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Such Abhi Zinda Hein (Bhag -3)

सच अभी जिंदा है

भाग — 3

अशोक मिश्र

प्रिय पप्पू को

जो किसी शरारती बच्चे की तरह जीवन की राह में

खेलते—कूदते एक दिन साथ छोड़कर चला गया।

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सच अभी जिंदा है

‘अरे शिवाकांत! ...सुना है, परसों रात कांटिनेंटल से तुम मोना डार्लिंग को उसके घर पहुंचाने गए थे। भई...पूरी दिल्ली में कल इसी बात की चर्चा होती रही। कल तुम आए भी नहीं, तो लगा, मोना डार्लिंग मेहरबान हो गई होंगी। अगली सुबह तुम किसी काम के लायक नहीं रहे होगे। सो झट से कैजुअल लीव ले ली होगी।' सीनियर रिपोर्टर चंदन श्रीवास्तव ने अपना नोटबुक मेज पर पटकते हुए कहा। वह अभी दफ्तर आया था और आते ही शुरू हो गया।

खबर कंपोज करते—करते शिवाकांत चौंक गया। उसने सिर उठाया तो पाया कि सभी उसकी ओर देख रहे हैं। मुस्कुरा रहे हैं। कुछ लोग तो अपने काम में लगे होने का दिखावा कर रहे थे, कान उनके चंदन और शिवाकांत की बात पर ही लगे हुए थे। चंदन की बात पर कल्चरल रिपोर्टर मिसेज प्रतिभा सरीन मुस्कुरार्इं।

‘तेरे पेट में क्यों मरोड़ उठ रही है।' अतुल अग्निहोत्राी ने चंदन को ताना मारा। अतुल डीएमसी (दिल्ली नगर निगम) के साथ इलेक्ट्रीसिटी बीट का इंचार्ज था। चंदन और अतुल दोनों एक दूसरे की टांग खिंचाई का मौका हाथ से नहीं जाने देते थे। जिसको भी मौका मिलता, फायदा उठाना नहीं चूकता। दोनों की नोक झोंक हमेशा जारी रहती। चुप बैठना तो दोनों जानते ही नहीं थे। हंसोड़ इतने कि एक बार चंदन श्रीवास्तव बिना बताए गायब हो गया। तीन दिन बात उसने संपादक मनोज कोठारी को फोन करके बताया, उसके पिता अचानक चल बसे। वह कुछ दिन बाद ही ऑफिस आ पाएगा। जब तक चंदन वापस नहीं आया, अतुल पगलाया हुआ घूमता रहा। हंसना तो जैसे भूल ही गया। पंद्रह—सोलह दिन बाद चंदन जैसे ही आकर सीट पर बैठा, अतुल ने पूछा, ‘यार! कहां चले गए थे तुम?'

चंदन ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘पिता जी हम सबको गोली देकर दूसरी दुनिया में चले गए थे यार! उनकी क्रिया—कर्म करने जाना पड़ा।' यह कहते—कहते चंदन रो पड़ा, तो अतुल भी फूट—फूटकर रोने लगा। लोगों ने आकर दोनों को समझाया, तब कहीं जाकर चुप हुए। कुछ दिन बाद दोनों फिर पहले जैसे हो गए।

‘हाय...शिवाकांत की जगह हम न हुए...हाय...हाय...हम न हुए' कहकर चंदन ने पहले तो बाहें फैलार्इं। फिर दोनों हाथों से धीरे—धीरे छाती पीटने लगा।

‘मुन्ना...रहीमदास जी ने कहा है, ‘रूखा सूखा खाय के ठंडा पानी पी, देख पराई चूपड़ी मत ललचावे जी।' मेरी मानो, तो उसके सपने देखना बंद करो। सपने देखने और ठंडी आहें भरने से कुछ नहीं होगा।' प्रतिभा सरीन ने नहले पर दहला जड़ा।

‘सही कहा मैम! अब उसके बजाय आपके सपने देखना शुरू कर देता हूं। रूखी—सूखी की तरफ देखता हूं।' चंदन ने भी मौका नहीं गंवाया।

‘ठीक कहा प्रतिभा जी आपने। यह साला जब देखो, तब मोना डार्लिंग...मोना डार्लिंग की सुमरनी फेरता रहता है। यदि कहीं सामने पड़ जाए, तो साहब की घिग्घी बंध जाती है। वैसे भी वह हिंदी वालों को मुंह नहीं लगाती।' अतुल अग्निहोत्राी अब चंदन को छेड़ने पर उतारू था।

चंदन की बात सुनकर प्रतिभा सरीन पहले सकपका गर्इं, फिर बोलीं, ‘यह सपना भी सच होने वाला नहीं है, चंदन भाई। वैसे सपने देखने पर तो कोई रोक नहीं है। लेकिन ध्यान रखना, मेरे हसबैंड को पता चला, तो समझ लेना तुम्हारी क्या गति होगी। दो—चार हड्डियां हैं, उसे भी वे मटन के साथ पकाकर खा जाएंगे।'

प्रतिभा सरीन ने जैसे ही चंदन को भाई कहा, प्रतुल हंस दिया और चंदन श्रीवास्तव शर्मा गया। चंदन जब भी प्रतिभा सरीन को छेड़ता, वे बातचीत के दौरान भाई कहकर उसकी बोलती बंद करा देती थीं।

चंदन ने चिढ़ते हुए कहा, ‘आपके ‘वो' क्या मांसखोर हैं?' उसने ‘वो' शब्द पर जोर दिया।

प्रतिभा सरीन मुस्कुरार्इं, ‘हां हैं न! उन्हें रोज मांस चाहिए, चाहे बकरे का हो या इंसान का।' इतना कहकर वह अपने काम में लग गर्इं।

शिवाकांत की समझ में नहीं आ रहा था, यह सब हो क्या रहा है? लोगों को कैसे पता चला, वह मोनिका को उसके घर छोड़ने गया था। कहीं मोनिका ने ही तो नहीं...? लेकिन उसका जी नहीं माना। उसे लगा, जब वह मोनिका को टैक्सी में बिठाकर ले जा रहा था, तो उसी समय या रास्ते में फोटोग्राफर अलंकार या किसी दूसरे ने देखा होगा। फोटोग्राफर को तो उसी समय आना भी था। कल जब वह नहीं आया, तो अलंकार ने चटखारे लेकर लोगों को बताया होगा। शिवाकांत इन चुहुलबाजियों का कोई करारा जवाब देना चाहता था कि न्यूज एडीटर रमानाथ कटियार पीटीआई का एक तार लेकर आ खड़े हुए।

‘शिवाकांत...पीटीआई ने अभी—अभी एक खबर जारी की है। लाजपत नगर में किसी दस वर्षीय लड़की को चार युवक कार में घसीट ले गए थे। डेढ़ घंटे बाद उसे वहीं फेंक गए, जहां से उठाया था। तुम जरा डिटेल्स पता करो।' रमाकांत ने तार थमाते हुए कहा, ‘सेंसटिव मामला है। शायद गैंग रेप का भी। अलंकार को साथ ले जाओ।'

शिवाकांत ने अपनी डायरी, पेन और मोबाइल समेटते हुए मनजीत भाटिया को अपनी खबरें पहली डाक से ही दे देने को कहा और अलंकार की खोज में बाहर आ गया। कुछ साथियों के साथ गप लड़ाता अलंकार उसे कैंटीन में मिला। शिवाकांत को देखते ही उसने चाय का आखिरी घूंट पिया। बिना कुछ कहे वह अपनी बाइक लेकर आ गया। शायद कटियार ने उसे फोन कर दिया था।

रात दस बजे कटियार के मोबाइल पर शिवाकांत का फोन आया, ‘सर! अब तक कौन—कौन से डाक एडीशन जा चुके हैं?'

‘पहली और दूसरी जा चुकी है। तीसरी डाक छूटने वाली है। तुम्हारी खबर का क्या हुआ? कितनी देर में आ रहे हो?'

‘सर...अपने यहां कोई खबर गई है उस लड़की के बारे में?'

‘पीटीआई और चैनल्स पर आ रही खबरों को आधार बनाकर पहले पेज पर एक सिंगल कॉलम खबर डाक एडीशन से ही जा रही है। यह बताओ...तुम कितनी देर में आ रहे हो? सिर्फ अगवा और रेप की ही खबर है या कुछ और कुछ?'

