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घंटियाँ

घंटियाँ

आज रंजिनी की पहली पुण्यतिथि थी. मयंक ने भारी ह्रदय से उसकी तस्वीर पर पुष्पमाला अर्पित की. तस्वीर को निहारते हुए, एक मार्मिक मुस्कान, उनके होठों पर उतर आई. रंजिनी- उनकी सहधर्मिणी, बहुत जल्दी ही, काल कवलित हो गयी! आज वह जीवित भी होती तो क्या जी पाती... सही अर्थों में?!! शायद नहीं!!! रंजिनी की स्मृतियाँ, मयंक को जकड़ने ही वाली थीं... इसी से वे - खुद को संभालते हुए; घर से निकल पड़े. इस घर की हर दरोदीवार में, रंजिनी का एहसास बसा था. वहां रहकर, उस दुःख से पार पाना, असम्भव था. फिर मंदिर जाकर, पत्नी के नाम पर दान भी तो करना था.

मंदिर की औपचारिकता निपटाकर, वे वहीं सीढियों पर सुस्ताने बैठ गये. उनके कुछ मित्र भी उधर आ गये थे. उन सबसे बातचीत करके, मयंकसेन का मन कुछ हल्का हुआ. तब उन्हें बच्चों की याद आई. बेटी- बेटा दोनों ही शहर के बाहर थे. मोबाईल निकाला और सबसे पहले बेटी को फोन मिलाया- वर्किंग लेडीज हॉस्टल में. पता चला, वो पहले ही ऑफिस के लिए निकल चुकी थी. उसके नाम सन्देश छोड़कर फिर बेटे को कॉल किया. बेटा बोर्डिंग में रहकर पढ़ रहा था. फिलहाल कोई जरूरी क्लास अटेंड कर रहा था- सो वह भी फोन पर न आ सका. ऐसे में मयंक न चाहते हुए, अनचाही यादों की गिरफ्त में आ गये.

वह वीभत्स दृश्य, पुनः उनके मनोमस्तिष्क पर छा गया. रस्सी के फंदे से झूलती हुई, रंजिनी की मृत देह! साइड टेबल पर पडा हुआ सुसाइड नोट; जिसमें लिखा था- “माफ़ करना मयंक. मैं जा रही हूँ, तुम्हें छोड़कर!! गुनाहगार हूँ अपनी बच्ची की...कोई हक नहीं मुझे जीने का!!!” विचारमग्न मयंकसेन, घंटियों के स्वर से चौंक पड़े. वह स्वर, जो लगातार उसकी चेतना को कचोट रहा था... भक्तजनो की एक टोली, उन घंटियों को हिलाकर देवालय की ड्योढ़ी लांघ रही थी. मधुर घंटिका- नाद, सुरम्य वातावरण में एक संगीत सा घोलने लगा. धूपबत्ती की सुगंधि, किरणों के जाल से छन- छनकर, चहुँ- ओर फ़ैलने लगी. इन्द्रियों को अभिभूत कर देने वाला, पावन मंत्रोच्चार भी था वहाँ.

कुल मिलाकर, एक अद्भुत अनुभव! पर मयंकसेन को कुछ भी नहीं सुहा रहा. अतीत के कुछ बिखरे हुए पल, सायास ही सजीव हो उठे. अन्तस् में कोई छवि उतर आई थी...दो चोटियों वाली एक चुलबुली सी लडकी... पुजारी बाबा की सलोनी बेटी- श्यामा. भावयुक्त स्वरों में भजन गाती हुई, मंजीरे बजाकर झूमती हुई. संसार का कलुष छू तक नहीं गया था उसे. श्यामा की भोली अदाएं उन्हें उकसा गयीं थीं उन्हें...तरुणाई का ज्वार उफान मारने लगता था, उसे देखकर...और तब- तब मंदिर की घंटियों और मन में बजने वाली घंटियों के स्वर, एकाकार हो जाते! मयंक ने स्वयम को सचेत किया. यह वो क्या सोच रहे थे- पत्नी की पुण्यतिथि पर!!

