, ‘‘पहले मेरा गृहकार्य करवाओ बाद में खाना खाऊँगा।'' एक पृष्ठ पूरा करने में दो घण्टे लगा देता था। खैर जैसे तैसे स्कूल का एक वर्ष पूरा हुआ और चन्द्रमौलि अगली कक्षा में आ गया।

मई महीने की 10 तारीख थी, रोज की तरह चन्द्रमौलि कमला के साथ स्कूल से घर आया और सीधा मेरे पास भागकर आ गया और बोला, ‘‘बुआ कल मुझे स्कूल नहीं जाना।'' मैं जानती थी कि, उसकी ग्रीष्म की छुट्टियाँ शुरू हो गई हैं, फिर भी मैंने अनजान बनते हुए पूछा, ‘‘क्यों?'' वह बोला, ‘‘मेरी बहुत सारे दिन की छुट्टियाँ हो गई है और बहुत सारा गृहकार्य भी मिला है।'' वह मेरा हाथ पकड़कर खींचने लगा बोला, ‘‘पहले मेरा गृहकार्य करवा दो।'' ‘‘अरे अभी तो बहुत सारी छुट्टियाँ हैं, आराम से कर लेंगे।'' मैंने जवाब दिया। लेकिन वह अपनीि जद्द पर अड़ा रहा। मैंने उसे समझाया कि आपको जो छुट्टियों का कार्य मिला है, उसके लिए बहुत सारे चित्र इकट्ठे करने हैं। थोड़ी देर बाद जब मैं सूखे कपड़े छत से उतार कर नीचे आई तो देखा चन्द्रमौलि ने अखबार फाड़—फाड़ कर कागज का बड़ा—सा ढेर इकट्ठा किया हुआ था, वह बोला ‘‘लो बुआ इकट्ठे हो गये चित्र अब गृहकार्य करवाओ।''

शाम को भाई साहब जब दफ्रतर से घर वापिस आये तो, उन्होंने बताया कि अगले हफ्रते दफ्रतर के काम से कोलकाता जाना है और वह हम सब को भी अपने साथ ले जा रहे थे।

हवाई जहाज में सफर करने की बात सुन कर चन्द्रमौलि बहुत खुश हुआ। कमला का परिवार पास ही की एक बस्ती में रहता था। मैंने कमला से कहा कि जब हम कोलकाता जायें तो वह दस दिन के लिए अपनी माताजी को यहाँ बुला ले। 17 मई की शाम छः बजे की उड़ान थी। सुबह से ही हम सब अपना सामान जुटाने में लगे हुए थे। चन्द्रमौलि ने भी अपना एक छोटा—सा थैला लिया और उसमें सामान ठूंसने लगा कहानियों की किताबें,पेंसिल, रबर और न जाने क्या—क्या। एक गुड्डा था उसके पास जिसे वह ‘पिना' कहता था, उसे अपने थैले में ररवने की कोशिश कर रहा था। उसके थैले में गुड्डा नहीं आया तो मेरे पास आकर बोला, ‘‘बुआ पिना को आप अपने बैग में रख लो।'' ‘‘अरे! इसे साथ ले जाने की क्या जरूरत है?'' मैंने पूछा तो वह बोला, ‘‘यह यहाँ पर अकेला रह जाएगा तो यह रोएगा।'' ‘‘अच्छा बाबा इसे भी ले चलते

हैं।'' कहकर मैंने ‘पिना' को अपने बैग में रख लिया।

तीन बजे घर के बाहर टैक्सी आ कर खड़ी हो गई। कमला की माता जी विजया बोली, ‘‘रास्ते के लिए खाना बाँध दूँ?'' भाभीजी हँसकर बोली, ‘‘दो घंटे में तो विमान कोलकाता पहंुँच जाएगा।'' कमला और विजया टैक्सी में सामान रखने लगीं। चन्द्रमौलि अपना छोटा—सा बैग घसीटते हुए बोला ‘‘अपना बैग मैं खुद रखूँगा।''

हम लोग टैक्सी में बैठ रहे थे तभी मेरी नजर कमला पर पड़ी वह सुबक—सुबक कर रो रही थी। मैं टैक्सी से नीचे उतरी और मैंने उसे दिलासा देते हुए कहा, ‘‘अरे कमला रो मत सिर्फ दस दिन की तो बात है। दस दिन तो चुटकियों में निकल जाएँगे। मैं वापिस टैक्सी में बैठ गई औैर टैक्सी एअरपोर्ट की और चल दी।

टैक्सी चलते ही चन्द्रमौलि ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी, ‘‘बुआ हम हवाई जहाज से क्यों कोलकाता जा रहे हैं? हम टैक्सी से कोलकाता क्यों नहीं जा सकते?'' मैंने कहा, ‘‘हम टैक्सी में बैठे—बैठे थक जाएँगे। टैक्सी बहुत देर में कोलकाता पहुँचती और हवाई जहाज बहुत जल्दी पहुंँच जाएगा।''

वह बोला, ‘‘हवाई जहाज जल्दी क्यों पहुंँच जाएगा?'' ‘‘वह बहुत तेज चलता है।'' भाई साहब ने जवाब दिया। ‘‘टैक्सी भी तो इतनी तेज चल रही है।'' चन्द्रमौलि का जवाब था। उसके सवालों के जवाब मे घर से एअरपोर्ट की दूरी कब तय हो गई पता ही नहीं चला। सामान की जाँच करवाने के लिए कतार में लगे हुए थे हमारी कतार में एक बच्चे के पास मिक्की माऊस का बैग था। जिसे देखकर चन्द्रमौलि ने चिलाना शुरू कर दिया, ‘‘यह मेरा बैग है, मुझें अपना बैग चाहिए।'' हम सब ने बहुत समझाया कि ये बैग तुम्हारा नहीं है लेकिन वह तब शान्त हुआ जब भाई जब साहब ने गुस्से से आँखे तरेर कर उसकी ओर देखा।

अभी तक चन्द्रमौलि ने आकाश में उड़ता हुआ छोटा—सा हवाई जहाज देखा था। यहाँ चारों तरफ बडे़—बड़े हवाई जहाज देखकर वह हक्का—बक्का रह गया था। हवाई जहाज के उड़ान भरते समय उसने अपने कानों पर हाथ रख लिया था। बाद में तो उसने न केवल सफर का आनन्द लिया अपितु लोगों के आकर्षण का केन्द्र भी बन गया। देखते ही देखते कोलकाता का नेताजी सुभाषचन्द्र बोस हवाई अड्डा आ गया और हवाई जहाज जमीन पर नीचे उतर रहा था। कुछ देर हवाई पट्टी पर दौड़ने के बाद हवाई जहाज रूक गया। यात्रियों में जो हलचल पैदा हुई उसे देखकर चन्द्रमौलि समझ गया कि हमें अब उतरना है। वह भी अपनी सीट बैल्ट उतार कर खड़ा हो गया।

हवाई अड्डे से टैक्सी लेकर सीधे होटल के लिए रवाना हो गये। होटल पहुँचते ही चन्द्रमौलि के सवाल फिर से शुरू हो गये ‘‘यह इतना बड़ा घर किसका है? हम यहाँ पर क्यों हैं?'' वगैरह—वगैरह उसके सवालों के जवाब देते—देते कभी—कभी मैं स्वयं ही सवालों के जाल में उलझ जाती थी। होटल पहुंँचते—पहुँंचते रात के ग्यारह बज गये थे, खाना खा कर हम होटल के सुन्दर सुसज्जित कमरों के आराम दायक बिस्तरों पर चले गए और जल्दी ही नींद की पालकी में सवार होकर सपनों की दुनिया में पहुँंच गये।

सुबह छः बजे के अलार्म ने वास्तविक दुनिया में फिर से ला कर खड़ा कर दिया। भाई साहब दफ्रतर के काम के लिए चले गये और हमारे लिए टैक्सी का प्रबन्ध कर गये। सुबह के नौ बजे थे होटल के रूम की घण्टी बजी, दरवाजा खोलने पर सामने सांवले रंग का लम्बा युवक खड़ा था जिसने अपना परिचय देते हुए बताया कि वह टैक्सी ड्राईवर है और उसका नाम ‘जॉय' है। ‘जॉय' को हमने बताया कि हम दिल्ली से हैं और हमें कोलकाता के विषय में कुछ भी नहीं मालूम जब उसने कोलकाता के विषय में बताना शुरू किया तो वह बंगाली ज्यादा और हिन्दी कम बोल रहा था इसलिए कुछ बातें हमारे कानों तक तो गई लेकिन दिमाग तक नहीं पहुंँच पाईं। उसने चन्द्रमौलि की तरफ बड़े प्यार से कुछ पूछा तो हमने अन्दाज लगाया कि वह कह रहा है, ‘‘तुम्हारा नाम क्या है बाबू?'' भाभीजी ने कहा, ‘‘चन्द्रमौलि'' और जॉय को केवल ‘मौलि' ही समझ आया। वह अपने पूरे बत्तीस दाँत दिखाकर हँसा और बोला, ‘‘मौलि? अच्छा नाम है।''

कोलकाता का पहला दिन हमनें वहांँ के प्रसिद्ध मंदिर ‘दक्षिणेश्वर' और ‘कालीघाट' स्थित शक्तिपीठ देखने में बिताया। होटलॅ लोटते हुए ‘बड़ा बाजार' में ‘पुचके' भी खाये। जॉय से हमने कहा कि जितने दिन भी हम कलकता में घूमेंगे वह ही टैक्सी लेकर आये हमें काई दूसरा ड्राईवर नहीं चाहिए। जॉय ने कहा, ‘‘बहुत अच्छा'' खुशी से उसकी आंखे चमक रही थी। हर दिन जॉय ठीक नौ बजे होटल आ जाता हमने उसके साथ ‘साईंस सिटी' देखी। बड़ी अद्‌भुत जगह है, वैज्ञानिक सिद्धांतों पर बनी ऐसी अद्‌भुत चीजें की आप दांतों तले उँगलियाँ दबाये बिना नहीं रह पायेंगे।

चन्द्रमौलि को वैज्ञानिक सिद्धांत तो नहीं समझ आ रहे थे उसे तो वह कोई परीलोक जैसा लग रहा था। इस जगह को और भी आकर्षक बना दिया था कोलकाता के लोगों का अनुशासन। यहाँ के लोगों की अनुशासन प्रियता और महिलाओं के प्रति सम्मान जैसी भावनाओं ने मुझे बहुत प्रभावित किया। सोने पर सुहागा था वहाँ का मौसम जहाँ मई—जून में दिल्ली में सूरज आग बरसा रहा होता है, यहाँ मौसम बहुत ही सुहावना था। यहाँ पर हमने चाय और सिंघाड़ा लिया। यहाँ समौसे को सिंघाड़ा कहते है।

एक दिन ‘निको पार्क' में बिताया। यह स्थान तो चन्द्रमौलि को बहुत ही पसंद आया। तरह—तरह के झूले और और बच्चों की ‘नन्ही ट्रेन' भला बच्चों को और क्या चाहिए?

बॉटनिकल गार्डन को देखकर आँखे फटी की फटी रह गई कितने तरह के पेड़ थे यहाँ पर। एक बरगद का पेड़ तो इतना पुराना और घना है कि उसकी मूल जड़ कहाँ है? पता ही नहीं चलता। यह कैसे हो सकता था कि यहाँ घूमने जाएँ और यहाँ की प्रसिद्ध ‘झाल मूड़ी' न खायें। यह गार्डन बहुत दूर तक फैला हुआ है इसे पूरा देखने के लिए बीच—बीच में रूक कर ‘झालमूड़ी' खाने का जॉय का सुझाव अच्छा रहा।

जॉय ने हमें वहाँ का ‘चिड़िया खाना' (चिड़िया घर) और ‘बिड़ला तारामंडल' देखने की भी सलाह दी। खरीदारी के लिए भी अच्छे—अच्छे बाजार ले गया। उसने कहा यहाँ कि मिठाई ‘शान्देश' भी अवश्य लेना।

यहाँ के संग्रहालयों में भी विचरण किया। सब एक से बढ़कर एक थे। यहाँ की कचौड़ियों और रस—गुल्लों का तो जवाब ही नहीं।

कुछ ही दिनों में कोलकाता से भावनात्मक रिश्ता जुड़ गया था। मगर दिल्ली जाने का दिन पास आ गया था। आज भी जॉय का चेहरा मेरी नजरों के सामने आ जाता है, जब हमने उससे कहा था कि कल हमे दिल्ली जाना है और वह सुबह छः बजे होटल पहुँंच जाये, कैसे उसकी आँंखे नम हो गईं थीं। और उदास चेहरे पर नकली मुस्कुराहट बिखेर कर उसने चन्द्रमौलि को गोद में उठा लिया था।

‘‘मौलि हमें दिल्ली जाकर भूल तो नहीं जाओगे।'' वह बंगाली भाषा में बोलकर उसका टूटी फूटी हिन्दी में मतलब बता रहा था।

24 मई का दिन था सुबह नौ बजे की उड़ान से दिल्ली वापिस आ रहे थे हम लोग। जॉय सुबह छः बजे टैक्सी लेकर आ गया था ,होटल तक सामान रखते रखते साढ़े छः बज गये थे। होटल के कर्मचारी चन्द्रमौलि से काफी घुलमिल गये थे वह हमें टैक्सी तक छोड़ने आये। हम हवाई अड्डे की ओर रवाना हो गये। कोलकाता को छोड़ने का दुख हो रहा था। कोलकाता में बिताएंँ सारे क्षण आंँखों में तैर रहे थे। चन्द्रमौलि को तो हवाई जहाज में बैठने का उत्साह हो रहा था। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस हवाई अड्डे पर हमारा सामान उतार कर जॉय अपनी टैक्सी के पास उदास खड़ा हो गया। उड़ान सही समय पर थी, हमने हवाई अड्डे के भीतर जाने से पहले मुड़कर जॉय की ओर देखा उसने हाथ हिलाया और अपनी टैक्सी में बैठ गया।

