Jit books and stories free download online pdf in Hindi

Jit

पंजाबी कहानी

जीत

जिन्दर

अनुवाद : सुभाष नीरव

नींद मेरे वश में नहीं रही। मेरे सामने तो प्रश्नों की विशाल दुनिया खड़ी है। मसलन —

औरत को मौत से डर क्यों नहीं लगा ?

क्या वह पागल थी ?

क्या उसने मौत के अर्थों को समझ लिया था ?

क्या वह अपने बच्चे की बीमारी पर इतनी चिंतित थी कि उसको मौत का डर ही भूल गया था ?

क्या कार में मरने वालों में उसका खाविंद भी था ?

वह कौन था ?

वह कहाँ से आई थी ?

वह कहाँ से चली थी ?

वह किनके साथ जा रही थी ?

वह कार में से कैसे भाग गई थी ?

क्या कु़दरत ने उसको जीने का मौका दिया था ?

यदि उसको जीने का मौका दिया था तो क्या उसने मेरे हाथों ही मरना था ?

मैं पौनी बोतल पी चुका था, पर मैं होश में था। मैंने मोबाइल पर ब्लू—फिल्म लगाई थी। पाँचेक मिनट देखने के बाद बंद कर दी थी। सूफियाना गीत लगा लिए थे। पर मन था कि किसी भी बिन्दु पर टिक नहीं रहा था। मुझे अपनी इस भटकन के बारे में पता था। मैं उन पलों को याद नहीं करना चाहता था, न ही उन्हें याद रखना चाहता था। पर वे पल मुझे बार—बार दिखाई दे रहे थे। जब से यहाँ आया हूँ, पता नहीं मैंने कितनी बार ‘शूट आउट' किया है। मुझे तो इतना भर पता है कि मुझे हुक्म मिलता था और उस हुक्म को मैं ‘ओबे' करता था। इस बीच ‘सोचने' और ‘भावुक' होने का कभी समय ही नहीं मिला था। आँखें तेज़ी से इधर—उधर घूमती थीं। कान और अधिक चौकस हो जाते थे। दिमाग और अधिक सचेत। क्या मालूम कि दुश्मन कहाँ से निकल आए। दुश्मन कौन होगा ? किस रूप में होगा ?

मेरा मन खुली फिज़ा में घूमने को किया था। कमरे के अंदर मेरा दम घुट रहा था। मैं बाहर जाता जाता, फिर से बैड पर आकर गिर पड़ा था। बाहर भी मौत थी, अंदर भी मौत थी। सन्नाटा था। किसी तरफ़ से भी कोई आवाज़ नहीं आ रही थी। मैंने जैकेट की अंदरूनी जेब में रखी ‘गीता' में से अर्थ खोजने शुरू कर दिए थे। दूसरे अध्याय के श्लोक संख्या 28 पर लिखा था, “सभी जीव जन्म से पूर्व अप्रगट थे और मरने के बाद फिर अप्रगट हो जाएँगे। वे तो केवल जन्म और मृत्यु के बीच में ही कुछ देर के लिए ‘प्रगट' नज़र आते हैं। इसलिए शोक करने वाली कौन सी बात है ?”

कुछ समय के लिए मेरा मन शांत हो गया था। मुझे लगा था कि मैंने कुछ भी ग़लत नहीं किया था। मैंने तो अपना कर्तव्य निभाया था। मेरी ड्‌यूटी थी जो मैंने निभाई थी। यदि कहीं कोई कोताही कर जाता तो यह काम माइकल या नैश कर देते। यह भी हो सकता था कि मैं उनकी दृष्टि मेें ‘संदेहास्पद व्यक्ति' हो जाता और वे किसी समय भी मुझे मौत का मुँह दिखा देते। ऐसी अनेक घटनाएँ घटित हो चुकी थीं।

