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विद्याआरंभ

वसंत विहार

"ओए ज्ञानी लंगड़ी बहस न किया कर," भूपिंदर सिंह की तोतारटंत से खीजे इशरत हुसैन ने खुराक दी - "कौमी पहचान का फलसफा छांटते हुए तू इस अंतर्विरोध को क्यों हज़म कर जाता है कि धार्मिक निशानों का सियासी इस्तेमाल करने की होड़ में तुम्हारे हीरो "मॉडरेटस भी मुख्यधारा से कट चुके है?"

शिकवे की तलसी श्रोताओ की ख़ामोशी पर गूंजकर बिखर गयी, सबने दहले की प्रत्याशा में साँस साध ली, लेकिन भूपिंदर बेबस नख-पंजे समेटे इशरत को घूरता रह गया । प्रतिक्रिया में बुलंद ठहाका फूटा जो बस की खड़खड़ में दब गया । लेवल क्रासिंग का फाटक बंद होने को था और बस - ड्राईवर मालगाड़ी की आमद से पहले उसे लांघना चाहता था । फैक्ट्री-गेट पर लेट-रिपोर्टिंग, माने मालिक को चूना ।

फाटक फिर भी बंद हो गया । दुस्साहस - रोमांचित स्नायु शिथिल पड़ने लगे । आसन्न ऊब की झाई चेहरों को ढकने लगी । बस रुकी तो लोग उतरने लगे । पान-सिगरेट-लोटरी के खोखे आबाद होने लगे । भीतर बचे लोगो में कुछ वानप्रस्थी और कुछ विक्रम-बेताल किस्म के जीव थे ।

पिछले हिस्से में सरगर्मी थी । यहाँ की छह सीटे बस का 'दिमाग' मानी जाती थी । इशरत हुसैन 'दूल्हा भाई' और भूपिंदर सिंह 'ज्ञानी' के अलावा या बोधिपीठ इक़बाल हुसैन सक्सेना 'लाला', अशर्फीलाल गुप्त 'बोरा', संग्राम सिंह 'चक्कुगुरु' और जनार्दन शुक्ल 'दऊआ' के लिए आरक्षित रहा करती थी । पिक-अप पॉइंट से फैक्ट्री गेट तक के अन्तराल को भरने के लिए जबकि सभी के पास अपने शगल थे, 'दिमाग' की प्रतिभा-पंखुरी परिचर्चा की केसर-क्यारी में ही खुलती थी । सन्दर्भ चाहे गणिकाश्रम पर मारे गए छापे और चमत्कारी बाबा के शयनागार - रहस्य सरीखा स्थानिक हो अथवा नाभिकीय शास्त्र - परिसीमन संधि की द्विअर्थी धाराओ सरीखा अन्तराष्ट्रीय, कर्मीगण हर बहस में डूबकर रस लेते थे, क्योंकि प्रयोजन और परिणाम, दोनों स्वतः सिद्ध थे ।

बस आम तौर पर एम.ई.एस. पम्पिंग स्टेशन के पास रुका करती थी और इस तरह गुलमोहर और कनेर के घुच्छो के नर्तन के बीच ट्रेन को गुजरते देखने का सुख देती थी, लेकिन उस दिन ड्राईवर ने मानो ट्राफी जीतने की धुन में उसे बाएं से आगे निकलकर धोबीघाट वाले किले तक पहुंचा दिया था ।

‘बोरे’ ने खिड़की से सिर निकला और टीले के पार नज़र दौड़कर आँखे फैलाई - "अरे, ये बसंत बिहार कॉलोनी कब से बस गयी? अभी तक तो यहां गधे रहते थे और आज ..... लेकिन इतनी जल्दी एलोत्मेंट कैसे कर दिए इन लद्धड़ के डी.ए. वालो ने?"

बतरस-डूबी-विचारक-टोली चिंहुक उठी । लाला ने उचककर अनुमान लगाया और बोरे के गुब्बारे में पिन चुभा दी - "अबे गावदी, यह कॉलोनी एलोट नहीं की गयी, बसाई गयी है ... और ये लोग, जो तुम दिनान्धी के शिकार को एलोटी नज़र आ रहे है, दंगे वाले रिफ्यूजी है । "

"रिफ्यूजी" एक जिज्ञाशु साम-घोष हुआ और कई जोड़ा आँखे कॉलोनी की सत्ता की पहचान में जुट गयी ।

