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विश्वास के लिये संघर्ष

विश्वास के लिये संघर्ष

हमारा समाज भले ही कितनी तरक्की कर ले, लेकिन आज भी बेटियों को पढ़ाना, उनको आगे बढ़ाना बोझ समझा जाता है। लेकिन कुछ लड़कियां ऐसी होती हैं जो इन सब से बेपरवाह ना सिर्फ अपनी पढ़ाई जारी रखती हैं बल्कि वो मिसाल बनती हैं दूसरों के लिये। उन लोगों के लिये जो बेटियों को सिर्फ बोझ समझते हैं। कुछ ऐसा ही हुआ था गुड्डी के साथ। जो आज यूपी के इलाहाबाद जिले के एक छोटे से गांव में रहती है। 35 साल की गुड्डी के तीन बेटे हैं। अपने विश्वास के दम पर ही वो आज आसपास के कई गांव की लड़कियों और महिलाओं को पढ़ाने का काम करती है।

गुड्डी बचपन से पढ़ लिख कर कुछ करना चाहती थी, कुछ बनना चाहती थी, लेकिन उसके माता पिता की हालत ऐसी नहीं थी कि वो उसे किसी अच्छे स्कूल में पढ़ा सकें। उन्होने अपनी हैसियत के मुताबिक गुड्डी को एक सरकारी स्कूल में पढ़ने के लिये भेजा। अभी उसने 9वीं तक की पढ़ाई पूरी की ही थी कि उसके सपने तब धरे के धरे रहे गये जब केवल 15 साल की उम्र में उसके माता-पिता ने शादी कर दी। वो आगे पढ़ना चाहती थी लेकिन शादी के बाद उसके ससुराल वाले इसके लिये तैयार नहीं हुए। उन्होने गुड्डी को स्कूल भेजने से साफ मना कर दिया। गुड्डी की सास उसको अक्सर ताना देती थी कि तूने 9वीं तक पढ़ लिया, अब बहुत हो गई तेरी पढ़ाई-लिखाई। अब तू घर के काम काज में मना लगा और अपने पति की सेवा कर।

इतने विरोध के बावजूद गुड्डी ने अपने ससुराल वालों को काफी समझाने की कोशिश की, लेकिन गुड्डी के सास-ससुर ने उसकी एक ना सुनी। तब गुड्डी ने सोचा था कि उसका पति पढ़ने में उसका साथ जरूर देगा, लेकिन वो तब निराश हुई जब उसके पति ने उससे कहा कि जब घरवाले इसके लिये तैयार नहीं हैं तो वो भी पढ़ने के लिये जिद्द ना करे। इस तरह उसकी रही सही उम्मीद भी टूट गई। घरवाले उसकी पढ़ाई के खिलाफ थे, लेकिन अब गुड्डी ने भी तय कर लिया था कि उसको पढ़ना है और अपने ज्ञान को समाज की सेवा में लगाना है। इसलिये उसने तय किया कि वो पहले अपने पैरों पर खड़े होगी और उसके बाद वो करेगी जो वो करना चाहती है।

इसके लिये गुड्डी ने सबसे पहले सिलाई का काम सीखा और उसके बाद दूसरों के लिये सिलाई का काम करने लगी। इस तरह गुड्डी के पास कुछ पैसे जमा हो गये। जिसमें से कुछ उसने अपने घरवालों को दिये तो कुछ पैसे उसने अपने परिवार वालों से छुपाकर अपने पास रख लिये। इस तरह गुड्डी के पास जब कुछ पैसे जमा हो गये तो उस पैसे से उसने अपने परिवार से छुप कर दसवीं का फॉर्म भरा और आगे की पढ़ाई करने लगी। ये बात ज्यादा दिन तक छुपी नहीं रह सकती थी और एक दिन गुड्डी के परिवार वालों को उसके पढ़ाई की बात पता चली तो उसी दिन से घर में तनाव रहने लगा। लेकिन गुड्डी ससुराल वालों का विरोध सहती रही और अपनी पढ़ाई को जारी रखा। ससुराल वालों के विरोध को नजरअंदाज करते हुए गुड्डी अब एक कदम और आगे बढ़ना चाहती थी वो चाहती थी कि वो दूसरों के लिये कुछ करे। इसके लिए उसने एक स्कूल में पढ़ाने का काम शुरू कर दिया। खास बात ये थी कि वो बदले में कोई पैसा भी नहीं लेती थी। तब एक दिन उसकी साथी टीचरों ने उससे पूछा कि वो वेतन क्यों नहीं लेती है तो उसने कहा कि उसे वेतन नहीं बल्कि पढ़ाने का अनुभव चाहिए। उसका कहना था कि उसे बच्चों को बिना वेतन लिये पढ़ाने में संतुष्टि मिलती है। इस तरह गुड्डी ने मुफ्त में बच्चों को साल भर पढ़ाने का काम किया। तो दूसरी ओर ससुराल वालों का विरोध बढ़ता जा रहा था और एक दिन उसके ससुराल वालों ने गुड्डी का स्कूल जाना बंद करा दिया।