‘अगर तीसरी डाक न छूटी हो, तो सिर्फ उसमें इतना जुड़वा दें, रेप की शिकार बच्ची ने डॉ. रमैय्या नर्सिंग होम में इलाज के दौरान दम तोड़ दिया। पुलिस ने चारों आरोपियों को गिरफ्तार कर लेने का दावा किया है। बाकी खबर और साइड स्टोरी एक घंटे में आकर लिखता हूं। सर...अगर मुझे थोड़ी देर हो जाए, तो भी सिटी एडीशन मत छोड़िएगा। मेरे पास कुछ एक्सक्लूसिव है। सुबह सभी अखबारों को हम पीट सकते हैं।' शिवाकांत बोलते—बोलते उत्तेजित हो गया था।

न्यूज एडीटर कटियार ने फोन काटने से पहले सिर्फ इतना कहा, ‘देखो, सिटी एडीशन लेट करना हम अफोर्ड नहीं कर सकते। जैसे भी हो, तुम बारह बजे तक ऑफिस आ जाना। एकाध घंटे तो तुम्हें खबर लिखने में भी लगेंगे।'

जनरल डेस्क इंचार्ज नरोत्तम पारीक ने उत्सुकतावश पूछ लिया, ‘कौन था भाई साहब? अभी किसकी खबर आनी बाकी है?'

‘अरे वही नया मुल्ला है...। नया—नया दिल्ली आया है। कहता है, रेप के मामले में कोई एक्सक्लूसिव मैटर है। अरे बेवकूफ...रेप रेप होता है। उसमें एक्सक्लूसिव क्या होगा।' कहते हुए अश्लील ढंग से कटियार मुस्कुरा पड़ा, तो नरोत्तम पारीक ने भी बत्तीसी दिखा दी।

‘हो सकता है, रेप करने का कोई नया एंगिल खोज निकाला हो। वही पाठकों को परोसना चाहता हो। अगर ऐसा हुआ, तो वाकई उसके पास एक्सक्लूसिव है।' पारीक के यह कहते ही सब खिलखिलाकर हंस पड़े।

रात लगभग सवा बारह बजे शिवाकांत दफ्तर पहुचा। एकाध को छोड़कर सारे रिपोर्टर्स ऑफिस से जा चुके थे। उसने अपना कंप्यूटर चालू किया और खबरें लिखने लगा। पहले उसने मुख्य खबर लिखी। लिखने के बाद उसे सरसरी निगाह से देखा, फिर लोकल डेस्क को ट्रांसफर कर दी। उसने साइड स्टोरी लिखी। साइड स्टोरी में पुलिस प्रशासन को कठघरे में खड़ा करने का प्रयास किया था। उसने डबल कॉलम दो बाक्स आइटम अस्पताल और घर के माहौल पर लिखे। एक बाक्स आइटम में उसने बताया कि अपहरण और सामूहिक बलात्कार करने वाले दो आरोपी आठ साल पहले बच्ची की बुआ के साथ भी बलात्कार कर चुके थे। यह मामला दिल्ली हाईकोर्ट में विचाराधीन है। मुकदमा वापस लेने और परिवार वालों का मनोबल तोड़ने के लिए आरोपियों ने आज की वारदात को अंजाम दिया था। बच्ची की बुआ से बलात्कार के दोनों आरोपी चार साल से जमानत पर थे। दो हफ्ते बाद ही उस मामले का फैसला होने वाला था।

खबर और साइड स्टोरियां लिखने के बाद शिवाकांत ने लोकल डेस्क इंचार्ज अंबा दत्त को इंटरकाम से बता दिया, उसे जो कुछ लिखना था, लिख दिया है। अब वह घर जा रहा है। अगर कोई डेवलेपमेंट होता है, तो वह फोन पर सूचना देगा।

सुबह जैसे ही सोकर उठा, आदत के मुताबिक अपना अखबार खोला। अपनी खबरें पढ़कर तिलमिला उठा। उसकी खबरों की ऐसी छीछालेदर की गई थी कि वह रुआंसा हो उठा। बच्ची की बुआ से बलात्कार वाला बाक्स आइटम लगाया ही नहीं गया था। पुलिस प्रशासन को कठघरे में खड़ा करने वाली खबर की भाषा ऐसी कर दी गई थी, जैसे किसी चारण ने अपने राजा की प्रशंसा में विरुदावलि गाई हो। खबर में कहा गया था, पुलिस ने घटना के दो—तीन घंटे के भीतर ही आरोपियों को गिरफ्तार करके बेहतर कार्यशैली का परिचय दिया था। मुख्य खबर में तो और भी गजब किया गया था। बलात्कार की शिकार बच्ची और एक आरोपी के बीच प्रेम संबंध की बात अपने अखबार में देखकर उसने माथा पीट लिया। उसका सिर चकराने लगा। उसे लगा, आंखों के आगे अंधेरा छा रहा है। उसने अन्य अखबारों में छपी खबरों को पढ़ना शुरू किया। उसने घर आने वाले हिंदी, अंग्रेजी के सारे अखबार पढ़ डाले। किसी भी अखबार में प्रेम संबंध वाली बात नहीं लिखी थी, सिवाय चंडीगढ़ से हिंदी और गुरमुखी में प्रकाशित एक अखबार के। गुरुमुखी में ऐसी ही खबर प्रकाशित होने की बात भी उसे बाद में पता चली थी। अन्य सभी हिंदी—अंग्रेजी अखबारों में सिर्फ सिंगल कॉलम खबर छपी थी।

शिवाकांत सिर पकड़कर बैठ गया। उसकी आंखों में गैंगरेप की शिकार दस वर्षीय सोनिया की तस्वीर उभर आई। वह तो अस्पताल में सोनिया का शव देखकर आया था। भय और पीड़ा की अधिकता के चलते सोनिया की फटी आंखें मरने पर भी खुली रह गई थीं। जब अस्पताल पहुंचा था, तो सोनिया जिंदा थी। पूरे अस्पताल में उसकी चीखें गूंज रही थीं। दर्द इतना था कि उसको दिया गया दर्द निवारक इंजेक्शन भी बेअसर साबित हो रहा था। उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी, वहां रुकने की। उसके मां—बाप छाती पीट—पीटकर रो रहे थे। वह समझ नहीं पा रहा था, किससे पूछे और क्या पूछे? तभी सोनिया ने एक लंबी चीख मारी। पूरे अस्पताल में सन्नाटा छा गया। मानो, किसी ने पूरे वातावरण का गला घोंट दिया हो। बिलबिला उठी हों चारों दिशाएं। फफक पड़ी हो रात। किसी के कंधे पर सिर रखकर चांद सिसकने लगा हो। हवा भी मानो पग धीरे—धीरे रखकर चुपके से बिना कोई शोर—शराबा किए निकल जाना चाहती हो, ताकि सोनिया की नींद में खलल न पडे़। और सोनिया...वह तो सभी पीड़ा से मुक्त होकर इस संसार की नृशंसता, बर्बरता को साथ लेकर चली गई थी। उस समय अस्पताल में मौजूद हर व्यक्ति छटपटा रहा था। सिसक रहा था। उसका इलाज करने वाली डॉ. देशपांडे तो ऑपरेशन थियेटर से निकलते ही फूट—फूटकर रो पड़ी थीं।

और...लोकतंत्रा का चौथा खंभा? जनता के पहरुए...? कहते हैं, सोनिया का एक आरोपी के साथ प्रेम प्रसंग था। उसने पहले पेज के इंचार्ज नरोत्तम पारीक को फोन किया। उनकी पत्नी ने बताया, वे सो रहे हैं। लोकल डेस्क इंचार्ज अंबा दत्त ने फोन ही नहीं रिसीव किया। मजबूरन कटियार को फोन किया, तो उन्होंने बाद में बात करने की बात कहकर फोन काट दिया। वह तिलमिलाकर रह गया। यह हो क्या रहा है? हर कोई उससे बात करने से कतरा क्यों रहा है? उसकी खबरों से खिलवाड़ किसने किया? और फिर क्यों? उसका मन खिन्न हो उठा। वह दिनभर बौराया सा घूमता रहा। घर पर ही बैठा कुढ़ता रहा। उसके सामने दिक्कत यह थी, वह आत्मा पर बोझ लेकर पत्राकारों के बीच जाए भी, तो कैसे? क्या लेकर मुंह दिखाए? और फिर जिन बातों को उसने जान लिया था, दूसरे अखबारों के रिपोर्टरों ने भी तो जाना होगा? उन्होंने कैसे दिन गुजारा होगा? क्या वे भी अपनी आत्मा पर बोझ महसूस करते होंगे? अखबारों के दफ्तरों में इस खबर को लेकर कोई चर्चा हुई भी होगी या नहीं?

