Anmol kshan books and stories free download online pdf in Hindi

अनमोल क्षण

अनमोल क्षण

एक शरारती बच्चे की तरह ठंड़ गुदगुदाने के लिये छाँक-छाँककर जगह ढुँढ़ रही थी। सिर के टोपे और कोटे के कालर के बीच, दस्ताने और ऊपर खिसकी बाँह के अंदर, पैर के मोजे और पतलून की मोहरी के बीच। चश्मे के नीचे मेरी लंबी नाक की दो सुरंगों को देख वह ठंड़ तो खिलखिलाकर लगातार गुदगुदाने में मस्त हो उठी थी। मैंने महसूस किया कि ठंड़ शरारती ही नहीं, बच्चों जैसी जिद्दी भी होती है।

मैं कोहरे को चीरता जैसे ही एयरपोर्ट पहुँचा तो देखा कि वहाँ पहले से आये मुसाफिरों के मुरझाये चेहरे ठिठुर रहे थे। मैं अटैची घसीटता आगे बढ़ा। उड़ान को देर थी। ‘मैं वक्त पर आ गया हूँ,’ मैं बुदबुदाया।

‘तुम मूर्ख हो,’ यह जताने ऊपर लगा मानीटर दमक रहा था। लिखा था कि कुहरे के कारण उड़ान देर से होगी।

‘उड़ान रद्द भी हो सकती है,’ किसी ने कँपकँपाती आवाज में अपनी पत्नी से कहा। सभी यात्री कुर्सियों पर बैठे थे। हरेक ने दो कुर्सियाँ हथिया रखी थीं। एक खुद के बैठने के लिये और दूसरी अपना हेंड़बैग रखने। मुसाफिरों में कुछ भारतीय थे और शेष विदेशी। लेकिन दो कुर्सियों पर कब्जा करने का तरीका सबका एक-सा था। तीन घंटे हेंड़बैग थामे भला कौन खड़ा रह सकता है? इतने लंबे इंतजार में सब ‘एटीकेट’ चकनाचूर हो जाता हैं। मैं फर्श पर उखडूँ बैठ गया। नीचे बिछी ‘टाइलस्’ बर्फ-सी थीं। पर सिर को घुटनों और हथेलियों के बीच दुबकना अच्छा लग रहा था।

लोग आपस में बतिया रहे थे। ठंड़ में खुसफुसाहट शोर की तरह सुनाई पड़ रही थी। लोग व्यवस्था की बिंगे निकाल रहे थे -- मौसम को दोष दे रहे थे। स्वयं को भाग्यहीन कहनेवाले कह रहे थे, ‘मैं जब भी यात्रा पर निकलता हूँ तो कम्बख्त ट्रेन को तभी लेट होना होता है। हवाई जहाज से जाने की सोचता हूँ तो उड़ान को ‘केंसल’ होने की पड़ी रहती है।’ ईश्वर को भी गैरजिम्मेदार कहनेवालों की कमी नहीं थी। मैं उनकी खुसफुसाहट को सुन, मन बहलाता रहा। लेकिन कुछ देर बाद जो खुसफुसाहट हो रही थी वह थम गई। सन्नाटे में ठंड़ी हवा की आवाज भी सताने लगती है। मैं बचपन में हवाई जहाज पर लिखे निबंध को याद करने लगा। महासागर पार जाने के लिये हवाई उड़ान सबसे सरल माध्यम है। इससे समय की बचत होती है। यात्रियों की सुविधा का भी ध्यान रखा जाता है। ये सारी बातें जो बच्चे लिखते थे, खोखली नजर आ रहीं थी। इसकी वजह एक ही थी, जिसे अंग्रेजी में बोरडम और हिन्दी में बोरियत कहते हैं। बोरियत का अर्थ है बैठे-ठाले बेफजूल बातें सोचकर खिन्न होना, दिमाग को खंगालकर निरर्थक विचारों को उबाल देना, चित्त को अव्यवस्थित कर चिंता की कंटीली झाड़ियों में उलझाना, मन को फुरसतिया समझकर इधर-उधर दौड़ाकर थकान पैदा करना, खुद को जबरजस्त टोंचा देकर बेचैन करना, भाग्य को कोसकर स्वतः को हताश का पुलिंदा बना लेना, फिर अनावश्यक पुरानी यादों को तोड़-मरोड़कर स्मरण करना और अंत में इन सब को मिलाकर बनी बोरियत की सलाद को रह रहकर चखना और मुँह बिचकाना। आप कहेंगे कि सबसे बड़ा बोर वो है जो बोरडम की हालात में बोरियत की परिभाषा करने बैठ जावे।