गुड्डी अब मां बन गई थी, लेकिन पढ़ना और पढ़ाना अब भी उसके लिये सबसे जरूरी था। इसलिए उसने एक मुश्किल फैसला लिया और वो अपना ससुराल छोड़ परिवार से अलग रहने लगी। जिसके बाद उसने एक दूसरे स्कूल में पढ़ाने का काम शुरू किया। तब गुड्डी का बच्चा छोटा था वो उसे कहीं छोड़ कर नहीं जा सकती थी। इसलिए उसने अपने बच्चे को साथ लेकर स्कूल जाना शुरू किया। इतना ही नहीं स्कूल में बच्चों को पढ़ाने के साथ साथ उसने अपनी पढ़ाई को भी जारी रख संस्कृत से एमए किया। करीब 3 साल तक परिवार वाले उससे मिलने नहीं आये, लेकिन अब उनको भी अहसास हो गया था कि गुड्डी हार मानने वालों में से नहीं है। इसलिए सबसे पहले गुड्डी के ससुर ने उसका सहयोग किया और धीरे धीरे सभी घरवाले उसे एक बार फिर पसंद करने लगे।

आज गुड्डी का पति उसके काम में हर संभव मदद करता है। करीब 12 सालों तक अलग अलग स्कूलों में पढ़ाने के बाद गुड्डी ने फिर अपनी दिशा बदलने का फैसला लिया। उसने तय किया कि बच्चे तो किसी तरह पढ़ लिख जाते हैं लेकिन उनकी मांओं को ऐसा मौका नहीं मिलता। इसलिए क्यों ना ऐसी निरक्षर महिलाओं को शिक्षित करने के लिये कुछ किया जाये। तब उसने आसपास के कई गांव में एक सर्वे किया। जहां उसको पता चला कि महिलाओं में पढ़ाई को लेकर काफी उत्साह है और इनमें से कई महिलाएं तो ऐसी थी जिनको पढ़ने की इच्छा तो थी लेकिन परिवार वालों के दबाव के कारण वो ऐसा नहीं कर पा रही थीं।

तब गुड्डी ने ठाना कि जो उसके साथ हुआ वो दूसरी महिलाओं के साथ ना हो। इसलिए उसने जहां एक ओर उन महिलाओं को एकजुट किया जो पढ़ना चाहती थीं वहीं दूसरी ओर उसने उन महिलाओं के परिवार वालों समझाने की कोशिश की जो अपने घर की महिलाओं को पढ़ाना नहीं चाहते थे। इसके लिए गुड्डी ने उन परिवारों से बार-बार बात की और धीरे-धीरे उसकी मेहनत रंग लाने लगी। इस तरह जो महिलाएं अपने परिवार का विरोध सह रही थी वो भी पढ़ने के लिए उसके पास आने लगीं।

गुड्डी के लिए उस दिन खुशी का ठिकाना नहीं रहा जब गांव की निरक्षर महिलाएं पहली बार अपना सही सही नाम लिखने में कामयाब हुईं। इस तरह जहां पहले उन निरक्षर महिलाओं के हाथ पेंसिल पकड़ने में कांपते थे वो आज अखबार और किताबें पढ़ रही हैं, गिनती लिख रही हैं, गुणा-भाग और जोड़ घटाना कर रही हैं। इतना ही नहीं समय के साथ वो मोबाइल, कैलकुलेटर, घड़ी और कैलेंडर का इस्तेमाल कर रही हैं। आज गुड्डी आसपास के करीब 10 गांव की निरक्षर महिलाओं को शिक्षित कर रही हैं साथ ही महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए विभिन्न तरह के सेल्फ हैल्प ग्रुप चला रही है। आज गुड्डी को इस बात का विश्वास हो गया है कि उसका संघर्ष बेकार नहीं गया और वो इस काबिल बन पाई कि वो दूसरों के लिये कुछ कर सके।