अपने आप को तगड़ा करने के लिए मैंने बोतल में बची हुई शराब से गिलास भर लिया था। एक ही साँस में पी गया था। मैं कर्तव्यों के अर्थ का कोई कोना पकड़ नहीं पा रहा था। मैं इस संबंध में किसी से बात करना चाहता था। मुझे ‘गीता' में कृष्ण द्वारा अर्जुन को कहे शब्द याद आए थे —“अपने कर्तव्यों के लिए युद्ध करने से बढ़कर किसी योद्धा के लिए और कुछ नही।” फिर मुझे इंडिया में बैठी माँ का ख़याल आया था। उसने भर्राती आवाज़ में बस यही कहना था, “हरजिंदर, हमें नहीं चाहिए तेरी यह मरजाणी नौकरी। हमें अमरीका से क्या लेना ! तू घर आ जा। दो रोटियाँ अचार से खा लेंगे। सुख की नींद तो सोएँगे। मुझे तेरी कोई बात नहीं सुननी। हमारे धर्म में तो ‘गाय' और ‘औरत' को मारना घोर पाप होता है। मेरा बेटा यह पाप करे, इससे अच्छा तो ईश्वर मुझे उठा ले। हमें किसी की जीत नहीं चाहिए। ऐसी जीत से तो हार ही अच्छी है...।” दूसरा ख़याल मुझे अपनी गोरी गर्ल—फ्रेंड का आया था। मैं यह बात अच्छी तरह जानता था कि पहले वह मेरी बात बड़े ध्यान से सुनेगी। फिर समझाने के लहजे में कहेगी, “हैरी, मैं तुझे कितनी बार कह चुकी हूँ कि पहले अपने अंदर बैठे इंडियन को मार। तू यह बात क्यूँ भूल जाता है कि तू अब अमेरिकन है। तू अमेरिकन आर्मी का अहम सोल्ज़र है। सरकार तुझे इसी बात की तनख्वाह देती है। तू सिर्फ़ और सिर्फ़ जीत के बारे में सोच।”

अब प्रश्न ‘जीत' और ‘हार' का खड़ा हो गया था। किसकी हार हुई थी ? किसकी जीत हुई थी ? इस विषय में मैं क्या कहूँ ? फिर मेरा ध्यान तेरी तरफ़ चला गया था। मैंने घड़ी पर समय देखा था। इंडिया की रात का डेढ़ बजा था। तू तो गहरी नींद में सोया पड़ा होगा अपनी बीवी के साथ। अगर मैं तुझे जगाता तो तू खीझ महसूस करता। हो सकता था कि तू मेरा फोन ही न उठाता।

मैं दीवार से पीठ टिकाकर आज की बीती तुझे लिख रहा हूँ। मेरी ड्‌यूटी चैक—पोस्ट नंबर तीन पर है। शहर को जाने के लिए जो सड़क हमारी चैक पोस्ट से होकर जाती है, उस सड़क पर पहली चैक पोस्ट शहर से काफ़ी बाहर है। शहर में प्रवेश करने वालों की चैकिंग सबसे पहले इसी प्रथम चैक—पोस्ट पर होती है। पहली चैक पोस्ट और दूसरी चैक पोस्ट में मील भर का फ़ासला है। उस पर पहली चैक पोस्ट पर से निकले लोगों की पुनः चैकिंग होती है। मेरी वाली चैक पोस्ट शहर के बिलकुल करीब है। पहली दो चैक पोस्टों से गुज़रे ट्रैफिक की चैकिंग के समय यदि कोई ज़रा सी भी कमी रह जाती है तो वह मेरे से छिप नहीं सकती। मेरी वाली चैक पोस्ट तो बहुत बारीक छलनी की तरह है।

हमारे इंचार्ज को छोड़कर कोई भी बड़ी उम्र का नहीं है। सिर्फ़ माइकल 25 वर्ष का है। बाकी सब उन्नीस से तेईस साल की उम्र के बीच के हैं। किसी ने भी आर्मी—कैरिअर शौक से नहीं चुना। हर कोई किसी न किसी मज़बूरीवश आर्मी में आया है। इन लड़कों ने यूनिवर्सिटी की पढ़ाई करने के लिए सरकार से मदद ली थी। इसी मदद की एवज में इन्हें रिज़र्व आर्मी में भर्ती होना पड़ा था। रिज़र्व यानी जिन्हें इमर्जेंसी के समय आर्मी में बुलाया जाता है। इन्हें अपनी पढ़ाई और नौकरी करने की छूट है। इनमें से अधिकतर ने अपनी अपनी पढ़ाई भी पूरी नहीं की थी कि इराक में ‘आपरेशन इराकी फ्रीडम' शुरू हो गया था।

