Mantri ji ki shaly chikitsa books and stories free download online pdf in Hindi

मंत्री जी की शल्य चिकित्सा

मंत्री जी की शल्य चिकित्सा

ऑपरेशन सम्पन्न करके डॉक्टर आलोक शर्मा ओ.टी. से बाहर आए, तो देखा समस्त मेडिकल स्टाफ - सभी डॉक्टर्स, नर्स, वार्ड बॉय, जैसे कहीं जाने की जल्दी में थे । डॉक्टर आलोक ने इस विचित्र-सी स्थिति के विषय में जानकारी करनी चाही, किंतु अपनी भागमभाग में किसी को किसी से बात करने का अवकाश नहीं था । कुछ मिनट तक डॉक्टर आलोक यथास्थान खड़े रहे और भिन्न-भिन्न अनुमान लगाते रहे । उनका सबसे प्रबल अनुमान था कि सड़क-दुर्घटना का कोई गंभीर केस हो सकता है और घायलों को शीघ्र अति शीघ्र उपचार उपलब्ध कराने के लिए सारा मेडिकल स्टाफ चिन्तित है । कुछ मिनट पश्चात् डॉक्टर प्रभात रंजन वहाँ से होकर गुजरे । उनकी शांत मुख-मुद्रा तथा धीमी गति को देख कर डॉक्टर आलोक को अपने अनुमान पर कुछ संदेह हुआ, क्योंकि किसी दुर्घटना आदि की सूचना मिलने पर सबसे पहले डॉक्टर रंजन दौड़ कर घायल की सहायता करने के लिए पहुँचते थे । अपने संदेह के आधार पर डॉक्टर आलोक ने डॉक्टर प्रभात रंजन से वास्तविकता जानने का प्रयास किया -

"आप सभी लोग इतनी जल्दी में कहाँ जा रहे हैं ?"

"हॉस्पिटल में आज स्वास्थ्य मंत्री दया प्रसाद जी आये हैं । बस, सारा स्टाफ अपना काम छोड़कर उन्हीं के दर्शन करने के लिए दौड़ रहा है ।"

"दया प्रसाद ? यह हॉस्पिटल उसके संसदीय-क्षेत्र में तो नहीं आता है ! फिर वह यहाँ ... ?

"डॉ आलोक, दया प्रसाद जी अब केंद्रीय मंत्री हो गए हैं । वे पूरे भारत में कहीं भी आ जा सकते हैं । सुना है, अपना ऑपरेशन कराने के लिए आज यहाँ भर्ती हो रहे हैं । वैसे आप उनका नाम सुनकर इतने बेचैन क्यों है ?" डॉक्टर रंजन ने डॉक्टर आलोक से पूछा ।

"नहीं तो, ऐसा कुछ नहीं है ।"

डॉक्टर प्रभात रंजन के जाने के पश्चात् आलोक की स्मृति में वर्षों पुरानी उस घटना का चित्र उभर आया, जब दया प्रसाद के साथ उसका प्रथम परिचय हुआ था -

आलोक की ड्यूटी का समय समाप्त हो चुका था । स्टाफ के डॉक्टर से उसे ज्ञात हुआ था कि दया प्रसाद बलात्कार के आरोप में गिरफ्तारी से बचने के लिए हॉस्पिटल की शरण में आया है । सब कुछ भली-भाँति जानते-बूझते हुए भी हॉस्पिटल का आधिकारिक स्टाफ मरीजों की उपेक्षा करके दया प्रसाद के स्वागत में लगा हुआ था । यह देखकर आलोक को बहुत क्रोध आया था, किंतु जूनियर होने के चलते वह कुछ नहीं कह सकता था । इसलिए उसने घर जाने का निर्णय किया और अपना बैग उठा कर चल दिया । आलोक जब हॉस्पिटल के मुख्य द्वार पर पहुँचा, दया प्रसाद एक बड़े जनसमूह से घिरा हुआ था । उसके समर्थकों की भीड़ उसके दर्शन के लिए लालायित थी । दया प्रसाद का स्वागत करने के लिए एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते हुए हॉस्पिटल के डॉक्टर्स, नर्स तथा अन्य कर्मचारियों की भीड़ को देखकर आलोक के संयम का बांध टूटने लगा था । उसी समय हॉस्पिटल के बाहर स्ट्रेचर पर पड़े हुए एक रक्तरंजित व्यक्ति पर आलोक की दृष्टि पड़ी । गंभीर रुप से घायल उस व्यक्ति को कुछ लोग हॉस्पिटल के अंदर लाने का प्रयास कर रहे थे । वे लोग दया प्रसाद के समर्थकों की भीड़ को चीरते हुए आगे बढ़ने के अपने प्रयास में सफल हो चुके थे, लेकिन दया प्रसाद का स्वागत करने वाले डॉक्टर्स, नर्स और हॉस्पिटल कर्मी उन्हें आगे बढ़ने में अवरोधक बने हुए थे । अस्पताल के द्वार पर घायल व्यक्ति के शरीर से निरंतर रक्त-स्राव हो रहा था और किसी भी डॉक्टर की दृष्टि उस पर नहीं पड़ी । न ही किसी को उसके प्रति अपने कर्तव्य का एहसास हो रहा था । उस घायल व्यक्ति की दशा को देखकर आलोक के संयम का बांध टूट गया और उसे अपने क्रोध को बाहर निकालने का एक बहाना मिल गया । उसने एक जूनियर डॉक्टर से ऊँचे स्वर में चिल्लाकर कहा -

