Pradip Krut Laghukathao ka Sansar - 3 books and stories free download online pdf in Hindi

Pradip Krut Laghukathao ka Sansar - 3

लघु कथाओं का संसार

प्रदीप कुमार साह

विनीत निवेदन

सांसारिक कोई वस्तुए कृति अथवा विचार स्वतरू संपूर्ण कदापि नहीं हो सकते. किन्तु उपरोक्त सभी वस्तुओं निमित्त सतत विकासए परिष्कार और कलुषित तथ्यों के परिमार्जन की वृति सदैव अपेक्षितए अनुकरणीय और प्रकृति प्रदत्त वरदान होते हैं. तभी वह सर्व सुखायएसर्व हितायोपयुक्त बन सकते हैं. इस निमित्त सभी सुविज्ञ पाठकों से उनके बहुमूल्य विचार अपेक्षित एवं सादर आमन्त्रित हैं—प्रदीप.


अविवेक (कहानी)

सम्बंधित प्राधिकार द्वारा सरकारी सेवा में नियुक्ति प्राप्त करने हेतु रोहित से उसका किसी सक्षम पदाधिकारीए जिसकी न्यूनतम अहर्ता कार्यपालक दंडाधिकारी से कम न हो द्वारा निर्गत चरित्र प्रमाण पत्र समर्पित करने कहा गया. प्राधिकार के समक्ष उक्त प्रमाण पत्र समर्पित करने हेतु शेष अवधि कम दिनों की थी. किन्तु उक्त प्रमाण पत्र प्राप्ति निमित्त आवेदन प्रक्रिया के सम्बंध में उसे (रोहित को) पर्याप्त ज्ञान न था. इस वजह से उसका चिंतित होना स्वभाविक था.

कहते हैं कि कोई व्यक्ति जब मुसीबत में होते हैं तब आत्मजनों का स्मरण ज्यादा आता है. उनमें घनिष्ठ मित्रों के स्थान सर्वोपरि हैंए क्योंकि वह मित्र ही होते हैं जो अपने पहाड़ से दुरूख को धुल और मित्र के राई से दुरूख को पर्वत सा समझकर सहायता हेतु सदैव तत्पर रहते हैं. उस संबंध में उसने भी अपने घनिष्ठ मित्र मोहित से बात की. परंतु यह क्याए उसकी बातें सुनकर तो मोहित ठँठाकर हँस पड़ाएष्अरे यारए इतनी सी बात के लिए इतना परीशान !ष्

रोहित बड़े मासूमियत से मोहित के मुँह तकने लगा. कोई अल्प ज्ञानी जिस तरह अविवेक पूर्वक स्वयं को बड़ा(ज्ञानी) प्रदर्शित करने हेतु सदैव उद्यत रहता है अथवा वृक्ष का फल रहित डाली जिस तरह हमेशा उतंग रहता हैए ठीक उसी तरह मोहित मित्र—धर्म भुलकर दंभ में सीना तानकर रोहित से उक्त प्रमाण पत्र प्राप्ति हेतु आवेदन प्रक्रिया का अपना अल्प ज्ञान बढ़़ा—चढ़़ाकर बखान करने लगा. तदुपरांत अपने प्रमाण पत्र का छायाप्रति रोहित को पकड़ा कर बोला कि उस प्रारूप के अनुरूप अपना प्रमाण पत्र टंकित (टाइप) करवाकर आवेदन पत्र में संलग्न कर दे.

मोहित के सलाह और मदद पाकर रोहित भी मन ही मन बहुत खुश हुआए मानो उसने अपना प्रमाण पत्र अभी प्राप्त कर लीये. कहते हैं न कि बरसात के मौसम में अल्प जल राशि पाकर ही नाले और क्षुद्र नदी(नद) अपनी सीमाएँ लांघने लगती हैए उसी तरह अविवेकी मनुष्य अल्प ज्ञान पाकर ही संतुष्ट और मदमस्त हो जाते हैं. यदि आंशिक सफलता भी मिल जाये तो फिर क्या कहनेघ् आवेदन प्रक्रिया के पहले चरण (स्टेप)में मोहित के कहेनुसार सफलता पाकर वही स्थिति रोहित के हुए.