हम सामान जमा करवाने के बाद विमान की प्रतीक्षा में बैठ गये। कुछ ही देर में उद्‌घोषणा हुई कि दिल्ली जाने वाला विमान उड़ान भरने के लिए तैयार है। हम विमान में बैठ गये और विमान धरती को छोड़ आकाश की ओर चल पड़ा दो घंटे के आनन्दपूर्ण सफर के बाद पालम हवाई अड्डे पर विमान उतरने की घोषणा हुई विमान दिल्ली पहुंँच गया है यह बात चन्द्रमौलि को भी समझ आ गई वह पूछने लगा ‘‘बुआ यहाँ से हमारा घर दिखाई देगा?'' मैंने कहा ऊपर से बहुत सारे छोटे—छोटे घर दिखाई देंगे हमें पता नहीं चलेगा कौन—सा घर हमारा है। वह खिड़की से नीचे देखने के लिए बहुत उत्साहित था।

हवाई जहाज सुरक्षित हवाई अड्डे पर उतर गया। हम अपना सामान लेकर टैक्सी की प्रतीक्षा में खड़े हो गये। चन्द्रमौलि बड़े भोलेपन से बोला जॉय अंकल को बुला लो वह टैक्सी लेकर आ जायेगें।'' भाभीजी बोलीं ‘‘वह यहाँ थोड़ी टैक्सी चलाते हैं वह तो कोलकाता में टैक्सी चलाते हैं। ‘‘नहीं वो यहाँ भी आ सकते हैं। उन्होंने मुझे कहा था, मैं दिल्ली आऊँगा।'' चन्द्रमौलि ने जवाब में कहा।

हमें टैक्सी मिल गई और अब हम अपने घर की ओर जा रहे थे। लगभग दोपहर के एक बजे का समय था, जब टैक्सी घर के सामने रूकी। सड़के सुनसान पड़ी थीं और हमारे घर पर भी चहल पहल नहीं थी। तीन चार बार घण्टी बजाने के बाद कमला आँंखे मलते हुए बाहर आई शायद वह सारा काम करने के बाद सो गई थी। जिन सुस्त कदमों से वह घर के बाहर आई थी उनमें अब तेजी आ गई थी। उसके पीछे—पीछे ही उसकी माताजी विजया आ गईं वह दोनों मिलकर सामान उतारने लगी चन्द्रमौलि ने अन्दर आते ही अपने जूते उतारे और धम से बिस्तर पर लेट गया ,भाभीजी कपड़े बदलने के लिए अपने कमरे में चली गईं। भाई साहब सबसे भारी वाली अटैची को घसीटते हुए बैठक में पहुंचे। विजया चाय बनाने चली गई। मैंने अपना सामान खोलकर कमला को उसकी पंसद की लाल हरी चूड़ियाँ दीं वह उन्हें लेकर बहुत खुश हुई। विजया के लिए मेैें लाल बॉडर की साड़ी लाई थी वह भी मैंने कमला को दे दी। विजया चाय बनाकर हमारे पास बैठ गई और पूछने लगी ‘‘क्या—क्या देखा कलकता में?'' मैंने कहा ‘‘सब जगह की फोटो खींची है जब बनकर आ जाएगीं देख लेना।'' वह बोली ‘‘मैं तो बस अजमेर में घुमी हूँ।''

चाय पीकर हम सब गप्प—शप्प मार रहे थे तभी कमला ने दो पत्र लाकर मुझे दिए बोली ‘‘आपके पीछे से यह डाकिया दे गया थ।'' उनमें से एक तो टेलिफोन का बिल था और दूसरा पत्र भाई साहब का बिल था और दूसरा पत्र भाई साहब के नाम था। मैंने वह पत्र भाई साहब को दे दिया, वह पत्र देखते ही भाई साहिब खुशी से उछल पड़े और तेज कदमों से अपने कमरे की ओर बढ़ गये उनके पीछे भाभीजी भी चली गई। आखिर उस पत्र में ऐसा क्या था जिसे देखकर भाई साहब इतना खुश हो गये? वह पत्र पढ़ने के बाद फोन करने में व्यस्त हो गये ना जाने कितनी बार उन्होंने फोन किया।

कमला की माताजी अपने घर वापिस चली गईं। मेरे लिए अभी भी पहेली बना हुआ था वह खत। भोजन के बाद मैं अपने शयन कक्ष में चली गई खत के बारे में सोचते—सोचते स्वप्न लोक में चली गई।

अध्याय — 3

हर रोज का तरह चाय की चुस्कियों के साथ सुबह का अखबार पढ़ रही थी, तभी भाई साहब भी पास आकर बैठे गये उन्होंने कहना शुरू किया ‘‘कुछ दिल पहलने मैंने विदेशी कम्पनी में पत्र भेजा था वह स्वीकार हो गया है, मुझे जोहन्सबर्ग में नौकरी मिल गई है। कम्पनी ने हम तीनों के हवाई टिकट का प्रबन्ध कर दिया है हमें पन्द्रह दिन बाद ही जोहन्सबर्ग जाना होगा।'' मेरे पाँव के नीचे से जमीन खिसक गई भाई साहिब का परिवार विदेश जा रहा है। क्या पन्द्रह दिन बाद चन्द्रमौलि विदेश चला जाएगा? उसके यहाँ से चले जाने की मात्र कल्पना ही इतनी भयानक है तो वास्तविकता कैसी होगी? अब चाय नीरस और अखबार में छपी खबरें फीकी लग रहीं थीं। अपना दुःख बाँटने के लिए में कमला के पास पहुँची कमला पेड़—पौधेों को पानी दे रही थी, मैं वहाँ से वापिस आ गई चन्द्रमौलि अपनी छोटी—सी साईकिल चला रहा था, मैंने उसे गोद में उठा लिया। मेरी आँंखों से आंँसू बह रहे थे वह हैरानी से मेरी और देख रहा था मैंने बिना कुछ बोले उसे वापिस साईकिल पर बैठा दिया। मैं वापिस अपने कमरे में आ गई

आज अम्मा और बाबूजी बहुत याद आ रहे थे। लगभग चार वर्ष पहले एक रेल हादसे में हमने उन्हें खो दिया था। उनकी आत्मा भी ये सब देख कर कितना तड़पती होगी कि उनकी बेटी के ससुराल वालों को रेल हादसे के मुआवज्‌ो से मिली पूरी रकम चाहिए थी,और उनकी ये इच्छा पूरी ना होने पर नहीं इसके आगे मैं कुछ भी नहीं सोचना चाहती, मैं उन लम्हों को दूबारा नहीं जीना चाहती ।

पन्द्रह दिन भाई साहब और भाभीजी के लिए बड़े दौड़ धूप वाले थे। बाजार से तरह—तरह का सामान व कपड़े खरीदे सामान रखने के लिए बड़ी—बड़ी अटैचियां खरीदी गई और 11 जून आ गया, शाम को 8 बजे भाई साहब के परिवार को घर से निकलना था।

सुबह से भाई साहब और भाभीजी सामान अटैचियों में लगा रह थे। चन्द्रमौलि भी छोटे से अपने बैग में सामान ठूंँस रहा था। मेरे पास आया और बोला ‘‘बुआ आप अपना सामान क्यों नहीं लगा रहीं?'' मैंने कहा मैं यहीं रहूंँगी आप अब नये घर में रहोगे आपका नया स्कूल होगा और आपके नये दोस्त होंगे। उसने अपना सामान बैग से वापिस निकाला लिया और बोला ‘‘मैं भी यहीं रहूंँगा मुझे नये स्कूल में नहीं जाना, मुझे यह ही घर अच्छा लगता है। मुझे दूसरे घर में नहीं रहना। '' भाभी जी चन्द्रमौलि से बोलीं ‘‘वहांँ बहुत बड़ी रेलगाड़ी होगी'' वह बोला ‘‘नहीं मुझे कुछ नहीं देखना'' भाई साहिब बोले ‘‘वहाँं अच्छे अच्छे खिलौने मिलेंगे। लेकिन किसी के बहलाने से नहीं बहल रहा था। उसने रट लगा रखी थी, ‘‘मैं बुआ के साथ यहीं रहूँंगा।'' भाभाजी के चेहरे पर क्रोध बढ़ता जा रहा थ उन्होंने कमला के साथ उसे बगीचे में खेलने के लिए भेज दिया। वह एक घण्टे बाद बगीचे से वापिस आया लेकिन वापिस आकर भी उसका रवैया पूर्ववत था। वह मुझे कह रहा था, ‘‘बुआ आप भी चलों।'' मैंने उसे कहा, ‘‘आप अभी मम्मी—पापा के साथ जाओ मैं दूसरे हवाई जहाज से आपके पास आ जाऊँगी।'' शायद उसे मेरे ऊपर बहुत भरोसा था वह मेरी बात झट से मान गया ओैर अपना गुड्डा ‘पिना' लाकर मुझे दे दिया बड़े प्यार से बोला, ‘‘बुआ इसे आप अपने साथ ले आना।'' मैंने नम आँखों से झूठी मुस्कुराहट होंठों पर लाते हुए कहा ‘‘अच्छा।'' वह अपने बैग में सामान लगाने लगा। मुड़ कर वह मेरे पास आया और बोला, ‘‘हमारे वाले हवाई जहाज में ही चलिए ना।'' मुझे ना चाहते हुए भी झूठ बोलना पड़ा मैंने कहा, ‘‘आपके हवाई जहाज की सारी सीटें भर चुकी हैं इसलिए मुझे दूसरे हवाई जहाज से आना पड़ेगा।'' उस मासूम बच्चे ने मेरे इतने बड़े झूठ पर भी विश्वास कर लिया और वह खुशी—खुशी जाने के लिए तैयार हो गया। उस दिन तो समय को जैसे पंख लग गये थे दिन कब बीत गया पता ही नहीं चला रात के आठ बज गये थे और टैक्सी घर के बाहर खड़ी थी। भाई साहिब और कमला टैक्सी में सामान रख रहे थे भाभाजी अपनी अल्मारियाँ टटोल रही थी कि कोई जरूरी सामान तो नहीं रह गया। चन्द्रमौलि अभी तो मेरे साथ में खड़ा था, मगर कुछ ही क्षणों में उसके कोमल हाथों का अहसास मात्र मेरे हाथ में रह गया था। वह तीनों टैक्सी मे बैठ चुके थे। कमला और मैं टैक्सी से बाहर खड़े हाथ हिला रहे थे भाई साहब और भाभीजी ने जवाब में हाथ हिलाया लेकिन चन्द्रमौलि ने अपना मुँंह दूसरी ओर मोड़ लिया था। टैक्सी अपने पीछे काला धुँआ छोड़ती हुई अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे की ओर चल पड़ी, धुँए के गुबार में ही धूमिल हो गये थे मेरे जिन्दगी के सबसे अच्छे दिन। मैं ओर कमला थोड़ी देर तक बाहर ही खड़े रह गये घर के अन्दर घुसने का मन ही नहीं कर रहा था फिर भी सुस्त कदमों से घर के भीतर आये। घर में कितना सन्नाटा लग रहा था। हर चीज बहुत खामोश लग रही थी। दीवारें काटने को दौड़ रहीं थीं। इस खामोशी में चन्द्रमौलि की आवाज कानो में गूंँज रही थी, उसकी साईकिल कैसे चुपचाप खड़ी थी, कुछ देर पहले तो चन्द्रमौलि इस पर बैठकर घर में घूम रहा था। उसकी कहानियों की किताबें यहाँ—वहाँ बैठक में बिखरी हुई थीं। कुछ देर के लिए मैं मूर्ति बनी सोफे पर ही बैठी रह गई। कमला घर के बिखरे सामान को ठीक कर रही थी। ‘‘दीदी जॉहन्सबर्ग अजमेर से कितना दूर पड़ता है?'' कमला के इस सवाल ने मेरी उदासी को कुछ क्षण के लिए हर लिया। मुझे हल्की सी हँसी आ गई, कमला के लिए तो सारी दुनिया अजमेर के आस—पास ही थी। मेरे पास एक ग्लोब था उस पर साऊथ अफ्रीका दिखाकर मैंने उसे समझाया कि जॉहन्सबर्ग कितना दूर है।

रात का खाना खाने की इच्छा नहीं थी मैं जल्दी ही सोने चली गई रात भी करवटें बदल ही बीती सुबह दूध वाले ने घण्टी बजाई वह रोज की तरह तीन किलो दूध ही लाया था मैंने उससे दूध लेते हुए कहा कि कल से एक किलो दूध ही लाना। चाय बना कर अखबार वाले की प्रतीक्षा कर रही थी उसे भी कहना था कि वह कल से चार अखबार न डाले केवल एक हिन्दी का अखबार डाले।