"रेहान ! उधर देखो, शायद एक्सीडेंट से घायल व्यक्ति को लगातार बहुत अधिक ब्लीड़िंग हो रही है और तुम नेताजी के स्वागत में लगे हो !" यह कहकर आलोक भीड़ को चीरकर नेताजी के निकट से गुजरता हुआ अभिवादन किए बिना ही तेज कदमों से घायल व्यक्ति की ओर बढ़ गया । डॉक्टर रेहान भी उसके पीछे-पीछे चल दिया । नेताजी के प्रति आलोक के उपेक्षापूर्ण व्यवहार की ओर जितना ध्यान अन्य लोगों का गया होगा, उससे अधिक नेता जी का ध्यान गया । नेता जी ने क्रोध में भरकर आलोक की ओर मुड़कर देखा । कुछ ही मिनटों में वह घायल व्यक्ति की स्ट्रेचर को धकेलता हुआ भीड़ को चीरकर हॉस्पिटल के अंदर दाखिल हो गया । नेताजी की दृष्टि अब भी आलोक का पीछा कर रही थी । क्रोध से लाल उनकी आँखें बहुत कुछ कह रही थी । परंतु मुँह से एक शब्द भी निसृत नहीं हुआ । आलोक को नेताजी की अपेक्षा घायल व्यक्ति की अधिक चिंता थी, इसलिए ड्यूटी ऑफ होने के बावजूद वह उसके रक्तस्राव को रोकने में जुट गया । जब घायल व्यक्ति का रक्तस्राव रुक जाने के पश्चात उसके प्राणों पर आया संकट टल गया, तब आलोक अपने घर जाने के लिए तैयार हुआ ।

आलोक घर के लिए प्रस्थान करने ही वाला था, तभी उसके पास आदेश आया कि उसको वरिष्ठ चिकित्साधिकारी ने बुलाया है । आदेश का पालन करने के लिए आलोक के कार्यालय की ओर बढ़ गया वह वरिष्ठ चिकित्साधिकारी के कार्यालय की ओर जा ही रहा था, रास्ते में उसको नेताजी के लिए पंजीकृत व्यक्तिगत कक्ष में उनका स्वर सुनाई पड़ा । एक क्षण के लिए रुककर उनके वहाँ उपस्थित होने का निश्चय किया । तत्पश्चात् कमरे को खटखटाकर अंदर आने की अनुमति माँगी । अनुमति पाकर उसने कमरे में प्रवेश किया -

"आपने मुझे बुलाया, सर ?" शिष्टाचार का पालन करते हुए आलोक में विनम्र शैली में पूछा ।

"साहब ने नहीं बुलाया, हमने बुलाया है !" आलोक के प्रश्न का उत्तर नेता जी ने दिया । बैठे रहे नेता जी ने एक बार नाटक के ढंग से आलोक को नहीं आ रहा और पुनः बोले -

"डॉक्टर साहब ! यह जवानी की गर्मी आपको ले डूबेगी !" मंत्री जी के सुझाव का आलोक ने कोई उत्तर नहीं दिया । उसकी भाव-भंगिमा कह रही थी कि वह निरर्थक बातों में अपना समय बर्बाद नहीं करता है ।

"डॉक्टर साहब, आप शायद हमें पहचानते नहीं है, इसलिए आपकी अकड़ कम नहीं हो रही है । हम क्या कर सकते हैं, अभी तुम्हें मालूम नहीं है !"

"मालूम है !" इस बार आलोक ने सीमित शब्दों में उत्तर दिया । उसकी आँखों में आत्मविश्वास की चमक देखकर मंत्रीजी के अहम् को चोट लगी ।

"नहीं, डॉक्टर साहब ! आप हमें पहचानते नहीं हैं । पहचानते, तो हमारा यूँ अपमान नहीं करते ! आपको दुनियादारी का ज्ञान नहीं है । भले ही आप के पास डिग्री कितनी भी बड़ी हो !" दयाप्रसाद ने चेतावनी की मुद्रा में कहा । आलोक ने अपने स्वाभिमानयुक्त मौन से दया प्रसाद के शब्दों की प्रतिक्रिया दी। आलोक के उपेक्षापूर्ण मौन से दया प्रसाद बुरी तरह बौखला उठा । एक कदम आगे बढ़ते हुए आलोक ने खड़े होकर वरिष्ठ चिकित्साधिकारी से कहा -

"सर मैं चलूँ ? पहले ही काफी लेट हो चुका हूँ, घरवाले चिंता कर रहे होंगे !"

"डॉ. बैठ जा ! किस बात का अभिमान है तुझे ? मैं यहाँ का सांसद हूँ । तेरे जैसे डॉक्टर मेरे जूते साफ करते हैं । मेरा अपमान करने का मतलब नहीं जानता है तू ! जानता है, तेरे लिए इसका परिणाम कितना घातक हो सकता है ?"