वसंत विहार कॉलोनी बस गयी, सच में यह एक खबर थी । शिलान्यास के अवसर पर नगर-प्रमुख ने इसके कल्पनापूर्ण नामकरण से तरंगित होकर जो काव्यमय उद्गार व्यक्त किये थे, उन्हें सत्तासेवक समाचार पत्रों के प्रशिक्षु संवाददतागण प्रदूषण-विरोधी अभियान के रूप में जब-तब उछालते रहते थे, जबकि यह कॉलोनी भी विकास-प्राधिकरण के मुंडमाल में जुड़कर रह गयी थी । अँधेरी-टूटी सड़के, लापता बुनियादी सुविधाओ और एकतरफा ढंग से ड्योढ़ी कर दी गयी कीमतों के बावजूद मैदान न छोड़ने वाले निर्बल एलोटियो को फटी छतो और उन पर से गुजरती ग्यारह हज़ार वाल्ट की लाइनों के साए में कुछ दिन गुजारने के बाद इल्हाम हुआ कि खुदखुशी करने से फुटपाथ पर पुलिसिया सितम कहते हुए जीना बेहतर है । जब से यह उजाड़खंड बाय-पास रोड के सफ़र का हिस्सा भर था, मुसाफिरों को मंज़र के हवाले करने वाले शकुन-संकेत जैसा, हर रोज़ क्रासिंग पार करने से पहले सबकी नज़र उन कोटर-कतारों को छू जरूर आती थी । उस दिन खैर बस भी टीला चढ़कर ठीक सामने रुकी थी ।

फाटक बंद हुए देर हो चली थी । तलबगीर लौट कर सीट घेर चुके थे और घड़ी देखते हुए कयास लगा रहे थे - अब गाड़ी आई अब फाटक खुला । कुछ लोग अन्होही के आशंका से बैचेन हो रहे थे । पिछली सीटो पर भी जुंबिश हुई - "अरे लाला!" दउआ ने हैण्ड लगायी - "जरा केबिन माँ झाँक आवो, का पोजीशन है?" लाला खोमचा लगाये था । कोंच जाना उसे अखरा, फिर भी ठहरने का संकेत देकर वह रहस्य-कथा को उत्कर्ष तक ले जाने लगा ।

"बबुआ, पहले देखि आवो .. बड़ा राजा बेटा," कहकर दउआ ने जो पुचकारा तो उनके खोखले कल्लो से छूती पीक की फुहार और लाला की झुंझलाहट ने वह मंजर दिखाया कि लोग पेट पकड़ रह गए, कसर पूरी की चक्कू गुरु के पतीले ने - " दऊआ, तुम पुचकारो चाहे गुलगुला दिखाओ, मुला यु न मसकी आपन गहकन का छाड़ी के, खरहा है सार । बिन ठोंके 'फारम' मा आई? राम भजो। "

वाक्य पूरा होने पर कई घटनाए एक साथ घटी । लक्षणा पर रीझे रसिको ने ठहाका लगाया तो धाकड़ जुमलेबाजों को ककहरा सिखाने वाले लाला को न जाने क्या हुआ की वह फनफनाता हुआ दौड़ा और अब तक लोग ‘हैं- हैं' करे, उसने गुरु के भरपूर कंटाप जड़ दिया । गुरु भड़भड़ाकर सीट के नीचे धसक गए और उनका चश्मा छिटककर दूर जा गिरा । दऊआ तेज़ी से उठे और चश्मे की रेजगारी को गुरु तक पहुंचकर लाला को सँभालने लगे । तभी बस एक काँपने वाली चोट के साथ हिल उठी और दरवाजे के पास वाली खिड़की की किरचें झनझनाकर आ गिरी । बस में सन्नाटा छा गया । धमाके का असर कम हुआ तो कर्मीगण एक साथ उठ खड़े हुए । सभी के चेहरों पर और मुठ्ठियों में खिचाव था । अजब बदहवासी का आलम था । ज्यादातर लोग बस से उतर पड़े और पत्थर और खिड़की को देखते हुए स्थिति को परखने लगे । ड्राईवर और कंडक्टर भदेस-पाठ करते हुए फ्रेम में लटके हुए शीशे के टुकडो को अलग करने लगे ।

टोही-टोली की संदेह की सुई कॉलोनी के चारदीवारी पर खड़े एक युवक की और घूमी । वह मलंग सिख युवक मुख से अजीब-अजीब आवाज़े निकालने के साथ ठुमक रहा था ।

सबके सब सन्न खड़े थे । किसी में हिम्मत नहीं थी कि उस उन्मादी युवक को चुनौती दे । आखिरकार चक्कू गुरु ने ललकारा - "अबे ओ टार्ज़न की औलाद । पत्थर चला कर फुदक रहा है? ठहर? अभी भांगड़ा नाचता हूँ," कहकर उन्होंने दौड़ लगायी लेकिन युवक कूदकर क्वार्टर की ओर भाग गया । गुरु, गुम्मा उठाकर पीछा करने चले, लेकिन इशरत हुसैन ने उन्हें जकड लिया - "जाने दो गुरु, भगोड़े पर क्या हाथ उठाना?"