बार—बार ऐसा धोखा हो रहा था, जैसे अन्दर से चन्द्रमौलि की आवाज आ रही हो, ‘‘बुआ मेरे साथ बॉल खेलो!'' ‘‘बुआ मेरी साईकिल को पीछे से धक्का मारो।'' ‘‘बुआ मेरे साथ बगीचे में चलो।'' चाय का प्याला खत्म करते ही मुझे रफलाई आ गई। समय काटे नहीं कट रहा था। उदासी कमला के चेहरे पर भी दिखाई दे रही थी। रोज की तरह काम करते हुए गुनगुना नहीं रही थी। घर की सफाई करने के बाद वह तरकारी खरीदने के लिए बाजार चली गई। घ मैं एकदम खामोश थी, इस खामोशी को तोड़ा फोन की घंटी ने, ट्रिन—ट्रिन—पूरे घर में गूँज रही थी पफोन की आवाज। मैंने जल्दी से फोन उठाया दूसरी ओर से भाई साहब की आवाज आई ‘‘शुभा हम जॉहन्सबर्ग पहुँच गये हैं।'' मैंने जल्दी से पूछा ‘‘चन्द्रमौलि कैसा है?'' उन्होंने कहा ‘‘ठीक है। अभी होटल में हैं हम लोग घर का प्रबन्ध होते ही घर का फोन नम्बर लिखवा दूँगा।'' मैंने ‘‘ठीक है।'' कहा। ‘‘अच्छा अब फौन रख रहा हूँ।'' उनके कहते ही फाने का संपर्क टूट गया। कुछ देर फोन के पास ही खड़ी रह गई सोच रही थी ‘काश चन्द्रमौलि की आवाज सुन लेती। बाहर बरामदे में आकर बैठ गई, आकाश में पक्षी उड़ रहे थे उन्हें देखकर लग रहा था काश मेरे भी पंख होते तो उड़कर चन्द्रमौलि के पास पहुंच जाती। सड़क पर गुब्बारे वाला जा रहा था चन्द्रमौलि अकसर उससे गुब्बारा लेता था वह कुछ देर हमारे घर के बाहर खड़ा रहा फिर आगे बढ़ गया। कमला बाजार से वापिस आई तो उसके साथ पड़ोस की गुप्ता आंटी भी थीं। मैं उनके साथ अंदर आई वह बोली ‘‘मुझे कमला से पता चला कि देवेश विदेश चला गया है। कभी भी कोई काम हो तो मुझे बता देना, खुद को अकेला मत समझना।'' मैंने हामी में सिर हिला दिया। थोड़ी देर इधर—उधर की बातें करने के बाद वह वापिस चली गईं।

मैं दोपहर के खाने के लिए बैंगन भून रही थी तभी मुझे हिचकियाँ आने लगीं कमला बोली ‘‘दीदी आपको चन्द्रमौलि शायद याद कर रहा है।'' मैंने खुशी से पूछा ‘‘सच'' वह बोली ‘‘हांँ देखना आप चन्द्रमौलि का नाम लोगी हिचकियाँ बन्द हो जाएगीं'' और सममुच वैसा ही हुआ। मुझे चन्द्रमौलि की याद सताने लगी मैं मन ही मन सोचने लगी मुझे जोहन्सबर्ग जाना ही होगा वहाँ जाने का किाराया कितना होगा? एयर इंडिया में फोन करके पता करती हूँ कि कितना होता है हवाई किराया वहाँ जाने और वापिस आने का। मैंने एयर इंडिया में फोन किया दूसरी ओर से एक महिला की आवाज आई जिसने पहले स्वागत में कुछ शब्द बोले और फिर पूछा ‘‘मैं आपकी क्या सहायता कर सकती हूँ।'' मैंने कहा, ‘‘मुझे दिल्ली से जोहन्सबर्ग का किराया पता करना है।'' महिला ने कहा ‘‘अवश्य'' उसके बाद वहाँ जो रकम बताई उसे सुनकर मेरे पाँंव तले से जमीन खिसक गई। इतनी बड़ी रकम! कैसे जुटा पाऊँगी इतने सारे रूपये चन्द्रमौलि से मिलने के लिए।

मेरे सपने चूर—चूर हो चूके थे, फिर भी मन में आशा की हल्की सी किरण जगमगा रही थी। अक्ल के घोड़े दौड़ा रही थी कि कैसे रकम इकट्ठी की जाए? बैंक में कुछ रूपये पड़े थे लेकिन उनका ब्याज तो घर खर्च के लिए चाहिये होगा यदि वह रूपये किराये पर खर्च कर दूंँगी तो घर का खर्च कैसे चलेगा? घर से बाहर नौकरी करने जाऊँ तो कहाँ? वह मेरे स्वभाव में नहीं था कभी नौकरी करने के बारे नहीं सोचा था। मैंने दुखी होकर कमला से कहा ‘‘कमला तू ही कोई रास्ता बता चन्द्रमौलि से मिलने का।''कमला भी सोच में पड़ गई।

आज पहली जुलाई थी सुबह से ही सड़कों पर चहल पहल शुरू हो गई थी, उस की वजह थी कि आज से ग्रीष्मावकाश के बाद स्कूल खुल रहे थे। विभिन्न वर्दियों में बच्चे सड़क पर पैदल चलते हुए या फिर साईकिल रिक्शा पर बैठे दिखाई दे रहे थे। 7 बजे चन्द्रमौलि का भी रिक्शा वाला आकर गेट पर पौं—पौं हार्न बजाने लगा मैं बाहर निकली और उसे बताया कि चन्द्रमौलि तो विदेश चला गया है। रिक्शे वाले ने पूछा,, ‘‘कितने दिनों में वापिस आयेगा?'' मैंने कहा,‘‘अब तो वह वहीं के स्कूल में पढेगा।'' रिक्शे वाला कुछ सोचता हुआ सड़क पर आगे बढ़ गया। मुझे फिर से यादों ने घेर लिया कैसी भाग दौड़ रहती थी, जब चन्द्रमौलि स्कूल जाता था, सबसे ज्यादा मुश्किल था उसे स्नान करवाना कितना जोर—जोर से रोता था और बाप रे दूध का गिलास देखते ही मेज के नीचे छुप जाता था। बालों में जितनी बार भी कँघा फेरो अपने हाथों से उन्हें फिर से बिगाड़ लेता था। और अगर अपनी साईकिल पर बैठ जाए तो उसे वहाँ से उठाने में सबको अपनी नानी याद आ जाती थी। उसको स्कूल के रिक्शे में बैठाने के बाद ऐसा लगता था मानों कोई मोर्चा जीत लिया हो। कमलाा भी स्कूल जाते हुए बच्चों को देखकर उदास खड़ी थी उसके साथ भी तो कितना हिल मिल गया था चन्द्रमौलि।

सोच रही थी भाई साहब ने अभी तक अपने घर का फोन नम्बर लिखवाने के लिए फोन नहीं किया जाकर फोन को देखती हूंँ कहीं खराब तो नहीं पड़ा रिसीवर उठाया तोे फोन सचमुच काम नहीं कर रहा था फिर याद आया कलकता से वापिस आने पर भाई साहब की नौकरी वाले पत्र के साथ टेलिफोन बिल भी था वो तो जमा करवाया ही नहीं,कहीं फोन कट तो नहीं गया?

अध्याय — 4

मैं फोन के सिलसिले में फोन के दफ्रतर चली गई। वापिस आते—आते दोपहर ढल चुकी थी। कमला मुझे खाना परोसकर बगीचे में झूला झूलने चली गई। जब वह वापिस आई तो मुझसे बोली ‘‘दीदी आप ट्यूशन पढ़ा सकती हो?''मेैंने पूछा, ‘‘किसे पढ़ाना है?'' ‘‘सामने नये किरायेदार आए हैं उनके लड़के को पढ़ाना है।'' कमला ने जवाब दिया। मैं थोड़ी देर सोच में पड़ गई फिर चन्द्रमौलि से मिलने का ख्याल आया। मैंने सोचा न तो मेरे पास अल्लादीन का चिराग है, न ही कोई जादू की छड़ी। रूपये तो मुझे अपनी मेहनत से इकट्ठे करने पडं़ेगे सो कमला को मैंने कह दिया, ‘‘हाँ उन्हें यहाँ आने के लिए कह देना।''

अगले दिन सांवला सा 8—9 साल का बच्चा अपनी माता जी का हाथ पकड़े हमारे घर दाखिल हुआ। मैंने पूछा, ‘‘क्या नाम है आपका?'' वह तपाक से बोला ‘‘सुबोध'' ‘‘कौन सी कक्षा में हो? सुबोध'' वह बोला, ‘‘पाँचवी'' लेकिन मुझे ठीक से समझ नहीं आया। मैंने अपना प्रश्न दोहराया तो उसने अपनी आवाज पर जोर देते हुए तीन बार बोला‘‘ पाँंचवी, पांँचवी, पाँचवी।'' मैं मन ही मन काँप गई ये मुझे पढ़ाने आया है या मुझसे पढ़ने? मैंने पूछा ‘‘कौन—कौन से विषय पढ़ने हैं?'' उसका उत्तर था ‘‘सारे'' ‘‘ठीक है कल से स्कूल से आने के बाद तीन बजे आ जाना।'' मैंने कहा। अब बारी थी उसकी माताजी के बोलने की उनकी भाषा से ऐसा लगा कि वह दिल्ली में आने से पहले किसी छोटे शहर में रहती थीं। वह बोलीं, ‘‘डेढ़ सौ रूपये देवेंगे महीने के।'' मैंने कहा, ‘‘मात्र डेढ़ सौ?'' वो अपने इरादे पर अटल थीं बोली, ‘‘हाँ इससे ज्यादा नहीं दे सकते हम!'' रूपये कमाने की शुरूवात तो करनी थी मैंने डेढ़ सौ रूपये लेना भी स्वीकार कर लिया।

अगले दिन तीन बजे घर की घंटी बजी कमला ने दरवाजा खोला सुबोध अपने हम उम्र के एक बच्चे के साथ अन्दर घुसता चला गया मैंने बीच रास्ते में रोक कर पूछा, ‘‘ये कौन है?'' वह बोला, ‘‘मेरा दोस्त समीर, ये भी पढ़ेगा।'' मैंने कहा, ‘‘इसके पैसे अलग से लगेेगें।'' समीर ने हामी में सिर हिलाया। मैंने पूछा, ‘‘समीर तुम अपनी मम्मी से पूछ कर यहाँ आये हो वो बोला, ‘‘हाँ'' मैंने कहा ‘‘अच्छा मैं पाँच मिनट में आती हूँ तुम अपनी गणित के किताब निकालो।'' मैं उन्हें बैठक में बैठा कर अन्दर चली गईं पाँच मिनट बाद लौटी तो उनकी गणित की किताबें तो बस्तों में आराम कर रही थीं और सुबोध चन्द्रमौलि की साईकिल को ताबड़तोड़ चला रहा था समीर एक सोफे से दूसरे सोफे पर बन्दरों की तरह छलांगें लगा रहा था। ‘‘अरे इस साईकिल से उतरो'' मैंने सुबोध से कहा वह बोला, ‘‘ये किसकी साईकिल है?'' मैंने कहा ‘‘एक छोटे बच्चे की है अगर ये साईकिल टूट गई तो वह बहुत रोएगा।'' समीर ने भी उछल कूद मचाना बन्द कर दिया। मैंने कहा ‘‘अपनी किताबें निकालों और बताओ स्कूल में क्या पढ़ रहे हो।'' उन्होंने अनमने मन से किताबें निकालीं लेकिन उनकी निगाहें बार—बार घर के सामान पर घूम रही थी। वह इधर—उधर के सवाल ज्यादा कर रहे थे ‘‘ये चीज किस काम आती?'' ये खिलौने किसके हैं? ये कहानी की किताब क्या हम अपने घर ले जाए ँ? आदि—आदि। एक घंटा उन्हें पढ़ाने के बाद मेरा सिर चकराने लगा।

कुछ दिन बाद आठवीं कक्षा की दो छात्रएं सुप्रिया और श्रवणी भी पढ़ने के लिए आने लगी। वे दोनों ही अनुशासन प्रिय थीं उन्हें पढ़ाना अच्छा लगता था उन दोनों की मित्रता को देखकर मुझे भी अपनी स्कूल की सहेलियों की याद आने लगी थी।

एक महीना सिर खपाई करने के बाद केवल 800 रूपये मेरे हाथ आये। धीरे—धीरे छात्रें की संख्या बढ़ती गई और मेरे पास रूपये भी बढ़ते गये, लेकिन अभी तो बहुत बड़ी रकम चाहिये थी मुझे जोहन्सबर्ग जाने के लिए।

एक के बाद एक महीने बीतते गये और चन्द्रमौलि से मिलने की मेरी इच्छा बढ़ती गई। ये बात अब से कुछ ग्यारह वर्ष पहले की है। आजकल तो बहुत से माध्यम हैं जिनसे हम कम खर्च में भी विदेश में रहने वाले मित्र व रिश्तेदारों से संपर्क स्थापित कर सकते हैं मगर तब ये सब बहुत मुश्किल था। टेलिफोन पर ट्रंककॉल बुक करवा कर भाई साहब से संपर्क हो पाता था, चन्द्रमौलि की तो फोन पर कभी आवाज भी नहीं सुन सकी।

नवम्बर पर महीना था बाजार दिवाली के त्यौहार के लिए सज गये थे। कमला और मैं भी दिवाली की खरीदारी करने बाजार गये। बाजार में बच्चे बड़ी उमंग से बम्ब, पटाखे, फूलझड़ियाँ, चक्री और हवाई खरीद रहे थे। मुझे हर बच्चे में चन्द्रमौलि दिखाई दे रहा था, कितना शौक था उसे आतिशबाजियों का। दिवाली से एक सप्ताह पहले और दिवाली के एक सप्ताह बाद तक हमारे घर प्रदर्शन होता था आतिशबाजियों का। अब ये सब किसके लिए खरीदते? कमला के लिए तो कुछ खरीद लेना चाहिए, मेरी दुःख की अग्नि में उसकी खुशियों तो नहीं झुलसनी चाहिए! ये सोच कर मैंने कुछ आतिशाबाजियाँ खरीद लीं। पूजा का सामान और घर की सजावट का भी कुछ सामान खरीदा। आखिर दिवाली का दिन भी आ ही गया। कमला सुबह से घर की सफाई में लगी हुई थी। मैं सजावट के काम में लगी थी। दिवाली के दिन हमारे घर बरसों से मूँग की दाल की कचौड़ी, मैथी की चटनी और आलू की सब्जी बनती है। उस दिन में हमने मिलकर वही बनाया। मैथी की चटनी की भीनी—भीनी खुशबू जब रसोईघर से बाहर फैल रही थी तो मुझे पिछली दिवाली की याद आ गई मैथी की चटनी की सुगंध से चंद्रमौलि रसोईघर में आ गया था और पूछ रहा था, ‘‘बुआ आज क्या बन रहा है?'' जब मैंने उसे बताया तो कहने लगा ‘‘मुझे अभी खाना खाना है।'' भाई साहब के घर में न जाने क्या बन रहा होगा? खाने की तैयारी करवाने के बाद में गुप्ता आंटी के घर मिठाई देने चली गई, वहाँ से लौट कर महालक्ष्मी के पूजन की तैयारी में जूट गई। यह मेरी जिन्दगी की पहली दिवाली थी, जब मैंने परिवार के किसी भी सदस्य के बिना पूजन किया मेरी मनोदशा क्या होगी शायद मुझे बताने की जरूरत नहीं।