शाम को शिवाकांत ऑफिस पहुंचा, तो क्रोध से उबल रहा था। अगर आंखों से किसी को भस्म किया जा सकता होता, तो अब तक काफी लोग भस्म हो चुके होते। वह सीधा न्यूज एडीटर रमानाथ कटियार के पास गया। कटियार ने उसे देखते ही कहा, ‘हां, शिवाकांत...सुबह तुम कुछ कहना चाहते थे? उस समय मैं जरा आवश्यक काम से बाहर जा रहा था। हां, अब बताओ...क्या कहना चाहते थे?' उन्होंने शिवाकांत को बैठने का इशारा किया।

कटियार की बात सुनते ही उसके दिल में शोला—सा भड़क उठा। लगा, यह शोला उसे तो भस्म करेगा ही, बाकी लोगों को भी जलाकर खाक कर डालेगा।

‘भाई साहब! कल जिस तरह मेरी खबर के साथ बलात्कार किया गया, वैसा बलात्कार तो सोनिया के साथ नहीं हुआ होगा। अखबार की इमेज के साथ भी बलात्कार किया गया। पूरी दिल्ली में मेरी थू—थू हो रही है। कल एचटी, डीजे और डीबी के रिपोर्टर्स कह भी रहे थे, बेकार इतनी मेहनत कर रहे हो। यह खबर हममें से किसी के भी अखबार में नहीं छपेंगी। बहुत हुआ, तो सिंगल कॉलम खबर बाद के पन्नों पर किसी कोने में छाप दी जाएगी। इतना छापकर हम मान लेंगे कि हमने पत्राकारिता की नैतिकता को पूरा कर दिया। मैंने कितने विश्वास के साथ उनसे कहा था, नहीं, मेरा अखबार ऐसा नहीं करेगा। मेरे यहां सच छपेगा और पूरा छपेगा। मैं उनसे कोई भी शर्त लगाने को तैयार था। तब वे लोग सिर्फ हंस कर रह गए थे।'

शिवाकांत ने खड़े—खड़े कहा, ‘आज मैं यह जानने आया हूं, मेरी खबर के साथ ऐसा क्यों किया गया?'

‘कल रात तुम्हारी खबर के साथ अन्याय नहीं किया गया था। बाकी अखबारों में भी तो वही छपा है, जो अपने यहां छपा है। हां, तुम्हारी चोपड़ा हत्याकांड वाली खबर का एंगल जरूर सब पर भारी रहा। इसके लिए तुम्हें बधाई देना चाहता हूं।' रमानाथ कटियार मुस्कुरा रहा था।

‘भाई साहब, आप मुस्कुरा रहे हैं। मुस्कुरा सकते हैं क्योंकि भद्‌ आपकी नहीं पिटी है। मेरी और अखबार की मिट्टी पलीद हुई है। माखौल आपका नहीं, मेरा और अखबार का उड़ाया जा रहा है। लड़ाई आप नहीं, मैं और अखबार हारा है। आप इसलिए भी मुस्कुरा सकते हैं क्योंकि उस मासूम की चीखें आपने नहीं, मैंने सुनी है। आपने उस बच्ची की हालत देखी और चीखें सुनी होती, तो अब तक आप शायद गूंगे और बहरे हो गए होते। आपका क्या है? आप मुस्कुराकर समझ रहे हैं, आपने कोई जंग जीत ली है? अगर यह जीत है, तो जीतने के बाद भी आपके हाथ कुछ नहीं लगा। आज हारी है तो पत्राकारिता। एक अखबारनवीस का विश्वास। उसकी मेहनत और ईमानदारी। पत्राकारिता ने खोया है, तो अपनी प्रतिष्ठा और लोगों का विश्वास।' आवेश में वह बोलता जा रहा था।

वह मेज पर थोड़ा झुका। कटियार की आंखों में आंखें डालकर बोला, ‘आप कहते हैं, कल मेरी खबरों के साथ न्याय किया गया। मैं कहता हूं, इस दफ्तर के साथ ही साथ दिल्ली में छपने वाले सभी अखबार के दफ्तरों में कल बलात्कार हुआ था। पूरी पत्राकारिता के साथ, मानवता के साथ और मानवीय संवेदना के साथ। सोनिया के साथ बलात्कार करने वाले शायद अपनी करनी की सजा भी पा जाएं, लेकिन कल अखबार के दफ्तरों में जो बलात्कार हुए थे, उनके दोषियों को सजा कौन देगा? कोई नहीं। लोग मानेंगे ही नहीं, अखबार के दफ्तरों में कोई बलात्कार हुआ था। सिर्फ आत्मा की अदालत में आप लोग गुनाहगार साबित हो सकते हैं, जिसको आप लोगों ने बहुत गहरे दफन कर रखा है। विश्वास रखिए, जिस दिन अंतरात्मा जागी, उस दिन आप लोग लाख चतुराई बरत लें, उसकी अदालत में बरी नहीं, गुनाहगार साबित होंगे। जो बातें मैंने लिखी ही नहीं, उसे छापने की आपने हिम्मत कैसे की?'

‘अरे! एक मामूली रेप की खबर को लेकर इतना सेंटीमेंटल होने की जरूरत क्या है? ऐसे बलात्कार दिल्ली में रोज होते हैं। तो क्या ऐसी खबरों को पहले पेज पर लीड बनाकर छापूं? सभी अखबारों ने जितना स्पेस दिया, उससे कहीं ज्यादा स्पेस हमने दिया। अब और क्या चाहिए तुम्हें? यह तो रोज की जंग है। इसमें कभी हार होती है, तो कभी जीत। खबरों की होड़ में कभी कोई अखबार जीतता है, तो कभी कोई। आज हम जीते हैं, तो कल कोई दूसरा जीतेगा। इसमें इतनी हाय—तौबा मचाने की जरूरत क्या है?' कटियार पेपरवेट उठाकर नचाने लगा। वह शिवाकांत की ओर देखने से बच रहा था। उसे शिवाकांत की आंखों से निकलती आंच महसूस हो रही थी।

‘बलात्कार न सामान्य होता है, न असामान्य। बलात्कार सिर्फ बलात्कार होता है। जिसके साथ होता है न, उसका तन ही नहीं, मन भी घायल होता है। आत्मा रक्तरंजित हो जाती है। मैं तो कहता हूं, अच्छा हुआ सोनिया मर गई। मर कर वह जलालत और नारकीय पीड़ा भोगने से मुक्ति पा गई। अगर वह जिंदा रहती, तो बलात्कार का दंश उसे हर रात फणिधर की तरह डसता। हर रात उसकी अपमानजनक और पीड़ादायक होती। वह आजीवन उस पाप की सजा भोगती, जो उसने किया ही नहीं। जैसे उसकी बुआ पिछले आठ सालों से हर पल भोगती आ रही है।'

शिवाकांत की आवाज मानो किसी कुएं से आती प्रतीत हो रही थी। आवाज तलवार की धार जैसी पैनी थी। लेकिन मन सोनिया की खुली आंखों में उभरी पीड़ा में ही उलझा हुआ था। उसने बात जारी रखी, ‘भाई साहब! मेरी खबरों में बदलाव आखिर किए ही क्यों गए। वह भी मेरी जानकारी के बिना?'