"जानता हूँ !" आलोक ने अपने स्वाभिमान की रक्षा करते हुए सपाट शैली में उत्तर दिया ।

"मेरी अवेहलना करके तू बर्बाद हो सकता है !"

क्षणभर खड़े रहकर दया प्रसाद की बात सुनने के बावजूद डॉक्टर आलोक ने उसकी धमकी का कोई उत्तर नहीं दिया और कमरे से बाहर निकाल गया । कमरे से बाहर आकर आलोक का तत्काल घर जाने का निर्णय परिवर्तित हो गया । वह वापिस अपने कमरे में गया ; अलमारी से अपना लेटर पैड निकाला और लिखने के लिए बैठ गया । उसके हाथ में पैन था और सामने मेज पर लैटर पैड़ रखा था, लेकिन पैन की नोक कागज पर टिकने के पश्चात् भी वह कुछ लिख नहीं पा रहा था । उसके मस्तिष्क में एक द्वंद्व छिड़ रहा था । उसके अपने विचार परस्पर उलझ रहे थे । बार-बार वह पिछले दो घंटे में घटित घटनाओं का विश्लेषण करते हुए अपने पक्ष में निष्कर्ष निकालने का प्रयास कर रहा था कि उसने कुछ अनुचित नहीं किया है । दस मिनट तक चिंतन करने के पश्चात् उसने लिखना आरंभ किया और अगले पाँच मिनट के अंदर लिखे हुए उस पत्र को अपने विभागध्यक्ष (एच.ओ.डी.) डॉक्टर निलेश के हाथ में थमा दिया । पत्र पर दृष्टि डालते ही डॉक्टर निलेश की आँखें विस्मय से फैल गई । उन्होंने लगभग सोचते हुए कहा -

"रेजिग्नेशन लैटर ...?" उत्तरस्वरूप आलोक ने विनम्रतापूर्वक उनके समक्ष पिछले दो घंटे की घटना का आद्यन्त वर्णन कर दिया । तत्पश्चात् आलोक ने कहा - "सर, मेरी दृष्टि में मेरा यह त्यागपत्र मेरे निष्ठापूर्वक किये गये कार्य के फलस्वरूप संभावित दंडात्मक कार्यवाही से बचने का एकमात्र उपाय है । प्लीज़ आप इसे एक्सेप्ट कर लीजिए !"

"डॉक्टर आलोक, आपने जिस राह पर अपने कदम बढ़ाए हैं, काँटों से भरी हुई है । आप अभी भी वापस लौट सकते हैं । अन्यथा धैर्य और साहस के साथ रास्ते में आने वाली कठिनाइयों से संघर्ष कीजिए ! मेरी शुभकामनाएँ तुम्हारे साथ हैं !"

"पीछे लौटना संभव नहीं है, सर ! संभव होता, तो मेरा रेजिग्नेशन लैटर आपके हाथ में नहीं होता !"

"गुड ! वेरी गुड !" यह कहते हुए डॉक्टर निलेश ने अपने हाथ में पकड़ा हुआ आलोक का त्यागपत्र फाड़ कर अपनी मेज के निकट रखे कूड़ेदान में डालते हुए मुस्कुराकर कहा -

"डॉक्टर आलोक, जब तक मैं यहाँ हूँ, आपको किसी भी प्रकार की चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं है !"

"थैंक्यू सर !" धन्यवाद देकर डॉक्टर आलोक ने एक सप्ताह के अवकाश हेतु आवेदन पत्र दिया ।

घर जाने के पश्चात् पूरे सप्ताह हॉस्पिटल में क्या हुआ, आलोक ने यह जानने में रुचि नहीं ली । एक सप्ताह बीत जाने के पश्चात् आलोक हॉस्पिटल में पहुँचा, तब तक वहाँ पर सब कुछ सामान्य हो चुका था । आलोक भी सामान्य ढंग से अपना कर्तव्य निर्वाह करने लगा । इस घटना के कुछ माह पश्चात् आलोक को एल.एन.जे.पी. हॉस्पिटल, दिल्ली में सेवा करने का अवसर मिला । और वहाँ उसकी नियुक्ति हो गयी थी।

सात वर्ष पश्चात् दया प्रसाद का नाम सुनकर आलोक के मस्तिष्क में विचित्र-सी हलचल होने लगी । वह सोच रहा था -

"यह संयोग किसी अनिष्ट की दस्तक तो नहीं है ?" दया प्रसाद के साथ अपने अनिष्ट का संबंध जोड़ते ही उसको अपने मस्तिष्क पर अनपेक्षित बोझ की अनुभूति होने लगी । मानसी थकान तथा तनाव से ग्रस्त होकर वह अपनी व्हील चेयर पर बैठ गया और यंत्रवत कुर्सी को इधर से उधर, उधर से इधर घुमाने लगा । इसी उपक्रम को करते हुए आधा घंटा बीत गया । इस समयांतराल में वहाँ पर कौन आया ? कौन गया ? क्या हुआ ? उसे कुछ ज्ञात नहीं था ? आधा घंटा पश्चात् एच .ओ.डी. डॉक्टर दीपांशु ने आलोक को झिंझोड़ते हुए कहा -

"डॉक्टर आलोक, क्या बात है ? तुम्हारे जूनियर ने बताया, तुम किसी प्रॉब्लम में हो !" अपने निकट डॉक्टर दीपांशु की उपस्थिति का आभास होते ही आलोक इस प्रकार चौंक कर उठ खड़ा हुआ, जैसे उसका स्पर्श अग्नि से हो गया हो । वह डॉक्टर दीपांशु के केवल अंतिम शब्द ही सुन पाया था । इन्हीं शब्दों के आधार पर उसने अवकाश लेने का निर्णय बदल कर कहा -

"सर, आई नीड लीव फॉर वन वीक ! मेरी माँ बीमार है, सर !"

