Loksankruti ka naya adhyay books and stories free download online pdf in Hindi

लोकसंस्कृति का नया अध्याय

लोकसंस्कृति का नया अध्याय

लोक नृत्य और लोक संगीत पूरे भारत को विरासत में मिली सम्पदाएँ हैं. पर उत्तर प्रदेश , विशेषकर पूर्वी उत्तर प्रदेश की मिट्टी से हर मौसम में , जीवन के हर क्रिया कलाप के साथ , लोकगीतों की जो सोंधी सोंधी सुगंध आती थी वह अब पता नहीं कहाँ लुप्त हो गयी है. शादी ब्याह जैसे मांगलिक अवसरों पर गाये जाने वाले बन्ना बन्नी , परिवार में नवजात शिशु का स्वागत करने वाले सोहर जैसे गीत भावभीनी प्रसन्नता और उल्लास का जो वातावरण बनाते थे वह अब कल्पनातीत होता जा रहा है. नेग मांगने वाली ननद , भाभी को छेड़ने वाले देवर और नवजात पौत्र पौत्री के हर्षविभोर दादा दादी जब संयुक्त परिवार के छिन्न भिन्न होने के साथ स्वयं पराये होते जा रहे हों तब उनके आह्लाद और उल्लास लोकगीतों में कैसे मुखरित होंगे. उन गीतों के बोल और धुनें किसे याद रहेंगीं. परिवार की मंगलकामना करते हुए गंगा मैया को चुनरी चढाने का संकल्प कौन ले और कामना पूरी हो जाने पर गंगापुजैया के लिए समवेत स्वरों में गीत गाते हुए अब कौन जाए. वह भी तब जब गंगा बदबूदार नालों को आत्मसात करते हुए पावन कहलाने में स्वयं ही लज्जित लगे. कुआं पूजन के लिए कुलवधुएं गीत गाते हुए जाएँ तो जाएँ कहाँ? कुँए की तलाश करती ही रह जायेंगी. नगरपालिका के बम्बे या सार्वजनिक नल पर जाकर तो उन गीतों को गाया नहीं जा सकता.

परिवार में ही नहीं, शहर के मोहल्लों के चबूतरों और गाँवों की चौपालों में भी अब न बिरहा सुनायी पड़ता है न बिदेसिया के गीत .ऋतुओं के बदलते हुए परिधानों के साथ साथ चैता, होरी , कजरी , सावन जैसी लोकसंगीत की विधाओं से आज की पीढी परिचित भी नहीं है. धान के खेतों में रोपनी करने वाली महिलाओं के समवेत स्वरों में गाये हुए गीतों का माधुर्य बचपन की एक भूली बिसरी याद भर रह गया है.

फिर भी ये कहना अनुचित होगा कि आज के यंत्रवत जीवन में संगीत का कोई स्थान नहीं. ऍफ़ एम् रेडियो की लोकप्रियता और शादी ब्याह के अवसरों पर कानफाड़ू लाउडस्पीकर द्वारा मोहल्ले भर को फ़िल्मी गीतों को सुनाने का चलन बताता है कि संगीत को लोकमानस ने अपने जीवन से निर्वासित नहीं किया है. रात भर चलने वाले जगरातों में देवीपूजा के गीतों का माधुर्य भले न हो पर उनमे फ़िल्मी गीतों की तर्ज़ पर माता के बुलावे की ज़ोरदार घोषणा होती रहती है. जन्माष्टमी में सत्संग करती हुई एक मंडली से “जादूगर सैंया, छोड़ो मोरी बैंयां ,हो गयी आधी रात, अब घर जाने दो” की तर्ज़ पर “जादूगर कृष्णा, हरो मेरी तृष्णा, हो गयी आधी रात, दरसन पाने दो” जिस दिन सुना था उसी दिन विश्वास हो गया था कि लोकसंगीत भले अन्य स्थानो और अवसरों से लुप्त हो जाए, धार्मिक अवसरों पर वह जीता जागता मिलेगा. सावन में शिवलिंग पर जलाभिषेक हेतु जाने वाले जत्थे अब अपने समवेत स्वरों में भोला भंडारी की कौतुकमयी बरात और विवाह के गीत नहीं गाते. उनके स्थान पर टेम्पो और ट्रकों पर लदफंद कर जाते हुए कांवरियों के जत्थे लाउडस्पीकर पर इतनी जोर जोर से ‘बबम बबम बम’ वाला फ़िल्मी गीत बजाते हैं कि इन कर्णभेदी लाउडस्पीकरों की दहाड़ सुनकर भंग की तरंग में अपने नीले कंठ तक डूबे हुए भोलेनाथ भी हडबडाकर उठ बैठें. होली के पर्व पर तो “रंग बरसे भीजे चुनरवाली” को लगभग राष्ट्रगीत का दर्जा मिल ही चुका है. भारत के जिन जिन हिस्सों में होली मनाई जाती है उन सभी में हर गली कूचे सड़क पर यही गीत जोर जोर से बजता सुनायी देता है. होली की हुडदंग में मस्त लोग ये गीत गाते तो हैं पर उस समय सुर ताल की सीमाएं भूल चुके होते हैं अतः उसे गायन कहना अतिउदारता माना जाएगा.