"छोडो मुझे." गुरु फनफनाते हुए जोर लगा रहे थे - वो तुड़ाई करूँगा साले की ....."

" अमाँ जाने भी दो सिरफिरों के पीछे भागना हिमाकत है । "

"सिरफिरा हो या पागल, अभी इलाज करता हूँ ससरऊ का," और गुरु जोर लगाने लगे । इशरत ने सहायता के लिए इधर - उधर देखा और साथियों के सहारे गुरु को किसी तरह बस में चढ़ा दिया । बमचक देखकर गेटमैन हरदीन भी केबिन छोड़कर दौड़ आया - "का भवा भाई लोगो?" कौनो इधर से गम्मा चलाईस है का?" उसने कॉलोनी की और देखकर कहा, "तो फिर जसवंत होई, रोज फटकार खाता है, मुला सुनता नाही ..... "

"तुम उस जंगली को जानते हो?" इशरत ने अचरज और नाराजगी के साथ कहा "भले आदमी, हम लोगो को ख़बरदार क्यों नहीं किया? अगर वह वाकई पागल है तो इसे छुट्टा क्यों छोड़ रहा है घर वालो ने? यह मरदूद तो जान ले डालेगा किसी दिन । "

हरदीन ने उद्विग्न इशरत और उद्वत समूह को देखा और कॉलोनी की और एक अर्थपूर्ण दृष्टि डालकर रुकने का संकेत किया -" जरा ठहरो, पहले गाडी की खोज-खबर ले आये" वह लपककर केबिन की और गया, फिर जल्दी ही पलटकर चमकाकर बोला, "कोनो चांस नाही"

"तो गेट क्यों नहीं खोलते?" अधीर आवाज की गोलियाँ दगीं ।

"आउटर वाले सिग्नल जकड़े बईठे है, आपहु लोगो रेलवे की ड्यूटी करो," कहकर उसने निस्संग भाव से सिर झटका । कर्मियों के चेहरे लटक गए । हरदीन की बात सुनते ही बस फिर खाली होने लगी । संवादहीनता के निष्पंद जल पर ऊब की काई जमने लगी ।

पर यह स्थिति अल्पायु सिद्ध हुई । सिख युवक के आचरण की अघटित परिणिति चर्चा का केंद्र आ बनी । लाला ने मैनपुरी की पुडिया खोलते हुए सभारंभ किया - दऊआ हो, पगलैट के भाग्य अच्छे थे, नहीं तो आज उसकी तुड़ाई पक्की थी । "

"मरन देव अभागे को," दऊआ ने चारदीवारी पर नज़र डालकर वितृष्णा से कहा - "नहीं, उसे सबक सिखाना जरूरी है । " लाला ने चिंता प्रकट की - "आज तो खिड़की पर कहर टूटा, लेकिन कल कुछ भी हो सकता है । "

"और क्या, पागल का क्या भरोसा?" बोरे ने कई बार सिर हिलाया ।

"साहब, वो लौंडे आगल-पागल नहीं, हमारे-आप जैसा भला-चंगा आदमी है," हरदीन ने लम्बी ऊहापोह के बाद मन की गांठ खोली ।

"क्यों पहलवान, बड़ी हमदर्दी हो रही है सरदारे से?" लाला ने चुहल की ।

"लाला भईया बात मानो, जसवंत में कौनो एब नाही है," हरदीन ने आश्स्वस्त करने का प्रयास किया - बस एक ही पेंच है ओहिमा, सारा कौन्हो टूरिस्ट बस देखिस नाही कि धतूरा घुली जात है ओहीके खून माँ, फिर नाही देखत कि केहिका माथा फटा और केहिकी आँख गयी ।

"और तुम कहते हो उसमे कोई एब नहीं है?" लाला ने तंज किया और हरदीन की और तम्बाकू बढ़ाते हुए उसे कुरेगा - "आखिर वजह क्या है जो वह इतना खूंख्वार हो जाता है ?"