उस दिन अनुमण्डल दफ्तर के कार्यावधि के प्रथम पाली (फस्ट अॉवर)में रोहित सक्षम पदाधिकारी के पास अपना आवेदन करने पहुँचा. वहाँ आकर उसने अनुमण्डल कार्यालय के चक्कर लगाये. किंतू उसे कुछ भी समझ में न आया. इस समय वहाँ भीड़—भार न बराबर थीए किन्तु वह जिसे कुछ पूछना चाहता वह स्वयं ही काफी व्यस्त होता. थक—हार कर रोहित एक स्टाम्प वेंडर के पास आकर रुका. स्टाम्प वेंडर एक नजर उसे प्रश्नात्मक निगाह से देखा किंतु पुनरू अपने व्यवसाय में व्यस्त हो गया. तब उसने ही वेंडर से पूछाएष् भाई साहबए एस.डी.एम.साहब के इजलास कहाँ हैघ्ष्

ष्क्योंघ् क्या काम हैघ्ष् स्टाम्प वेंडर प्रतिप्रश्न किया.

ष्मुझे चरित्र प्रमाण पत्र हेतु आवेदन करने हैँ.ष् रोहित स्टाम्प वेंडर से बताया.

स्टाम्प वेंडर अपने दुकान पर कागजात खरीदते एक अधिवक्ता महोदय के तरफ इशारा करते हुए रोहित से कहाएष्इनसे मिलोएसर तुम्हें सब कुछ बता देंगें.ष्

रोहित से इतना बताकर स्टाम्प वेंडर अपने काम में निमग्न(व्यस्त)हो गया. रोहित उस अधिवक्ता महोदय से अपने कागजात दिखाने लगा. सब कुछ देखने के बाद अधिवक्ता बोलेएष्आपको चरित्र प्रमाण पत्र प्राप्ति हेतु साहब (कार्यपालक दण्डाधिकारी)के नाम एक आवेदन पत्र लिखने होंगे जिसके साथ इन पेपर को संलग्न करना है. इसके साथ ही अपना एक चरित्र प्रमाण पत्र भी टंकित करवा कर आवेदन पत्र में संलग्न करना होगा.ष्

बगल के टेबल के तरफ इशारा करते हुए अधिवक्ता पुनरू बोलेएष्अपना प्रमाण पत्र उस टाइपिस्ट से टंकित करवा सकते हो. आवेदन पत्र स्वयं लिखेंगें या मुझसे लिखवाना चाहेंगेंघ्ष्

अधिवक्ता के प्रश्न सुनकर रोहित वैसा भाव—भंगिमा बनाया मानो वह अधिवक्ता से आवेदन पत्र लिखवाने की अपेक्षा तो रखता हैए किन्तु कहने में संकोच हो रहा. यद्यपि रोहित शब्दों में कुछ बोला नहीं तथापि अधिवक्ता वैसा ही समझ रोहित के आवेदन पत्र लिख दीये. आवेदन पत्र लेकर रोहित जाने लगा तो अधिवक्ता बोलेएष्मुझे सुबह के सगुण हेतु दस रुपये का सगुण तो देते जाओ.ष्

ष्किस बात के पैसेघ्ष् रोहित पलटकर पूछा.

ष्तुम्हारे आवेदन पत्र लिख दिये नघ्ष् अधिवक्ता थोड़े हैरान होकर बोले.

ष्मैं आपको आवेदन पत्र लिखने थोड़े न बोला था. वह तो मैं स्वयं ही लिखता पर बीच में बिना कुछ कहे आपने ही लिख दिये....ष् रोहित तमक कर बोला.

ष्मैं तुमसे अपना फीस थोड़े न मांग रहा हूँ. मैं तो बस सुबह के सगुण हेतु दस रूपये कह रहा हूँ. तुम्हारी जो स्वयं की इच्छा हो उतना ही सगुण कर दो.ष् अधिवक्ता सकुचाते हुये बोले. किन्तु रोहित इतने पर भी कुछ भी देने तैयार न हुआ. अंततरू अधिवक्ता निराश होकर रोहित से कहारूष्वेंडर के ब्लैंक पेपर के पैसे तो उसे दे दो.ष्

रोहित स्टाम्प वेंडर को ब्लैंक पेपर के दो रूपये दे दिये और अधिवक्ता वहाँ से यूँही चले गये. वहाँ मौजूद किसी भी व्यक्ति को रोहित के वैसे व्यवहार उचित (सही) प्रतीत न हुआए किन्तु रोहित को इन सब से क्या लेना—देना था. अब रोहित टाइपिस्ट के पास आया और उससे अपना चरित्र प्रमाण पत्र टाइप कर देने बोला. टाइपिस्ट पूछाएष्क्या टाइप करवाने हैंए टाइपिंग मैटर लिखकर लाये हैंघ्ष्

रोहित अपने बैग से मोहित के दिये हुए चरित्र प्रमाण पत्र की छायाप्रति निकालकर नये प्रमाण पत्र में नाम—पता बदलने हेतु टाइपिस्ट को समझाने लगा. सबकुछ सुनने और वह प्रारूप देखने के बाद टाइपिस्ट रोहित से बताया कि वह प्रारूप अधूरी है और वैसे प्रारूप वहाँ चलन में नहीं है. उसने रोहित को किसी उचित जानकर से प्रमाण पत्र लिखवाकर लाने की सलाह दी.किन्तु रोहित उसके सलाह नजर अंदाज कर दिये. फिर टाइपिस्ट रोहित के बिलकुल कहेनुसार ही प्रमाण पत्र टाइप कर दीये.