पेपरवेट नचाना छोड़कर पहली बार कटियार ने शिवाकांत की ओर देखा, ‘बात यह है, तुम्हारी खबर में पुलिस अधिकारी का वर्जन नहीं था। इतने साल से पत्राकारिता कर रहे हो, तुम्हें यह तो मालूम होना चाहिए कि दोनों पक्षों का बयान लिए बिना खबर मुकम्मल नहीं होती। तुमने अपनी खबर में सोनिया के बाप सतरंगी लाल का आरोप तो लिखा, लेकिन पुलिस अधिकारी से बात करना तुम भूल गए? पूरी दिल्ली में एक बलात्कार क्या हो गया, तुमने पूरे पुलिस महकमे को ही कठघरे में खड़ा कर दिया। तुम्हारी खबर और साइड स्टोरियों में मुझे प्रिज्यूडिस होने का आभास हुआ, तो कुछ जरूरी संशोधन कराने पड़े। पुलिस का वर्जन लेने के लिए संतराम से कहा गया। उसने दिल्ली पुलिस हेडक्वार्टर फोन किया। वहां से ब्रीफ किया गया कि एक आरोपी और सोनिया के प्रेम संबंध थे। अब तुम जानते ही हो कि आजकल की लड़कियां कुछ जल्दी ही जवान हो रही हैं। अगर यह बात खबर में जोड़ दी गई, तो कोई पहाड़ नहीं टूट पड़ा।'

‘कल रात दो बजे मैंने भी पुलिस हेडक्वार्टर फोन किया था। तब उन्होंने यह बात नहीं कही थी। आज दस बजे भी पुलिस अधिकारियों ने ऐसी कोई बात नहीं कही। फिर संतराम से किसने यह बात कही। हां, सिर्फ एक टीवी चैनल यह राग जरूर अलाप रहा था। मुझे तो लगता है, यह बात वहीं से लिफ्ट की गई है।' शिवाकांत बहस करने पर उतारू था। उसे अपनी खबरों से हुई छेड़छाड़ बर्दाश्त नहीं हो रही थी।

‘और साइड स्टोरियां क्यों नहीं लगाई गर्इं?' वह पूछ बैठा।

‘यह बात तुम जाकर संपादक मनोज कोठारी से पूछो। कम से कम अब मेरा पिंड छोड़ो। मुझे काम भी करना है। तुम्हें दिखता नहीं, कल अखबार में विज्ञापन कुछ ज्यादा थे। ऐसी हालत में खबर लगेगी या विज्ञापन? स्पेस कम होने से तुम्हारी साइड स्टोरियां नहीं लगीं। बस...यही जानना चाहते थे न!' रमानाथ कटियार ने उसे तो लगभग झिड़क ही दिया।

शिवाकांत बाहर आ गया। उसका मन खिन्न था। कटियार की चिरकुटई से। पत्राकारों की नपुंसकता से। संपादकों की विज्ञापन के पीछे भागने की प्रवृत्ति से। अपनी खबरों से किए गए खिलवाड़ से। वह सोचने लगा, कितने दोगले हैं ये पत्राकार! बातें तो बड़ी—बड़ी करते हैं। समाज बदलने की। दुनिया बदलने की, लेकिन अपने को ही नहीं बदल पाते।

उसे बार—बार डॉक्टर देशपांडे की बात याद आ जाती थी। जो उन्होंने ऑपरेशन थियेटर से निकलते वक्त कहा था, ‘उफ! ये आदमी थे या हैवान!'

उससे तो उस बच्ची का शव भी देखा नहीं जा रहा था। बेइंतहां दर्द की वजह से बाहर को निकल आई आंखें बता रही थीं, उस बच्ची ने कितना भोगा होगा? कितना सहा होगा? उसे तो ताज्जुब हो रहा था, इतना दर्द सहकर भी वह कैसे उतनी देर जिंदा रह पाई थी? आपरेशन थियेटर के बाहर बार—बार पछाड़ खाकर गिरती सोनिया की मां परबतिया होश आने पर ‘हाय मेरी बच्ची...हाय मेरी लाडो' कहकर छाती पीटती। फिर बेहोश हो जाती।

भागवंती पथराई आंखों से हर आने जाने वाली को निहारती थी। आंखों में आंसू का एक भी कतरा नहीं। आंसुओं का महासागर जैसे एक ही झटके में सूख गया था। जैसे अगस्त्य ऋषि चिड़िया के अंडों को बचाने को सारा समुद्र सोख गए हों। वह तो गूंगी—बहरी हो चुकी थी। आठ साल पहले वह भी तो यही पीड़ा भोग चुकी थी। सोनिया तो मुक्ति पा गई, लेकिन उसे मुक्ति नहीं मिली थी। जीवित रही तिल—तिलकर मरने के लिए। उसके साथ दुष्कर्म शादी से सिर्फ एक सप्ताह पहले हुआ था। जीवन के सतरंगी सपने देख रही आंखों को यह भी देखना और भोगना बदा था। कहां जानती थी वह कि विधना उसके साथ क्या—क्या खेल रच रहे हैं? भाग्य की कठपुतलियां उसको किस तरह नचाने वाली हैं? वह जानती तो सपने ही काहे बुनती। दुष्कर्म की खबर सुनने के बाद तो उसकी भावी ससुराल के लोग झांकने भी नहीं आए। वह तो टूट गई थी। लड़ने का साहस किया उसकी भौजाई परबतिया ने। सोनिया की मां ने, जो आज अस्पताल के बाहर बेजार—बेहोश पड़ी है। तब भी परबतिया जार—जार रोई थी। लेकिन तब परबतिया ने आंसू पोछे थे। अपने भी और भागवंती के भी। और पहुंच गई पुलिस में रिपोर्ट लिखाने। पुलिसवालों ने उसकी हंसी उड़ाई। चुपचाप घर बैठने की सलाह दी। जिद पर अड़ी रही, तो उन्होंने रिपोर्ट दर्ज करके अपना कर्तव्य निभा दिया। तब भी अखबारों में खबर नहीं छपी थी एकाध को छोड़कर। अनपढ़ परबतिया को किसी ने समझा दिया था, अखबार में खबर छप जाने पर सरकार खुद मुकदमा दर्ज करने का आदेश देती है। अखबार में छपी खबरों को पढ़कर मुंसिफ—मजिस्ट्रेट खुद कहते हैं, हम दिलाएंगे बलात्कार की शिकार को इंसाफ। परबतिया अपनी ननद को लेकर अखबारों के दफ्तरों में नाचती फिरी थी। किसी ने सुनकर अनसुना कर दिया, तो किसी ने सुनने की जहमत भी नहीं उठाई। भागवंती की त्राासदी किसी के लिए खबर नहीं थी। कुछ अखबारों के लिए यह खबर अगर थी भी, तो सिर्फ फिलर। ऐसी खबरें छप जाएं, तो ठीक। न छपें, तो बहुत ठीक। परबतिया लोगों से पूछती, वह कहां जाए? किसके दरवाजे पर माथा रगड़े? कुछ एनजीओज और समाजसेवी संगठनों ने हो—हल्ला मचाया, कांस्टीट्यूशनल क्लब पर धरना दिया, जगह—जगह प्रदर्शन हुए, तो शासन भी जागा और प्रशासन भी। अखबारों के नुमाइंदे भी सचेत हुए, खबरें छपीं। प्रमुखता से छपीं। मानो धरना—प्रदर्शन होने से खबर महत्वपूर्ण हो गई हो। मजबूरन आरोपियों को गिरफ्तार करना पड़ा। आरोपी कोई मामूली नहीं थे। किसी का बाप बहुत बड़े नर्सिंग होम का मालिक था जिसकी प्रतिदिन की कमाई चार—पांच लाख रुपये थी, तो किसी का पिता नोएडा का बहुत बड़ा बिल्डर। कोई दिल्ली में कार्यरत इंजीनियर का चश्मोचिराग था, तो कोई विधायक का लख्ते जिगर।