खुराक को होठ तले दबाकर हरदीन टीले पर पसर गया । कर्मीगण भी उसके इर्द-गिर्द सिमट गए और उसकी रहस्यमयी मुद्रा को पढने लगे । कुछ देर के मौन के बाद उसने कॉलोनी की और इशारा करते हुए कहना शुरू किया, "बाबू साहब, आप लोग जानते होइहौ, इन क्वार्टरन मा रिफ्यूजी लोग रहत है । "

श्रोता-समूह ने स्वीकारोक्ति की । हरदीन बताने लगा, "दंगे के बाद ई सब झाड़ीन के पीछे छिप गए । गवर्नमेंट इनका भूत-बंगला मो बसाइस है । नीचे छावनी है, और फौजी गाडी मा सहर आये-जाए साधनहु है । सब सहूलियत मिलती है इनको । "

चेहरों को क्वार्टरओ की तरफ उठे देख हरदीन ने कहा, "साहब, ई सब लुटे-पिटे लोग है " कौनो का बाप छिना है, कौनो का बीटा । कोऊ अपने सगे-संबंधियों को जलते देखिस है और कोऊ अपनी बिटिया की नोचा-घसोटी देखिके भी नहीं देखिस है । बोलो नाही पावत है कि कौन नज़ारा ओहिका पत्थर बनाए देहिस हियाँ, "कहते-कहते हरदीन की आँखे भीग आँई । उसने बांहों से नमी सोंखते हुए कहा - "औ जसवंता तो दीवाल पर घंटो समाधी लगाये रहत है । है, तरंग चढ़ी जाए तो एक रागिनी सुनावत है । "

अविचलित-उत्कंठित कर्मीगण हरदीन के मुख पर दृष्टि साधे थे, जिसका अन्तरंग कथा त्रासद रहस्य बन चुका था । उस खंडित क्षण रेलगाड़ी की प्रतीक्षा निःसत्व हो चली थी । अर्थपूर्ण थी केवल उस असामान्य युवक की अबूझ जीवन - पहेली ।

सबकी मौन आतुरता हरदीन की विश्वसनीयता की संकेतक थी । एक गुरु ही मूंछो का तानपुरा साधे यति-भंग करने पर तुले थे - "उन लोगो की तकलीफ से सबके साथ मुझे भी हमदर्दी है, लेकिन उस दुष्ट को मैं छोड़ने वाला नहीं हु । शातिर निशानेबाज है क्या पता, पागल के भेस से उग्रवादी भी न हो ?"

बात ने असर दिखाया । अभी-अभी जो लोग हरदीन की संवेदना के सहारे उजड़े परिवारों की व्यथा से जुड़े थे, संदेह की आंधी उन्हें अजनबी तमाशाई बनाने लगी । उन्हें सिर जोड़कर खुस- पुस करते देख हरदीन ने विक्षुब्ध स्वर में कहा "आप लोग पढ़े-लिखे साहब लोग है, जिसे उग्रवादी बना देव, मुल हम हिंया सोलह घंटे रहत है, हम जानत है कौन का है । "

"अमा हरदीन, तुम तो नाहक चिढ़े जा रहे हो, "इशरत ने उसे संभाला - "गुरु तो शक जता रहे थे । सच- झूठ की परख तो तुम्हारी बातो से होगी । "

" बाबू साहब, जसवंत के परिवार को हम बहुत पहले से जानत है," सहज होकर हरदीन ने बताया ।

"कौन जसवंत?" बोर ने एक क्वार्टर की खिड़की से चोर नज़र हटाकर पूछा । हरदीन ने अनसुनी करके बात जारी राखी - "इसके बाप खालसा कॉलेज माँ अंग्रेजी पढ़ावत रहे । हमरे नंदू-पुत्तन उन्ही ते कोचिंग पढ़त रहे । "

"फिर ....? क्या हुआ मास्टर साहब को?" इशरत ने पूछा ।

माहौल में उत्पन्न सतब्धता खींच गयी ।

"मास्टर जी दंगे में फूंक दिए गए, "हरदीन ने एक साँस में कहकर चुप साध ली । उसका मर्महित स्वर और रक्त-निचुड़ा मुख गवाह थे कि अकहनी को कहने तक उसने क्या कुछ सहा है और मन की फांस को निकालते-निकालते वह चिंता के धुएँ का ठिकाना जान गया है ।

कथन के धमाके ने सभी को कंपा दिया । विवरण की बाम्बी में घुसने का साहस किसी में नहीं था । इशरत ने हौले से उसके कंधे पर हाथ रखा - "यह हादसा कहाँ हुआ था? कौन थे वे शैतान?"