"नहीं-नहीं, डॉक्टर आलोक ! आप लीव पर नहीं जा सकते !"

"क्यों, सर ?"

"शायद आपको ज्ञात नहीं है, मंत्री जी का ऑपरेशन करने वाले डॉक्टर की टीम में तुम्हारा नाम मैंने सबसे ऊपर रखा है !"

"सर ! सर ! मैं मंत्री जी का ऑपरेशन नहीं कर सकता ! मैं अवकाश लेना चाहता हूँ !"

"क्यों ? डॉक्टर आलोक, क्यों नहीं कर सकते तुम ऑपरेशन ? जबकि आपको उसका विशेष लाभ मिलेगा !"

"सर, नब्बे प्रतिशत अंको के साथ बारहवीं परीक्षा उत्तीर्ण करने के बावजूद तीन वर्ष तक कठोर परिश्रम करने के बाद एम.बी.बी.एस. के लिए मेरा चयन हो पाया था । इसके विपरीत बारहवीं की परीक्षा में सत्तर प्रतिशत अंक प्राप्त करने वाले मेरे कई मित्रों का उसी वर्ष चयन हो गया था, जबकि मेडिकल की प्रवेश परीक्षा में भी उनके अंक मुझे आधे थे । इसी हॉस्पिटल में भी ऐसे कई डॉक्टर मेरे सीनियर हैं । डॉक्टर ऋषभ गौतम उन्हीं में से एक हैं । सर, मैं कहता हूँ, आप मंत्री जी का ऑपरेशन करने के लिए डॉक्टर ऋषभ का नाम टीम में सबसे ऊपर रखिए ! वह मुझसे सीनियर भी हैं ।"

"नहीं-नहीं, डॉक्टर आलोक ! डॉक्टर ऋषभ तुमसे सीनियर भले ही हों, उनमें तुम-सा कौशल नहीं है । वह आरक्षण की बैसाखियों के सहारे यहाँ तक पहुँचे हैं !"

"सर, इन आरक्षणदाता नेताओं को भी तो पता चले कि जिनको रिजर्वेशन देने के लिए ये लोग संसद में हंगामा करके अपनी राजनीति की रोटियाँ सेकते हैं, वे मरीजों का इलाज कैसा करते हैं ! आरक्षण की बैसाखी पर चलने वाले डॉक्टर्स जनता की सेवा तो प्रतिदिन करते ही हैं, एक दिन मंत्री जी की सेवा करने का अवसर भी तो उन्हें मिलना ही चाहिए ! सर ! पढ़ाई में नौकरी में ; प्रोन्नति में ; हर जगह रिजर्वेशन की आड़ लेकर राजनीतिक स्वार्थ पूरे करते हैं, ये नेता लोग !"

"तुम ठीक कह रहे हो, पर मंत्री जी का ऑपरेशन सफलतापूर्वक हो जाए, यह सुनिश्चित करने का दायित्व अस्पताल-प्रशासन के साथ-साथ संबंधित विभागों का भी है । सर्जरी-विभाग का मुखिया होने के नाते मेरा कर्तव्य है कि मंत्री जी का ऑपरेशन करने के लिए मैं योग्य डॉक्टर्स की टीम नियुक्त करूँ । सर्जरी-विभाग के अन्य डॉक्टर्स में तुम-सा कौशल नहीं है, इसलिए तुम्हें इस समय अवकाश नहीं मिल सकता है !"

"सर, प्लीज ! मुझे दो सप्ताह का अवकाश लेना ही होगा ! उनके ऑपरेशन के समय मैं यहाँ पर उपस्थित नहीं रहना चाहता हूँ ।

"ठीक है ! डॉक्टर दीपांशु ने आलोक के बार-बार विनम्र आग्रह करने पर उसको दो सप्ताह का अवकाश प्रदान कर दिया ।

डॉक्टर आलोक के अवकाश पर जाने के पश्चात मंत्री जी का ऑपरेशन करने वाले डॉक्टर्स की टीम में सबसे ऊपर डॉक्टर ऋषभ गौतम का नाम था । यह कोई नहीं जानता था, ऐसा क्यों हुआ ? डॉक्टर ऋषभ गौतम सर्जरी-विभाग के सीनियर डॉक्टर थे, इसलिए अथवा आलोक का सुझाव मानकर डॉक्टर दीपांशु ने उन्हें टीम का मुखिया बनाया ।

जो भी हो, डॉक्टर ऋषभ गौतम उस टीम के मुख्य डॉक्टर के रूप में चयनित हो कर बहुत प्रसन्न थे । ऑपरेशन के लिए आवश्यक तैयारियाँ पूर्ण हो जाने के पश्चात् पूर्व निर्धारित समय पर मंत्री जी को ऑपरेशन कक्ष में लाकर ऑपरेशन टेबल पर लिटा दिया गया । मंत्री जी ऑपरेशन के लिए मानसिक रूप से तैयार थे और डॉक्टर्स परस्पर बातचीत करते हुए अपने कार्य में व्यस्त थे । उसी समय मंत्री जी के कानों में डॉक्टर ऋषभ गौतम का नाम पड़ा । 'गौतम' नाम सुनते ही मंत्री जी चौंकते हुए ऑपरेशन टेबल से उठकर खड़े हो गए ।

"गौतम ? तुम शेड्यूल कास्ट के हो ?"