दिल्ली के मशहूर बिल्डर दलपति आहूजा का बेटा बलात्कार के आरोप में पकड़ा गया, तो दिल्ली में तहलका मच गया। भागवंती और उसके परिजनों को लालच दिए गए। धमकी दी गई। नहीं मानी, तो जान से जाएगी तू। समझौता कर ले। अपने ड्राइवर, चपरासी या किसी मुलाजिम से भागवंती का विवाह करा दिया जाएगा। तेरा पैसा भी खर्च नहीं होगा, बदले में ढेर सारा पैसा मिलेगा, तेरी जिंदगी संवर जाएगी। मूरख औरत। भागवंती शायद टूट भी जाती, लेकिन उसके सामने पहाड़ बनकर खड़ी हो गई परबतिया, जिसकी सास ने भागवंती को मरते समय सौंपते हुए कहा था, बहू, आज से यह मेरी नहीं, तुम्हारी बेटी है। गरीब परबतिया ने भागवंती को बड़ी से बड़ी गलती होने पर भी डांटा नहीं था। पुलिस ने भी कई तरह से समझाया, डराया, धमकाया। लेकिन वह एक ही बात कहती रही, ‘अब तौ भगवान ही फैसला करेंगे।' पता नहीं क्यों, अभी अदालत पर से उसका विश्वास नहीं टूटा था। पिछले आठ साल से वह धमकी, झिड़की, अपमान और ताने सहकर भी डटी हुई थी। लेकिन सोनिया की मौत ने उसे पूरी तरह तोड़ दिया था।

जब भी होश में आती, छाती पीट—पीटकर विलाप करने लगती, ‘भगवान करे कुकर्मियों का नाश हो जाए। इन हरामियों के अंग में कीड़े पड़ें। इनके अंग गल जाएं। कोढ़ हो जाए। इनको मौत उठा ले जाए।' सन्निपात रोगी की तरह उसके मुंह में जो आता, बकती चली जाती। न उसे खाने की सुधि थी, न पहनने की। जबरदस्ती कुछ खिला दिया जाता, तो पेट में ठूंस लेती। लोग समझा—बुझाकर शांत कराते, तो चुपचाप पड़ी रोती रहती।

बलात्कार की घटना के चार—पांच दिन बाद शिवाकांत की मंडी हाउस के पास एक दैनिक अखबार के रिपोर्टर प्रदीप थपलियाल से मुलाकात हो गई। दोनों मंडी हाउस के पास ही स्थित रेस्टोरेंट में चाय पीने चले गए। रुटीन की खबरों से शुरू हुई बातचीत सोनिया बलात्कार कांड तक जा पहुंची।

चाय का घूंट भरते हुए प्रदीप ने कहा, ‘गुरु...जिस दिन उस बच्ची से बलात्कार हुआ था, उस दिन बड़ा गेम हुआ था। उस दिन बिल्डर आहूजा ने दिल्ली के छोटे—बड़े सभी अखबारों के लिए अपनी तिजोरी का मुंह खोल दिया था। सभी अखबारों को उनकी औकात के मुताबिक खूब विज्ञापन दिए गए थे। इन विज्ञापनों का राज तब खुला, जब उसका लड़का गिरफ्तार हुआ। आहूजा के आदमी पांच लाख रुपये का विज्ञापन लेकर इस संदेश के साथ हर अखबार के दफ्तर गए थे कि बलात्कार वाली खबर को ज्यादा तवज्जो नहीं देनी है। अगर छापनी भी पड़े, तो इस तरह छपे कि लड़की ही दोषी नजर आए।'

प्रदीप ने खाली कप मेज के कोने की तरफ सरका दिया। शिवाकांत उसकी बात सुनकर भौंचक रह गया। अब उसकी समझ में आ गया, एकाएक उस दिन विज्ञापनों की रेलमपेल कैसे हो गई थी। उसके मुंह से निकला, ‘क्या पूरी मीडिया को मैनेज कर लिया गया था?'

‘हां...' प्रदीप सिगरेट निकाल कर सुलगा चुका था। उसने सिगरेट की डिब्बी शिवााकांत के सामने रख दी, ‘देखो...उस दिन तो तृप्त सभी हुए थे, कोई कम तो कोई ज्यादा। जिसकी जैसी औकात थी, उसे उसी हिसाब से खुले हाथों दिया गया। अगर संपादक नहीं माने, तो रिपोर्टर को साध लिया गया। तुमने उस दिन शायद महसूस किया हो, अखबारों में और चैनलों पर खबर तो थी, लेकिन उनकी आक्रामकता गायब थी। तुमने तो शायद कुछ चैनलों की देखा—देखी प्रेम प्रसंग का राग भी अलापा था। बाकी अखबारों में इतनी लचर खबर थी, मानो ‘खोया—पाया' का विज्ञापन छापा गया हो। यह इसलिए किया गया, ताकि खबर लोगों में चर्चा का विषय न बने।'

शिवाकांत स्तब्ध रह गया। जिस दिन से सोनिया गैंगरेप कांड हुआ था, तब से आज तक आहूजा बिल्डर्स का फुल पेज विज्ञापन लगभग हर अखबार, पत्रा—पत्रिाका में छप रहा है।

‘हूं...तो यह बात है! तभी मीडिया ने सोनिया गैंगरेप कांड का फॉलोअप तक कवर नहीं किया।'

‘यह कोई नई बात नहीं है। जब भी इन अमीरों के साहबजादे कोई गुल खिलाते हैं, मीडिया की चांदी हो जाती है। कई तरह के दलाल सक्रिय हो जाते हैं। कुछ मीडिया संस्थान ही दलालों की भूमिका में आ खड़े होते हैं। बस, तृप्त होने वालों को पैसे देने वाले की इच्छा के मुताबिक खबर छापनी पड़ती है। चुनावों के दौरान तो पेड न्यूज को सरकार भी नोटिस में ले रही है। इसकी कहानी तो तुमसे क्या, किसी से भी छिपी नहीं है। यह भी एक तरह की नेताओं की दलाली ही है।' कहते—कहते प्रदीप का मुंह कसैला हो उठा। मानो कुनैन की गोली घुल गई हो। कि नीम का धुआं मुंह में घुस गया हो। सिगरेट का धुआं कसैला लगने लगा, तो उसने आसपास बैठे लोगों की निगाह बचाकर कोने में पिच्च से थूक दिया। सिगरेट ऐश ट्रे में बुझाकर छोड़ दी।

‘यार क्या बताउं+...अब पत्राकारिता का कोई दीन—ईमान तो रहा नहीं। थोड़े से लालच में खबरों को किस तरह तोड़ा—मरोड़ा जाता है, वह तो तुम जानते ही हो। मानवीय सरोकार तो शायद मीडिया के बीच से कब के गायब हो चुके हैं। अब तो चाहे चैनल हो या अखबार, सबको पैसा चाहिए। पैसे और विज्ञापन के लिए किसी रंडी की तरह कुछ भी करना पड़े, ये मीडिया वाले करेंगे। इनके लिए विज्ञापन ही सब कुछ है।' कहीं खो गया था शिवाकांत। उसकी आवाज किसी सूखे हुए कुएं से आती प्रतीत हो रही थी।

वह मिशनरी पत्राकारिता करने का सपना लेकर मीडिया में आया था। अपने करियर के शुरुआती दिनों में वह बड़े—बड़े सपने देखा करता था। लिख—लिख कर समाज को बदलने का सपना। पूरे समाज को झकझोर देने का सपना। कई बार तो वह अपनी विवशता पर उद्वेलित हो जाता। रात भर नींद नहीं आती। छटपटा उठता था शिवाकांत। कालांतर में क्रांति के सपने पानी के बुलबुलों की तरह बिलाते चले गए। उसी के साथ बिला गया उसका जुझारूपन। उसकी जगह हताशा, कुंठा और चिढ़चिढ़ेपन ने ले ली। बौद्धिक नपुंसकता ने जैसे उसके जुझारूपन को ही नहीं, ईमान को भी ठंडा कर दिया। इसके बावजूद जब स्थितियां असह्य हो जातीं, तो वह बात—बात पर खीझ उठता। सीनियर—जूनियर साथियों से गाली—गलौज करने लगता। कुछ दब्बू पत्राकार उसे बोल्ड बताते, तो दूसरे साथी पीठ पीछे घमंडी। जब वह देखता, रिपोर्टर नामधारी जीव दलाली के लिए सिपाही से लेकर थानेदार तक की लल्लो—चप्पो करते हैं, उनसे किसी दबंग छुटभैये नेता, कॉलगर्ल और गुंडों को छोड़ देने की सिफारिश करते हैं, तो उसे ऐसी पत्राकारिता से घिन आने लगती। वितृष्णा हो जाती अपने पत्राकार होने पर। कई बार तो सोचता, उसके पास कोई अलौकिक शक्ति होती, तो वह इन सबको चुन—चुनकर गोली मार देता। जो चंद रुपये के लिए पत्राकारिता जैसे पवित्रा पेशे के आंचल पर बदनुमा दाग लगा रहे हैं।

