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एक इच्छा एक उपहार

एक इच्छा और एक उपहार

श्रीधर को कभी इतना समय नहीं मिला की पत्नी के लिए कुछ गहने खरीद सके। पैसे की कोई कमी न थी। जैसा कि ऐसे लोगों के बारे में अक्सर कहा जाता है वैसे ही श्रीधर के बारे में भी कहा जा सकता है कि उसके पास भगवान का दिया सब कुछ था। पता नहीं सच में भगवान का दिया था या नहीं ये सोचने वाली बात है।

अब यह सवाल उठता है कि सब कुछ तो भगवान ही देता है फिर इसमें संदेह वाली कौन ऐसी बात है। संदेह वाली बात यह है कि काला धन कभी भगवान नहीं देता, ये उसके काङ्क्षरदे आप ही आप बटोर लेते हैं।

श्रीधर के पास रुपए इतने थे कि उसे छुपाने के लिए जगह कम पड़ रही थी। दो बंगले पहले ही बनवा चुका था तीसरे की फिराक़ में था। गाँव में कई सौ एकड़ ज़मीन खरीद रखी थी। कई बैंकों में खाते थे। अपनी ज़मीन-ज़ायदाद का हिसाब रखना उसके लिए मुश्किल हो गया था। उसकी पत्नी ने कितने और क्या-क्या गहने बनवाए थे, इसका भी उसे पता नहीं था। यहाँ तक कि श्रीधर को काम से इतनी फुरसत ही नहीं मिली कि कभी अपनी इकलौती लाडली के स्कूल गया हो।

आज-कल के अफसरों का यही हाल है। सब जगह मौजूद होना बहुत ज़रूरी है। अभी इस इलाके में ही श्रीधर के आने से पहले जो चीफ इंजीनियर साहब थे राम प्रसाद बाबू। रिटारयमेंट के दिन करीब थे लेकिन उनके मुख पर कालिख लगनी लिखी थी सो लग गई। उनके द्वारा मंजूर किए गए एक होटल के ढह जाने से वो बवाल मचा कि मीडिया उनके घर पहुँच गई। बेचारे हफ्ते भर की छुट्टी मना के लौटे थे और कैमरे के सामने बोल बैठे ‘मुझे इसकी कोई खबर नही‘। नतीजतन सस्पैंड कर दिए गए।

इसके बाद श्रीधर साहब आए। कोई बहुत अनुभव वाले व्यक्ति न थे बल्कि कम उम्र में बड़ी तरक्की वाले व्यक्ति थे। जो सीढिय़ाँ तय करने में लोग सारा जीवन व्यतीत कर देते थे वो ये अब तक हासिल कर चुके थे। जाने अब कहाँ जाने की धुन सवार थी। राम प्रसाद की तरह बेफिक्रे तो ये थे नहीं पर इस घटना ने और सतर्क कर दिया। हर जगह हर चीज की तसल्ली खुद करते और खुद जाकर साइट देखते और किसी के कहे पर न जाते। किसी पर भी भरोसा नहीं था। अदनी से अदनी बात खुद जाँचते। यह कोई आसान काम तो था नहीं। इसलिए घर पर कम और दफ्तर में ज़्यादा नजऱ आते थे। जो लोग सालों के अनुभव से सीख पाते थे, उसके ये अभी से माहिर होने की कोशिश में लगे थे।

विभाग में नए एक्ज़ीक्यूटिव इंजीनियर आए हैं। इसके पहले जो थे वो बड़े खट्टे मिजाज़ के थे। हर बात पर मुँह बिगड़ा रहता था। श्रीधर इतनी तल्लीनता से काम करता था फिर भी कभी मुँह से तारीफ के दो बोल न निकले, इसके विपरीत उसी को उल्टे छुरे से मूँड़ते थे। जो काम दूसरा कोई देखता था उसे भी उठाकर श्रीधर को ही दे दिया करते थे। समय-समय की बात है।