मेरी मज़बूरी इनसे कुछ भिन्न प्रकार की है। मुझे आर्मी में भर्ती होने के कारण अमेरिका की सिटीज़नशिप मिली है। मुझे आर्मी की पूरी टे्रनिंग नहीं मिली थी। इराक भेजने से तीन महीने पहले मुझे ‘नॉर फोक अल्टौस' आर्मी बेस में भेजा गया था। तीन महीनों में जितनी संभव हो सकती थी, उतनी मुझे टे्रनिंग दी गई थी। फिर, अल्टौस एयरफोर्स से मुझे जहाज में चढ़ाकर यहाँ ला उतारा था। मुझे इराक के भूगोल के बारे में थोड़ी—बहुत जानकारी थी। मैंने तीन—चार पुस्तकें पढ़ी थीं। कुछ विवरण इंटरनेट से मिले थे। मुझे पता लगा था कि सद्‌दाम हुसैन की सरकार का तख़्ता पलटने के बाद सरकारी दफ़्तरों, स्कूलोंं, यूनिवर्सिटियों, बैंकों और अस्पतालों को लूट लिया गया था। बड़े पैमाने पर तबाही हुई थी। जब मुझे बगदाद में उतारा गया था तो अकस्मात्‌ मेरे मुँह से निकला था — ‘वाह रे समय ! तूने इस धरती के भी दर्शन करवाने थे।' तुझे याद होगा कि हमें मैट्रिक में मास्टर लाभ सिंह इतिहास पढ़ाया करता था। वह पढ़ाते—पढ़ाते इतिहास से बाहर की बातें भी बताता था। एकबार उसने बताया था कि कहीं न कहीं इराक के लोगों से हमारी पुरानी सांझ है। सुबूत के तौर पर उसने बताया कि एकबार उसके दोस्त का बाप इराक के किसी गाँव में गया था। वहाँ एक औरत तवे पर रोटियाँ सेक रही थी। बिल्कुल उसकी माँ की तरह। उसने उस औरत के चरण छुए थे। औरत ने उसे आशीषें दी थीं और प्यार भी किया था।

मैं बड़ी चौकसी से अपनी ड्‌यूटी कर रहा था। मन में कहीं न कहीं हमेशा ही डर बैठा रहता। यह डर तो कमरे में आकर भी ख़त्म नहीं होता। आम इराकी लोगों का हाल भी हमारे जैसा ही है। जब कोई ट्रक अथवा कार रुकती है तो अंदर बैठी सवारियों के चेहरे सफ़ेद पड़ जाते हैं। वे जानते हैं कि ज़रा सी ग़लतफहमी हुई नहीं कि फौजी तड़ातड़ गोलियाँ चला देंगे। इस शहर मेें हर रोज़ बम धमाके हो रहे हैं। पर ये बम धमाके करने वाले किस रास्ते अंदर—बाहर जाते हैं, इसका फौजियों को पता नहीं चलता। फौजियों का वास्ता तो प्रायः आम शहरियों से ही पड़ता है। यहाँ क्या कुछ हो रहा है, मुझे खुद पता नहीं लगता। यह तो गैरी का फोन आ जाए तो वह कई बातें बताती है। या बर्लिन से जसवंत बताता है। एक दिन उसने बताया कि नसीरीआह शहर की एक अट्‌ठारह वर्षीय लड़की होणा थामीर जेहद ने अपनी डायरी लिखी है। उसने यह डायरी इंटरनेट पर डाली है। वह लिखती है — ”बाद दुपहर करीब तीन बजे उसे अपनी दोस्त का फोन आया कि उसकी करीबी दोस्त अब इस दुनिया में नहीं रही। वह अपने घर के बगीचे में घूम रही थी कि पता नहीं किस तरफ़ से गोली आई और सीधी उसके सिर में लगी। यह ख़बर इतनी भयानक थी कि इसने मुझे पागल ही कर दिया। मुझे पता नहीं लग रहा था कि मुझे क्या हो रहा था। आज मैंने अपनी सहेली को गंवाया था। कल क्या कुछ होगा ? इस बारे में अल्लाह ही जानता है। कुछ दिन पहले हमारे पड़ोस में एक औरत को फौजियों ने मारा था। उस औरत ने ऊँची आवाज़ में चीख—पुकार कर शोर मचाया था, पर किसी ने उसकी चीख—पुकार की ओर ध्यान नहीं दिया था। फिर, गली के कोने वाले मकान में से तीन लड़के उस औरत के घर की ओर दौड़े थे। फौजियों ने उन्हें रोका था। वे रुके नहीं थे। फौजियों को भी गोलियों से भून दिया था। वे किसी पर दया नहीं करते। क्या यहाँ का हरेक बाशिंदा फिदाइन है ?