संगीत के अखाड़े में धार्मिक चेतना अभी देशभक्ति की भावना को पूरी तरह से पटखनी नहीं दे पायी है. धार्मिक फ़िल्मी गीतों की तरह देशभक्ति वाले फ़िल्मी गीतों की भी कमी नहीं है. बस एक अंतर दिखता है. धार्मिक गीतों की तरह देशभक्ति के गीत फ़िल्मी गीतों की तर्ज़ पर नहीं सुनाई पड़ते. इसकी ज़रुरत शायद इसलिए नहीं है कि देशभक्ति की घोषणा सविधि स-लाउडस्पीकर स-संगीत करने की आवश्यकता कुल मिला कर साल में तीन बार ही पड़ती है जिनमे से स्वतन्त्रता दिवस और गणतंत्र दिवस तो सबके लिए अनिवार्य हैं सिर्फ गांधी जयन्ती कुछ राजनीतिक दलों और व्यक्तियों के लिए वैकल्पिक है. इतने कम अवसरों के लिए तो ‘कर चले हम फ़िदा जानो तन साथियों, अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों’ , ‘मेरे देश की धरती सोना उगले’ , ‘आओ बच्चो तुम्हे दिखाए झांकी हिन्दुस्तान की’ ,’ऐ वतन, ऐ वतन, तुझको मेरी कसम’ इत्यादि ही काफी हैं. वैसे ये गीत भी वैकल्पिक हैं. इनमे से सिर्फ कुछ को सुनवा कर काम चल जाता है; पूरी तरह से अनिवार्य तो केवल लताजी का “ ऐ मेरे वतन के लोगों ज़रा आँख में भर लो पानी “ वाला गीत ही है. वह है भी हमारी सारी आवश्यकताएं पूरी करना वाला गीत . इसी की बदौलत हम कश्मीर से पंडितों के निर्वासन से लेकर लद्दाख और अरुणाचल में चीन की घुसपैठ , नियंत्रण रेखा पर पाकिस्तानियों की अकारण गोली बारी में अपने सैनिकों की शहादत, नक्सली झंडे के तले नृशंस और क्रूर हत्यारों द्वारा अर्धसैन्य बलों के निरपराध ,निरीह कर्मचारियों की नरबलि आदि हर तरह की राष्ट्रीय वेदना ‘ज़रा आँख में पानी भर’ कर झेल लेते हैं. इन राष्ट्रीय गीतों को सुबह से लेकर स्थानीय नेता जी के पधारने तक ही बजाना पड़ता है.एक बार वे आ गए तो उसके बाद तो भाषण , राष्ट्रीय ध्वजोत्तोलन और लड्डू बांटने की ही रस्मे बाके रहती हैं. अतः राष्ट्रभक्ति के और गीतों की फिर उस दिन भर या अन्य किसी दिन कोई आवश्यकता नहीं पड़ती. रहा प्रश्न गांधी जयन्ती का तो ‘ सुनो सुनो ऐ दुनिया वालों बापू की ये अमर कहानी ‘ और दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल’ के बाद पिछले पचास साठ सालों में फिर उस तरह के किसी और नए गीत की ज़रुरत ही नहीं महसूस की गयी. खैर, जो भी होता है अच्छे के लिए ही होता है. बाज़ार में इतनी कम मांग होने के परिणामस्वरूप ही देशभक्ति और बापूवंदना के गीत अभी फ़िल्मी गीतों की तर्ज़ पर सुनने को नहीं मिलते हैं.