अब रोहित के पास चरित्र प्रमाण पत्र निर्गत करवाने हेतु आवेदन पत्र में पर्याप्त संलग्नक कागजात थे. अपना आवेदन पत्र जमा देने हेतु वह कतार में खड़ा हो गया. काफी देर बाद जब आवेदन जमा करने की उसकी बारी आई तो आवेदन जमा लेने वाले कर्मचारी उसके आवेदन पत्र में बिना कार्बन कापी के चरित्र प्रमाण पत्र पाये. इस वजह से उसने आवेदन पत्र जमा लेने से मना करते हुए कहा कि वह दुबारा से आवेदन पत्र कार्बन कापी युक्त चरित्र प्रमाण पत्र के साथ जमा करे.

रोहित भागा—भागा टाइपिस्ट के पास वापस आया और दुबारा अपना कार्बन कॉपी युक्त चरित्र प्रमाण पत्र टाइप कर देने कहा. किन्तु अभी टाइपिस्ट के पास काम ज्यादा थाए इसलिए वह तुरंत टाइप करने में अपनी असर्थता जताई. यद्यपि रोहित के बार—बार अनुरोध करने पर उसने समय निकाल कर उसके प्रमाण पत्र दुबारा टाइप कर दीये. वह अपना आवेदन जमा करने गया तो वहाँ उसे दुबारा कतार में खड़ा होना पड़ा. खैर इस बार कर्मचारी ने उसके आवेदन पत्र जमा ले लीये और स—हिदायत उसे साहब के सामने हाजिर रहने के नियत समय बता दिये.

रोहित वहीं रुककर अपने नाम के पुकार का इंतजार करने लगा. नियत समय पर एक—एककर नाम पुकार होने लगा. जब रोहित के नाम का पुकार हुआ तो वह साहब के सामने उपस्थित हुआ. साहब उसके आवेदन का निरक्षण करने लगे. किन्तु आवेदन में संलग्न चरित्र प्रमाण पत्र आधे—अधूरे तथ्यों और गलत प्रारूप में अंकित थे. अतरू उन्होंने रोहित के आवेदन खारिज कर दिये.

आवेदन खरिज होने से रोहित बहुत परीशान हुआ. बाहर आकर वह कर्मचारी से अपनी मजबूरी बताते हुए अपना प्रमाण पत्र निर्गत करवाने हेतु एउनके सख्ती से मना करने के वावजूद सिफारिश करने का बारंबार आग्रह करने लगा. लेकिन अंततः कर्मचारी ही उसे समझाने में सफल हुये कि उसे सही प्रारूप में ही प्रमाण पत्र संलग्न करने होंगे तभी प्रमाण पत्र निर्गत हो सकेगा.

अब रोहित फिर से टाइपिस्ट के पास आया. उसके रुआँसा सूरत देखकर इस बार तो टाइपिस्ट भी चौंक गया कि अब क्या हुआ. रोहित उसे सबकुछ बताकर एक बार फिर अपना चरित्र प्रमाण पत्र जल्दी में सही प्रारुपानुसार टाइप कर देने का आग्रह किया. टाइपिस्ट को उसके अवस्था पर तरस आ रहा था. किन्तु उसके पूर्व कृत्य को समझते हुए जी कड़ी कर बोलाएष्उसके लिये तो आपना प्रमाण पत्र किसी जानकर से लिखवाकर लाना होगाए मै तो केवल लिखी हुई बातें (मैटर)ही टाइप कर सकता हूँ.ष्

टाइपिस्ट की बातें सुनकर रोहित के घिग्घी बन्ध गए. कचहरी के आज का कार्यावधि घँटे भर में पूरा (समाप्त)होने वाला थाएऔर कोई भी अधिवक्ता अव्यस्त नजर नही आ रहे थे. उसकी बेसुध सी हालत देखकर अंततः टाइपिस्ट को ही दया आई. उसने रोहित से कहाएष्यदि तुम कहो तो मैं अपने अल्प ज्ञानानुसार तुम्हारा प्रमाण पत्र टाइप कर दूँए पर आगे मेरी कोई जिम्मेवारी न होगी.ष्

रोहित के पास अन्यान्य उपाय न थे. उसने टाइपिस्ट से उन्ही के शर्त पर अपना प्रमाण पत्र टाइप कर देने का आग्रह किया. टाइपिस्ट उसके प्रमाण पत्र टाइप कर दिये. अब रोहित फिर से अपना आवेदन जमा करने गया. उन्ही कर्मचारी ने रोहित के आवेदन का निरक्षण किया. इसबार सबकुछ सही थाए किन्तु तब तक उस दिन के कचहरी का कार्यावधि पुर्ण (समाप्त) हो चूका था.इसलिए उससे अपना आवेदन दूसरे दिन आकर जमा देने कहा गया. रोहित बोझिल कदम से वापस लौट गया.