शाम के पाँच बज रहे थे। सड़क पर टै्रफिक कम हो गया था। हम तीनों यानी गोरा माइकल, काला नैश और मैं थोड़ा आराम की मुद्रा में खड़े हो गए। शीत लहर बह रही थी। अचानक ही रेडियो पर ऊँची आवाज़ में सूचना आई थी — “ए सस्पेक्ट इस्केप्ड दा चैक पोस्ट नंबर वन।”

हमारे कान खड़े हो गए थे। फिर बार बार मैसेज सुनाई देने लगा था। जब हमें यह पता चला था कि सस्पेक्ट शहर की ओर बढ़ रहा है तो हम अपने अपने मिट्‌टी के बने मोर्चों में खड़े होकर सीधे शहर की ओर आती सड़क को चौकस नज़रों से घूरने लग पड़े थे।

“सस्पेक्ट एक औरत है जिसने काले रंग के कपड़े पहने हुए हैं।”

कुछ दिन पहले ही किसी इराकी औरत ने अपने पेट से बम बाँधकर शहर के लोकल पुलिस स्टेशन को उड़ाया था।

पहली चैक पोस्ट द्वारा हैड ऑफिस को रिपोर्ट की जा रही थी, “बाहर से एक कार आ रही थी। इसमें तकरीबन दसेक लोग बैठे थे। कार को रुकने का इशारा किया गया। कार धीमी तो हो गई पर चैक पोस्ट से सौ फीट पीछे ही रुकी। कार में बैठे लोग बार—बार बांहें बाहर निकाल कर कोई इशारा करने लगे। दुभाषिये ने उन्हें कार आगे लाने के लिए कहा। पर कार वहीं खड़ी रही। दुभाषिये ने उन्हें कार में से निकलकर हाथ खड़े करके खड़े होने को कहा। पर उन्होंने हुक्म नहीं माना। फिर कार स्टार्ट हुई और हिचकौले खाती चैक पोस्ट की ओर बढ़ने लगी। इंचार्ज को इसमें कोई आत्मघाती दस्ता होने का शक हुआ। उसने गोली चलाने का हुक्म दिया। जवानों ने कार में बैठी सभी सवारियों को मार गिराया। पर... कार में से एक औरत बाहर निकलकर भागने में सफल हो गई। शक है कि उसने अपने पेट से बम बाँध रखा है।”

हम ख़ौफ़ भरी नज़रों से सड़क की ओर देखने लगे थे मानो वह औरत हमारी ओर ही आ रही हो। कल ही सद्‌दाम हुसैन को पकड़ा गया था। बड़ी गड़बड़ी की आशंका थी। फिर एक हैलीकॉप्टर आ गया था। वह उस औरत को तलाशने में मदद करने के लिए आया था। उसको कुछ दिखाई दे रहा था। सड़क के दोनों तरफ़ ऊँची झाड़ियाँ थीं। रेडियो फिर गूँजा था, “सस्पेक्टिड औरत चैक पोस्ट नंबर दो क्रॉस कर गई है। वह मेन सड़क छोड़कर बायीं ओर की झाड़ियों में से गुज़री है। अब वह शहर की तरफ़ जा रही है।”

यह ख़बर सुनते ही हमारी उंगलियाँ ट्रिगर पर दबाव डालने लगी थीं। पहले तो हमें यह लगा था कि उस औरत को हमारे तक पहुँचने से पहले ही दो नंबर चैक पोस्ट वाले उड़ा देंगे। लेकिन अब वह वहाँ से पार हो गई थी। हम समझ गए कि उसका अगला निशाना हम ही होंगे। एक और हैलीकॉप्टर आकाश पर मंडराने लगा था। हैलीकॉप्टर में बैठे व्यक्तियों को नीचे झाड़ियों में से गुज़रती उस औरत की हल्की—सी झलक मिली। उन्होंने यह इन्फोरमेशन रेडियो पर अनाउंस करवा दी थी, “सस्पेटिड सुइसाइडल औरत ने काले रंग के कपड़े पहने हुए हैं। वह एक्सप्लोसिव डिवाइस दोनों हाथों से अपने पेट के साथ कस कर पकड़े हुए है। वह तेज़ी से आगे बढ़ रही है। सभी केयरफुल रहें।”