लोकसंगीत और लोकनृत्य दोनों की लोकप्रियता पर ध्यान देने से दोनों में एक विचारणीय अंतर नज़र आता है. लोकसंगीत अब गाने बजाने वाली नहीं बल्कि सुनने वाली वस्तु हो गया है. विधिवत संगीत सीखने वालों की बात और है पर लोकसंगीत में कोई क्रियात्मक रूचि रखता हुआ नहीं मिलता. सुनेंगे सब, गायेंगे बिरले ही. पर इसके बिलकुल विपरीत लोकनृत्य अब बेहद लोकप्रिय होता जा रहा है. पहले जहां विवाह आदि विशेष अवसरों , (कारज परोजन) पर कुछ विशेष उपजातियों के सदस्य लोकनृत्य करते थे अब ऐसे अवसरों पर नृत्य करना सभी तबके के लोगों के लिए सहज बल्कि आवश्यक हो गया है. कम से कम पूर्वी उत्तर प्रदेश में आज से पांच छः दशक पहले बारातियों का बरात के साथ साथ नाचते हुए चलना अनदेखा अनसुना था. बरात में उन दिनों महिलायें आज की तरह आगे आगे क्या पीछे पीछे भी नहीं चलती थीं अन्यथा महिला बारातियों का खुले आम शहर की सडकों पर नाचना घोर अजूबा होता. देश के विभाजन के बाद पंजाब से आये विस्थापितों के उत्तर प्रदेश के पश्चिमी छोर से प्रारम्भ कर के पूर्वी भाग तक बसने से जैसे जैसे उत्तर प्रदेश की संस्कृति पर पंजाब की मुहर लगती गयी, वैसे वैसे सडकों पर खुले आम नृत्य करने से घबराने वाला संभ्रांत वर्ग अपने उल्लास को भांगड़ा नृत्य द्वारा प्रदर्शित करना सीखता गया. धीरे धीरे जैसे पूरे प्रदेश में सलवार ने साड़ी को पछाड़ दिया वैसे ही विवाह आदि अवसरों पर युवा ही नहीं बल्कि उनके अधेड़ अभिभावक और उनके भी बड़े बूढ़े बरात के पूरे रास्ते और विशेषकर कन्याके घर के सामने सड़क रोककर भांगड़ा करने की अनिवार्यता के सामने अभिभूत होकर नतमस्तक हो गए. बाद में चुनावों के नतीजे घोषित होने पर,चाहे विधानसभा या संसद के हों चाहे केवल विद्यालय छात्र संघ के, समर्थकों द्वारा अपना हर्ष नृत्य द्वारा ज़ाहिर करने की परिपाटी चल निकली. प्रत्यक्षतः संगीत की अपेक्षा नृत्य की लोकप्रियता अधिक बढी है. फिर भी लोकनृत्य की जो तमाम शैलियाँ थीं वे सब अब गड्ड मड्ड होकर पूरे देश में लोकप्रिय उस अकेली शैली के झंडे तले आ गयी हैं जिसमें कलाबाजी , जिम्नास्टिक, योगिक आसनों आदि का विलय इतनी सम्पूर्णता से हो चुका है कि देखने के बाद शंका होती है कि यह नृत्य का मंच है या सर्कस का.

पिछली बार जब मैं अपने जन्मस्थान गाजीपुर गया था तो एक मित्र से स्थानीय लोकनृत्यों की चर्चा करते करते जोगीडा नामक एक लोकनृत्य का ज़िक्र आ गया जिसमे श्रृंगार रस शालीनता की सीमाएं लांघकर अश्लीलता की हदों में घुसपैठ करने लगता था. जिसके गीत के बोल और नृत्य की मुद्राएँ दोनों ही संभ्रांत दर्शकों को लज्जित और अन्य श्रेणियों के दर्शकों को उत्तेजित करते थे. होली की हुडदंग पराकाष्ठा पर पहुँचती थी तो जोगीड़ा उच्छ्रिन्खलता के करेले को नीम पर चढाने का काम करता था. जोगीड़ा शब्द का नाम आते ही मेरे मित्र ने नाक भौं सिकोडी और बोले “ अरे राम राम, किस अश्लील नृत्य का नाम लिया आपने. वह तो हमारे शहर के कलंक के समान था. भला हुआ, उसके प्रदर्शन का चलन कई दशक पहले ही समाप्त हो गया. मैंने पूछा ‘ नृत्य की उदात्त या शास्त्रीय शैलियों में आज के बच्चों की कोई रूचि है क्या ?’ तो उन्होंने कहा ‘ अरे आज तो घर घर में छोटे छोटे बच्चों से लेकर युवाओं तक सबकी नृत्य में दिलचस्पी है. मेरी अपनी दस वर्ष की पौत्री इतना सुन्दर नृत्य करती है कि आप दंग रह जायेंगे.’ मैंने पूछा ‘किसी गुरु से सीखने की सुविधा उपलब्ध है क्या?’ तो हंस कर उन्होने कहा ‘अरे टी वी से बढ़कर कौन गुरु मिलेगा .वह भी बिना गुरूदक्षिणा दिए.हर सप्ताह एक एक से अच्छे कार्यक्रम अपनी ‘झलक दिखला’ जाते हैं. बच्चे टीवी के सामने बैठकर उन्हें बिना पलक झपकाए आत्मसात करते रहते हैं. स्वयं ही सीख लेते हैं. हम तो केवल उनकी पीठ ठोंक कर बढ़ावा दे सकते हैं, सो वही करते हैं.” संध्या हो रही थी. उन्होंने मुझे घर पर चलकर साथ चाय पीने का और अपनी पौत्री का नृत्य देखने का बहुत प्रेम से निमंत्रण दिया .अस्वीकार करने की कोई वज़ह नहीं थी . मैं उनके साथ हो लिया.