भाई साहब के नम्बर पर ट्रंककॉल बुक करवाने के लिए टेलिफोन एक्सचेंज में फोन किया आपरेटर ने कहा ‘‘आप लाईन पर बने रहें मैं आपका संपर्क जॉहन्सबर्ग से करवा रही हूँ।'' फोन का संपर्क स्थापित होते—होते ही दूसरी ओर कुछ देर घण्टी बजी फिर भाई साहिब ने फोन उठाया आपरेटर ने उन्हें बताया कि उनके लिए दिल्ली से कॉल है। भाई साहब और मेरे बीच दिवाली की बधाई का आदान—प्रदान हुआ मैंने चन्द्रमौलि से बात करे की अच्छा जताई साहब ने बताया कि यहाँ तो अभी शाम के चार बजे हैं, विभूति और चन्द्रमौलि बाजार गये हैं।

कमला मुंडेर पर दिये सजा रही थी वह अपने लिए बाजार से लाल रंग का सलवार कुरता लाई थी। दीये और मोमबत्तियों की कतारें दीवारों के ऊपर सजा कर वह आजिशबाजी चलाने लग गई सब तरफ बम्ब पटाखे फूटने की धड़ा—धड़ आवाजें आ रही थी लेकिन मेरे दिल का सन्नाटा अमावस्या की रात के साथ गहराता जा रहा था।

त्योहारों की रौनक के बाद जिन्दगी की गाड़ी वापिस अपनी पटरी पर चलने लगी। सब कुछ समान्य चल रहा था कि एक दिन सुबोध की माताजी सुबोध के अर्धवार्षिक परीक्षा का नतीजा हाथ में लिए हुए घर में दाखिल हुई। मेरे सामने आते ही वह जोर—जोर से बोलने लगीं सुबोध तीन विषयों में फेल हो गया था जिसकी सारी जिम्मेदारी वह मेरे ऊपर डाल रहीं थीं। उन्होेंने कुछ अपशब्दों का प्रयोग किया वह अब तक दी हुई ट्यूशन फीस वापिस माँग रही थीं। मैंने उनसे उलझना उचित नहीं समझा और तब तक का हिसाब लगाकर उनके सारे रूपये लौटा दिये। उनके जाने के बाद मैं ठगी हुई सी सोफे पर बैठ गई । कमला मेरे लिए पानी का गिलास ले आई वह मुझे ढांढस बँधा रही थी और सुबोध की माताजी को बुरा—भला कह रही थी। उस उस दिन मेरा किसी को भी पढ़ाने का मन नहीं था सब को घर वापिस भेज दिया। सोच रही थी कि यह काम मुझसे नहीं किया जाएगा लेकिन फिर हरिवंशराय बच्चन की यह पंक्ति याद आयी ‘‘जब तक जीवन है संघर्ष है।'' और चन्द्रमौलि से मिलने का ख्याल तो मेरे दिल से जाता ही नहीं था। अगले दिन से फिर इस काम में जुट गई बस अन्तर यह था कि अब मैंने अपना बच्चों के प्रति जो नरम रूख था उसे थोड़ा कड़ा कर लिया था।

दिसम्बर का महीना था भाई साहब ने बताया कि वह कुछ दिन के भारत आ रहे हैं। मैं खुशी से झूम उठी लेकिन मेरे मन में ये जानकर बहुत उदासी छा गई कि चन्द्रमौलि नहीं आ रहा। चन्द्रमौलि के नाना नानी लंदन में रहते थे। भाई साहब ने बताया चन्द्रमौलि और विभूति क्रिसमिस की छुट्टियों में लंदन जा रहे है।

भाई साहब को मुख्य रूप से बम्बई में काम था, वह दिल्ली में केवल तीन—चार घण्टे के लिए लिए रूके थे।

नये साल की धूमधाम के साथ जनवरी का महीना शुरू हो गया था, कड़ाके की ठंड पड़ रही थी। एक दिन दरवाज्‌ो पर दस्तक हुई, मैंने दरवाजा खोला बाहर कमला की माताजी खड़ी हुईं थीं, वह उदास दिखाई दे रहीं थीं मैंने उन्हें अन्दर बुलाया वह अन्दर आ कर कालीन पर बैठ गईं और अपनी राजस्थानी भाषा मैं कमला से बोलीं कि वह अपना सामान बाँध ले। मैंने पूछा क्यों? वह बोलीं ‘‘इसके पिताजी जिस कारखाने में काम करते थे वह बन्द हो गया है, हम गाँव जा रहें हैं, आज शाम की गाड़ी से जाना है।'' मैं स्तब्ध रह गयी मैंने कमला की माताजी से हाथ जोड़कर विनती की कि कमला को यहीं छोड़ जाओ। उन्होंने साड़ी के पले से अपनी आँखों को पोंछते हुए कहा ‘‘गाँव जाकर इसकी शादी करनी हैं।'' मेरा गला रूँध गया था कमला भी चली जाएगी तो मैं अकेले कैसे रहूँगी? कमला भी उदास मन से अपना सामान जुटाने में लग गई। मैंने अलमारी में से रूपये निकाल कर गिने वह 2000 रूपये थे, मैंने कमला को वह रूपये दे दिये कमला बोली ‘‘रहने दो दीदी आपको चन्द्रमौलि से मिलना है।'' मैंने कहा ‘‘अरे पगली! ये तो फिर जुड़ जाए ँगें।'' वह सामान की पोटली बाँध चुकी थी। वह मेरे पास आकर बोली ‘‘दीदी जा रही हूँ पता नहीं अब कब मिलना होगा?'' विजया पहले ही चप्पलें पहन कर बाहर जा चुकी थी। कमला धीरे—धीरे अपनी माताजी के साथ मुख्य द्वार से बाहर आ गई थी। कमला अपनी माताजी के साथ हमारे घर के सामने बनी लम्बी सड़क पर पोटली संभाले धीरे—धीरे चल रही थी, मैं भी उसे हाथ हिला रही थी। कुछ देर बाद पेड़ के छुरमुट में वे दोनों ओझल हो गईं। मैं अन्दर आ गयी। मेरे घर की दीवारें गवाह है कि मैं उस दिन कितना फूट—फूट कर रोयी थी। घनी आबादी वाली दिल्ली में स्वयं को एकदम अकेला महसूस कर रही थी। क्यों एक इन्सान का दूसरे इन्सान से इतना गहरा रिश्ता जुड़ जाता है और क्यों वह एक ही झटके में टूट जाता है।

सर्दी के दिन थे शाम जल्दी ही घिर आई और फिर गहरा अंधेरा छा गया। घर के भीतर की खामोशी बहुत भयंकर लग रही थी। अपने ही कदमों की आहट विचित्र लग रही थी। कमला कितने सालों से हमारे घर काम कर रही थी कभी सोचा ही ना था कमला ये घर छोड़कर चली जाएगी। घर की हर खुशी और हर गम में हिस्सेदार रही थी कमला। अपने हृदय से उसकी यादें जल्दी नहीं मिटा सकूँगी। साये की तरह हमेशा मेरे साथ रहती थी। आँसू रूकने का नाम ही नहीं ले रहे थे, ठिठुरती ठंड में ना जाने कितनी बार अपना मुँह धोया था मैंने।

रात का खाना खाने और बनाने की इच्छा बिल्कुल नहीं थी। चाय के साथ केवल कुछ बिस्किट खाये थे मैंने। मैं अपने बिस्तरों पर चली गई कुछ देर बेमन से एक पत्रिका पढ़ी। सोने के लिए बत्ती बन्द की तो भयानक अँधेरे में न जाने कैसे—कैसे साये नजर आने लगे, मैंने बत्ती वापिस जला दी कड़कती ठंड में भी मैं पसीने से भीग गई थी। रजाई लेकर आँखे बन्द की तो रसोईघर से बर्तन गिरने की आवाज आई मैं बुरी तरह काँप रही थी बड़ी हिम्मत जुटा कर रसोईघर की तरफ गई वहाँ से एक मोटा सा चूहा भागा तब मेरी जान में जान आई। मैंने रसोईघर की बत्ती भी जला दी कमरे की ओर जा रही थी कि बिजली गुल हो गई अंधेरे में टटोलते—टटोलते रसोईघर पहुँची बड़ी मुश्किल से माचिस हाथ आई मोमबत्ती नहीं मिली। तीली जला कर बिस्तर तक पहुँची वहाँ रखी पत्रिका का एक—एक पृष्ठ जला कर कमरे को रोशन करती रही, रात भर बत्ती नहीं आई। बाहर चिड़ियों की चहचाहट से पता चला कि, सुबह हो गई है। कमरे में पत्रिका जलाने से धुँएं की गंध भर चुकी थी।

रजाई लेकर बैठक में चली गई वहाँ सोफे पर लेटी तो कुछ देर के लिए नींद आ गई।

उठकर चाय बनाई। अपने साथ कमला की भी चाय बनाती थी, उस दिन भी मैंने गलती से दो कप चाय बना दी, चाय छानने के बाद अपनी गलती का अहसास हुआ। मुझे हिचकियाँ आने लगी शायद कमला याद कर रही थी अब तो अपने गाँव पहुँच गई होगी कमला मैं सोच रही थी। शायद अब तक तो इस जन्म में कमला से मिलना न हो पायेगा। न तो उसके गाँव का कोई अता—पता है मुझे और ना ही उसका कोई दिल्ली में ठिकाना है, वह भी तो यहाँ का पता नहीं लिख कर ले गई उसकी तो किसी चिट्ठी की भी मैं प्रतीक्षा नहीं कर सकती। ऐसा लग रहा था कि पेड़ों के उस झुरमुट से निकल कर आएगी और कहेगी ‘‘दीदी मैं गाँव नहीं गई।'' मगर मेरा ये केवल एक सुनहरा सपना भर था। जब चार पाँच दिन निकल गये तब मैंने स्वयं को समझाया कि मेरी जिन्दगी से कमला का अध्याय समाप्त हो गया है।

अध्याय — 5

कमला के जाने के बाद कुछ दिन स्वयं ही घर का काम किया लेकिन कार्य का बोझ अधिक होने से स्वास्थ्य खराब रहने लगा। एक दिन गुप्ता आंटी के घर गई और उन्हें कोई काम वाली बताने के लिए कहा।

कुछ दिन बाद एक तीन पैंतीस वर्ष की महिला काम के लिए आयी उसे गुप्ता आंटी ने भेजा था उसने अपना नाम ‘शांति' बताया । बस वह नाम की ही शांति थी। उसने तो आते ही अंशाति मचा दी। रसोईघर में बर्तन करने घुसी तो जोर — जोर से आवाज लगान लगी ‘‘दीदी इधर आयो।'' मैं आश्चर्य से रसोई घर की ओर गई वहाँ जाकर मैंने पूछा, ‘‘क्या हुआ?'' तो वह बोली, ‘‘ये कांच के बर्तन आप साफ कर लो मैं कांच के बर्तनों को हाथ नहीं लगाती।'' मैंने कांच के बर्तन साफ कर दिये और अपने कमरे में आ गई। वह फिर मुझे जोर — जोर से पुकारने लगी। मैं गई तो वह बोली, ‘‘ये धुली हुई प्लेटे आप स्टैंड पर लगा दो।'' वह जब तक घर में रही मैं चौन से नहीं बैठ सकी। कभी पोचा माँग रही थी, कभी कूड़ा डालने के लिए थैली। उसके जाने के बाद मैंने राहत की सांस ली। रोज उसके आने से पहले ही मेरी शांति भंग हो जाती थी कि वह न जाने आकर क्या रंग दिखा एगी। एक महीने तक उसको झेला फिर मैंने उसको आने के लिए मना कर दिया। कुछ दिनो बाद दूसरी काम वाली मिली जिसका नाम था बंसती वह भी एक महीना ही काम कर सकी, क्योंकि वह दो दिन घर में बसंत की तरह खिली रहती और तीसरे ही दिन पतझड़ बन जाती अर्थात वह हर दो दिन बाद छुट्टी करके घर बैठ जाती थी। और कह देती थी कि वह बीमार थी। उसके बाद मिली राधा जो हर दिन काम करती थी आधा। दोपहर के दो बजते ही वह काम छोड़कर भाग जाती थी क्योंकि उसका बेटा बस ड्राईवर था और उसकी बस दो बजकर दस मिनिट पर हमारे घर के सामने से जाती थी राधा को उस बस में किराया नहीं देना पड़ता था फिर वह किसी दूसरी बस में क्यों बैठती? राधा को भी एक महीने से ज्यादा नहीं झेला गया।