वह बेहद मुशिकल में फँस गया. आज किसी भी तरह उसके चरित्र प्रमाण पत्र निर्गत हो नहीं सकता था और उधर प्राधिकार के समक्ष प्रमाण पत्र समर्पित करने हेतु मात्र दो दिन की अवधि शेष बची थी. तब तक कचहरी से काफी भीड़ छँट चूका था. टाइपिस्ट भी राहत से बचे हुए काम निपटा रहा था. तभी उसकी नजर रोहित पर पड़ा तो उसने आवाज देकर उसे पास बुलाकर उसके आवेदन के सम्बंध में पूछा. रोहित उसे सबकुछ बताते—बताते लगभग रो पड़ा. टाइपिस्ट उसके अविवेक पर अफसोस जताया और उसे ढ़ाढ़़स भी बंधाया. टाइपिस्ट बोलाएष्किसी व्यक्ति के पास बहूत सी (बातों की) जानकारी हो सकती हैए किन्तु किसी बात की समुचित जानकारी तभी आ सकता है जब किसी(उस)कार्य में वह व्यक्ति पूर्णतया मशरूफ हो जाते हैं. वैसे ही व्यक्ति के प्रैक्टिकल नॉलेज होते है और वैसा ही ज्ञान समय पर स्वयं और दूसरों के काम आते है. इस बात का स्मरण प्रत्येक व्यक्ति को पुर्णतरू विवेक पूर्वक रखनी चाहिये.ष्

थोडा ठहर कर टाइपिस्ट पुनरू बोलाएष्वास्तव में जिवन में विवेक ही मनुष्य के सच्चे मित्र हैं. प्राधिकार के समक्ष प्रमाण पत्र समर्पित करने हेतु तुम्हारे पास अब भी दो दिन के वक्त हैं और महान्‌ लोगों के कथन हैं कि मनुष्य को अंततरू आशा और हिम्मत का त्याग नही करना चाहिये.ष् टाइपिस्ट की बातों से रोहित को प्रेरणा अब मिल चूका था.

(सर्वाधिकार लेखकाधीन.)

ष्

प्रारब्ध (कहानी)

कौआ अपना आहार (चुग्गा) भरपेट लेकर (चुगकर) सन्तुष्ट हो गया. वह कृतज्ञता और प्रसन्नतावश उन्मुक्त कंठ से ईश्वर का आह्लादित स्वर में आभार और धन्यवाद व्यक्त करने लगा. शायद अपने बोली में ईश्वर से वह प्रार्थना भी कर रहा था जो ईश—स्तुति कबीरदास जी करते थे कि— ष्साई इतना दीजियेए जामें (जिसमें) कुटुंब समाय. मैं भी भूखा ना रहूँए साधु न भूखा जाय.ष्

वास्तव में जब प्राणी—मात्र अपने सहज जीवन यापन योग्य वांछित वस्तु अथवा उपलब्धि प्राप्त कर लेते हैं और अधिकाधिक उपलब्धि पाने की कामना उनके मन को व्यग्र नहीं कर सकतेए तब उनका मन स्वतरू सन्तुष्टि अनुभव करता है और उनका मन प्रसन्न तथा प्रफुल्लित हो जाते हैं. जब किसी सज्जन के मन प्रसन्न हो तब ईश आभार और स्तुति करने से उसे कौन रोक सकता है.

यद्यपि प्राणी—मात्र के गुण से मनुष्यए चूहेए चींटीयाँ और मधुमक्खियों के गुण सर्वथा अपवाद हैं. उनके मन कदापि सन्तुष्टि अनुभव नहीं करतेए जिसका कारण है लोभादिक विकारों से उनकी बुद्धि और चेतना जड़ हो जाना. वह अपने समुदाय में अज्ञानतावश अधिकाधिक उपलब्धि पाने के प्रयास को स्वभाविक उपलब्धिओं की आकांक्षा के रूप में प्रस्तुत करते हैंए इस तरह उनके श्भटकाऊश् आदर्श और लक्ष्य स्थापित हो जाते हैं.