"गैस-गोदाम के पास ... उई लोग मास्टर जी का का साइकिल सुदा आग मा झोंकी दिहिन," नफ़रत और गुस्से में दहकते हरदीन ने निर्मम सच को उघाड़ा - "ओ झौंकने वाले नेता-गुंडे सब एही गाँधी गाँव के रहे । "

"लेकिन मास्टर साहब उस जगह फंस कैसे गए?" इशरत ने पूछा, "गैस गोदाम की तरफ तो घर भी दूर-दूर बने है । दिन में भी कोई खास चहल-पहल नहीं रहती उधर । "

"काहे, वही तो मकान रहा मास्टर जी का," हरदीन ने बताया ।

"फिर भी ... कोई तो वजह रही होगी उनकी हत्या की?" चक्कूगुरु पूर्वाग्रह के घेरे में ही थे ।

और एक निर्दोष अध्यापक की जान बचाने के लिए उस बस्ती का एक आदमी भी नहीं आया । " दऊआ कुंठ-करुणा से कराहकर हरदीन को टोहने लगे - "और तुम्हे कैसे खबर लग गयी"

दऊआ की आँखों का सिकुड़ना और उनकी आवाज़ का ज़हर हरदीन को खरोंच लगा गया । "हम तो उत्तेखन बच्चन का लाये गए रहे । " उत्तर देते समय हरदीन अपराध-भाव से घिर गया, जैसे उसका मौके पर मौजूद होना उसकी कर्तव्य-विमुखता को सामूहिक शोक में समाहित करने का बहाना भर था । कुछ पलो के विचलन के बाद वह निस्संग भाव से विवरण देने लगा - " बाबू साहब, मौत के हज़ार बहाने है, लेकिन मास्टरजी उत्तेखन अपनी मौत को नहीं पहचान पाए। "

"क्यों, क्या गफलत हो गयी उनसे?" इशरत से रहा नहीं गया । वह उस कारुणिक प्रसंग के छोटे-से-छोटे ब्योरे से जुड़ जाना चाहता था ।

हरदीन कई दूर देखता हुआ बोला, "बड़े भाई, आप तो जानते हो उई बखत बदले की आग जलत रही हर कहू । गाँधी गाँव वाले माई का जैकारा लगावत भये गैस गोदाम से नीचे टीचर कॉलोनी मा पहुच गए । मास्टर जी के गेट पर पहले ही निशान लगा रहा । उई सब उनिका खींची लिहिन औ बोलीं, "पगड़ी रख कर माफ़ी मांगो । "

"फिर?"

"फिर का? .... मास्टर जी उलझी परे दंगाइन ते --- " यह तो ज़बरदस्ती है । किस गलती की माफ़ी मांगू?" हल्ले - दंगे में कोऊ उनके बात सुनिस, कोऊ नाही, सब उनका धुनके लागे । मास्टर जी देखीं एक टूरिस्ट गाडी सड़क पर धीरे-धीरे सरकी रही है । उई गुंडन का धकियाये के गाडी मा घुसी गए, लेकिन एक मुस्टंडा उनका नीचे खिंच लिहिस, दूसर पगड़ी की तरफ झपटिस । मास्टरजी किरपान खींची लिहिस, उन लोगन का तो बहाना चाही रहा । मार हाकी, मार गुम्मन कुचली दिन्हेन उनका, फिर टायर जले के फूंकी डारेन । अरे - हडड ! मास्टर जी ही बचे रहे, उन पिसाचन की प्यास बुझाए खातिर । " कहते - कहते हरदीन धीरज खो बैठा और हथेलियों में सर फंसाकर सिसकने लगा ।

इशरत हुसैन ने उस खौफनाक मंज़र की याद से सिहरकर आँखे बंद कर ली और एक एक नेक बन्दे की शहादत को सलाम किया । दूसरों ने भी उस सज्जन और निर्दोष व्यक्ति के वीभत्स अंत पर मुखर और मौन शोक प्रकट किया ।

"और यह जसवंत सिंह .... यह कैसे मतभंगा हो गया?" लम्बी चुप्पी के बाद किसी ने पूछा ।

"जसवंत छज्जे से देखत रहा," हरदीन ने बताया - "बाप के हत्यारन से बदला लै खातिर कूद परा ज़मीन पर टांग मा सो चोट लागी, दिमागहु चल जात है । फिर कर्फ्यू लगा, मास्टरजी के घर औ ढेरन रेफ्युजियन का यहाँ लावा गवा है । "

"अरे राम ! बड़ा पाप करने जा रहे थे हम लोग," दऊआ ने कानो पर हाथ रखते हुए कहा, "हरदीन भैया, कुछ उल्टा-सीधा कह दिया हो मास्टरजी की शान में तो माफ़ कर देना । "

हरदीन के मुख पर व्यथित मुस्कान खेल गयी - "का फरक पड़त है पंडिज्जी? मास्टर जी तो भले - बुरे ते ऊपर निकल गए है । "

हरदीन का दर्द सब को छू गया । कर्मीगण सिर झुकाए बस की और बढ़ गए । तभी ट्रेन आ पहुंची । गेट खुलते ही ड्राईवर ने रेस करनी चाही, लेकिन होड़ तगड़ी थी, सो बस रेंगती हुई चलने लगी ।

सीटो पर से गुनगुनाहट फिर से उभरने लगी । फिल्म, स्कैन्डल, वोट, कालेधन और चमत्कारों के किस्से सुने-सुनाए जाने लगे । चक्कू गुरु के चेहरे पर मलाल था - " दऊआ आज तो बड़ा अपराध हो जाता । वो तो कहो की हरदीन ने बचा लिया, नहीं तो ....."