"यस् सर !" डॉक्टर गौतम ने उत्तर दिया ।

"रिजर्वेशन से आए हो ?"

"जी सर !"

"तुम्हारा क्या नाम है ?" मंत्री जी ने दूसरे डॉक्टर से पूछा ।

"स् -स् - सर, रोहित प्रजापति !" डॉक्टर रोहित ने सकुचाते हुए उत्तर दिया ।

"तुमने भी आरक्षण से ...?"

"जी, सर !"

"और तुम ?" मंत्रीजी ने विचित्र सी मुद्रा बनाते हुए तीसरे डॉक्टर से पूछा ।

मंत्री जी के व्यवहार से सहमकर वहाँ पर उपस्थित सभी डॉक्टर्स एक दूसरे की आँखों में झाँकने लगे । तीसरा डॉक्टर कुछ उत्तर दे पाता, इससे पहले ही मंत्री जी क्रोधावेश में चीखे -

"दीपांशु को बुलाओ !"

"जी सर !" मंत्री जी का आदेश सुनते ही डॉक्टर्स सर्जरी-कक्ष से बाहर की ओर दौरे । वे बाहर निकल ही रहे थे, तभी उन्हें डॉक्टर दीपांशु आते हुए दिखाई पड़े । डॉक्टर दीपांशु को देखकर उनके कदम जहाँ के तहाँ रुक गए । डॉक्टर दीपांशु किसी से कुछ पूछते, इससे पहले ही मंत्री जी ने कठोर शैली में कहा -

"डॉक्टर साहब ! मेरा ऑपरेशन ऐसे डॉक्टर करेंगे, जो आरक्षण की बैसाखी के सहारे चल कर यहाँ तक पहुंँचे हैं ? आपके अस्पताल में ऑपरेशन करने के लिए कोई ऐसा डॉक्टर उपलब्ध नहीं है, जो अपनी योग्यता के बल पर यहाँ तक आया हो ?

"सर, शायद आपको कुछ भ्रम हुआ है ! डॉक्टर ऋषभ बहुत सीनियर डॉक्टर हैं । मैं भी इनके साथ रहूँगा, आप चिंता मत कीजिए !

"मैंने जो पूछा है, यह उसका उत्तर नहीं है !"

"सर, डॉक्टर आलोक बहुत योग्य और कुशल सर्जन हैं, लेकिन वह कल ही दो सप्ताह के अवकाश पर चले गए हैं ।"

"क्या कहा ? डॉक्टर आलोक ? क्या कुछ वर्ष पहले तक वह लड़का के.जी.एम.सी. लखनऊ में था ?"

"जी सर !" सर आप जानते हैं, डॉक्टर आलोक को ?"

"हाँ ! थोड़ा-बहुत ! डॉक्टर साहब, आप तुरंत उस लड़के को बुलाकर मेरा ऑपरेशन कराइए !"

"सर, डॉक्टर आलोक की माँ बीमार है । वह अवकाश पर है ।"

"कब से है वह अवकाश पर ?"

"सर, कल से दो सप्ताह के आवश्यक अवकाश पर गए हैं ।"

"क्या मेरे ऑपरेशन के विषय में मालूम था उस लड़के को ?"

"जी सर !"

"डॉक्टर साहब, उस लड़के की माँ बीमार नहीं है । वह झूठ बोलकर गया है । आप उसको ...!"

"सर, आप कैसे कह सकते हैं ? उसकी माँ बीमार नहीं है !" डॉक्टर दीपांशु ने मंत्री जी के वाक्य को बीच में काटते हुए कहा । डॉक्टर साहब, हम जानते हैं ! हम जनता के बीच में रहते हैं ; जनता की नस-नस को पहचानते हैं ! आप उस लड़के को बुलाइए और तुरंत हमारा ऑपरेशन कराइए !"

"सॉरी सर ! डॉक्टर आलोक लीव एप्लीकेशन के साथ अपना रेज़िग्नेशन लेटर भी देकर गए हैं, जिसे मैंने अभी तक एक्सेप्ट नहीं किया है । आलोक ने स्पष्ट शब्दों में कहा है, वह आपका ऑपरेशान नहीं करेंगे ।" डॉक्टर दीपांशु का स्पष्टीकरण सुनते ही मंत्री जी विचलित हो उठे । आलोक के त्यागपत्र के विषय में सुनकर उन्हें कुछ नहीं सूझ रहा था । क्रोध से उनका चेहरा तमतमाने लगा था । उसी क्षण क्रोधावेश में उन्होंने घोषणा की -

"डॉक्टर साहब, मैं मेरा ऑपरेशन किसी भी हॉस्पिटल में उसकी अपेक्षा कहीं अधिक कुशल डॉक्टर से करा सकता हूँ, यह आप भी जानते हैं ! लेकिन..., लेकिन अब मैं मेरा ऑपरेशन उसी लड़के से कराऊँगा, यह मेरा वादा है !"