इससे उनकी इच्छाएँ—अपेक्षाएँ सहज जीवन जीने हेतु उपयुक्त स्वभाविक आवश्यकताओं से काफी अधिक और असहज हो जाते हैं जो श्रुतिनुसार प्रतिक्षण प्रत्येक आवश्यकता—पूर्ति के साथ वट—वृक्ष के शाखाओं एवं जटाओं की भाँति उत्तरोत्तर बढ़़ते जाते हैं. फिर आवश्यकता से अधिकाधिक संग्रहित उपलब्धियों के संरक्षण में अपना मूल्यवान जीवन ऊर्जा खर्च कर देते हैं.

वह अधिकाधिक संग्रहित उपलब्धियाँ उन्हें अधिक सुख तो शायद ही देते हों किन्तु उन्हें मानसिक दवाब और क्लेश निश्चय ही प्राप्त होते हैं. प्रत्येक शरीरधारी के जीवनएआयुए सफलता और धर्म—कर्म उसके स्वास्थ्य पर आश्रित हैं. सम्पूर्ण शारीरिक स्वास्थ्य उसके शारीरिक और मानसिक अवस्था अर्थात स्वास्थ्य के समंवय पर आश्रित हैं. अच्छे स्वास्थ्य हेतु अच्छा आहार आवश्यक हैं और मन का आहार है—प्रसन्नता—सुख प्राप्ति के अहसास. श्रुतिनुसारश्सन्तोषम्‌ परम सुखम्श् अथवा श्जब आवत संतोष धनए सब धन धूल समानश् इत्यादि—इत्यादि हैं...किन्तु संतोष पाना कोई हौआ थोड़े न है.

खैरए कौआ एक आँख बंदकर ईश—स्तुति में बिल्कुल तन्मय था. इतना कि मित्र तोता के आगमन की उसे भनक तक न हुई. आज तोते के प्राण के लाले पड़ गये थेए उसने भाग कर अपने प्राण रक्षा किये. प्राण रक्षा पश्चात्‌ आशा—भरोशा पाने और आपबीती बताकर मन हल्का करने के उद्देश्य से अपने मित्र के पास आयाए किंतु यहाँ कौआ खुद ही विचारों में कहीं खोया मस्त—व्यस्त था. बिल्कुल निरंतर चिंतित जीवन जीते किंतु मुख से सदैव गौरव गान उच्चारने में व्यस्त आधुनिक सभ्य और मतलबी मनुष्य समुदाय के भाँति.

अधिक श्रम से तोते की साँसे उखड़ रही थीए धड़कन तेज हो गई थी और भूख से व्याकुलता अलग ही थी. मित्र से आशा—भरोशा पाना भी धूमिल मालूम हो रहा था. कौऐ के व्यवहार से वह मन ही मन दूरूखी और नाराज हो रहा था. किंतु उसने संयम बनाये रखाए कौआ से कुछ कहा नही. बस अपने साँसों पर नियंत्रण पाने की चेष्टा करने लगा. तभी कौऐ की नजर अपने मित्र पर पड़ा.

कौआ चौंक कर तोता से पूछाएष् मित्र तुम कब आयेघ्ष्

कौआ की बात सुनकर तोता खीझ गया किंतु चुप ही रहा. वास्तव में समझदार प्राणी ना तो अधिक बोलते हैं और ना जल्दी से संयम का त्याग ही करते हैं. कौआ भी कम समझदार थोड़े न होता है. वह भी चुप होकर तोते को देखकर वस्तु—स्थिति का अंदाज करने लगा. वस्तु—स्थिति का अंदाज कर कौआ तोते से बोलाएष्क्या बात है मित्र कि तुम्हें इतनी घबराहट और व्याकुलता हो रही हैघ् तुम बेहद भूखे भी मालूम होते हो. भूखे रहकर अपनी क्या हालत बना रखे हैं घ्ष्

कौऐ की प्रेम भरी बातें सुनकर तोते के दिल का कड़वाहट मिट गया. वह बोलाएष् कुछ मत पूछो मित्र. मालूम होता है कि आज से अपना प्रारब्ध ही उलटे लिख गये.ष्

ष्मित्र यह तुम मनुष्य के भाँति प्रारब्ध—प्रारब्ध का कैसा रट लगा रहे होघ् प्रारब्ध तो उस हेतु होता है जब कर्म के अनुरूप अधिक उपलब्धि अथवा कर्मफल की आशा की जाती है अथवा संतोष का आभाव होता है. सच—सच कह दो की तुम्हारी क्या समस्या है.ष् कौआ अपनी बातोँ पर जोर देकर बोला.