नए वरिष्ठ अधिकारी आए हैं, वे बड़े खुश-मिजाज़ हैं। जैसे गर्मी के बाद बरसात। एक ही हफ्ते का काम देख श्रीधर की तारीफ करते नहीं थकते।

कल उन्होंने पार्टी रखी है। सो बड़े दिनों बाद श्रीधर को पत्नी के साथ बाहर जाने का मौका मिला है। घर जाते ही संजना से इस बारे में बात की। संजना अपने सीरियल में इतनी मग्न है कि श्रीधर के जल्दी घर आने पर आश्चर्य करना भी भूल गई। उसका सबसे पसंदीदा सीरियल आ रहा है जिसमें परोक्ष में इतना संगीत बजता है कि प्रत्यक्ष में किरदारों की आवाज़ तक ठीक से सुनाई नहीं देती। अत: टी.वी. में कान गड़ाए बैठी थी।

‘संजू! संजू!‘

‘हूँ‘

‘मैंने अपने नए सर के बारे में बताया था न..‘

‘हूँ‘

‘उन्होंने कल अपने घर पर पार्टी रखी है। ‘

‘हूँ‘

‘कल हमें वहाँ जाना है‘

‘हूँ...क्या... नहीं.. मैं कहीं नहीं जानेवाली‘

श्रीधर ने सोचा यह कैसे होगा। अगर नए सर पर जादू बनाए रखना है तो जाना तो पड़ेगा। अपने नए बंगले की नींव डाल दी है। अगर सर नाराज़ हो गए तो उसको पूरा करने के लिए धन कहाँ से आएगा? महारानी ने बैठे-बैठे बस कह दिया कि कहीं नहीं जाएगी। ऐश करने के वक्त तो किसी के मुँह से ‘नहीं‘ नहीं निकलता। अब इसको कैसे समझाऊँ?

‘क्यों। क्या हो गया‘

‘मैं यहीं ठीक हूँ‘,

‘एक दिन की तो बात है। ‘

सीरियल में ज़बरदस्ती का विघ्न पड़ते देख संजना के मुँह से निकल गया।

‘अच्छी साड़ी नहीं है‘,

‘तो ले लेते हैं, इस में क्या हुआ?‘

‘नहीं। साड़ी है, पर मैङ्क्षचग ज्वेलरी नहीं है। ‘

‘तो चलो आज ही खरीद लेते हैं। इसमें क्या है?‘

गहने का मोह कोई स्त्री नहीं छोड़ सकती। सीरियल गया भाड़ में, सुबह का रिपीट टेलीकास्ट देख लिया जाएगा। श्रीधर को भी किसी तरह संजना को पार्टी के लिए मनाना ही था।

***

बाज़ार अभी ऐसा जगमगा रहा था जैसे किसी ने शहर की सारी रोशनी यहीं ला कर बिखेर दी हो। एक बड़ी दुकान के आगे श्रीधर ने कार पार्क की और दोनों दुकान में दाखिल हुए।

अभी दुकान में ज़्यादा ग्राहक न थे। जो थे वह भी निकलने लगे थे। दुकान की चकाचौंध देख आँखे खुली की खुली रह जाती थीं। इतने गहने जितने इस दुकान में हैं अगर किसी के घर में हो तो वो कितना अमीर आदमी होगा। संजना को तो इसकी आदत थी पर श्रीधर बड़े दिनों बाद गहने की दुकान में आया था और इतनी फुरसत से तो कभी न आया था।

देखते-देखते उसकी निगाह एक ऐसे गहने पर पड़ी जो उसने कभी अपनी माँ के कानों में देखा था। बिल्कुल वैसा तो नहीं मगर बहुत कुछ मिलता-जुलता। उसे खरीदने के लिए उसका मन मचल उठा। उसने उसे मँगाकर देखा फिर पत्नी को दिखाया। संजना ने देखते ही मुँह बना लिया। भला इतना सस्ता गहना वह कैसे पहन सकती है? श्रीधर को कठोर नेत्रों से देखकर वह दूसरे गहने देखने में मग्न हो गई।