"मंत्री जी, यह वादा नहीं, राजहठ है ।" डॉक्टर दीपांशु ने अत्यंत धीमे स्वर में कहा ।

अगले दिन दोपहर के लगभग ग्यारह बजे थे । आलोक अपने घर में बैठकर परिवार के साथ बातें कर रहा था । उसी समय दरवाजे की घंटी बजी । माँ दरवाजा खोलने के लिए उठी । माँ के उठते ही आलोक का माथा ठनका । वह शीघ्रतापूर्वक उठते हुए माँ को रोकते हुए बोला -

"माँ, मैं देखता हूँ !" माँ ने असमंजस की दृष्टि से एक बार आलोक की ओर देखा । क्षणभर वहाँ रुकी और फिर वापस लौटकर अपने स्थान पर बैठ गयी । आलोक दरवाजे की ओर बढ़ गया । अनेक शंकाओं-आशंकाओं के साथ आलोक ने दरवाजा खोला और देखा, बाहर चार-पाँच खूंखार युवक खड़े थे । आलोक को देखते ही उन्होंने दरवाजे के अंदर आकर उसके चारों ओर एक घेरा-सा बना लिया और उनमें से एक युवक ने धमकी का रंग चढ़े शब्दों में अभद्रतापूर्वक कहा -

"क्यों बे डॉक्टर ! क्या इरादा है तेरा! बहुत मौज मार ली तूने अब तक ! चल, अब गाड़ी में बैठ ! मंत्री जी का ऑपरेशन करना है !"

"आप लोग कौन हैं !"

"हा-हा-हा-हा ! आलोक के चारों ओर घेरा बना कर खड़े हुए युवक उसके प्रश्न की उपेक्षा करते हुए उपहास की शैली में ठहाका लगा कर हँसने लगे । युवकों के हँसने के ढंग से आलोक को अनुमान हो गया था कि वह मंत्री जी के चेले-चपटे हो सकते हैं । किसी बवाल की संभावना को टालने के उद्देश्य से वह बोला -

"शायद आपको ज्ञात नहीं है, मैं ...!"

"डॉक्टर, शायद तुझे याद नहीं है, अभी तक तेरा इस्तीफा मंजूर नहीं हुआ है !" आलोक का वाक्य समाप्त होने से पहले ही आगंतुकों में से एक युवक ने कहा । आलोक ने उस युवक की बात का अत्यंत सहजता से उत्तर दिया -

"इस्तीफा मंजूर नहीं हुआ है, तो क्या ? मेरी माँ बीमार है, इसलिए मैं दो सप्ताह के अवकाश पर हूँ ।"

"मंत्री जी को मालूम है, तेरी माँ-वा कोई बीमार नहीं है । तूने बहाने से छुट्टी ली है ।"

"ऐसा नहीं है ! मैंने कुछ झूठ नहीं कहा है ! मेरी माँ वास्तव में बीमार है ।" आलोक ने बचाव की शैली में विनम्रतापूर्वक कहा, किंतु, संवेदनाहीन युवक उसकी बात सुनने-समझने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं थे ।

"चल, अपनी सारी सच्चाई मंत्री जी के सामने बताना !" एक युवक ने आलोक के कंधे पर हाथ रखकर उसे बाहर की ओर धकियाते हुए कहा । युवक की अभद्रता से आलोक को भय मिश्रित किसी अनिष्ट की आशंका ने घेर लिया । क्षण-भर के लिए उसके चेहरे पर पीलापन छा गया । अगले ही क्षण स्वयं को संभालते हुए उसने युवक को से कहा -

"ठीक है, मैं कपड़े बदल कर आता हूँ ।" यह कहकर युवकों को वहीं पर छोड़कर आलोक घर के अंदर चला गया । आंगन के अंदर मुख्य द्वार पर युवकों के भाषा-व्यवहार से सशंकित-आतंकित माँ भी उसके पीछे-पीछे कमरे में जाकर बोली-

"बेटा, क्या बात है ? कौन हैं यह लोग ? शक्ल-सूरत से तो गुंडे-मवाली दिख रहे हैं !"