पर किया क्या जा सकता है? ऐसे समय बोरियत के सन्नाटे की खामोशी झुंझलाहट पैदा करनेवाली होती है। उसे तोड़ने की हिम्मत किसी में नहीं होती। तभी मैंने पास की कुर्सी पर बैठे व्यक्ति को उठते देखा। वे मुझे व मेरे अंतः को खंगालती बोरियत को काफी समय से घूरकर देख रहे थे। उनका नाम महादेवन था -- चेहरे पर केरलाइट-घनी मूछों में छिपी प्रसन्नता थी जो कुछ कहना चाह रही थी। प्रसन्नता इसलिये भी थी क्योंकि घनी मूँछें कड़कड़ाती ठंड़ में ‘मरीनो’ ऊन से बुनी स्वेटर की तरह काम करती हैं और ओठों की कँपकँपी को रोकने सहायक होती हैं।

मेरा हाथ पकड़कर उन्होंने मुझे उठने कहा और अपनी कुर्सी दे दी। अपना ब्रीफकेस नीचे रखकर वे मेरे पास बैठ गये और कहने लगे, ‘तीन घंटे इंतजार करना कठिन है। देखो, सबके चेहरे उदास दिख रहे हैं। इसकी वजह है कि हमारे पास उन लम्हों की याद करने की चाह नहीं होती जो हमारी जिन्दगी में कभी किसी समय खास उपहार बनकर आये थे। चलो, हम उन्हें याद करें -- आपस में शेयर करें। ये तीन घंटे हमें अभी उपहार में मिले हैं, वर्ना आपस में मिलने की फुर्सत कहाँ मिलती है। समय को इस तरह रेंगने न दो। उन्हें बच्चों की तरह उछल-कुद करने दो।’

महादेवन की आवाज में अपनापन था और ऐसी आवाज में बच्चों की खिलखिलाहट होती है -- आकर्षण होता है। सबका ध्यान महादेवन की तरफ गया। सब सोचने लगे। सन्नाटा तब भी गहराता हुआ बना रहा, पर किसी के भी चेहरे खामोश नहीं दिख रहे थे। एक जर्मन यात्री के चेहरे पर प्रसन्नता की रेख प्रगट होने लगी थी। महादेवन ने उसे भाँप लिया। ‘Can you recall the best moment of your life?’ महादेवन ने उनसे पूछा। वे सज्जन जैसे इसी उकसाने की प्रतीक्षा में थे। अपने पास बैठी युवती की ओर इशारा करते हुए, वे कहने लगे, ‘ये मेरी पत्नी है -- मेरी अपनी पसंद। मेरी जिन्दगी का सबसे सुनहरा वह क्षण था, जब मैंने इन्हें पहली बार देखा था। शापिंग करना इनका पुराना शौक रहा है। उस समय ये शापिंग कर सड़क पार कर रहीं थी। इन्हें जल्दी थी। मुझसे आगे होते वक्त इनका भारी-भरकम शापिंगबैग मुझसे टकरा गया। ‘सारी’ इन्हें कहना था पर कहा मैंने और बिखरा सामान बैग में भरने लगा। जाते समय भी इन्होंने ‘थैन्कस्’ नहीं कहा। लेकिन कुछ कदम आगे बढ़कर मेरी ओर पलटकर देखा और मुस्कराई। मुस्कराहट की भाषा कितनी मधुर होती है, यह मैंने पहली बार जाना।’ इतना कह वे शर्मा गये।