एक विचित्र सा अपराधबोध उन्हें घेरने लगा. रंजिनी को भी तो, अपराधबोध ही निगल गया. मयंक चाहकर भी उससे उबर न सके. जिद करके रंजिनी ने ही, अपने भतीजे विशाल को वहां बुलाया था; ताकि पति की भागदौड़ कुछ कम हो सके. ऑफिस के कामों के साथ उन्हें, रुशाली के साथ भी, खटना पड़ता. उनकी मंदबुद्धि बेटी- रुशाली! उधर बाकी दोनों बच्चों की देखभाल से, रंजिनी फुर्सत न पाती. रुशाली जैसे जैसे बड़ी होती जा रही थी, समस्याएं विकराल से विकरालतर बन चली थीं. वह जब तब, अपने सात वर्षीय भाई पर हाथ उठा लेती या बिलावजह जोर जोर से चिल्लाती. कभी मासिक धर्म का पैड ही निकाल कर फेंक देती. देह से पन्द्रह वर्षीय युवा लडकी, पर दिमाग एक छोटे बच्चे से भी बदतर! कईयों ने सुझाया कि वे लोग रुशाली को वनिता भवन भेज दें. वहां कमअकल लड़कियों की देखभाल और शिक्षा आदि की सुविधा थी. परन्तु ऐसा करना, उन्हें अपने रक्तसम्बन्ध को नकारने जैसा लगा. उनकी नासमझ लडकी, और अनजान लोगों के बीच अकेली- यह भला कैसे स्वीकारते मां- बाप!!

हारकर विशाल को बुला लिया गया. गाँव में रहने वाला विशाल. गरीब माता– पिता का मेहनती बेटा. दूर के रिश्ते में रंजिनी का भतीजा. १७ वर्षीय विशाल, निर्धनता के चलते, हाई स्कूल से आगे न पढ़ सका था. सेन दम्पति ने उसे डिस्टेंट- एजुकेशन के जरिये, शिक्षा उपलब्ध कराने का वादा किया. प्रति माह उसे पैसे भी मिलते, जो वह अपने अभिभावकों को भेज दिया करता. बदले में उसे, रुशाली की सुरक्षा का काम सौंपा गया. घर में आने वाले पुरुषों जैसे ड्राइवर, धोबी, माली यहाँ तक कि मेहमानों की कुदृष्टि से भी, उस अबोध को बचाकर रखना था. रुशाली को बाहर घूमना पसंद था; पर इस दौरान, आस पास मंडराने वाले, शोहदों का भी डर रहता. विशाल ने मयंक फूफा को, उनके इन दायित्वों से मुक्त कर दिया.

दो-एक साल तक सब कुछ अच्छा चला. रुशाली के लिए विशाल, एक जिम्मेदार भाई साबित हुआ था. इस बीच तीन महीने के लिए, वह गाँव चला गया. वहां उसके किसी आत्मीय मित्र का ब्याह था. लेकिन किसे पता था कि हवा के साथ साथ, विशाल की नीयत भी बदल जायेगी! उसके लम्पट साथियों ने, इन तीन महीनों में, उसे न जाने कौन सी पट्टी पढ़ा दी. और रंजिनी ने एक दिन, विशाल और रुशाली को, ऐसी अवस्था में देखा कि...!! वह कुकर्मी पहले भी, उनकी बेटी के साथ, क्या क्या करता रहा होगा!!! वर्तमान से भाग न पाने की विवशता में, अनजाने ही मयंक बीते पलों को जीने लगते और फिर एक बार, अन्तस् में घंटिका- नाद गूँज उठता ....रह रहकर! लेकिन अब, मंदिर की घंटियों और मन में बजने वाली घंटियों के साथ साथ, एक चीख भी सुनाई देती. उस मासूम, निश्छल श्यामा की चीख!! ...मानों उनकी अपनी रुशाली का ही आर्तनाद!!!

नादान रुशाली ने विरोध भी नहीं किया. तभी तो नौबत गर्भपात तक आ पहुंची ....इस धक्के से रंजिनी बिलकुल टूट गयी थी. विशाल को पुलिस में देने से बात खुल जाती इसलिए प्रतिशोध भी न ले सकी ...उस रात चुपके से, खुद ही भाग गया था वो नराधम!!!!! ग्लानि से रंजिनी पल पल मरने लगी. रंजिनी की विक्षिप्तता और रुशाली का बढ़ता हुआ हिंसक रवैय्या... बात- बेबात पर पिशाचिनी सा हंसना; उस हंसी में हठात, कोई और हंसी घुल जाती- गाँव की एक पगली के, ह्र्दयविदारक ठहाके! पुजारी बाबा के वह वचन, “जानता हूँ तुम गाँव से बाहर क्यों जा रहे हो- तुम्हारे हाथों ही श्यामा का सर्वनाश हुआ है...अब तक कमलकांत जी के अनुदान से ही मन्दिर चलता रहा. वे एक अच्छे इंसान हैं...उनका दिया ही मैं और मेरा परिवार खाते हैं- इसी से चाहकर भी...!”आगे वे बोल न सके- उनका गला रुंध जो गया था!!