कभी - कभी आँखों देखा सच भी कितना भ्रामक सिद्ध हो जाता है, " दऊआ को दर्शन की लहर खींच रही थी - "प्रतिहिंसा के ज्वार ने विचारने नहीं ही दिया कि उस अभागे युवक के ह्रदय में कैसी ज्वाला धधक रही होगी । सत्य तो यह है कि उन्मादी वह नहीं, हम लोग थे - हम, जो अपने को सहिष्णु और संवेदनशील कहते नहीं थकते । "

आत्म-साक्षात्कार के सम्मान में सब शांत रहे । केवल बस का इंजन गुर्राता रहा । "लेकिन दऊआ मेरी समझ ने यह नहीं आता की सरकार कब तक उग्रवादियों के साथ लुकाछिपी खेलती रहेगी ?" बोरा आदतन बैचेन हुआ - "आखिर कब तक हम अपने सीमित साधनों को रिफ्यूजियो पर लुटाते रहेंगे?" विभाजन की साजिश कब तक चलती रहेगी? कब तक?

उसकी गिनती देश-चिंतन सत्र का आमलेट की डकार से समापन करने वालो में होती है, यह बोरा भी जानता था और कर्मीगण भी, इसलिए उसका यक्ष प्रश्न अनुत्तरित भटकता रहा, लेकिन ग्रहण के मोक्षकाल से जिस अयाचित घटना की जरा भी आशंका नहीं थी, वह रूप लेकर रही । मन में इतनी देर से घुमड़ रहे तूफ़ान को रास्ता देते हुए भूपिंदर सिंह दहाड़ उठा - "कौमी पहचान का उभार अगर किसी को साजिश नज़र आती है तो ये साजिशे तब तक चलती रहेंगी, तब तक कुछ गुमराह और अराजक गिरोहों की हरकतों के लिए पूरी कौम को सजा देने का सिलसिला चलता रहेगा । "

पिछली सीटो से कोई जवाब नहीं आया, संभवतः जसवंत की स्मृति के हाथो विवश होकर । इशरत हुसैन के मन पहले आया की ज्ञानी को झिंझोड़े कि इस हालत के लिए तत्ववाद की परिक्रमा करता मुखौटा-धारी नरमपंथ ज्यादा जिम्मेदार है, लेकिन उससे पहले उसने बोरे सरीखे उलटे लटके चमगादड़ पर ढेला फेंका --- "और जब तक एक ही सरज़मी पर पैदा होने वाली कौमे सिर्फ मज़हब के फर्क से दुभंती का शिकार होती रहेंगी .. और जब तक उनकी वतन-फरस्ती को बाबर और पेट्रोल डॉलर के बहाने जलील किया जाता रहेगा । "

निशाना सही बैठा है, यह इशरत को दिख गया, "शाबास! सच्चाई बोलेगी तो कफ़न फाड़कर बोलेगी । " किसी की चुटकी पर तालिया बजी तो दऊआ तड़प कर गरजे - "यह सच्चाई नहीं गद्दारों के मन का चोर बोल रहा है । लेकिन गुबरेलो के छींकने से पहाड़ नहीं गिरते, खून-खराबा करने वाले लाख जोर लगा ले, यह देश अब और बँटने वाला नहीं है । "

"अरे दऊआ, तुम काहे बी.पी. बढ़ावत हो का हम इन मच्छरन के लिए कम है?" चक्कू गुरु मूंछो की डोर चढ़ाकर हुंकार उठे - "दगाबाज वो भी है और ये भी । ससुर जिस थाली में खाए उसी में छेद करे। "

पानी सर तक चढ़ आया था । इशरत हुसैन को सब बर्दाश्त था, लेकिन अंधराष्ट्रवादी अहंकार नहीं । समय की सच्चाईयों से चौंधियाये हुए उस गिरोह की आँखों का मोम पिघालने के लिए इशरत ने गर्म सलाख लगायी - "किसकी थाली और कैसा छेद? यह मुल्क किसी की बपौती नहीं है और न किसी ने वतनपरस्ती का ठेका ले रखा है । धर्म और जाति के सहसंबंधो को वही समझ सकता है और देश को तोड़ने और जोड़ने वाली ताकतों की वही पहचान कर सकता है, जिसे इतिहास और समाज की गहरी समझ है, न कि तुम जैसे दिमागी गुलामो को, जिन्होंने अक्ल की चाबी तास्सुबी जमात को सौप रखी है । "