‘हम कर भी क्या सकते हैं? हम तो इस निजाम के मामूली प्यादे हैं। हमें तो हमेशा सीधा चलना सिखाया जाता है। हम कुछ भी नहीं कर सकते, दोस्त। कुछ भी नहीं है हमारे वश में। हम जैसे लोग तिलमिला सकते हैं, किसी निर्जन जगह पर खौराए कुत्ते की तरह भौंक सकते हैं, लेकिन काटने को हमारे पास दांत ही कहां हैं? दांत तो इस व्यवस्था ने बहुत पहले ही तोड़ दिए थे।'

‘लेकिन एक बात बताउं+। सोनिया की मौत को बेकार नहीं जाने दूंगा। उसके लिए जितना हो सकेगा, मैं करूंगा।' शिवाकांत की आवाज में दृढ़ता थी। वह सोचने वाले अंदाज में प्रदीप को घूर रहा था। प्रदीप निराकार भाव से उसे देख रहा था।

‘करोगे क्या?' प्रदीप की आंखों में अब निराकार की जगह जिज्ञासु भाव ने स्थान बना लिया था। उसे लगा, शिवाकांत कोई ऐसा कदम उठाने जा रहा है, जो उसके हित में नहीं हो। वह मामले की तह में जाना चाहता था, ताकि अगर उसे लगे, फलां कदम उसके हित में नहीं है, तो उसे समझाया जा सके।

‘अभी मेरे दिमाग में कुछ साफ नहीं है। बस एक धुंधली—सी तस्वीर है, एक अस्पष्ट—सी योजना है। कोई साफ खाका नहीं उभर पाया है दिमाग में। लेकिन कहा न...उसकी मौत को बेकार नहीं जाने दूंगा। जरूरत पड़ी, तो नौकरी छोड़ दूंगा। बस... एक बार यह सूझ जाए, मुझे करना क्या चाहिए? इसमें कौन—कौन मददगार साबित हो सकते हैं।'

प्रदीप ने कानाफूसी वाले अंदाज में आगे झुकते हुए समझाया, ‘देखो...ऐसा कोई काम मत कर बैठना, जिससे नौकरी पर आंच आए। जिस अखबार में हो, उसमें नौकरी बड़ी मुश्किल से मिलती है। अगर तुम समझते हो, कोई विप्लव खड़ा कर सकते हैं, तो यह तुम्हारी भूल है। आज न गांधी पैदा किए जा सकते हैं, न भगत सिंह। घर फूंक तमाशा देखने की हिमाकत मत करना। अगर तुम अपनी किसी हरकत के लिए बदनाम हो गए, तो दूसरे अखबारों में नौकरी को तरस जाओगे। किसी भी अखबार का मालिक या संपादक अपने यहां ट्रेड यूनियन नहीं चाहता। न ही नक्सली या माओवादी टाइप मुलाजिम। मेरी मानो, तो इस मामले पर धूल डालो और भूल जाओ।'

शिवाकांत चुपचाप सुनता रहा। उसने ऐसा जाहिर किया, मानो उनसे प्रदीप की बात सुनी ही न हो। उसे चुप देखकर प्रदीप ने बेयरे को पास बुलाकर भुगतान किया और दोनों बाहर आ गए। बाहर आकर काफी देर तक शिवाकांत उहापोह में रहा, जाए तो कहां जाए? पिछले तीन दिनों से वह ऑफिस भी नहीं गया था। खबरें भी उसने कवर नहीं की थीं। मोबाइल का स्विच उसने ऑफ कर रखा था, ताकि वह बार—बार आने वाले फोन काल्स से बच सके। फिर वह सिर खुजाता हुआ एक ओर बढ़ चला।

शिवाकांत शालिनी के ऑफिस पहुंचा, तो वह फीचर सप्लीमेंट का प्रूफ चेक रही थी। उसे पता ही नहीं चला, कब शिवाकांत आकर उसके पीछे आकर खड़ा हो गया था। शालिनी का ध्यान आकर्षित करने को वह खांसा, तो शालिनी चौंक पड़ी।

‘अरे! आप कब आए?' हड़बड़ा गई थी शालिनी। जवाब में शिवाकांत मुस्कुरा भर दिया था।

वह सामने पड़ी कुर्सी खींचकर बैठ गया, ‘आप कैसी हैं?'

‘मैं ठीक हूं। यह बताइए, आपको आज मेरी याद कैसे आ गई? आप तो हमें भूल ही गए। क्या पिएंगे...चाय या कॉफी?' शालिनी थोड़ा सहज हो चुकी थी।

‘अगर मिल जाए, तो एक बढ़िया चाय से भी काम चल सकता है। ...लेकिन छोड़िए यह सब। आज मैं आपके पास एक खास मकसद से आया हूं। मुझे आपकी मदद की दरकार है।' शिवाकांत गंभीर हो चला था।

शालिनी ने कलम मेज पर रखने के बाद बालों की क्लिप को निकाल दांतों से दबाया। खुले बालों को दोनों हाथों से समेट जूड़ा बनाने के बाद फिर क्लिप से कस दिया। इंटरकॉम पर कैंटीन वाले को दो कप चाय लाने का आदेश देकर बोली, ‘हां, अब बताइए। बात क्या है?'

‘आपको सोनिया गैंगरेप कांड तो याद है न!'

‘हां...हां...लाजपत नगर वाली बच्ची न...।'

‘हां, उसी सोनिया की बात कर रहा हूं। उसी मामले में आपसे सहयोग मांगने आया हूं। बात यह है कि सोनिया मामले में मैं कुछ ज्यादा ही गंभीर हूं। मैं चाहता हूं, सोनिया के बलात्कारियों को कड़ी से कड़ी सजा मिले। मीडिया का जो रवैया है, वह आप देख ही रही हैं। मैं चाहता हूं, कुछ एनजीओज, सामाजिक और सांस्कृतिक संगठन सोनिया के लिए लड़ें। उसके बलात्कारियों के खिलाफ आंदोलन करें, ताकि पुलिस प्रशासन और न्यायिक व्यवस्था पर एक दबाव बने ताकि उन्हें कठोर से कठोर सजा मिले।'

वह जल्दी—जल्दी बोलता जा रहा था, ‘अगर ऐसा नहीं किया गया, तो पुलिस समय पर चार्जशीट नहीं पेश करेगी। बलात्कार के आरोपियों को जमानत मिल जाएगी। चार्जशीट में पुलिस तमाम ऐसे नुक्ते छोड़ देगी, जिसका फायदा उठाकर बलात्कारी एकाध पेशियों के बाद ही बाइज्जत बरी करार दे दिए जाएंगे।' वह शालिनी का चेहरा गौर से देखने लगा। वह उसकी बातों पर पूरा तवज्जो दे रही थी।

‘लेकिन...हम इस मामले में कर ही क्या सकते हैं? खबरें छाप सकते थे। अच्छी—बुरी जैसी भी समझ में आर्इं, छाप दीं। हां, एडीशनल एफर्ट में एकाध फीचर लिख सकते थे। सो, अब भी लिखा जा सकता है। सारा काम छोड़कर ‘इंकलाब जिंदाबाद' तो नहीं कर सकते?' यह कहकर वह हंस पड़ी। उसकी हंसी में न उपहास था, न वक्रोक्ति, न उपेक्षा। एक निर्मल और स्वस्थ हंसी। उसकी हंसी सिर्फ स्वभावगत थी।

‘चलो मान लिया, हम जिंदाबाद—जिंदाबाद नहीं कर सकते। किसी को प्रेरित तो कर सकते हैं। सोनिया के साथ जो कुछ हुआ, कल किसी दूसरी बच्ची के साथ हो सकता है। वह बच्ची मेरी बेटी हो सकती है, आपकी बेटी—बहन हो सकती है। हमारे अड़ोसी—पड़ोसी की बहन—बेटी हो सकती है। इन बच्चियों के साथ कब, कहां और क्या हादसा हो जाए, इसकी गारंटी कौन ले सकता है? ऐसे हादसों को जागरूक समाज रोक सकता है। चुस्त पुलिस प्रशासन रोक सकता है। दृढ़ इच्छा शक्ति वाले युवा रोक सकते हैं। लोगों में बस यही चेतना तो पैदा करनी है कि आज गरीब सोनिया की इज्जत लुटी है, उसे मौत के घाट उतार दिया गया है। कल उसकी जगह हमारी मां, बहन—बेटी हो सकती है।'