"माँ, ये लोग दया प्रसाद के आदमी हैं ।" आलोक ने शर्ट पहनते हुए माँ से कहा और माँ को समझाया -

"माँ, मेरे जाने के बाद थाने में जाकर एफ.आइ.आर. लिखा देना कि मुझे मंत्री दया प्रसाद के लोग उठाकर ले गए हैं ।"

"मंत्री के लोग ? पर, क्यों बेटा ? तुमने उसका क्या बिगाड़ा है ?" मांँ ने बेटे के अनिष्ट की आशंका के भय से काँपते हुए पूछा ।

"माँ, रिलैक्स ! रिलैक्स !" माँ के होंठों पर अपनी तर्जनी उंगली रखते हुए आलोक ने कहा, "माँ घबराने की आवश्यकता नहीं है । ध्यान से सुनो, मेरे जाने के दस-दस मिनट बाद मेरे मोबाइल पर मुझसे संपर्क करते रहना ! कॉल रिसीव न होने पर या मोबाइल स्विच ऑफ होने पर सारी स्थिति मेरे कुछ घनिष्ठ मित्रों को बता देना ! उनके मोबाइल नंबर मेरी इस डायरी में लिखे हैं ! मुझे ढूँढने में वे आपकी सहायता अवश्य करेंगे !" यह कहते हुए आलोक ने एक छोटी-सी डायरी माँ के हाथों में थमा दी और एक लिफाफा अपनी जेब में रखते हुए बाहर जाने के लिए मुड़ा । माँ ने अपनी बूढ़ी अंगुलियों से आलोक की कलाई को दृढ़ता से पकड़ते हुए कहा

"बेटा, तू जानते-बूझते संकट को गले क्यों लगा रहा है ? तू जानता है, तेरे साथ कुछ गलत हो सकता है, तो इनके साथ क्यों जा रहा है ? मत जा बेटा!"

"जाना पड़ेगा, माँ ! यह सब तू नहीं समझ सकेगी !" यह कहकर आलोक ने माँ के पंजे से अपनी कलाई छुड़ाई और बाहर की ओर चल दिया । आलोक के दरवाजे पर पहुँचते ही पाँचों युवकों ने एक साथ कहा - "आ गया डॉक्टर, चल बैठ गाड़ी में !"

आलोक शांतिपूर्वक गाड़ी में बैठ गया । माँ आशंकित दृष्टि से बेटे को जाते हुए देख रही थी । परिवार के अंय सदस्य अभी तक यही सोच रहे थे कि आलोक के मित्र आए हैं और वह अपने मित्रों के साथ घूमने के लिए कहीं बाहर जा रहा है ।

सड़क पर गाड़ी तेज गति से दौड़ रही थी । गाड़ी में बैठे पाँचों युवक गप्पे मार रहे थे और ठहाके मार-मारकर हँस रहे थे । आलोक विचारमग्न मुद्रा में मौन बैठा था । उसके चेहरे पर चिंता की गहरी रेखाएं खिंची हुई थी । घर से निकलने के दस मिनट पश्चात् उसके मोबाइल की घंटी झनझना उठी । उसने कॉल रिसीव की -

"हाँ, माँ !"

"… !" माँ की ओर से वात्सल्य का वेग था, कोई शब्द नहीं ।

"माँ, मैं ठीक हूँ ! शीघ्र ही घर लौट आऊँगा !" यह कहकर आलोक ने संपर्क काट दिया । पन्द्रह मिनट पश्चात् पुनः आलोक के मोबाइल की घंटी बजी । पुनः वही बातें हुई । दो-तीन बार आलोक की अपने परिवार से बात होने के पश्चात् ठहाका मारकर उपहास की शैली में एक युवक ने कहा -

"डॉक्टर, तेरे घर वाले इतने जल्दी-जल्दी फोन क्यों कर रहे हैं ? तुम लोगों के शायद परिवार नहीं है, इसलिए तुम नहीं समझ सकोगे !"

"पर एक बात हम समझ गए हैं, जितनी चिंता तेरे परिवार वालों को तेरी है, उतनी चिंता तुझे उनकी नहीं है । अगर होती, तो मंत्री का ऑपरेशन करना छोड़के तू छुट्टी ना लेता !" यह कहकर युवकों ने पूनः एक ठहाका लगाया ।आलोक मौन बैठा रहा। युवको की टिप्पणी सुनकर एक क्षण के लिए उसके हृदय में चिंता के भाव उभरने के पश्चात् धीरे-धीरे उसके चेहरे पर आत्मविश्वास की कठोरता तथा वाणी में दृढ़ता दिखाई देने लगी ।

तीन घंटे की यात्रा के पश्चात् आलोक मंत्री जी के समक्ष उपस्थित था । मंत्री जी ने अपनी शक्ति और प्रभाव के साथ-साथ जनता के प्रति अपनी संवेदनहीनता तथा अवहेलना करने वालों पर अपनी दमन-दृष्टि और दंडात्मक कार्यवाही की अनेक सत्य घटनाओं का रोचक वर्णन करके आलोक का स्वागत किया और चेतावनी देने के ढंग से कहा -

"मेरा ऑपरेशन नहीं करने की हठ का परिणाम जानते हो तुम ?" आलोक ने शांत भाव से मंत्री जी का एक-एक शब्द सुना अंत में उसने आत्मविश्वास से परिपूर्ण दृढ़ शैली में कहा -

"मंत्री जी, मेरी माँ बीमार है ! अपनी माँ की सेवा-शुश्रुषा करना मेरे लिए अधिक आवश्यक है, न कि आपका ऑपरेशन करना ! इसके लिए मैं सभी परिणाम भुगतने के लिए तैयार हूँ ।"

"मैं नहीं मानता, तुम्हारी माँ बीमार है ।"

"आपके न मानने से क्या फर्क पड़ता है ! मेरे पास मेरी माँ को बीमार सिद्ध करने के लिए पर्याप्त प्रमाण है !" यह कहते हुए आलोक ने अपनी जेब से लिफाफा निकालकर मंत्री जी की ओर बढ़ा दिया ।