आशंका के विरुद्ध गुरु सकपकाकर बैठे रहे, लेकिन दऊआ भौहैं नचाकर और आवाज़ में समूची नफरत निचोड़कर फुफकारने लगे - "तुम ज्ञान नहीं बांटोगे तो क्या नास्तिको की वे किताबे आकर बांटेगी, जिन्हें पढ़ाकर तुम अनपढ़ मजदूरो को भड़काते हो? एक तो विधर्मी, फिर कौमनिस्टो का साथ । वर्कर होने का फायदा उठाकर तुम हमारी सहिष्णुता को ललकार रहे हो, वर्ना महादेव की सौगंध, तुम जैसे पंचगामियों को इस देश की तमीज सिखाना हम खूब जानते है । "

" दऊआ हो ! इन गद्दारों की असली पहचान क्रिकेट मैच में होती है." लाला ने घी का छांटा मारा - "सादिक हुसैन छक्के वहाँ लगता है और मिठाई यहाँ बटती है .. और जो कही हमारी टीम जीत जाते तो देखो पूरे मकबूलगंज में कैसा मातम छा जाता है । जरा महापंडित इशरत हुसैन अपनी पोथियाँ देखकर समझाए कि यह सब कौन करता है - रिश्तो को तोड़ने वाली ताकतें, या जोड़ने वाली?"

"ओए लाला, तुझे इशरत नहीं, मैं समझाता हूँ । " भूपिंदर सिंह ने घूमकर ललकारा - "पिछले महीने तेरे भाई के ट्रक से बॉर्डर पुलिस ने जो शक्कर के बोरे जब्त किये थे, वे किन ताकतों को कढ़ाह परशाद छकाने के लिए जा रहे थे?"

लाला का चेहरा फक पड़ गया । "नो पर्सनल कमेंट्स" उसने हकलाते हुए कहा और खिड़की के बाहर नज़र टिका दी ।

"सांप-नेवले का ये मेल देखो गद्दारी का खेल । " चक्कू गुरु ने खिसियाकर तुकबंदी के गमछे से औंधे पड़े अपने साथियो की धूल झाड़ी और अत्म्विमुग्ध ठहाका लगाया, जो बस के सन्नाटे में गूंज कर रह गया । कर्मीगण पीछे घूम-घूमकर अनिष्ट की आशंका में डूबकर दोनों पक्षों को ताक रहे थे ।

"फासिस्ट राक्षस को मारने के लिए यह मेल जरुरी है," भूपिंदर सिंह ने विषबुझे तीर को सहजता से लौटा दिया । उसकी आत्मविश्वासपूर्ण अविचलित आक्रामकता से बौखलाकर चक्कुगुरु उसकी और लपके और उसका कॉलर पकड़कर चिंघाड़ उठे - "साला खालिस्तानी । राष्ट्रप्रेम को फासिज्म कहता है !!" इशरत हुसैन ने उन्हें हिंसक होने से रोकने के लिए उनकी बांह मरोड़ दी तो वे इशरत से भीड़ गए । भूपिंदर सिंह उनके साथियो को छेकने के लिए चौकन्ना खड़ा था ।

बस में अफरातफरी मच गयी । कोलाहल और गुत्थमगुत्था देख कंडक्टर ने सीटी बजायी और ड्राईवर भी इंजन बंद करके खड़ा हो गया - "लो, अब करो ग़दर ! अभी एक्सीडेंट हो जाता तो एक सूरमा भी नज़र न आता गवाही के लिए । " कंडक्टर फुल सीटी मारकर दहाड़ा - "गाड़ी थाने ले चलो बाकी फाइट वही होगी" घुड़की सुनते ही सबको सांप सूंघ गया । बवाल-बीज को विरोधी पाले में ठेलने और जुगल-जोड़ी की पूजा-अर्चना के बाद बस "मौनी स्पेशल" बनी चलती रही ।

गाडी चलती रही । घर से फैक्ट्री, फैक्ट्री से घर । हफ्तों - महीनो के मील - पत्थर फलांगती । कर्मीगण के बीच बातें होती भी तो न के बराबर । धीरे-धीरे लोग वसंत-विहार कॉलोनी और उसमे बसे हुए परिवारों के प्रति उदासीन होते गए । कभी-कभी खिड़की वाली सीटो पर बैठे लोग जिज्ञासु - जनों को अलगनियो पर सूखते अधोवस्त्रो की प्रकृति और गृहिणियो का नख-सिख वर्णन देकर कृतार्थ कर दिया करते थे ।