कौआ का थोडा—सा प्रेम पाकर तोते के व्याकुलता के बाँध टूट गये. तोता कहने लगाएष्फिर क्या कहूँ मित्रए फल मेरा प्रिय आहार है किंतु आज मनुष्य के लोभ का दुष्परिणाम हमें भी भुगतने होते हैं. पुरे साल के इंतजार के बाद यह आम्रफल का मौसम आता है. किंतु ये मनुष्य उसे पकने से पहले ही सारे के सारे तोड़ लेते हैं.ष्

थोड़ा ठहर कर तोता दुःखी मन से पुनः बताने लगाएष्काफी दिनों के तलाश पर आज सुबह एक पके हुए लाल—लाल आम्र फल नजर आया. मैं मजे से उसे खाता की कुछ भूखे लँगूर वहाँ आ गए और उसे लपक लिये. मैं उससे वापस फल लपकना चाहा तो वे मेरे पीछे हाथ धोकर पड़ गये और मुझे भागकर निज प्राण रक्षा करने पड़े. इसे प्रारब्ध न समझुं तो क्या कहूँघ्ष्

तोते की आपबीती सुनकर कौआ को दुःख हुआ. वह मित्र ही क्या जो मित्र के दुःख से दुःखी न होघ् फिर घनिष्ट मित्र के संबंध में यह भी कहे गये हैं कि वे पहाड़ से निज दुःख धूल और मित्र के राई से दुःख भी बड़े समझते हैं. किंतु वह संयत स्वर में तोता से बोलाएष्मित्रए संसार में प्राणी—मात्र को अवसर और विपत्ति प्राप्त होते हैं. विपत्ति प्राणी को सतर्कएसहनशील और कर्मठ बनाते हैं तथा सुख का मूल हैं.अतः सुख प्राप्ति और आगे की रणनीति हेतु बीती हुई बातें अपनी भूल सुधार तक ही सिमित रखनी चाहिये. मैंने एक बगीचे में कुछ पके फल देखें हैं. वहाँ चलकर भोजन कर तृप्त हो लो.ष्

तोता खीझ कर बोलाएष्मित्र मैंने कह दिया न की आज के दिन मेरा प्रारब्ध मेरे साथ नहीं हैं. फिर मलूकदास जी की बातें भूल गये कि अजगर करे न चाकरीए पंक्षी करे न काम. दास मलूका कह गयेए सब का दाता राम.ष्

ष्मित्रए सब के दाता राम हैं इसे तो मैं बिल्कुल भी नही नकारता. किंतु रामसत्ता स्वीकार करें और रामाज्ञा कि ष्कर्म प्रधान विश्व करि राखाए जो जस करिहि सो तस फल चाखाष् न मानें यह कितना उचित हैघ् फिर मलूकदास मनुष्य थे और मनुष्य के असहज वृत्ति के मद्देनजर भाष्य किये.उन्हें पंक्षियों के जीवन के संबंध में क्या पताघ् बिना काम किये (तलाशे)तो पंक्षी भी आहार प्राप्त नहीं कर सकते. कहते हैं न कि जिन ढ़ूंढ़ा तिन्ह पाइएए गहरे पानी पैठ.ष्

थोड़ा ठहर कर कौआ पुनः बोलाएष्यदि तुम्हारा जी अबभी नहीं मानता तो विचार कर जरा यह तो बताओ कि यदि प्रारब्ध है तो उसके निर्माण करने वाले ईश्वर—सत्ता क्या नहीं हैंघ् यदि ईश्वर और उनकी सत्ता हैं तो क्या अब वह दयालु नही रह गयेघ् फिर उनका आज्ञा पालन क्यों नहींघ् फिर धर्म—कर्मएपश्चाताप अथवा सही समय का इंतजार भी प्राणयुक्त शरीर ही कर सकता है.ष्

तोता कौआ की बात मानकर उसके साथ निर्दिष्ठ स्थान गया. वहाँ पके हुए स्वादिष्ट फल थे. स्वादिष्ट फल खाकर तोता तृप्त हुआ और परम्‌ दयालु ईश्वर के धन्यवाद किया.

सेवकाई (व्यंग)

आँगन में जया अपने माँ के हाथों लगातार पीटती और जोर से रुदन करती जा रही थी. रोने—पीटने की आवाज सुनकर बरामदे में चारपाई पर लेटे दादाजी उठकर अपना चश्मा संभालते हुये बैठ गये. वे आँगन में जाकर बीच—बचाव करने के प्रयत्न तो नहीं कियेए अपितु अपने जगह पर बैठे—बैठे ही जोर—जोर से खाँसने जरूर लगे. उनके खाँसने का अर्थ था अपनी नाराजगी प्रकट करना कि उन्हें वह सब पसंद नहीं. उनके खाँसने से जया की माँ सहमकर उसे पीटना बंद तो जरूर कर दिये किन्तु आँगन में उसकी झिड़की और जया का रोना अब भी बरकरार था.