हम अटेंशन की मुद्रा में खड़े हो गए। अब कोई संदेह नहीं रह गया था कि उसका निशाना हमारी ही पोस्ट थी। शाम के झुटपुटे में मुझे करीब चार सौ फीट की दूरी पर एक काला साया दिखाई दिया जो झाड़ियों में से निकलकर सड़क पर आ गया था। सड़क पर आकर उसने इधर—उधर देखा था। मैंने दूर से ही पहचान लिया कि यह वही औरत थी जिसके बारे में रेडियो पर बार बार बताया जा रहा था।

“अटेंशन ! शी इज़ मूविंग टुवर्ड्‌स अस।” माइकल ने चीखते हुए मुझे और नैश को सचेत किया था। सबकी नज़रें उस पर लग गई थीं। फिर वह हमारी ओर बढ़ने लगी थी। दुभाषिये ने उसे वहीं रुकने के लिए कहा था। शायद उसकी आवाज़ उस तक नहीं पहुँच रही थी। फिर वह इतना नज़दीक आ गई कि मुझे उसकी शक्ल अच्छी तरह से दिखने लगी। वह खड़ी हो गई थी। वह बाईस—तेईस साल की मध्यम कद की औरत थी। उसने अच्छे कपड़े पहने हुए थे। उसने दोनों हाथों में पकड़ी हुई पोटली—सी कसकर पेट से लगा रखी थी।

वह फिर चलने लगी थी। दुभाषिये ने उसे वहीं रुकने की बार बार चेतावनी दी थी। ऊपर आसमान में उड़ते हैलीकॉप्टरों के शोर के कारण शायद उसको दुभाषिये की आवाज़ सुनाई नहीं दे रही थी। जब उसने दुभाषिये की आवाज़ सुनी थी, तब तक वह चैक पोस्ट के सिर्फ़ सौ फीट की दूरी पर पहुँच चुकी थी। वह पैर मलते हुए वहीं खड़ी हो गई थी।

“मुझे पोटली में बम नहीं, बच्चा लगता है।” मैंने अपनी दायीं ओर खड़े माइकल से कहा था।

“ऐसा तू कैसे कह रह रहा है ?”

“मुझे पोटली में कुछ हिलता दिखता है।” मैंने पूरे यकीन से उसे बताया था।

“नैश, तूने हैरी की बात सुनी ? क्या यह बात सच हो सकती है ?”

“मैं इस बारे में श्योर नहीं हूँ।”

“श्योर तो मैं भी नहीं हूँ। पर मुझे ऐसा लगता है...।” मैंने तेज़ी से बताया था।

माइकल और नैश ने मेरी बात की ओर अधिक ध्यान नहीं दिया था। वह पहले से अधिक सचेत हो गए थे। उनकी नज़रें उस औरत पर केन्द्रित थीं। उंगलियाँ ट्रिगर पर टिकी हुई थीं। कान अगले आदेश की प्रतीक्षा कर रहे थे।

“वो हमारे चैक पोस्ट से सिर्फ़ सौ फीट की दूरी पर आकर खड़ी हो गई है।” हमारे रेडियो आपरेटर ने हमारे इंचार्ज का मैसिज हैडक्वार्टर को भेजा था।

“उसको वहीं रोकने की कोशिश करो। अगर आगे बढ़े तो शूट कर दो।”

“ओ.के.।”