अक्टूबर का महीना था गुलाबी ठंड पड़नी शुरू हो गई थी। दिन भर के काम से थककर धूप में कुछ देर के लिए बैठी थी सोच रही थी चन्द्रमौलि को देखे बिना एक वर्ष से भी अधिक का समय हो गया अब कैसा दिखाता होगा वह? घर की कॉल बैल बजी, कौन आया होगा इस समय? सोचकर दरवाजा खोलने गई। दरवाजा खोला तो बाहर इक्कीस बाईस वर्ष की एक महिला खड़ी थी जिसने नीला कुर्ता सलवार पहना था, जिसका रंग गोरा था, अाँखे छोटी छोटी थी, कद नाटा था, शरीर थोड़ा मोटा था ओैर बाल सुनहरी थे। हल्के — हल्के मुसकुरा रही थी मुझे देखते ही वह बोली ‘‘नमस्ते जी'' मैंने भी जवाब मैं ‘नमस्ते' कहा। वह बोली आपको काम वाली चाहिये? मैंने सहर्ष कहा ‘हाँ' वह बोली ‘‘महीने के कितने पैसे दोगे?'' मैंने कहा, ‘‘पहले अन्दर तो आ फिर बात करते हैं।'' वह मुस्कुराती हुई अन्दर आ गई। उसने पाजेब भी पहन रखी थी जो उसके चलने से छम — छम बोल रही थी, वह अपने सिर को बार — बार अपने दुपट्टे से ढक रही थी। सबसे पहले मैंने उसका नाम पूछा वह बोली ‘सर्बरी' मैंने कहा अच्छा ‘शर्वरी' वह बोली हाँ ‘सर्बरी' मैंने कहा बहुत अच्छा नाम है, किसने रखा है? वह हँसते हुए बोली ‘‘मुझे क्या पता मैं तो इत्ती सी थी जबसे सब मुझे ‘सर्बरी' कहते है'' आपका नाम क्या वह तपाक से बोली मैंने कहा ‘शुभा'। वह बोली ‘‘सुभा दीदी कितने लोग हैं आपके घर।'' मैंने कहा बस मैं ही यहाँ रहती हूँ वह बोली ‘‘फिर ये साईकिल और खिलौने किसके हैं?'' मैंने कहा, ‘‘ये मेरे भतीजे के हैं। अभी वह विदेश में है।'' ‘‘कब आवेगा?'' शर्वरी का प्रश्न था। मैंने कहा, ‘‘पता नहीं अभी तो हमारे भाई ने वहाँ नौकरी कर ली है।'' वह बोली, ‘‘इत्ते (इतने) बड़े घर में आपको डर नहीं लगता?'' मैंने कहा, ‘‘अब तो तू आ गई है ना अब नहीं लगेगा। रात को यहाँ ठहर जाएगी?'' मैंने पूछा। वह बोली, ‘‘हूम (यानि हाँ)मेरी लड़की को तो मेरी सास सँभाल लेती है मैं यहाँ रूक जाऊँगी'' उसने कहा ‘‘कितने साल की है लड़की?'' मैंने पूछा। वह बोली ‘‘ 2 साल की लड़की है और 4 साल का लड़का है। मेरा मर्द रंगाई का काम करता है उसको ठेकेदार दुबई ले गया है।'' मैंने पूछा ‘‘क्या वह यहाँ आता रहता है?'' वह बोली ‘‘नहीं जब से गया है कोई खत भी नहीं आया'' मैंने उसके लिए चाय बनाई। चाय पीने के बाद वह रसोईघर में चाय के प्याले धोने गई ओर वहाँ रखे सभी बर्तन साफ करके आ गई। वह बोली ‘‘मैं कल सुबह अपने कपड़े लेकर आ जाऊँगी।'' उसके जाने के बाद मुझे लगा पता नहीं वह कल आयेगी या नहीं।

लेकिन अगली सुबह ठीक नौ बजे शर्वरी अपने सामान और अपनी मुस्कुराहट के साथ हमारे दरवाजे पर खड़ी थी। बहुत दिनों के बाद मेरे चेहरे पर भी मुस्कुराहट आ गई शर्वरी मुझे काम वाली कम और अपनी सहेली ज्यादा लग रही थी। एक ही दिन में मैंने उसे चन्द्रमौलि और कमला की ना जाने कितनी बाँते बता दी। शर्वरी बहुत समझदार लगती थी। शायद उसका पति दो साल से दुबई में था इसलिए वह अपनो के विदेश चले जाने का दर्द जानती थी। वह मेरी बाते बड़े ध्यान से सुनती थी और अपनी अच्छी राय भी देती थी। वह हमेशा हँसती रहती थी पर कहीं न कहीं उसकी आँखों में भी एक दर्द नजर आता था कोई ऐसा दर्द जिसे, वह भी किसी के साथ बाँटना चाहती थी। ‘‘दीदी इस साल मैं भी अपने लड़के को स्कूल में भर्ती करवाऊँगी सारा दिन गली में खेलता रहता हैं।'' शर्वरी काम करते करते मुझ से बाँते कर रही थी। मैंने कहा ‘‘हाँ करवा देना।'' शाम के तीन बजे थे ट्यूशन वाले बच्चे पढ़ने के लिए आ गये थे। मैं उन्हें पढ़ा रही थी शर्वरी भी अपना काम समाप्त कर के वहीं बैठ गई बड़े ध्यान से सब कुछ सुन रही थी। बच्चों के चले जाने के बाद वह मुझे कहने लगी ‘‘दीदी मुझे थोड़ा पढ़ना लिखना सिखा दो , मेरा मर्द चिट्ठी भेजेगा तो पढ़ सकूँगी। उसको मैं भी चिट्ठी लिख सकूँॅंगी।'' मैंने कहा ठीक है। एक पैन और कॉपी उसको भी लाकर दे दी। खाली समय में वह बड़े मन से उस पर ‘क' ‘ख' ‘ग' लिखने लगी। एक दिन बाँतो ही बाँतो में मैंने उसे बताया कि मैं चन्द्रमोलि से मिलने के लिए रूपये इकट्ठे कर रही हूँ। वह बोली ‘‘बच्चों को पढ़ाने से इतना रूपया थोड़ी इकट्ठा होगा।'' ‘‘तो मैं क्या करूँ?'' मैंने उदासी भरे स्वर में उससे पूछा वह बोली ‘‘आपके घर में तीन कमरे ऊपर खाली पड़े है वहाँ लड़कियों का हॉस्टल बना लो।'' ‘हॉस्टल'? मैं सोच में पड़ गई। वह बोली ‘‘हाँ जहाँ मैं पहले काम करती थी वहाँ भी मेमसाहब ने लड़कियों का हॉस्टल खोल रखा था'' ‘‘तो तू सम्भाल लेगी हॉस्टल का काम'' मैंने उससे पूछा वह अपने ही अन्दाज में बोली हूम (यानि हाँ) उसकी ‘हूम' पर मैंने विश्वास करके हॉस्टल खोलने की तैयारी कर ली। समाचार पत्र में विज्ञापन दे दिया। कुछ दिन बाद हॉस्टल के लिए पहली लड़की आई, उसका नाम था ‘केतकी' वह गुजरात से थी और दिल्ली के पूसा इन्सटीट्यूट से कटिंग एंव टेलरिंग में डिप्लोमा करने आई थी। दूसरी लड़की केरल से थी जो यहाँ एमबीए करने आई थी नाम था गायत्री। तीसरी जयपुर से पूजा आई जो लॉ पढ़ रही थी। उत्तर प्रदेश से पारूल यहाँ बीएड करने आई थी। मेरा हॉस्टल एक छोटा भारत बनता जा रहा था लेकिन मुझे हैरानी अगली लड़की के आने पर हुई वह थाईलैंड से थी दिल्ली यूनीवर्सटी से एमकोम कर रही थी नाम था ‘नेतनपहा' नेतनपहा वैसे तो एक वर्ष पहले यहाँ पढ़ने आई थी लेकिन पहले वाला हॉस्टल उसे पसंद नहीं था। एक कमरा केतकी और गायत्री ने ले लिया। दूसरा कमरा पूजा और पारूल ने लिया। तीसरे कमरे पर नेतनपहा का कब्जा हो गया। शर्वरी अच्छा खाना बना लेती थी लड़कियाँ उसके खाने से खुश थीं। लेकिन एक दिन नेतनपहा आलू की सब्जी मेरे पास लाकर उस पर तैरते हुए घी को दिखाकर बोली ‘‘आई डोन्ट लाईक सो मच अॉयल।'' यानि मुझे इतना तेल पंसद नहीं। मैंने शर्वरी को समझाया कि नेतनपहा के खाने में उबली हुई सब्जियों में केवल काली मिर्च और नमक डाले दाल में भी मिर्च का तड़का बिना लगाये ही उसे दिया करे। इसके बाद नेतनपहा ने कभी खाने को लेकर शिकायत नहीं की। सभी लड़कियों में अच्छी खासी दोस्ती हो गई थी देर रात तक हँसी ठहाको की आवाज्‌ों आती थीं।

शुक्रवार का दिन था शाम को सभी लड़कियाँ हॅास्टल लौट आई, लेकिन नेतनपहा नहीं आई मुझे बहुत चिंता होने लगी मैं क्या करू ँ, किससे पूछूँ? शनिवार का भी पूरा दिन निकल गया अब तो मुझे डर लग रहा था। मैंने सोचा लड़कियाँ का हॉस्टल खोल कर मैंने बहुत बड़ी गलती कर दी है। शनिवार को जब सब लड़किया वापिस आ गई तब सब को मैंने नीचे बुलवाया और उनसे मैंने नेतनपहा के विषय में बात की मैं बहुत डर रही थी मेरे हाथों से पसीना छूट रहा था। सब लड़कियाँ भी चिंतित थी तभी पारूल को कुछ याद आया वह बोली ‘‘नेतनपहा दो दिन पहले मुझ से पूछ रही थी शिमला में इन दिनों गर्म कपड़े की जरूरत है या नही।'' मेरी थोड़ी जान में जान आई कि शायद नेतनपहा शिमला चली गई मैंने बाकि लड़कियों से कहा कि यदि उनका कहीं जाने का कार्यक्रम बनता है तो मुझे बता कर जायें। गायत्री हसते हुए बोली ‘‘कल मैं और केतकी सिनेमा जाएगें।'' पूजा कुछ उदास लग रही थी मैंने उससे उदासी का कारण पूछा तो वह बोली ‘‘मेरे घर से मनी आर्डर नहीं आया मुझे सोमवार तक फीस जमा करवानी है।'' मैंने पूछा कितने रूपये चाहिये? वह बोली ‘‘ दो हजार'' मैंने कहा ‘‘कोई बात नहीं मैं दे दूॅँगी मनी आर्डर आने पर तुम लौटा देना।'' सोमवार की शाम को नेतनपहा लौट आई। पारूल का अंदाज सही था, नेतनपहा शिमला में पढ़ रही अपनी बहिन ‘केतवतना' से मिलने गई थी। मैंने उसे समझाया कि वह यहाँ पर हमें बता कर जाये कि वह घर कब वापिस आएगी, हमें बहुत चिंता हो जाती है। इस वाक्य से वह इतनी प्रभावित हुई कि उसने ‘सॉरी' कह कर क्षमा याचना की और मुझे गले लगा लिया। उसने अंग्रेजी में यह भी कहा कि वह यहाँ घर जैसा अनुभव कर रही है। हम सभी एक परिवार की तरह हो गये थे। वह लड़कियाँ अपनी पेरशानी मुझ से बाँटने लगीं थीं और मैं भी अपनी समस्याए ँ उन्हें बताने लगी थीं। वह इस बात को जानती थी कि मुझे चन्द्रमौलि से मिलने जोहनसबर्ग जाना है इसलिए उन्होने हॉस्टल का किराया व अन्य खर्च का पैसा हमेशा समय पर दिया ।

होली का त्यौहार आ रहा था नेतनपहा को पानी के गुब्बारों से बहुत डर लगता था। उसनें एक सप्ताह पहले ही यूनीवर्सटी जाना छोड़ दिया था क्योंकि एक दिन जब वह बस में खिड़की की तरफ बैठी थी तो एक पानी का गुब्बारा उसके मुँह पर आकर लग गया था। वह हैरान थी कि यहॉँ का प्रशासन इस पर रोक क्यों नहीं लगाता। नेतनेपहा जितना अधिक डर रही थी हॉस्टल की लड़कियॉ उतना ही ज्यादा उसे होली के दिन रंगने की योजना बना रहीं थीं। होली के दिन सुबह नौ बजे से ही लड़कियों ने हो हुड़दंग मचाना शुरू कर दिया था। छत पर रंग से भरी बाल्टियॉँ लेकर सब लड़कियॉँ पहले से ही तैयार थीं, नेतनपहा जैसे ही अपने कपड़े सुखाने छत पर पहुॅँची लड़कियों ने उसे रंग में भिगो डाला। नेतनपहा बहुत तेज — तेज चिल्ला रही थी उसकी आवाज से अड़ोस — पड़ोस का ध्यान हमारे घर के तरफ केन्द्रित हो गया। बहुत देर तक एक दूसरको को रंग से पोतने का कार्यक्रम चलता रहा उन्होने मुझे भी नही छोड़ा। शर्वरी चार घंटे तक पलंग के नीचे छुपी रही। बाद में सबने नहा धोकर मिलकर खाना खाया और रात को संगीत की महफिल खूब जमी। यह शायद मेरी जिन्दगी की एक यादगार होली थी।

लेकिन कभी कभी खुशी के पीछे दबे कदमों से दुख कब आकर खड़ा हो जाता है पता ही नहीं चलता। होली का हुड़दंग हमारे अड़ोस — पड़ोस को रास नहीं आया, उन्होने हमारी बस्ती के प्रधान से शिकायत की कि यहाॅँ लड़कियॉँ देर रात तक संगीत बजा बजा कर शान्ति भंग कर रही हैं इसलिए इस हॉस्टल को बन्द करवाया जाए। प्रधान जी की तरफ से मुझे एक पत्र मिला जिसमें निवेदन किया गया था कि से हॉस्टल बन्द कर दिया जाये ताकि बस्ती की शान्ति भंग ना हो और चेतावनी दी गई थी कि ऐसा ना करने पर वह मेरे खिलाफ कानून का दरवाजा खटखटाएगें। मैंने जल में रहकर मगर से बैर करना उचित नहीं समझा और प्रधान जी को पत्र लिखकर उनसे लड़कियों की वार्षिक परीक्षा तक हॉस्टल चलाने की अनुमति मॉँगी जिसे उन्होने स्वीकार कर लिया।

एक बार फिर टूट गई थी मैं। अकेले मैं बैठ कर बहुत रोयी थी। संघर्ष, संघर्ष और सिर्फ संघर्ष क्या यही जीवन है?