श्रीधर काफी देर तक उस गहने को देखता रहा। संजना तो पहनने से रही। अगर पुरुषों में गहने पहनने का चलन होता तो वह खरीद लेता परंतु अभी तक तो ऐसा कोई फैशन आया नहीं है। वह इसे खरीदे तो खरीदे किसके लिए। अंतत: उसे लौटा दिया।

देखा तो संजना काउंटर पर खड़ी हो दुकानदार को क्रेडिट कार्ड दे रही थी। श्रीधर ने चुपचाप जाकर गाड़ी निकाली और संजना थोड़ी देर में आकर गाड़ी में बैठ गई। उसने श्रीधर के चेहरे को पढऩे की कोशिश की लेकिन उसे भावशून्य पाया, जैसे खोया हुआ सा कहीं दूर देख रहा हो। संजना जानना चाहती थी कि श्रीधर नाराज़ तो नहीं। पर नाराज़गी का कोई भाव न पाकर वह निङ्क्षश्चत हो गई। खाली सडक़ों पर उनकी गाड़ी सरपट दौड़ी जा रही थी। बाज़ार उठ चुका था। इक्का-दुक्का दुकानें बस खुली थीं।

***

घर पहुँचे तो पाया कि बाई ने सिमी को खाना खिला कर सुला दिया था। श्रीधर और संजना भी खाना खा कर सोने गए। लेकिन श्रीधर की आँखों में नींद न थी। उसकी आँखें अभी भी उसी गहने को देख रही थीं। वह अभी भी उसे खरीदने के बारे में सोच रहा था। यों तो दिनभर की थकान से वह बिस्तर पर गिर पड़ता था और गिरते ही सो जाता था, आज न जाने नींद कहाँ चली गई। श्रीधर उठकर सिमी के कमरे में गया। उसे सोता देख उसे न जाने किस सुख का अनुभव हुआ कि वह भी वहीं लेट गया और सो गया।

***

संजना उठी तो देखा आज श्रीधर रोज से पहले तैयार हो, बैठा नाश्ता कर रहा था।

‘क्या बात है आज जल्दी तैयार हो गए?‘

‘हाँ थोड़ा काम है....शाम को तुम और सिमी तैयार रहना, मैं..‘ कहते कहते उसने ब्रेड मुँह में ठूँस लिया। ‘हाँ हाँ, मगर तुम जल्दी आ जाना। ‘

‘ठीक है। ‘

श्रीधर आफिस के लिए निकला। रास्ते में उसी दुकान पर गाड़ी रोककर उसने वो गहना खरीदा और फिर आफिस के लिए रवाना हुआ। आज आफिस में सारा काम जल्दी निपटाकर वह निकला तो देखा पूरा स्टाफ पार्टी में जाने के लिए निकल चुका था। गहना लिए घर पहुँचा तो सिमी और संजना तैयार हो रहे थे।

श्रीधर ने अपनी मुठ्ठियाँ सिमी के आगे कर दीं। बड़ी मुश्किल से सिमी ने दोनों मुठ्ठियाँ खोलीं और कुछ न पाकर रोनी सी सूरत बना ली। श्रीधर को पहले तो बड़ा मज़ा आया लेकिन वह उसे स्वयं ज़्यादा देर परेशान न देख सका। सोने की बालियों वाली डिब्बिया आगे कर दी। सिमी ने डिब्बिया खोली और खुशी से ऐसे झूम गई जैसे कोई खुशियों का पिटारा खोला हो। उसे याद नहीं कि पापा ने इससे पहले उसे कभी कोई उपहार दिया हो। हर वस्तु माँगने पर मिल जरूर गई पर खुद से उन्होंने कुछ न दिया था।

श्रीधर को उसे खुश देखकर उस समय इतनी खुशी हुई जितनी तब भी न हुई थी जब उसने अपना एक बंगला सिमी के नाम पर किया था। यहाँ एक अद्भुत खेल हुआ। एक की इच्छापूर्ति दूसरे के लिए एक उपहार बन गई।

***