उनके चुप होते ही उनकी पत्नी ने कहा, ‘मेरे जीवन का सबसे सुन्दर पल वह था जब इन्होंने ‘प्रपोज़’ किया था। उस दिन मैं बहुत उदास थी। मेरी माँ अंतिम साँसों से जूझ रहीं थी। तभी ये आये और मुझे छूकर बोले, ‘माँ को बता दो कि मैं तुम्हें चाहता हूँ।’ यह सुन मेरी माँ मुस्करा उठीं। तब मेरी माँ की खुशी मेरे चेहरे पर प्रतिबिंबित हो उठी थी।’

एक लड़का जो आगे पढ़ाई करने अमेरिका जा रहा था चुप न रह सका। कहने लगा, ‘जब मैं सात साल का था तब मैंने स्कूल की रेस में भाग लिया था। मेरे आगे दौड़नेवाला साथी अचानक ठोकर खाकर नीचे गिर पड़ा। मैंने देखा कि उसके घुटने छिल गये थे। मैंने उसे सहारा देकर उठाया -- धूल साफ की। उस दौड़ में उसका पहला नंबर आया और मेरा दूसरा। पुरस्कार लेते समय वह मुझे भीड़ में ढूँढ़ने लगा। मुझे देख वह मुस्कराया और मेरी ओर ट्राफी हिलाकर कहने लगा, ‘आज दौड़ते वक्त मैं ठोकर खाकर गिर गया था। तब मेरे एक साथी ने मुझे उठाकर मेरा हौसला बढ़ाया। आज वह इस दौड़ में दूसरे स्थान पर है। लेकिन यदि प्रथम स्थान से भी ऊपर कोई स्थान है तो इस ट्राफी का असली हकदार वही है।’ तब वह दौड़कर मेरे पास आया और मुझसे लिपट गया। उस पल मैंने जाना कि नम पलकों में इठलाती मुस्कराहट सबसे मोहक होती है।’

इस बच्चे के बाद एक-के-बाद-एक सभी अपने सुन्दरतम क्षणों को हम सब से शेयर करते रहे। हमारे साथ एक अंग्रेज महिला भी थी। अंग्रेज बिना पूर्व परिचय के ‘हैलो-हाय’ भी नहीं करते हैं। लेकिन मेरी हेवर्थ चुप न रह सकीं। कहने लगी कि वह अपने माता-पिता की इकलौती संतान थी। अतः न तो कोई भाई था और न ही बहन। वह मिलनसार भी नहीं रही इसलिये वेलंटाईन डे पर वह अपने आप को सदा अकेला महसूस किया करती थीं। यह बात उसके पिताजी ने भाँप ली। जब वह पाँच साल की थी तब पिताजी ने उसे अपने हाथ से बनाया पहला वेलंटाईन कार्ड दिया था। उस पर एक अकेली चिड़िया घोंसले पर बैठी थी जैसे वह अपने वेलंटाईन को पुकार रही हो और आकाश से प्रभू ईशु उसकी ओर आते दिखाये गये थे। इसके बाद हर वेलंटाईन डे पर पिताजी उसे कार्ड देते और साथ में एक गिफ्ट होती -- जो पहले चाकलेट होती थी -- फिर कलम पेंसिल बन गई और आगे चलकर कीमती अँगूठी का उपहार बन चुकी थी। विवाह के बाद भी उसे एक ही वेलंटाईन कार्ड मिलता था। पति अपनी व्यस्तता के कारण वेलंटाईन डे को याद भी नहीं रख पाते थे। परिवार की व्यस्तता के कारण स्वयं मेरी भी इस दिन पिताजी के कार्ड के लिये आतुर होना भूल चुकी थी। वेलंटाईन डे एक सामान्य औपचारिकता का दिन बन कर रह गया था।

एक दिन सुबह-सुबह उसे फोन आया। पिताजी का था। वे कह रहे थे, ‘बेटी, अस्वस्थता के कारण मैं कार्ड नहीं बना पाया। खरीदकर भेजना भी संभव नहीं लगा। पर तुम बहुत याद आ रही हो। इसलिये फोन कर रहा हूँ।’