‘आप बताइए, मुझे करना क्या है? इसमें मेरी भूमिका क्या होगी?' शालिनी ने हथियार रख दिया। वह किसी तरह के बहस के मूड में नहीं थी। कॉलेज लाइफ में भी वह डिबेट से अकसर बचती रहती थी। उसे किसी बात पर घंटों दिमाग खपाना, बहस करना, शुरू से ही नापसंद था।

‘शालिनी जी, दिल्ली और नोएडा में जितने भी नारीवादी संगठन हैं, चाहे वे निजी हों या सरकारी, उनके महत्वपूर्ण व्यक्तियों को यह समझाने की जरूरत है कि सोनिया के लिए लड़ना उनका सामाजिक दायित्व है। उनके सामने एक सुनहरा मौका है अपनी राजनीति चमकाने का। एक तो उन्हें इस मामले में आंदोलन करने से भरपूर पब्लिसिटी मिलेगी, दूसरे उनका जनाधार बढ़ेगा।'

‘देखिए...एक बात कहूं, भाई साहब! आप मुझे ‘शालिनी जी' न कहें। एक तो आप मुझसे बड़े हैं, दूसरे आप रघुनाथ के जिगरी दोस्त हैं। आपके मुंह से अपने नाम के साथ जी सुनना अच्छा नहीं लगता।' शालिनी मेज पर पड़े कागज समेटने लगी।

‘तो फिर आप दोनों शादी कर लीजिए, ताकि आपको साधिकार भाभी कह सकूं।' अब हंसने की बारी शिवाकांत की थी। शादी की बात सुनते ही शालिनी असहज हो गई। नारी सुलभ लज्जा से उसका मुंह रक्ताभ हो उठा। वह जवाब देने की बजाय झुककर बस यों ही कागज पर कुछ लिखने लगी। तभी कैंटीन वाला चाय लेकर आ गया।

‘रहमान भाई! काफी देर लगा दी चाय लाने में। थोड़ा जल्दी किया कीजिए। कई बार तो मेहमान चले जाते हैं, तब भी आपकी चाय नहीं आती।'

चाय रखता हुआ रहमान बोला, ‘क्या करूं मैडम। अकेला आदमी हूं। सबका खयाल रखना पड़ता है। जो आर्डर पहले मिलते हैं, पहले उनको पूरा करना पड़ता है। जब ज्यादा ग्राहक कैंटीन में ही आ जाते हैं, तो थोड़ी देर हो जाती है।'

दोनों चाय पीने लगे।

‘आप चाहते हैं, मैं एनसीआर के सभी नारी संगठनों से मिलकर सोनिया को न्याय दिलाने को लामबंद करूं। यही न...!'

‘हां, यही...यह काम ऑफिस टाइम के बाद। मैं आपका नुकसान नहीं चाहता। यदि आपके संपादक या दूसरे स्टॉफ की ओर से विरोध का अंदेशा हो, तो आप रहने दें। सिर्फ इतना करें कि मुझे इन संगठनों के नाम पते, टेलीफोन नंबर उपलब्ध करवा दें। बाकी मैं खुद कर लूंगा।'

‘अभी तो विरोध का कोई अंदेशा दूर—दूर तक नहीं है। यदि हुआ, तो तब की तब देखी जाएगी। अभी से हलाकान होने की जरूरत नहीं है। जो संस्थाएं मेरे घर या ऑफिस के आसपास हैं, उनसे संपर्क कर लूंगी। दूरदराज के एकाध संस्थाओं के नाम—पते नोट करा देती हूं। हां, जिन संस्थाओं के बारे में जानकारी मिलती जाएगी, उनके बारे में आपको बताती जाउं+गी।' शिवानी ने कुछ संगठनों के नाम, पते नोट कराए, ‘मैं पूरी कोशिश करूंगी, सोनिया प्रकरण में कोई नई शुरुआत हो सके।'

शिवाकांत ने नाम—पते का कागज ऐसे तह किया, मानो अपनी योजना और संकल्प को तह कर रहा हो। उसे सहेज रहा हो, ताकि उसके इरादों पर समय की धूल न जम सके। वह उस कागज को स्पर्श करके एक नए रोमांच का अनुभव कर रहा था। कागज जेब में रखने के बाद वैसे ही थपथपाया, जैसे कोई बुजुर्ग किसी बच्चे को सांत्वना देने के लिए थपथपाता है। वह शिवानी के ऑफिस से बाहर आ गया।

जब शिवाकांत नोएडा के सेक्टर 18 में रहने वाली निर्मला पुतुल से मिलने पहुंचा, तब तक शाम का धुंधलका घिर आया था। सड़कों पर स्ट्रीट लाइट जलने लगी थीं। ‘आदिवासी नारी उत्थान समिति' की अध्यक्ष निर्मला पुतुल का रंग सांवला किंतु नैन—नक्श तीखे, देहयष्टि आकर्षक थी। ठिगने कद की दुबली—पतली निर्मला की आंखों में हमेशा एक बेचैनी—सी व्याप्त रहती थी। बेचैनी का कारण खुद निर्मला पुतुल भी नहीं जानती थीं। जान भी जातीं, तब शायद उनका इस बेचैनी को दूर करने का कोई इरादा नहीं था। शिवाकांत ने ऑफिस में जब प्रवेश किया, तो वह कुछ लिख रही थीं। शिवाकांत ने खंखार कर उनका ध्यान आकृष्ट करना चाहा। पुतुल ने अपनी नजरें ऊपर उठार्इं, तो शिवाकांत ने विनम्र लहजे में कहा, ‘जी...मुझे पुतुल जी से मिलना है...निर्मला पुतुल जी से...।'

‘हां, कहिए...।' पुतुल की आंखें कैमरे के लेंस की तरह पहले चेहरे पर स्थिर हुईं, फिर पैन होती हुई ऊपर से नीचे तक आर्इं और फिर एकाएक चेहरे पर जूम होकर स्थिर हो गर्इं।

‘जी...मुझे आपसे कुछ बातें करनी हैं...सोनिया गैंगरेप मामले में। आपकी मदद चाहिए।' शिवाकांत जल्दी बोलता चला गया। निर्मला ने अंगुलियों में फंसा पेन मेज पर रखा। आहिस्ता से आंखों पर चढ़ा सुनहरे फ्रेम का चश्मा उतारा और साड़ी के पल्लू से पोंछकर पहन लिया। उन्होंने गंभीर स्वर में कहा, ‘पहले आप तसल्ली से बैठ जाइए। फिर मुझे बताइए, मामला क्या है? सोनिया कौन है? कब हुआ था उससे गैंगरेप?'

‘सोनिया नौ—दस साल की बच्ची थी। अब इस दुनिया में नहीं है। उसे दिल्ली और नोएडा के चार अमीरजादे उठा ले गए थे लाजपत नगर से। बाद में वहीं फेंक भी गए थे। इन अमीरजादों ने उसके साथ दुष्कर्म किया था।' शिवाकांत की पैनी नजर निर्मला के चेहरे पर गड़ी हुई प्रत्येक भाव का निरीक्षण कर रही थी।

‘ओह...हां याद आया। कल सुधन्या और कांति ऐसी ही किसी लड़की की चर्चा कर रही थीं। मैं इस बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानती। अब आप बता रहे हैं, सोनिया की मौत भी चुकी है। तो इस मामले में अब क्या किया जा सकता है? मामला ही खत्म...अब तो।' निर्मला की आंखों में चिरपरिचित बेचैनी फिर उभर आई थी। आंखों की बेचैनी धीरे—धीरे आत्मा में उतरने लगी थी। यह बेचैनी जब जब उन पर तारी होती है, तो वे बेहोश सी होने लगती हैं। हाथ—पांव सुन्न हो जाते हैं।