उस घर में बच्ची (जया)के रोने—पीटने के वह मामले और वजह कोई नये नहीं थे. उन घटनाओं का प्रतिकृति (दुहराव) इस घर में महीने—पंद्रह दिनों में अवश्यम्भावी था. दादाजी को वह श्सब कुछश् बिलकुल भी पसंद नहींए किंतु उन पूर्व—प्रत्याशित घटना (प्रतिकृति) पर अब मन मसोस कर चुप रह जाने पड़ते हैं. दादाजी कुछ करें भी तो आखिर क्याघ् उनके जमाने तो न जाने कब लद गये और वह श्सब कुछश् (प्रतिकृति) बदलते युग और परिवेश के प्रभाव हैं. अभी के समय और परिस्थिति में उनके सारे विचारए उनकी सारी मान्यताएं पुरानी और आउट—डेटेड माने जाते हैं. शायद इसी वजह से उनके विचार नकारे भी जाने लगे हैंए बिलकुल युगों—युगों से चली आ रही श्नकारनेश् की सनातन परंपरानुरूप.

उनकी मान्यता इस घर में केवल उस बात के लिये हैं कि वह कैलाश के पिता हैं और घर में बुजुर्ग (मतलब सबसे उम्र—दराज व्यक्ति मात्र) हैं. इसलिये नहीं कि वे सबसे ज्यादा तजुर्बेदार हैंए क्योंकि उनके तजुर्बे तो रूढ़़वादीए संकीर्णएपुरानी और आउट—डेटेड विचार मात्र हैं. भला पुरानी और आउट—डेटेड चीजों की जरूरत ही क्याए जो उसका कद्र और सम्मान होंघ् फिर युग बदलाव और मौसम बदलाव तो क्रमशरू सभ्यता और प्रकृति के सनातन चक्र है. इसलिए उनका अपनी असहमति और नाराजगी जताने का एकमात्र साधन खाँसना ही रह गये हैं. वैसे खाँसी बदलते मौसम के परिचायक भी हैं. खैरए उन मुद्दों पर चर्चा से बेहतर मुख्य बिंदु पर समयानुसार विचार करना ही उचित मालूम होता है. मुख्य मुद्दे हैं जया का पीटा जानाए सो उसके पीटने—पिटवाने की वजह है उससे टीके अपेक्षाओं पर उसके खड़ा उतरने हेतु जद्दोजहद करने की प्रेरणा प्रदान करना.

और वह अपेक्षा भी बेशक अकाटनीय ! जया से उसके अभिभावक की अपेक्षा यह है कि वह कबीर दासजी के आउट—डेटेड दोहे श्ढ़़ाई आखर प्रेम केश्झांसे में ना आएए अपितु वर्तमान परिवेश के अनुरूप उच्च शिक्षा प्राप्त करें. वह शिक्षा जिसका औचित्य और गुणवत्ता ही हैं कि उससे जीवन में महज इतनी मानवीय मूल्यों का समझए संयमए नम्रता और अनुशासन वगैरह संस्कार आए कि आपाधापी भरे जीवन और परिवेश में किसी चाकरी—सेवकाई ( क्षमा करें केवल नौकरी नहींएआज के युगानुसार सरकारी नौकरशाही)में अपनी पैठ बनाने में सक्षम हों. युगनुसार कर्म—अकर्मए धर्म—अधर्मए पुण्य—अपुण्यए उपदेश और कर्तव्य—बोध की विवेचना और परिभाषाएँ तो स्वतः बदल जाते हैं. फिर वह पुरानी कहावत भी तो हैं कि दुनियाँ वैसे ही दिखेगें जैसा आप देखना चाहो. बस जरूरत होती है अपने लिये श्उपयुक्तश् चश्में कबूलने की.

शुभ संयोग से वह परंपरा हमारे देश में भी शाश्वत—सनातन कायम है. जिसे देखो बड़ी चतुराई से वहीए अपने—अपने मजहब के पुस्तकों—ग्रन्थोंएकुरनों—पुराणों से अपने मतलब के जितना उद्धरण कहते—सुनते और स्वहित हेतु उनकी विवेचना करते मिल जाते हैं. खैर आपाधापी के इन परिवेश में आदमियत और अत्मीयत की बातें कौन करेघ् सबसे बड़ी बात है मलाईदार और आराम तलब से आजीवीकोपार्जन के साधन—नौकरी की. बुढ़्‌ढ़े—खुँस्ठ दादाजी की नजर में वह बेशक महज चाकरीए सेवा—सेवकाई होंए निकृष्ट धर्म हों. अब जबकि धर्म नाम के चीज का कोई विशेष महत्व न रह गये हों फिर धर्म निरूपक उन आउट—डेटेड दोहों का क्या कि ष्उत्तम खेतीए मद्ध्‌यम बान(व्यापार)निकृष्ट चाकरीएभीख निदान.ष् आज के परिपेक्ष में तो वह क्रम ही बिल्कुल उल्टे पड़ गये.