इतना कह मेरी भावुक हो उठी। फिर कुछ संयत हो कहने लगी, ‘फोन रख कर मैं उस दिन पिताजी को याद कर खूब रोयी थी। एक साल बाद आये वेलंटाईन डे ने मुझे फिर रुला दिया। पिताजी का कार्ड या फोन पर बात करने का प्रश्न ही नहीं था। वे गुजर चुके थे। मैं उनकी याद में आँसू बहती बालकनी में खड़ी थी। तभी किसी ने पीछे से मेरे कंधे पर हाथ रखा। मैंने पलटकर देखा तो मेरे पति वेलंटाईन कार्ड व गिफ्ट पैकेट लिये खड़े थे। वे कहने लगे, ‘प्रिये, आज से मैं तुम्हें इस दिन कभी उदास नहीं होने दूँगा।’ मैं उनसे लिपट कर खूब रोई। शायद आँसू खुशी के थे क्योंकि पिताजी मुझे मिल गये थे।’

इस तरह देखते ही देखते तीन ही नहीं चार घंटे निकल गये। हवाईजहाज उड़ान भरने आ चुका था। पर जल्दी में कोई नहीं था। एक वृद्ध महिला ने कहा, ‘महादेवनजी, आपने तो कुछ नहीं कहा। आपका सबसे शानदार लम्हा कौनसा था?’

महादेवन को संक्षिप्त में कहना था और उन्होंने बस इतना कहा, ‘यह जो समय आप सबने मुझे दिया है, वही मेरे जीवन का सबसे सुन्दर व आनंदित करनेवाला समय रहा। मैं आप सबका आभारी हूँ।’

हवाईजहाज पर बैठने हम सब आगे बढ़े। सब चुप थे, तभी एक महिला ने कहा, ‘क्या आप सब सोचते हैं कि हम एक बार फिर मिलें?’

हवाईजहाज में बैठकर हम सबके बीच कागजों का आदान-प्रदान होता रहा। हम सभी उसमें अपना नाम व पता लिख रहे थे, इस आशा से कि हमें ईश्वर जरूर एक बार फिर मिलने का अवसर प्रदान करेगा।

यात्रा के अंत में मेरे हाथ जो कागज आया, उसमें सभी पच्चीस यात्रियों के नाम-पते लिखे थे। उसमें मेरा भी एक नाम था। यह सोच भी महादेवन की थी।

कालान्तर, मुझे एक पत्र मिला, जिसमें अमेरिका से महादेवन की पुत्री ने लिखा था, ‘आप सबसे मेरे पिताजी हवाई यात्रा में मिले थे। उस समय वे ‘टरमिनल केंसर’ से पीड़ित थे और मैंने ही उन्हें इलाज के लिये अमेरिका बुलाया था। पर मेरी प्रार्थना व यहाँ के डाक्टरों के अथक प्रयास कामयाब नहीं हो सके। वे अब नहीं हैं। लेकिन जाते-जाते उन्होंने आप सबको याद किया और वह कागज मुझे दिया जिसमें आपके नाम-पते लिखे थे। आप सब एक बार फिर मिलना चाहते थे। अब महादेवन शारिरिक रूप से तो नहीं मिल सकेंगे, पर आत्मिक रूप से अवश्य आपके पास होंगे, ऐसा मैं सोचती हूँ। यह पत्र इसी आशय से लिख रही हूँ। ... आपके महादेवन की पुत्री।’

मैंने वह पत्र कई बार पढ़ा और अपने आप को रोक नहीं पाया। मैंने तुरंत सभी तेवीस यात्रियों को पत्र लिखकर महादेवन को श्रद्धांजली अर्पित की। आज मेरे पास महादेवन की पुत्री का और उन तेवीस साथियों के पत्र हैं जिनके नाम-पते एक कागज पर लिखे गये थे। मैं इन्हें जब चाहे तब देखकर महसूस कर सकता हूँ कि फरिश्ते तो किसी एक के होते हैं, पर ईश्वर सबका होता है।

भूपेन्द्र कुमार दवे