रास्ते भर हम नयी पीढी में संगीत नृत्य आदि कलाओं के प्रति बढ़ते अनुराग की बात करते रहे. उन्होंने समझाया कि किस तरह अभिभावक भी अब अपने बच्चों के सर्वगुणसम्पन्न होने में गौरव का अनुभव करते हैं. घर पहुंच कर अपनी बहुत प्यारी सी पौत्री से उन्होंने परिचय कराया. बच्ची की माँ अर्थात मेरे मित्र की बहू ने पहले स्वयं परपरा का निर्वाह करते हुए मेरे पैर छू कर प्रणाम किया फिर अपनी फूल सी प्यारी बच्ची से भी विधिवत वैसे ही प्रणाम करवाया. हमें चाय नाश्ता देने के बाद उनकी पुत्रवधू ने बताया कि बच्ची म्युज़िक सिस्टम बजाकर नृत्य करती है और वह सिस्टम पर अपनी पसंद के गीत चुनने में व्यस्त हो गयीं. बिटिया की और उनकी पसंद एक ही थी अतः जल्दी ही तय्यारी पूरी हो गयी. फिर संगीत बजाया गया और नृत्य प्रारम्भ हो गया. गीत के बोल थे “ गंदी बात , गंदी बात “ बच्ची मगन होकर उस पर नाचती रही. माँ और दादा जी की आँखों में प्रशंसा भरी हुई थी. वह नन्ही नृत्यांगना वास्तव में स्वयं भी नाच कर आनंद विभोर थी. इस पहले नृत्य के बाद उसने अपनी फरमाइश का गीत लगाया जो नवीनतम था. पुरुष की आवाज़ में जुम्मे की रात में चुम्मे की महत्ता समझाने का कार्य चल रहा था और मुद्राओं में उसकी वाख्या कर रही थी वह नन्ही नृत्यांगना. माँ बिटिया की कला पर मुग्ध थी. दादा जी निछावर हो रहे थे. मैं थोड़ा सा असहज महसूस करने लगा था . दूसरे नृत्य के बाद मैंने कहा ‘बिटिया थक गयी होगी.’ पर बहूरानी बोली ‘अरे अभी तो वह सारी शाम नाच सकती है. दीवानी है नृत्यकला की.’ लेकिन अपनी पसंद का अगला गीत लगाने से पहले वह कुछ शंकित सी लगीं. ससुर जी ने बिना पूछे ही उनकी निगाहों में समाहित प्रश्न का उत्तर दे दिया .बोले ‘अरे हाँ, बीडी जलई ले जिगर से पिया वाला गाना लगाओ न. बहुत अच्छा डांस करती है उस पर.’ फिर खुद ही सफाई सी देते हुए बोले “ अरे बच्चा है , उसको अच्छा लगता है ये गाना तो करने दो इसी पे डांस.” फिर तो उस नन्ही मुन्नी नर्तकी ने शरीर के अंग प्रत्यंग को ऐसे झटके दे दे कर नृत्य दिखाया कि मुझे लगा जोगीडा आज भी जीवित है. कुछ दिनों तक निष्कासन की यंत्रणा सह लेने के बाद वह पुरानी विधा लोकसंस्कृति के नए अध्याय में ससम्मान जोड़ ली गयी है.