फिर चाकरी मिलनी न तो तब आसान रहा होगा न नौकरशाही मिलनी अब. अन्यथा गोस्वामी तुलसीदास जी यह क्यों कहते कि सेवक वही हो सकते जिसमें सेवा भाव हों. आजकल तो सेवा भाव की अनिवार्यता नहीं हैं! पहले नमक हलाली और नमकहरामी जैसे शब्द सेवा की कोई पैमाना हुआ करते थेएआज हर कोई जानता है कि जिधर पैसा उधर सेवा. पहले सेवा बल से श्अपने बश करि रखिहहिं रामुश् आदर्श थेए अब सेवा भार (तनख्वाह)ते रोदहिं देवा (जनता—जनार्दन जो नौकरशाहों के वास्तविक सरकारध्मालिक हैं) की शंखनाद हैं. पहले आधे कपड़ों में पसिने से लथपथ और नींद से बेहाल किंतु रात भर जागकर पंखे झलने को विवश किसी भोले—मूर्ति श्सेवक अथवा चाकरश् समझे जाते थेए अब दफ्तर में पड़े काम से बेफिक्र रहकर पान की गिलौरी चबा—चबाकर आराम से गप्पें लड़ाते महानुभाव ही नौकरशाह हैं जिनके सामने रोजाना सैकड़ों नंगे—भूखे सरकार (निरीह जनता—जनार्दन)गिड़गिड़ाते हैं. खैर सेवक चाहे जैसे होंय युग चाहे कोई होंए सर्वमान्य तथ्य है कि सेवक के बिना काम नहीं चल सकता. इसलिये श्करहिं सदा सेवक सो प्रीतीश् सर्वत्र समचरित्रार्थए शाश्वत सत्य और सदैव अनुकरणीय है. इस हेतु युगों—युगों श्सेवकाईश् अक्षुण्ण बना रहेगा.

रही बात सेवक के भाव में समर्पण की! पहले बड़े—बड़े सेवा कार्य करते हुये भी हनुमान सरीखे सेवक सदैव अहंकार से मुक्त रहते हुये स्वामी से निवेदन करते थे कि सारा प्रताप उन्हीं के हैंए वह कुछ भी नहीं. हमेशा अपने स्वामी के मुख तकते रहते थे कि सेवा के अवसर उन्हें ही मिले. यदि सेवा से प्रसन्न होकर कभी उन्हें ईनाम स्वरूप मनको की हार प्रदान किये जाते तो उन्हें दूरूख अनुभव होतेए लगता था कि उनके सेवा भाव में ही कोई खोट रह गयीं. आज हालात बदल गए हैं.अब बॉस के मुख केवल तभी देखे जाते हैं जब उनसे मन माफिक काम लेने हो अथवा उनका संरक्षण चाहिये हों. सरकारी महकमें में यदि बश चले तो कुछ नौकरशाह अपने बाँस अथवा स्वयंभू सरकार (जनता) के मुख भी देखना ना चाहें. भूले—भटके कोई सरकार (जनता)उनके सामने पड़ जाये तो डॉट—झिड़ककर भगाने की पहली कोशिश हो.कुछ तो अग्रिम इनाम (घुस अथवा रिश्वत कहने की दुस्साहस कतई नहीं कर सकते)के बगैर उनकी बातें सुनना भी अपने नाम—प्रतिष्ठा पर प्रश्न चिह्न समझते हैं और शायद ही उन्हें गवारा हों.

दादाजी भी वह श्सब कुछश् शायद श्एक हदश् तक समझते हों और मजबुरी महशुश करते हों तभी तो चुप रह जाते हैं—बिलकुल महाभारत के महायुद्धकालीन भीष्म पितामह के भाँतिएजो अतुलनीय तो थे किंतु अभी निरंतर कुरू—सम्राज्य के अवश्यंभावी पतन की आशंका से चिंतितए दुर्योधन के कटु वचन और पांडव के शर —घात सहन करने हेतु विवश और असहाय थे. जिनके एकमात्र अवलंब तो अभी अश्रु ही थे परंतु विवशता इतनी की उसका सहारा भी नहीं ले सकते थे. आज दादाजी भी खाँसते तो हैंए किंतु एक थकेएकमजोर और बेहद मंदे(सधे) स्वर में. पता नहीं उनके खाँसी भी किसी को कब असहनीय हो जाये.