मैंने हॅास्टल मे रहने वाली लड़कियों से कहा कि वह वार्षिक परीक्षा के बाद छुटिटयों में जब अपने घर जायेगी तो उन्हें यहाँ से अपना सारा सामान ले जाना पडेगा क्योंकि मुझे मजबूरी में यह हॉस्टल बन्द करना पड़ रहा है।

वार्षिक परीक्षा समाप्त होने के बाद एक बाद एक लड़कियों ने हॉस्टल को खाली कर दिया। हर किसी का हॉस्टल से जाना मेरे लिए दुःख भरा था, लेकिन सबसे ज्यादा दुःख देखने वाली विदाई नेतनपहा की थी क्योंकि वह विदेशी थी अैोर उससे दुबारा मिलने की कोई उम्मीद भी नहीं थी।

ऊपर की मंजिल के तीनों कमरे फिर से खाली हो गये अगर लड़कियॉँ वहॉँ कुछ छोड़ कर गइंर् थीं तो सिर्फ अपनी यादें। सब कुछ सपने की तरह समाप्त हो चुका था।

चन्द्रमौलि से मिलने की मंजिल बहुत दूर नजर आ रही थी। पास ही के स्कूल में अध्यापिका की नौकरी के लिए आवेदन किया कुछ दिनों बाद इन्टरव्यू के लिए बुलावा आया मैं इन्टव्यू देने गई मुझ से पहला सवाल किया गया कि ‘‘क्या मुझे पढ़ाने का अनुभव है?'' मैंने कहा, ‘‘नहीं'' तो मुझे जवाब मिला ‘‘एक अनुभवहीन अध्यापिका को नौकरी पर रखकर हम अपने छात्रें के भविष्य को खतरे में नहीं डालना चाहते।'' इस वाक्य से मैंने स्वयं को बहुत अपमानित महसूस किया और फिर किसी स्कूल में आवेदन पत्र नहीं भेजा।

कुछ दिनों के लिए गहरी निराशा में खो गई थी मैं लेकिन फिर से खुद को सम्भाल कर कुछ ओेैर कार्य करने के लिए सोचने लगी। चन्द्रमौलि से मैंने कहा था कि मैं दूसरे हवाई जहाज से आ जाऊँगी मुझे बार बार लगता था कि वह मेरी प्रतीक्षा देख रहा होगा। इसलिए मुझे उससे मिलने जरूर जाना है।

अध्याय — 6

दिन रात इसी उघेड़ बुन में रहती थी कि अब कोन सा ऐसा कार्य किया जाए जिससे कुछ आमदनी हो। कई योजनाए ँ मस्तिष्क में आती रहीं। फिर एक योजना को मैंने कार्य रूप दे ही डाला। मैं पुरानी दिल्ली का वह थोक बाजार जानती थी जहॉँ महिलाओं के सलवार सूट मिलते थे मैंने उन्हें थोक भाव में खरीद कर यहॉं खुदरा भाव में बेचने की ठान ली। एक दिन शर्वरी के साथ में बैंक से कुछ रूपये निकलवाकर चल पड़ी पुरानी दिल्ली की ओर। पुरानी दिल्ली रेवले स्टेशन की बस देखकर हम दोनों उस में चढ़ गये बस खचा — खचा भरी हुई थी। महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों को भी पुरूष ही हथियाए हुए थे। हॉलाकि बस में लिखा था यहॉँ धूम्रपान करना मना है। लेकिन किसे परवाह थी इसकी हाथों में बीड़ी दबाये धुअॉँ के गुब्बार छोड़ रहे थे कई पुरूष। कई लोग जान बूूझा कर धक्के देते हुए आगे निकल रहे थे। एक जेब कतरा मेरे पर्स में हाथ डालने में सफल हो गया था तभी पीछे बैठी हुई एक महिला का ध्यान उस पर चला गया वह जोर — जोर से चिल्लाई ‘‘बहिन जी आपके पर्स में हाथ डाला हुआ है।'' और वह जेबकतरा घबरा कर बस से उतर गया और ईश्वर की कृपा से मेरे रूपये बचे गये। रेलवे स्टेशन पर बस के रूकते ही सभी यात्री दरवाजे की ओर ऐसे लपके जैसे कि र्स्‌वप्रथम बस से उतरने वाले को विशेष पुरूस्कार दिया जाएगा। मैं और शर्वरी भी बस के दरवाजे की ओर धीरे — धीरे बढ़ रहे थे। बस से नीचे ऊतर कर हमने चॉँदनी चौक के लिए साईकिल रिक्शा लिया। हमारा घर दिल्ली के एक शान्त इलाके में है इसलिए शर्वरी पुरानी दिल्ली की भीड़ — भाड़ को देखकर ठगी सी रह गई। चाँदनी चॅाक में रिक्शे से उतर कर हम वहॉँ की भूल भूलैया जैसी गलियों में घुस गए चारों तरफ मेरी निगाह दौड़ रही थी कि कोई अच्छी से सलवार सूट की दुकान दिखाई दे जाए। चारों और लोग ही लोग थे कहीं हाथ से चलाने वाले ठेले, कहीं सिर पर सामान लादकर भागते हुए मजदूर जिसे वहॉँ की भाषा में ‘झल्ली वाला' कहते हैं और बड़ी संख्या में खरीदार। शर्वरी मुझ से पूछ रही थी ‘‘क्या यहॉँ कोई मेला लगा हुआ है? मैंने कहा यहाॅँ हमेशा ही मैला सा रहता है। दो तीन दुकानो से हमने अच्छी खरीदारी की वहॉँ से हम बाहर निकले और चाँदनी चॉक की मुख्य सड़क पर आ गये वहॉँ से शर्वरी को मैंने लाल किला दूर से दिखाया और बताया ये वहीं स्थान है जहाॅँ से प्रधानमंत्री आजादी वाले दिन राष्ट्र के नाम संदेश देते हैं। भला वहाँ जाकर हम पुरानी दिल्ली के मशहूर ‘पानी के पताशे'(गोल गप्पे) कैसे ना खाते? भल्ले पापड़ी की चाट खाने के बाद तो मुँह मे मिर्च से जैसे आग लग गई हो, इस आग को शान्त किया जलेबी वाले की मीठी — मीठी जलेबी ने। उसके बाद हमने ‘आम की बर्फ' का आनन्द लिया और ‘पराठें वाली गली' में पराठें की सबसे पुरानी दुकान से घर के लिए पराठें बँंधवा लिए। अब हम वापिस अपने घर की और जा रहे थे। शर्वरी भी बहुत दिनों से घर के अन्दर ही काम कर रही थी इसलिए यह भ्रमण उसके लिए अद्‌भुत था।

घर आकर सभी सलवार सूटों को दाम के हिसाब से अलग अलग किया और उन पर अधिकतम बिक्री मूल्य तय करके चिट लगा दी। घर के एक कमरे को खाली करके उसमें चारों तरफ सलवार सूट टाॅँग दिये। इश्तहार छापने वाले से बात की और इश्तहार छपवा कर आस — पास बॅँटवा दिये। इश्तहार का असर हुआ महिलाऍँ खरीदारी के लिए आने लगीं। शुरू — शुरू के दिनों मे बहुत उत्साह था इस काम को करने का इसलिए कभी थकान की परवाह नहीं की कुछ दिनों बाद जब महिलायें पचासियों सूट खुलवा कर देखती और मुश्किल से एक सूट लेती या फिर बिना कुछ खरीदे ही चली जाती तो ये काम बोझिल लगने लगा। कुछ दिनों बाद शिकायतें लेकर महिलाऍँ आने लगीं कि किसी सूट का रंग निकल गया या कपड़ा सिकुड़ गया। बहुत सी महिलाओं से सीले हुए सूट भी वापिस लेकर नए सूट उन्हें दिये लेकिन वह नुकसान हमने खुद ही भरा। मन इस कार्य से थोड़ा कुण्ठित हो चुका था लेकिन सामने एक लक्ष्य दिखाई दे रहा था जॉंहनस्बर्ग जाने का इसलिए बार — बार मन में उत्साह भरकर पूरी निष्ठा से इस काम को करती रही।

एक दिन एक इश्तहार मेरे घर आया जिसमें विज्ञापन था एक बडे से महिलाओं के सूट सलवार के शो रूम का जो मरे घर से काफी पास था। नया शो रूम खुलने के बाद हमारा काम बहुत मन्दा हो गया था यदाकदा ही कोई महिला सूट खरीदने आती थी और अन्त में मुझे वह काम बन्द करना पड़ा। अब हमने एक नया काम सोचा महिलाओं के नकली आभूषण रखने का थोक बाजार पुरानी दिल्ली में ही था। बड़े उतसाह के साथ आभूषण लाकर उन्हें सुसज्जित ढंग से हमने लगाया 1 इश्तहार छपवा कर बाँटे महिलाऍं बड़ी संख्या में आने लगीं। प्रन्द्रह दिन में हमारे 75 प्रतिशत गहने बिक गये। आमदनी को देखकर मे बहुत प्रसन्न थी लेकिन शीघ्र ही यह प्रसन्नता लुप्त हो गई गहनों की शिकायत लेकर महिलाऍँ आने लगीं शायद हमारी खरीदारी में चूक हो गई थी हम उच्च श्रेणी के गहने समझ कर जो सामान खरीद लाए थे वे निम्न श्रेणी के थे टूटे हुए गहने देकर ग्राहक आने पैसे वपिस मॉँगने लगे। अपनी साख बचाने के लिए हमनें कुछ ग्राहकों को नये गहने और कुछ को पैसे वापिस कर दिए।

जिन्दगी साँप सीढ़ी के खेल की तरह चल रही थी जो पैसे हमने सफलता रूपी सीढ़ी पर चढ़पर कमाये थे वह गहनों रूपी साँप ने निगल लिए थे। टूटे हुए गहनों के मोती यहॉँ वहॉँ बिखरे हुए थे और मेरा भी जॉहनस्बर्ग का सपना टूट कर बिखर गया था।

न जाने और कितनी परिक्षाओं से गुजरना होगा? मेरी हिम्मत बिलकुल टूट चूकी थी। चारों और केवल घना काला अंधेरा दिखाई दे रहा था कहीं से आशा की कोई किरण नजर नहीं आ रही थी।

कितने वर्ष बीत गये चन्द्रमौलि से बिना मिले मैंने हिसाब लगाया तीन वर्ष ओर तीन महीने बीत चुके थे। कैसे बीत गये तीन वर्ष? मैं तो तीन घन्टे भी उसके बिना नहीं रह सकती थी। स्वंय को बहुत विवश पा रही थी। शर्वरी पर मेरी निगाह पड़ी वह फर्श पर बिखरे मोतियों को एकत्र करके एक डिब्बी में डालती जा रही थी शायद इसी आशा से की फिर इससे नये गहने बन जाएगें। उसे देखकर मैंने भी अपने बिखरे सपनों को फिर से समेट लिया।

एक बार फिर सोचने लगीं कोई नया काम जिससे थोड़ी आमदनी हो सके। समाचार पत्र में विज्ञापन देखा ‘‘घर बैठे 10,000 रूपये कमायें।'' जिज्ञासा बढ़ी वहाँ के पत्ते पर पत्र डाला कुछ दिन बाद जवाब आया। काम जो हमें करना था वो उस पत्र में लिखा हुआ था। उस पत्र के अनुसार बाल पाईन्ट पैन के अलग अलग भागों को जोड़कर बॉल पैन को एक डिब्बे में डालना था और फिर बारह बारह पैन गिनकर उन्हें बड़े डिब्बे में डालना था। सोचा यह काम भी करके देखे लेते हैं। पत्र का जवाब मैंने भेजा और यह कार्य करने की इच्छा दिखाई। एक सप्ताह बाद एक व्यक्ति दो पहिया स्कूटर पर सामान लेकर आ गया और हमने सारा सामान घर में रखवा लिया वह तैयार सामान को एक सप्ताह बाद ले जाने का वादा करके वह चला गया। पूर सप्ताह उस समाना को जोड़ कर बॉल पाईन्ट पैन बनाते, काम कठिन और उबाऊ था। पूरा एक महीना काम किया दस हजार तो नहीं केवल तीन हजार ही कमा सके। कई महीनों की मेहनत के बाद पच्चीस हजार रूपये जमा हो पाये। एक बार बॉल पाईन्ट वाला आया, तैयार समाना ले गया और जब वह दूसरी बार लौट कर आया तो वह दूसरा काम लाया था। अचार, मुरब्बे और पापड़ बनाने का। शर्वरी इस काम में बहुत होशियार थी उसने अपनी मौसी के लड़की शैला को भी बुलवा लिया। यह काम ज्यादा सफलता से होने लगा।

कुछ दिनों बाद हमने अपना सामान और पैकिंग मशीन खरीदकर अपना कार्य स्वतन्त्र रूप से करना शुरू कर दिया। अब हमें मुनाफा होने लगा। लगभग दो वर्ष यह काम करने के बाद मेरे पास पर्याप्त धन हो गया था, जॉहनसबर्ग जाने के लिए मेरे पाँव जमीन पर नहीं पड़ रहे थे।

एक दिन मैं गुप्ता अॉंटी से मिलने गई और उन्हें मैंने अपनी इच्छा से अवगत कराया। उन्होने पास पोर्ट बनवाने और विदेश जाने की सभी औपचारिकतायें पूरी करने में मेरी मदद करने का आश्वासन दिया।