कमलकांत जी -उस लड़के के पिता; जिनके एहसान तले दबकर, पुजारी ने अपना मुंह सी लिया. पर स्वयम लडका , अपने कुकृत्य के जाल से निकल न सका. पीडिता की चीख, उसे रोज; सौ सौ लानत भेजती! वह खुद न समझ पाया कि आखिर क्यों और किस तरह वह श्यामा का सर्वनाश कर सका... क्या यह श्यामा का दोष था कि उसने, उसके प्रेमालाप को गलत ठहराया?! इस हादसे के बाद श्यामा चुप रहने लगी और धीरे धीरे उसका मानसिक संतुलन खो गया. विधुर पुजारी सत्यरूप को तो डॉक्टर मासी से ही, अपनी बेटी की दुर्दशा का कारण ज्ञात हुआ. अपने अपराधी को देखते ही वह, विक्षिप्त हो जाती. जोरों से हंसती चिल्लाती- उसकी पीड़ा मुखर होकर, किसी अदृश्य कटघरे में- उस दोषी को खडा कर देती. पुजारी जी से भी यह छुपा न रह सका. बिना बताये ही वह समझ गये कि इस सबका जिम्मेदार कौन था. किन्तु क्या करते? कमलकान्त यह सुनकर, मौत से पहले ही मर जाते... ह्र्दयरोगी जो ठहरे! लड़के को सजा दिलाकर, उस देवतास्वरूप व्यक्ति का; जीना ही मोहाल कर देते सत्यरूप.

पुजारी बाबा ने उसे सजा तो नहीं दिलवाई पर उनके टूटे हुए दिल से, वह श्राप अवश्य निकला, “ईश्वर करे, तुम भी एक ऐसी लडकी के बाप बनो जिसे...” एक मजबूर बाप की हाय तो उसे लगनी ही थी आखिर!!! उसने काम ही ऐसा किया था !! मंदिर के पिछवाड़े, फूल चुन रही थी श्यामा. उसे दबोचकर, मुंह बंद करते हुए...दूर घसीट ले गया वह...उस दिन घंटियों की मधुर ध्वनि, वहशियत में खो गयी थी कहीं! सत्यरूप विस्मित थे. बिटिया आरती के पुष्प लेकर आई नहीं. शायद फूलों की तलाश में, दूर चली गयी हो...आरती का मुहूर्त निकला जा रहा था, सो उन्होंने पूजा प्रारम्भ कर दी. घंटे घडियालों के शोर में, एक अबला की चीत्कार, गुम होती चली गयी.

मयंकसेन के नेत्रों के कोर गीले हो गये... श्यामा की कुगति का कारण, और कोई नहीं...वह खुद थे ! उन्होंने उसे पागल बनाया और ऊपरवाले ने उन्हें, सजा के तौर पर; एक पागल बेटी ही दे दी! रुशाली के पास वनिता भवन जाने का, वे साहस नहीं जुटा पा रहे थे. उसके अट्टहास में मानों, श्यामा का स्वर गूंजने लगता... भक्तो का भक्ति भरा उन्माद, मयंक को, उनके विचारों से बाहर खींच लाया. सामूहिक भजन- कीर्तन और आरती की ध्वनि..... देह सिहर सी गयी!. घंटे – घडियालों की गर्जना, असहनीय होती जा रही थी!! उन्होंने कानों को, जोर से मूँद लिया. उन लम्हों में, जैसे डूबने लगी हो कायनात... सुन्न सी धडकने... रोम- रोम सहमा हुआ. फिर धीरे से उठे मयंक, वहां से जाने को. आरती के स्वर मौन हो चले...घंटियाँ थम गयी; पर अभी भी, अवचेतन में, उनका शोर गूँज रहा था !!!

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