"डॉक्टर, यह जाँच -रिपोर्ट फर्जी भी तो हो सकती है !" दया प्रसाद ने आलोक के आत्मविश्वास पर प्रहार करते हुए कहा।

"अवश्य हो सकती है !" आलोक ने निडरतापूर्वक उत्तर उत्तर दिया । आलोक के आत्मविश्वास और निर्भीकता को देखकर धीरे-धीर दया प्रसाद के शब्दों में भद्रता आने लगी -

"डॉक्टर आलोक, मैं चाहूँ, तो तुम्हारी अपेक्षा अधिक अच्छे सर्जन से अपना ऑपरेशन करा सकता हूँ ! लेकिन मुझे भी जिद है, ऑपरेशन तुम्ही से कराना है ।"

"मंत्री जी ! मेरी जिद नहीं है, संकल्प है ! मैं आजीवन जनता की सेवा करुँगा ! क्षुद्र स्वार्थ में डूबकर भोली-भाली जनता के हितों की अवहेलना करने वाले राजनेताओं को अपना सेवा-अमृत पिलाने का महापाप मैं नहीं करूँगा !"

मेरा, एक मंत्री का ऑपरेशन करने को तुम पाप कहते हो ? क्यों ? आखिर तुम कहना क्या चाहते हो ?"

"मंत्री जी ! देश के नागरिकों के स्वास्थ्य और सुरक्षा को दाँव पर लगाकर अपनी कुर्सी सुरक्षित रखने के लिए आप आज तक सरकारी सेवाओं के सामान्य से लेकर महत्वपूर्ण विभागों के पदों पर आरक्षण की माँग करते हुए संसद में हंगामा करते रहे हैं, फिर आज आप आरक्षित पद पर नियुक्ति प्राप्त डॉक्टर ऋषभ गौतम से अपना ऑपरेशन क्यों नहीं करा रहे हैं ? जबकि डॉक्टर गौतम मुझ से सात वर्ष सीनियर है ! इसका सीधा-सा अर्थ है, आपको उनकी योग्यता पर संदेह है । आप नेताओं को अपने स्वास्थ्य की तो चिंता है, परन्तु देश के सामान्य नागरिकों के प्राणों का आपकी दृष्टि में कोई मूल्य नहीं है ? सामान्य नागरिकों का ऑपरेशन कराने के लिए डॉक्टर ऋषभ गौतम जैसे अनेकानेक डॉक्टर्स को नियुक्त कर दिया जाता है, और नेताओं-मंत्रियों के इलाज-ऑपरेशन के लिए सामान्य जाति के योग्य डॉक्टर्स की खोज की जाती है, क्यों ? क्यों ? मंत्री जी, जिन चिकित्सा-संस्थानों ने मेरी प्रतिभा को निकाल कर मुझे इस ऊँचाई पर पहुँचाया है, उनके सुचारु संचालन के लिए जनता का पैसा खर्च होता है, इसलिए जनता की सेवा करना मैं मेरा एकमात्र कर्तव्य समझता हूँ !"

"डॉक्टर आलोक, बरसों पहले जब तुमने मेरी अवहेलना करके एक आम आदमी के इलाज को अपेक्षाकृत अधिक महत्व दिया था, तब मुझे बहुत क्रोध आया था । लेकिन जब तुमने अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए अपने एच.ओ.डी. को अपना त्याग पत्र दे दिया, तब मैं तुम्हारे व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुआ था । और आज...! डॉक्टर आलोक, आज तुमने मुझे वह एहसास कराया है, जो आज तक किसी ने नहीं कराया । आज मैं तुमसे तुम्हें वचन देता हूँ, जीवन में अपने क्षुद्र स्वार्थों से प्रेरित होकर कभी भी जनता के हितों की अनदेखी नहीं करूँगा, न ही अपनी राजनीतिक शक्तियों का दुरूपयोग करूँगा !" आलोक के साथ इतना संवाद करने के पश्चात् मंत्री जी ने एक युवक को पुकारा और आदेश देते हुए कहा -

"डॉक्टर साहब को सकुशल इनके घर पहुँचा दो !" युवक को दिए गये द्य आदेश से आलोक के हृदय में पुनः किसी अनिष्ट की आशंका उठी, किंतु अगले ही क्षण वह आशंका निर्मूल सिद्ध हो गयी, जब उसके कानों में मंत्री जी का निर्मल मधुर मृदु स्वर सुनाई पड़ा -

"डॉक्टर साहब, आप निश्चिंत होकर अपने घर जा सकते हैं ! इतना स्मरण रखिएगा, हमारा ऑपरेशन तभी होगा, जब आप करेंगे ! हम मर जाएंगे, लेकिन आपके सिवा किसी अन्य डॉक्टर से हम अपना ऑपरेशन नहीं कराएँगे !" मंत्री जी का अंतिम वाक्य सुनकर डॉक्टर आलोक के चेहरे पर आनायास ही मुस्कुराहट फैल गयी । वह मंत्री जी का अभिवादन करके मुस्कुराते हुए उनके द्वारा संकेतित युवक के साथ बाहर की ओर चल दिया।