मैं खुशी से घर लौट आई। बस अब मुझे इन्तजार था उस दिन का जब सभी औपचारिकताऍँ पूरी हो जाऍँगी और मेरे हाथ में हवाई जहाज का टिकट होगा जॉहनस्बर्ग जाने का।

कैसा लगेगा इतने वर्ष बाद चन्द्रमौलि से मिलना? कहीं खुशी से मरी आँखे तो न भर आएगीं? उसका गुड्डा ‘पिना' उसे दूँगी। कितनी सारी बातें हो गई हैं। उसे सुनाने के लिए। उसके पास भी बहुत सी बातें होगीं मुझे बताने के लिए। मेरा सपना तो पूरा होने जा रहा है, काश! शर्वरी के पति का भी कोई संदेश आ जाता। हर रात यह सोच कर आँखे मूँद लेती थी कि कल का सूरज अवश्य ही खुशी का संदेश लाएगा।

अध्याय — 7

वर्षो के इन्तजार के बाद आज मेरे हाथ में जॉहनस्बर्ग जाने का टिकट आ चुका था गुप्ता अंकल ने सारा प्रबन्ध कर दिया था। बस चार दिन बाद मुझे जाना था। मैंने भाई साहब को ट्रंककॅाल बुक करवा के अपनी यात्र के विषय में अवगत कराया। मैं पन्द्रह दिन के लिए जा रही थी। शर्वरी भी बहुत प्रसन्न दिखाई दे रही थी। बहुत ही उत्साह के साथ मेरी तैयारी करवा रही थी ‘‘लाओ दीदी आपके कपड़े इस्त्री करवा लाती हूँ'' शर्वरी बोली, ‘‘हाँ—हाँ मैंने खुशी से कपड़े निकाल कर उसे दे दिये।'' ‘‘अभी से सामान लगा रही हो?'' शैला ने पूछा, मेरे तो पॉँव में जैसे घूॅँघरू बॅँध गये थे मैंने कहा, ‘‘हॉँ पहले से सामान लगाना ठीक रहता है अंत समय पर भागा दौड़ी करना मुझे पंसद नहीं।'' ‘‘शैला जरा ये अलमाली के ऊपर से अटैची उतार दे।'' मेरे कहने पर शैला ने स्टूल सरकाकर अटैची उतार दी ‘‘कितनी धूल जम रही है।'' कहते हुए शैला धूल झाड़ने लगी। शर्वरी इस्त्री के कपड़े देकर वापिस आ चुकी थी। मैंने अपने सैंडिल कपड़े से पौछंते हुए शर्वरी से पूछा ‘‘यह सैंडिल बुरे तो नहीं लगेगें?'' शर्वरी बोली ‘‘दीदी नये खरीद लो ना'' मैंने अपना पर्स दिखाकर सवाल किया ‘‘यह तो ठीक है ना?'' शैला ने उसके कोने में एक छेद की तरफ उॅँगली दिखाते हुए कहा यह तो फट रहा है।'' यह भी नया लेना पड़ेगा? मैंने सोचा। शर्वरी कुछ शरमाते हुए बोली ‘‘मेरे आदमी का भी फोटो ले जाओ कहीं उसका कुछ पता चले तो देख लेना।'' ‘‘अरे तू कितनी भोली है शर्वरी इस देश को छोड़कर जाने वाले सब एक ही जगह थोड़ी ना जाते हैं।'' दुबई और जॉहनस्बर्ग तो बहुत दूर — दूर हैं। मेरा जवाब सुनकर शर्वरी थोड़ी उदास हो गई। मैंने उसे से कहा कि ‘‘ईश्वर की कृपा से तुझे जल्दी ही अपने पति के विषय में कोई समाचार मिलेगा।'' इसी बीच भाई साहब का फोन आ गया उन्होने कुछ दवाईयाँ मंगवाइंर् थीं। दो दिन बाजार से खरीदारी में बीते और तीसरा दिन अपना समान बाँधनें में। आखिर वह दिन आ ही गया जिस दिन मुझे जॉहनस्बर्ग जाना था। रात को दो बजे की उड़ान थी सुबह उठते ही मन प्रसन्नता से भर गया शर्वरी को सारी बॉँते समझा रही थी कैसे गैस का सिलंडर नया लगाना पड़े तो ऐसे लगाना, किसी अजनबी के लिए दरवाजा मत खोलना, रात को सोने से पहले सारे दरवाजे जॉँच कर सोना। मेरी बाँते सुनकर शर्वरी कुछ गम्भीर हो गई उसे लग रहा था मैं उस पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी छोड़ कर जा रही हूॅँ। मैंने शैला को नुक्कड़ वाले हलवाई से 2 किलो नमकीन मट्ठी व दो किलो तोषे ले आने के लिए कहा मुझे लगा रहा ये चीजे तो जोहनस्बर्ग में नहीं मिलती होगीं।

दिन बीता और शाम ढली और रात हो गई मैंने ग्यारह बजे टैक्सी को अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे जाने के लिए बुलवाया था टैक्सी घर के बाहर खड़ी थी शैला और शर्वरी मेरा सामान बरामदे में रख रही थीं टैक्सी का ड्राईवर बरामदे से सामना उठा कर टैक्सी में रख रहा था। मैं ईश्वर को नमन करके अपना पर्स उठाकर टैक्सी में बैठ गई शैला और शर्वरी मुख्य द्वार पर खड़ी हुई थीं मै। अपने दुपट्टे को संभालते हुए मैं टैक्सी में बैठ गई। मैंने शैला और शर्वरी को हाथ हिलाया। ड्राईवर ने मुझसे पूछा ‘‘और कोई नहीं आयेगा?'' मैंने कहा नहीं चलो ड्राईवर ने अपनी टैक्सी मे लगी दुर्गा माॅँ की मूर्ति के चरणों को हाथ लगाया फिर दोनों हाथों को अपने कानों पर लगाया और टैक्सी चलानी शुरू कर दी। मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि मैं कोई स्वप्न देख रही हूँ या सचमुच चन्द्रमौलि से मिलने जा रही हूंँ। दिल्ली के ट्रेफिक को चीरती हुई सी टैक्सी तेजी से बढ़ रही थी इंदिरा गॅँाधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अडडे की ओर, मेरे दिल की धड़कनें तेज होती जा रही थीं। पहली बार अकेले यात्र कर रही थी थोड़ी सी घबराहट भी हो रही थी। हवाई अडडे पर टैक्सी पहुँच गई, ड्राईवर ने एक ट्रोली खींचकर मेरा सामान उस पर रख दिया मैंने निर्धारित किराये सेे बीस रूपये अधिक किराया ड्राईवर को दिया क्योकि मेरा ह्नदय बहुत आनन्दित हो रहा था मुझे लग रहा था ये खुशी में सबके साथ बाँटू। सुरक्षा कर्मी को टिकट दिखाकर में ट्राली लेकर हवाई अडडे के भीतर घुस गई। एयर इंडिया के काऊंटर पर अपना सामान जमा करवा कर मैं अपना सीट नम्बर लेने के लिए खिड़की पर गई और वहाँ से अपना सीट नम्बर लिया। व्यक्तिगत जांच करवाने के बाद मैं वहाँ रखी हुई कुर्सी पर बैठ गई। मेरी उड़ान जाने में अभी कुछ समय बाकी था। वहाँ बहुत से देशी ओर विदेशी यात्री थे, बहुत चहल पहल थी कोई अपने परिवार के साथ जा रहा था तो कोई अकेला। एक जर्मन की महिला मेरे साथ आकर बैठ गई थोड़ी देर उसके साथ मेरी बात चीत चली फिर जर्मन की और जाने वाली उड़ान की घोषणा हो गई वह महिला मुझे अंग्रेजी में ‘‘विदा'' बोलकर चली गई। उसके तुरन्त बाद ही मेरी उड़ान संख्या घोषित हो गई और यात्रियों से बारी बारी से हिन्दी व अग्रेंजी में अनुरोध किया गया कि वह हवाई जहाज की और प्रस्थान करे। मैं भी अन्य यात्रियों के साथ बाहर निकल कर हवाई जाहज की ओर ले जाने वाली बस में बैठ गई। बस विमान के पास जाकर रूकी, एक बड़ा सा विमान पंख फैलाये खड़ा था धारती पर उसके आगे लाल पीली बत्तियॉं बार बार जल और बुझ रही थीं मैं भी बस से उतर कर तेज कदमों से विमान में चढ़ गई। परिचारिकों ने सभी यात्रियों की तरह मेरा भी अभिनन्दन किया और मेरी सीट की ओर इशारा करते हुए कहा ‘‘आपकी यात्र शुभ हो'' मैं उन्हें धन्यवाद कर कर अपनी सीट पर बैठ गई। धीरे — धीरे विमान पूरा भर गया विमान के आगे और पीछे के दोनो दरवाजे बन्द कर दिये गये, पायलट कैबिन में जा चुका था। विमान परिचारिका ट्रे में रूई के पैकेट और टॉफियाँ रख कर सभी यात्रियों को बाँट रहीं थीं। मैंने भी रूई का पैकेट खोलकर रूई अपने कानों में ठूँस लीं थी। टॉफी मैंने नहीं खोली वह मैंने चन्द्रमौलि को देने के लिए अपने पर्स में रख ली थी। सीट पेटिका बाँधने की घोषणा हो चुकी थी। मेरी पेटिका कुछ सख्त थी। जिसे बाँधने में विमान परिचारिका ने मेरी मदद की। कुछ देर विमान पटिका पर दौड़ने के बाद विमान टेड़ा हुआ और उसका का अगला भाग आकाश की ओर हो गया। जमीन से धीरे — धीरे ऊपर होता हुआ विमान ऊॅँचे आसमान पर पहुँच चुका था। सीट पेटिका उतार कर सब आराम से पैर फैलाये यात्र का आनन्द उठा रहे थे। विमान में भोजन व पेय पदार्थ बाँटा जा रहा था मैं भी हर चीज का मजा ले रही थी। कुछ घंटो बाद घोषणा हुई कि हम भारत की सीमा छोड़ने वाले हैं। विमान आगे बढ़ता रहा और भारत की सीमा दूर — दूर और बहुत दूर हो गई लेकिन जॉहनस्बर्ग पास — पास और बहुत पास आता जा रहा था। लम्बे लेकिन आनन्द भरे सफर का अंत निकट आ गया था विमान में घोषणा हो चुकी थी कि वह जॉहन्सबर्ग के अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर उतर रहा है। हवाई जहाज धीर — धीरे धरती की ओर जा रहा था और मैं कल्पना की उड़ान भर सांतवे आसमान पर पहुँच गई थी। चन्द्रमौलि दौड़ कर मेरे पास आयेगा मुझ से लिपट जायेगा। पन्द्रह दिन खूब मस्ती करेगें। लेकिन पन्द्रह दिन बाद जब मैं वापिस आऊँगी तब तो वह बहुत रोयेगा। न जाने क्या — क्या सोच रही थी मेरा ध्यान तब टूटा जब विमान को धरती पर रूकते समय हल्का सा झटका लगा। मैं जॉहनस्बर्ग की धरती पर थे। सभी यात्री विमान से नीचे उतर कर मिनी बस में बैठ गए थे। मैं भी उन्ही का अनुसरण कर रही थी अपने देश से दूर विदेश मे हर चीज भिन्न दिखाई दे रही थी सब कुछ पराया — पराया सा लग रहा था बस दूर खड़ा एसर इंडिया का विमान अपना लग रहा था। सामान लेने और सभी औपचारिकताएँ पूरी करने के बाद मैं आनी ट्राली लेकर बाहर आ रही थी बाहर पक्िंत में खड़े लोगो मेे भाई साहब दूर से ही दिखाई दे रहे थे। मैं तेज कदमो से उस और बढ़ गई। भाई साहब बहुत खुशी से गले मिले। भाई साहब के ड्राईवर ने मेरा सामान उठाकर कार में रखना शुरू कर दिया। ‘‘चन्द्रमौलि नहीं आया?'' मैंने पूछा वह बाले ‘‘वह तो स्कूल जाने की तैयारी कर रहा होगा।'' ओ! मेरे घर पहुँचने तक वह स्कूल जा चुका होगा में कुछ निराश हो गई। पूरे रास्ते हम भारत और जाहनस्बर्ग के विषय में बातें करते रहे। लगभग चालीस मिनट कार के सफर तय करने के बाद कार एक खूबसूरत घर क आगे रूक गई भाई साहब के उतरने के बाद मैं उतरी तब तक भाभाजी भी बाहर आ चुकी थीं वह गले लगकर बोलीं ‘‘अकेले आने की हिम्मत कर ही ली आपने।'' मैंने हँसते हुए कहा हाँ चन्द्रमौलि की बहुत याद आती थी। वह बोलीं ‘‘अभी तो स्कूल चला गया एक बजे तक आयेगा।'' हम सब घर के अन्दर चले गये। भाभीजी कॉफी बना कर लाई हम सब कॉफी पीते हुए बात चीत करते रहे। थोड़े देर बाद भाई साहब ने कहा कि उन्हे अॉफिस जाना है। मेरी आँखो में नींद घुल रही थी मैं स्नान करके कुछ देर के लिए सोने चली गई आँख खुली तो ग्यारह बजे थे अभी भी दो घंटे थे चन्द्रमौलि के आने में। भाभीजी अपना घर दिखा रहीं थी उसी बीच भाई साहब का फोन आया कि वह चन्द्रमौलि को स्कूल से ले आएगें। समय काटे नहीं कट रहा था। एक बजने में दस मिनट थे में घर के बरामदे में चन्द्रमौलि के इन्तजार में खड़ी हो गई। मौसम बहुत अच्छा था एकदम नीला आकाश था कहीं — कहीं रूई के ढेर जैसे सफेद बादल दिखाई दे रहे थे। एक बजकर पन्द्रह मिनट पर कार घर के आगे रूकी भाई साहब के साथ एक लम्बा सा लड़का कार से उतरा मैं सोच में पड़ गई यह कौन भाईसाहिब के साथ आया है चन्द्रमिौल तो कहीं दिखाई नहीं दे रहा है?