फिर वह दिन आया, जब उन "जसदेव-सिंहो' को शर्मसार होना पड़ा । सूनी अलगनिया, खामोश छज्जे और झूठन की तलाश में भटकते पशु खंडहर में टिके वसंत का विदा - गीत सुना रहे थे । उन उजड़े परिवारों और उनसे जुड़े हादसों की धुंधलाती यादो के बीच बस का सफ़र चलता रहा और साथ चलती रही बेजान रहगुजर में हरारत की तलाश ।

आखिरकार हसरतो की ज़ुल्फ़ सर हुई । कॉलोनी ने सुख-दुःख और धूप -छांह की लीक पकड़कर फिर रूप बदला । अलगनिया भर गयी । छज्जे - दालान धड़कने लगे । मैदानों में गोरे, नंग-धडंग बच्चो के खेल, थकी और परेशान गृहस्थियो के कामकाज और चारदीवारी की मुंडेर पर बैठे फिक्रमंद और फटेहाल मर्दों के उदास और ज़र्द चेहरे संवादियो के ज़िक्र में आने लगे ।

फिर एक दिन रेल-रोको आन्दोलन ने बस को क्रासिंग पर रोक लिया । इस बीच उसके भीतर का सब कुछ बदल चुका था । ठेके की नयी शर्तो के मुताबिक लेटलतिफी के लिए कोई जिम्मेदार नहीं था । विडियोकोच के रुमान ने गहरे-छिछले का भेद मिटा दिया था । अब न बहसों के तनाव थे, न हालत के गर्दोगुबार और न दुखिया संसार के सियापे । सभी सेक्स, थ्रिल और मेटल म्यूजिक के ब्लैकहोल में परमगति पा चुके थे ।

विडिओ पर इच्छाधारी नागिन डिस्को नाच रही थी । इशरत हुसैन उबकाई रोककर बस से उतर गया और कॉलोनी की तरफ जाकर लुटीपिटी इंसानी ज़िन्दगी को देखने लगा - वे मायूस और दहशत जदा और उन पर डरावने सपनो की परछाईयां, भाई के हाथो भाई के क़त्ल के किस्से, पासवानो की वर्दी वाले रहजनो की दास्ताने । बाते करते लोग उसे देख ठिठकते, फिर अपनी दुनिया में लौट जाते ।

तभी उसकी आस्तीन को किसी ने पीछे से खींचा । मुड़कर देखते ही वह पसीने में नहा गया । बिखरे बाँलो और तार-तार हो चुके लिबास वाली एक जवान औरत उसे एकटक देख रही थी । उसकी सूजी हुई आँखों का खालीपन देखकर इशरत हुसैन को झुरझुरी चढ़ आई ।

"हयो मूल बचवा उचवोन?" वह बदहवास औरत इशरत को झिंझोड़ रही थी - "स्वाह ओस यथ गली मंज गिंदान । " (तुमने मेरे बेटे को देखा है? वह उस गली में खेल रहा था)।

इशरत के जिस्म में सर्द लहर दौड़ गयी । औरत उसकी बाँह कसे एक ही जुमला दोहराए जा रही थी । तभी दीवार पर बैठा एक युवक कूदकर दौड़ आया और उस औरत को अलग हटाने लगा, लेकिन वह पत्थर पिघलाने वाली आवाज़ में डकरायी - "हता म्यानी ताठ्यो !" .... "हता म्यानी ताठ्यो !" (हाय मेरा लाल) और छिटककर दौड़ गयी । "साहब उस दुखियारी को माफ़ करना ... उसका मासूम बेटा कर्फ्यू के समय गली में खेल रहा था ... जवानों ने उसे गोली से भून दिया ...." युवक अजनबी भाषा में समझाने की कोशिश कर रहा था और इशरत बेकाबू धडकनों को संभालता, ठिठका हुआ खड़ा था ।

उसे युवक के कदमो के साथ लौटती हुई नज़रो के सहारे इशरत हुसैन कुछ पलों की ज़िन्दगी का हो गया, जो अपने नकारदा गुनाहों के लिए अपनी जड़ो से उखाड़कर हजारो मील दूर इस खँडहर तक हांक लायी गयी थी । अनगिनत कीले उसके वजूद को छेड़ने लगी । अदेखे फंदों की जकड़ में उसका दम घुट रहा था । भारी कदमो से वह बस की बेहिस दुनिया की और लौट पड़ा । बोरे की भेदी निगाहें उस पर लगी थी । इशरत हुसैन दरवाजे की और बढ़ा ही था कि उसने खिड़की से सिर निकलकर आँख दबाई और एक नदीदी खिलखिल के बीच नरक उगला - "क्यों दूल्हा भाई, कश्मीरी सेब पसंद आया?" इशरत हुसैन की धधकती आँखों का सामना करते ही वह अपने खोल में दुबक गया ।

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