कुछ देर रेडियो चुप रहा था। मेरी नज़रें उस औरत के चेहरे पर जा टिकी थीं। उसके चेहरे पर किसी किस्म का डर नहीं था। चिंता अवश्य थी। वह एक पल हमारी तरफ़ देखती थी और फिर गर्दन झुका लेती थी। उसे कोई उतावली नहीं थी। शायद उसने सोचा होगा कि एक औरत पर कौन बेवकूफ़ गोली चलाएगा। मैंने नैश से कहा था, “देख, इसका चेहरा कैसा पीला—सा है। लगता है, जैसे अभी अभी जच्चगी से उठी है।” नैश ने पूछा था, “तू यह बात कैसे जानता है ?” मैंने उसे बताया था कि मैंने अपने गाँव में अपनी चाचियों—भाभियों को इस स्थिति में देखा है। नैश ने यही बात माइकल को बताई थी। माइकल ने कहा था, “इस औरत संबंध अवश्य ही फिदाइन से होगा। मैं दावे से कहता हूँ कि इसके पास टाइम बम है। अगर यह बचना चाहती होती तो अपने दोनों हाथ खड़े करके वहीं खड़ी हो जाती। काफ़ी सुन्दर औरत है। पर किन कामों में पड़ गई पगली। तुम बिल्कुल ढीले नहीं पड़ना। जरा सी भी चूक हमारी मौत का कारण बन सकती है...।”

मैंने अभी तक किसी मरती हुई औरत को करीब से नहीं देखा था।

“अपने हाथ खड़े कर ले।... जहाँ है, तू वहीं बैठ जा।” हमारे इंचार्ज का हुक्म दुभाषिये ने ऊँचे स्वर में उसको सुनाया था। पर उस पर इस बात का कोई असर नहीं हुआ था। वह हमारी तरफ़ सीधे ही देख रही थी। इसी बीच अपने पेट के साथ सटाई हुई पोटली को उसने बायीं ओर खिसकाया था।

“अब क्या पोज़ीशन है ?” हैड क्वार्टर से पूछा गया था।

“वो कोई भी हुक्म नहीं मान रहीं। एक ही जगह पर खड़ी है। मुझे शक है कि उसके पास टाइम बम है। वह उसके फटने का इंतज़ार कर रही है।”

“ठीक है, दो वार्निंग देकर उसको शूट कर दो।”

“ओ.के.।”

फिर इंचार्ज के कहने पर दुभाषिये ने दो बार वार्निंग दी थी। इसके बाद, इंचार्ज के मुँह से जैसे ही ‘शूट' शब्द निकला, मेरी रायफल नेे आग उगली थी। उसका सिर उड़ गया था। पर उसके हाथ ज्यों के त्यों पेट के इर्दगिर्द ही थे। मर जाने के बाद भी उसने पेट से सटी पोटली नहीं छोड़ी थी। इंचार्ज ने हमें पीछे हट जाने का आदेश दिया था। उसने ख़बरदार किया था कि औरत के पेट से लगा बम किसी भी समय फट सकता था। हम शीघ्रता से पोस्ट खाली करके पीछे हट गए थे। फिर बम नकारा करने वाली टीम आई थी। दसेक मिनट में उन्होंने औरत का मृत शरीर सीधा किया था। उसके हाथों को पीछे हटाया था। पोटली पर से कपड़ा उतारा था।

सभी की आँखें फटी की फटी रह गई थीं।

वहाँ बम नहीं था। वह तो उसका बुख़ार से पीड़ित शिशु था।

000

परिचय

जिन्दर

जन्म : 2 फरवरी 1954, गांव — लद्धणां, जिला— जालंधर (पंजाब)

शिक्षा : एम.ए.

प्रकाशित कृतियां : छह कहानी संग्रह पंजाबी में — ‘मैं, कहानी ते उह(1990)', ‘तुसी नीं समझ सकदे'(1996, 1999, 2007), ‘नहीं, मैं नहीं'(2000, 2004), ‘बिना वजह तां नहीं'(2004), ‘जख्म'(2010) ‘तहजीब'(2012) तथा ‘ंआवाज़ां'(2014) दो कहानी संग्रह हिंदी में — ‘तुम नहीं समझ सकते'(1997) और ‘जख्म, दर्द और पाप'(2011)। दो रेखाचित्र ‘कवासी रोटी'(1998) और ‘जे इह सच है तां'(2004) तथा अनेक पुस्तकों का संपादन। अधिकांश कहानियों का हिंदी, तेलगू, बंगला, मराठी, शाहमुखी लिपि(पाकिस्तान), अंग्रेजी तथा अन्य भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित।

संप्रति :पंजाबी की त्रैमासिक पत्रिका ‘शबद' का संपादन ।

सम्पर्क : 984, माडल हाउस, निकट—सुरिंदर वैल्डिंग वर्क्‌स, जालंधर—144003(पंजाब)

मोबाइल : 098148 03254

————