भाई साहिब उस लड़के के साथ अन्दर चले आ रहे थे मेरे पास आने पर भाई साहिब बोले ‘‘इंडिया से बुआ जी आईं हैं चन्द्र! नमस्ते करो।'' उस लड़के ने मुझे ‘‘नमस्ते'' कहा। क्या यही चन्द्रमौलि है? मैं विस्मित सी उस की तरफ देख रही थी। वह शरमाता हुआ अपने कमरे में चला गया। थोड़ी देर बाद वह कपड़े बदलकर बाहर आया और भाभीजी से खाना मांगने लगा। मैं ने उसकी और देखकर कहा इधर आओ चन्द्रमौलि मुझसे बात नहीं करोगे? वह एक तरफ खड़ा मुस्कुराता रहा। मैंने कहा जब तुम भारत में पढ़ते थे तब स्कूल से आकर सब बातें मुझे सुनाते थे अपना गृह कार्य पूरा किये बिना खाना नहीं खाते थे। क्या तुम्हे कुछ भी याद नहीं ? वह मुस्कुराता रहा। मैंने अपने सामान से उसका गुड्डा ‘पिना' उसे निकाल कर दिया। मैंने कहा इसे तुम मेरे पास छोड़ आए थे मैंने तुम से वादा किया था मैं इसे लेकर जॉहनस्बर्ग आऊँगी। वह थोड़ी देर ‘पिना' को देखता रहा। ऐसा लगा रहा था शायद वर्तमान के झरोखे से उसे धुँधला अतीत नजर आ रहा है। वह ‘पिना' को लेकर अपने कमरे में चला गया। शाम को भाभीजी मुझे वहा ँ की स्थानीय मार्किट दिखाने के लिए ले गई। चन्द्रमौलि हमारे साथ नहीं गया था उसे पढ़ाई करनी थी।

भारतीय मूल के लोगों का वहाँ अच्छा खासा समूदाय था अगले दिन भाभीजी के साथ में कुछ भारतीय लोगों से मिलने गई। शनिवार और रविवार की भाई साहब और चन्द्रमौलि की छुट्टी थी हम लोग समुद्र तट पर गये, मैं सोच रही थी अब तो शायद चन्द्रमौलि मुझसे बातें करेगा लेकिन वह पूरा समय भाईसाहब के साथ ही रहा। मैं सोच रही थी कह ाँ चला गया मेरा चन्द्रमौलि जो एक क्षण के लिए भी चुप नहीं होता था मुझसे सवाल पर सवाल पूछता रहता था। चार दिन हमने डरबन में बिताये फिर हम जॉहनस्बर्ग आ गये। चन्द्रमौलि अपने स्कूल में फिर से व्यस्त हो गया। भाई साहब अपने काम काज में व्यस्त हो गये। भाभीजी के साथ मैंने जॉहनस्बर्ग के कई स्थलों पर भ्रमण किया। एक दिन भाभीजी ने भारतीय मूल के लोगों को जो उनके घनिष्ठ हो गये थे अपने घर खाने पर बुलाया भाभाजी की रसोई में भारतीय चाट पकोड़े बन रहे थे, छोले भटूरे बनाने में मैंने भी सहयोग दिया। मैं भारत से मैथी की चटनी भी ले गई थी जो चन्द्रमौलि को बहुत पंसद थी मैंने चन्द्रमौलि से पूछा ‘‘इसकी खशबू से कुछ याद आता हेै।'' वह बोला ‘नहीं'। मैंने पूछा कमला याद हैं तुम्हें? वह हमारे घर काम करती थी, जब वह पोचा लगाती थी तो तुम उसकी पीछे से चोटी खींच लेते थे। वह बोला, ‘‘नहीं मुझे कुछ याद नहीं'' जब भी मैं उससे बात करने की कौशिश करती वह किसी न किसी बहाने से उठकर अपने कमरे में चला जाता था। मेरा दिल टूट सा गया था मैं अपनों के बीच में स्वयं को पराया सा अनुभव कर रही थी।

सुख और दुख की आँख मिचौली के साथ प्रन्द्रह दिन बीत गये मेरा वापिस भारत आने का दिन आया गया था। उस दिन सुबह जल्दी उठ गई थी अपना समान बाँधने के लिए। नौ बजे घर से हवाई अड्डे के लिए निकलना था। भाई साहब का ड्राईवर पौने नो बजे आ गया था वह टैक्सी में सामान रख रहा था मैं चन्द्रमौलि के कमरे में गई मैंने पूछा ‘‘आज स्कूल नहीं गये'' वह बोला ‘‘आज हमारी छुट्टी है।'' ‘‘कभी भारत आना'' कहते हुए मेरा गला रूँध गया था लेकिन मैं बोलती जा रही थी, ‘‘हर छुटटियों में लंदन जाते हो एक बार तो वहाँ भी आओ जहाँ तुम्हारा जन्म हुआ है। तुम्हारी लाल रंग की छोटी सी साईकिल अभी भी वैसी की वैसी रखी है। तुम्हारी गैंद, तुम्हारी पुस्तकें, तुम्हारे खिलौने उन्हें में किसी को हाथ लगाने नहीं देती। दीवारों पर तुम्हारी बनाई हुई टेढ़ी मेढ़ी ड्राईंग भी है उन पर मैंने पुताई भी नहीं करवाई।'' इससे आगे नहीं बोल पाई मेरी आँखे आँसुओं से भर गईं थीं। मैं कार में आकर बैठ गई थोड़ी देर में भाई साहब भी कार में आ गये। बरामदे में भाभीजी के साथ चन्द्रमौलि भी खड़ा था। मुझ में साहस नहीं था मैं मुड़कर चन्द्रमौलि को देखकर हाथ हिलाती। कार अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे की तरफ बढ़ चुकी थी। मैं टूटे सपने और भारी दिल के साथ अपनी दुनिया में लौट रही थी। भाई साहब हवाई अड्डे पर मुझे छोड़ने के बाद अॉफिस के लिए चले गये। सब तरफ विदेशी ही विदेशी दिखाई दे रहे थे। अपना सामान जमा करवाने के बाद में सीट नम्बर लेने के लिए गई, मैंने आफिसर से अनुरोध किया कि मुझे विमान में खिड़की की तरफ की सीट चाहिए मेरे अनुरोध को स्वीकार कर मुझे खिड़की की तरफ की सीट दे दी गई। मुझे बस अब उड़ान की सूचना होने का इन्तजार था वहाँ बैठना बहुत नीरस लग रहा था। मेरी उड़ान संख्या समय से एक घन्टा देरी से चल रही थी मैं बिल्कुल बोझिल हो चुकी थी। समय बीता और विमान में चढ़ने के लिए यात्रियों से अनुरोध किया गया। मैं भी विमान की और जा रही थी। विमान में बैठने पर कुछ भारतीय चेहरे दिखाई दिए। विमान जॉहनस्बर्ग की भूमि को छोड़ने के लिए तैयार हो चुका था। मैं खिड़की से बाहर देख रही थी विमान पटिका पर तेजी से दौड़ता हुआ आसमान की तरफ उड़ चला। चन्द्रमौलि का देश पीछे छूटता जा रहा था मेरी आँखों से अश्रु टपक रहे थे। विमान में दिए गये पेय पदार्थ व भोजन में मेरी रूचि नहीं थी। मेरी भूख, प्यास सब समाप्त हो गई थी। विमान नदियाँ, समुद्र, पहाड़ व बस्तियों को पार करता हुआ भारत की ओर बढ़ रहा था और मैं देख रही थी जोहन्सबर्ग व भारत की दूरी। समझ नहीं पा रही थी कि कौन—सी दूरी तय करना ज्यादा कठिन है, दो देशों के बीच की या दो दिलों के बीच की। सफर बहुत लम्बा और उबाऊ लग रहा था। सोच रही थी अपनी दुनियाँ में तो वापिस जा रही हूँ मगर अब किस सपने को लेकर जीऊँगी। घण्टो के उदासी भरे सफर के बाद विमान भारत की सीमा में घुस चुका था पता नहीं अपनों के पास लाया था या अपनों से दूर?

विमान से उतरकर अपना सामान लिया उसे ट्राली में रखा व सुस्त कदमों से बाहर आ रही थी, बाहर बड़ी संख्या में लोग एक—दूसरे से मिल रहे थे। कुछ ड्राईवर नामों की तख्तियाँ लेकर खड़े थे तो कुछ के हाथों में गुलदस्ते व फूल थे। एक ड्राईवर के हाथ में अपने नाम की तख्ती देखकर मैं चौंक गई भला मुझे कौन लेने आया है? सामान की ट्राली लेकर ड्राईवर के पीछे—पीछे चल दी ड्राईवर एक टैक्सी के बाहर रूका मैंने अन्दर की ओर देखा अन्दर गुप्ता आंटी बैठी थी मुझे देखती वह मुस्कुराई और बोली ‘‘भारत में स्वागत है।'' मैंने पूछा आपको मेरी वापिसी की तारीख याद थी? वह बोली ‘‘अरे हम तो एक एक दिन गिन रहे थे। मैं तो उस दिन भी तुम्हें हवाई अड्डे छोड़ने आती लेकिन मैं बीमार थी।'' मैं सारा सामान सम्भालने के बाद टैक्सी में बैठ गई और टैक्सी हवाई अड्डे को छोड़ हमारे घर की ओर चल दी। पूरे रास्ते गुप्ता आंटी से जोहन्सबर्ग के विषय में बातें होती रही। गुप्ता आंटी का घर मेरे घर से थोड़ा पहले आ गया था वह टैक्सी से वहीं उतर गई। मैं उनका धन्यवाद देकर अपने घर की ओर बढ़ गई। शर्वरी और शैला मेरी प्रतीक्षा में पहले से ही बाहर खड़ी थी। टैक्सी के रूकते ही वह दोनों उत्साह से उस की ओर बढ़ी। मेरे चेहरे पर भी हल्की सी मुस्कुराहट थी। हम सब ने मिलकर टैक्सी से सामान उतरा और टैक्सी वाले का हिसाब कर हम अन्दर आ गये। शर्वरी ने मुझसे पूछा ‘‘चन्द्रमौलि से मिल आईं दीदी।'' मैंने कहा, ‘‘हाँ'' मेरी आँंखों में आंँसू झलझला रहे थे। शर्वरी ने शायद इसके आगे कुछ भी पूछना उचित नही समझा। मैंने ट्रंककॅाल बुक करवा कर अपने पहुँचने की सूचना भाई साहब को दे दी। वह सारा दिन अटैचियों से सामान निकाल कर सही जगह रखने में ही बीत गया। थकान के कारण रात को बहुत गहरी नींद आई। सुबह उठकर बरामदे में बैठी थी दिल्ली शहर रोज की तरह सुबह से दौड़ रहा था सड़कों पर स्कूल के बच्चे आंँखों में भविष्य के सपने लिए जा रहे थे। दफ्रतरों में काम करने वाले स्त्री पुरूष तेजी से अपनी मंजिल की ओर जा रहे थे। कारों, बसों, साईकिलों, स्कूटरों और रिक्शों का शोर सड़कों पर शुरू हो गया था। लेकिन मेरे हृदय में अजीब सा सनाटा था। जिन्दगी निरर्थक लग रही थी। जीने के लिए सामने कोई लक्ष्य दिखाई नहीं दे रहा थ। तभी कॉल बैल की आवाज आई मैंने समझा दूध वाला है मैंने गेट खोला तो सामने एक महिला खड़ी मुस्कुरा रही थी उसकी शक्ल जानी पहचानी लग रही थी मैं सोच में पड़ गई। ‘‘अरे कमला!'' मुझे अपनी आँंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था। पहले से मोटी हो गई थी। ‘‘अन्दर आ मैंने कमला को बुलाया।'' हम दोनों बरामदें में लगे झूले पर बैठ गए, हम पहले भी ऐसे ही बेैठते थे। कुछ देर तो कमला चुप रही फिर वह बोली ‘‘दीदी मेरी शादी हो गई है और मेरी एक लड़की है। मेरा आदमी बहुत शराब पीता है और मुझे और मेरी लड़की को मारता पीटता है। मैं उसे छोड़ आई हूँ। मेरे माता—पिता दिल्ली में काम ढूंढने के लिए आ गये है।'' मैं गुमसुम उसकी ओर देख रही थी तभी शर्वरी चाय लेकर आ गई, कमला उसे देख कर कुछ उदास हो गई बोली ‘‘मैं तो यहाँ काम के लिए आई थी लेकिन आपने तो किसी और को रख लिया है।'' मैंने कहा ‘‘अरे नहीं हमने तो यहाँ बहुत काम बढ़ा लिया है, हम आचार,मुरब्बे, पापड़ और बड़िया बनाने लग गए है। तेरे लिए भी बहुत काम है तू कल से आ जाना।'' कमला खुशी—खुशी वापिस चली गई। अगले दिन कमला सुबह ग्यारह बजे आ गई वह अपने हाथों में एक पत्र लिए हुए थी, वह उसे मुझे देते हुए बोली ‘‘ये डाकिया दे गया है।'' मैंने पत्र खोला, अरे आज तो मेरा जन्मदिन हैे ये कार्ड किसने भेजा होगा? मैं सोचने लगी। जल्दी से खोल कर भेजने वाले का नाम देखा। भेजने वाले का नाम अंग्रेजी में लिखा था ‘चन्द्रमौलि' जिसे देख कर मेरी अाखों से आँसू निकल कर कार्ड पर गिर चुके थे, जो सूरज की रोशनी में झिलमिला रहे थे और वहीं से आशा कि एक किरण पफूट रही थी शायद एक दिन लौट आएगा ‘चन्द्रमौलि————शुभा का चन्द्रमौलि।'