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Safal Patrakar

सफल पत्रकार

संजय कुंदन

वरिष्ठ पत्रकार ओंकारनाथ उपाध्याय को एक दिन अचानक यह अहसास हुआ कि अब सीरियस लोगों की कोई पूछ नहीं रही। अब सफल वही लोग हैं जो अगंभीर हैं। उन्होंने तय कर लिया कि अब वह अगंभीर बनेंगे। उन्होंने उसी दिन से इसकी प्रैक्टिस शुरू कर दी। उन्होंने अपनी चुप्पी तोड़ दी। अब वे बात-बात में हंसने लगे बिना मतलब ही। उन्हें लगा कि मुख्यधारा में अपनी जगह बनाने के लिए तीन ‘सी’ की जरूरत है- सिनेमा, क्रिकेट और कार। उनके मैनेजर और नई पीढ़ी के पत्रकार इन्हीं तीन चीजों की चर्चा में हर वक्त मशगूल रहते थे। अब उनकी सैलरी इतनी थी नहीं कि हर नई फिल्म देख आएं। घर में टीवी पर बच्चों का कब्जा था। उनके साथ बैठकर नई फिल्में देखने में शरम लगती थी, इसलिए उन्होंने एक तरीका निकाला। वे हर अखबार में फिल्म समीक्षा अनिवार्य रूप से पढ़ने लगे। उसी अध्ययन के आधार पर वे फिल्म चर्चा मेें शरीक हो जाते। जिस तरह के दृश्यों को वह भारतीय संस्कृति के ऊपर एक आघात के रूप में देखते थे अब बाकायदा उसके तकनीकी पक्ष पर प्रकाश डालने लगे। नई नायिकाओं के नाम उन्होंने रट लिए और उनके करियर ग्राफ का विश्लेषण करने लगे।

क्रिकेट में भी उसी तरह रुचि लेने लगे। दफ्तर में काम छोड़कर टीवी पर मैच देखने वालों पर कल तक बरसने वाले उपाध्याय जी खुद भी उसी पांत में शामिल हो गए। अब वह बिजनेस अखबार या मैगजीन में ऑटोमोबाइल वाले सेक्शन को जरूर पढ़ते। कार की नई मॉडलों के बारे में उन्होंने जानकारी इकट्ठी कर ली और अपने इस ज्ञान का परिचय मैनेजरों के सामने देने लगे। उन मैनेजरों को शायद ही पता था कि खुद वे बस में लटककर दफ्तर आते हैं।

लेकिन इतने भर से उन्हें संतोष नहीं हुआ। उन्हें लगा कि मुख्यधारा में इसी से जगह नहीं बन जाएगी। अब उन्होंने विचार को गरियाना शुरू किया। वे जब-तब बिना किसी भूमिका के शुरू हो जाते, ‘बताइए, यह विचार क्या होता है। कुछ नहीं होता है विचार वगैरह से। बड़े-बड़े विचारक आए और चले गए। क्या हुआ उनका हश्र।’ अपने इसी अभियान के तहत वे साहित्य को भी गाली देते। कभी अचानक कविता की कोई किताब उठा लेते और हंसते हुए कहते, ‘पता नहीं लोग क्यों साहित्य लिखते हैं। क्या मिलता है कविता वगैरह लिखने से। खुद ही लिखते हैं खुद ही पढ़ते हैं। सोचते हैं इससे दुनिया बदल जाएगी। हा...हा...ही...ही। ’

लेकिन घर आने पर वे अपने पुराने रूप में लौट जाते। पहले की तरह मुंह लटकाए प्रवेश करते। सबसे पहले टीवी पर आंखें जमाए अपनी बेटी को डांटते, ‘टीवी बंद करो। क्या-क्या देखती रहती हो।’ उनकी इस घुड़की का उनकी बेटी पर कोई असर नहीं होता था। वह उसी तरह टीवी देखती रहती। उपाध्याय जी उसी तरह अपने कमरे में चले जाते। मिसेज उपाध्याय रोज की तरह शिकायतों और मांगों का पिटारा खोल देतीं, ‘ अरे आप इस लड़की को समझाते क्यों नहीं। दिन भर टीवी देखती रहती है या फोन पर न जाने किससे बतियाती रहती है। मेरी तो कुछ सुनती ही नहीं...।’

उपाध्याय जी चुप।

‘भइया का चार बार फोन आ चुका है। चंडीगढ़ चलना है कि नहीं। आपको नहीं जाना है मत जाइए। मुझे तो रिश्तेदारी निभानी है।’

उपाध्याय जी चुप।

‘आपको शरम नहीं आती है लेकिन हमें तो आती है। बेडरूम की चादर घिसकर फटने लगी है। पिछले तीन महीने से पैसे मांग रही हूं, आप दे नहीं रहे।’

उपाध्याय जी चुप।

मिसेज उपाध्याय फट पड़तीं, ‘आप कुछ जवाब क्यों नहीं देते हैं। इस तरह फिलॉसफर जैसा मुंह बनाने से काम नहीं चलेगा।’

फिलॉसफर! यह शब्द उन्हें चुभ जाता। वे जल्दी से बाथरूम चले जाते और वहां आइने में देखने लग जाते कि क्या वाकई उनका चेहरा दार्शनिक या विचारक जैसा लगता है।