उसने तपाक से कहा, ‘जी मैम! सोनिया तो मर गई। लेकिन उसकी रूह को इंसाफ चाहिए ही न! बलात्कार के चारों आरोपी संपन्न घरों के हैं। पैसे के बल पर आज नहीं तो, कल वे जमानत पर रिहा भी हो जाएंगे। पुलिस पर उनका प्रभाव भी है। जांच के नाम पर लीपापोती के प्रयास अभी से शुरू हो चुके हैं। केस कमजोर करने की कोशिश की जा रही है। मैं चाहता हूं, नारी संगठनों का दबाव सरकार को इस मामले की जांच किसी निष्पक्ष एजेंसी से कराने को मजबूर कर दे। और यह तब होगा, जब आप लोग संगठित होकर सरकार और पुलिस प्रशासन पर दबाव बनाएंगी।'

‘हूं...ऽऽऽ...समझ गई। सोनिया के बहाने आप नेतागीरी चमकाना चाहते हैं।' पुतुल ने हुंकार भरी। पुतुल के आक्षेप से वह आहत हो उठा। उसे एक बार सोचा, कहीं यहां आकर उसने कोई भूल तो नहीं की है। गलत दरवाजे पर तो नहीं दस्तक दे रहा है? उसके सामने यह कहावत तो चरितार्थ होने नहीं होने जा रहा है, सिर मुड़ाते ही ओले पड़े।

वह तिलमिला उठा, ‘नेता तो मैं नहीं हूं, आप हैं। आदिवासी लड़कियों को शोषण मुक्त कराने और उनके पुनर्वास के नाम पर एनजीओ चलाने वाली सामाजिक कार्यकत्राी के वेश में नेत्राी। आपके बारे में राई—रत्ती की खबर है मेरे पास। जिसने मुझे आपके पास भेजा है, उसने आपका पूरा इतिहास भी बताया है। हर साल लाखों रुपये का अनुदान आपको कौन दिलाता है, इसके बारे में भी पूरी जानकारी रखता हूं। दिल्ली में आपकी कोठियां कहां—कहां हैं, इसकी जानकारी मुझे है। एक बात आपके सामने साफ कर दूं, आपको यह बताकर ब्लैकमेल करने की कोशिश नहीं कर रहा हूं। इस महीने की 23 तारीख को सोनिया गैंगरेप कांड के विरोध में जंतर—मंतर पर धरना होना है। दिल्ली के कई सामाजिक संगठन, स्वयं सेवी संस्थाएं और नारीवादी संगठन इसमें भाग लेंगे। आपका मन करे, तो चली आइएगा। नमस्ते...।' इतना कहकर शिवाकांत उठा और बाहर चला आया।

निर्मला पुतुल ‘अरे मिस्टर सुनिए...' की गुहार लगाती रहीं, लेकिन वह रुका नहीं। पुतुल की बेचैन निगाहें दरवाजे की ओर ताकती रह गर्इं। उनके मुंह से शब्दों की बजाय गहरी सांस ‘फूं...उं+...' की आवाज निकली।

कई दिनों से निर्मला पुतुल इसी उधेड़बुन में थीं। सोनिया के मामले को आदिवासी नारी उत्थान समिति के जरिये उठाया जाए या नहीं? सोनिया के साथ हुई त्राासदी से वे भी आहत थीं। आदिवासी नारी उत्थान समिति में भी वे इस बात को उठा चुकी थीं। समिति की अधिकतर सदस्यों का मानना था, अब इससे कोई लाभ नहीं है। समिति की उपाध्यक्ष कांति मुंडा ने अपनी तोते जैसी नाक सिकोड़ते हुए कहा था, ‘पुतुल जी, सोनिया कोई आदिवासी तो थी नहीं? फिर उसकी लड़ाई हम क्यों लड़ें? जब दिल्ली वाले उसकी खातिर आवाज नहीं उठा सकते, तो हमें क्या गरज पड़ी है कि हम अपनी ताकत फिजूल काम में जाया करें।'

कांति मुंडा की दलील पुतुल के कानों से ऐसे गुजर गई, मानो तेजी से आती हुई रेलगाड़ी गुजर गई हो। उसे लगा था, आसपास बहुत शोर है। इस शोर ने उसे बहरी बना दिया है। बहरापन शायद अब धीरे—धीरे उसके मस्तिष्क पर जड़े़ जमाता जा रहा है। लोगों के होंठ हिलते तो दिखते हैं, वे क्या बोल रहे हैं, यह समझ से परे था। शब्द उनकी पकड़ से बाहर हो रहे थे।

‘आदिवासी नहीं थी, तो किसी की बहन—बेटी भी नहीं थी? क्या उसका आदिवासी होना, ज्यादा महत्वपूर्ण है। बलात्कारी या शोषक यह कहां देखता है कि उसका शिकार आदिवासी है या गैर आदिवासी? यूपी का है या बिहार का? बंगाल का है या आसाम का? उसके लिए तो सिर्फ नारी एक मादा शरीर होती है? जिसको वह सहमति से नहीं, तो बलात भोगना चाहता है। सोनिया भी एक मादा शरीर थी, बलात्कारियों के लिए इतना ही काफी था।' बड़ी मुश्किल से कह पाई थीं वह। शब्द बार—बार हलक में ही अटक जाते थे। अपनी बात आज दृढ़ता से क्यों नहीं रख पा रही थीं, वे इसे खूब समझ रही थीं। उनके भीतर छिपा बैठा चोर बार—बार कुछ कहने से रोक देता था। तभी देवांजलि ने उनके मन का चोर पकड़ लिया।

चोर को ही नहीं, उसको तो सबके सामने जैसे नंगा कर दिया, ‘दीदी! पिछले महीने आदिवासी लड़कियों के सामूहिक विवाह कार्यक्रम का आधा खर्च जिसने उठाया था, वह इन बलात्कारियों में से एक लड़के का पिता है। वह पहले भी हमारी समिति की कई बार आर्थिक मदद कर चुका है।'

‘आर्थिक मदद की है, तो क्या हम उसके गुलाम हो गए? हमें उन बलात्कारियों के खिलाफ लड़ने में संकोच कैसा?' मृदुला की आवाज में तेजी भी थी और रोष भी। वह समिति की संस्थापक उप सचिव थीं।

समिति की बैठक में मृदुला की प्रबल दलील और पुतुल की इच्छा खारिज कर दी गई। कारण साफ था। बलात्कारियों में से एक का पिता संस्था को भारी भरकम अनुदान देता था। आगे भी भरपूर संभावनाएं बरकरार थीं। उस दिन पुतुल के भीतर कुछ दरक गया। उस दरके हुए हिस्से से कुछ रिस रहा था, शायद खून...मवाद...खून मिला मवाद

...नमकीन आंसू। उस रिसते हुए खून, मवाद या आंसू को पोछना पुतुल को ही था। भीतर दरकने की पीड़ा उसे ही सहनी थी। वैसे उनका मन कह रहा था, वे सोनिया के बहाने सावित्राी कोड़ा की मौत का बदला लें। सावित्राी ने आत्महत्या की थी। मगर क्यों? यह सिर्फ वही जानती थी। सच क्या था, जिसे बताना था, वह अब दुनिया में नहीं रही। बताने की कोशिश तो सावित्राी ने की थी, लेकिन वह नासमझ कहां समझ पाई थी? सावित्राी की याद आते ही पुतुल की आंखों में उसकी छवि उभर आई।

झारखंड के चतरा जिले में नदी, नाले, जंगल, पहाड़ पर चंचल हिरनी की तरह कुलांचे भरने वाली सावित्राी कोड़ा क्या जानती थी, जिस प्रेम के भरोसे वह घर और जन्मभूमि को छोड़ने को तैयार है, वह उसे दिल्ली लाकर बेच देगा। संजय की भोली मुस्कान कितनी विषैली है? अगर जान पाती, तो विषपान भला क्यों करती। मुस्कान के पीछे छिपे छल को समझने की कोशिश भी तो नहीं की थी उसने। वह तो उसके हंसने—मुस्कुराने को ही जिंदगी समझ बैठी थी। जब वह मुस्कुराता था, तो उसके भीतर कहीं पलाश दहक उठता था। टेसू महकने लगते थे। गुलमुहर खिल उठते थे। वह पलाश, जो उसके जीवन का हिस्सा था। जिसे वह बचपन से ही निहारती आ रही थी घंटों तक। गर्मियों में खिला पलाश दूर से देखने पर लगता था, कहीं दूर पहाड़ के जंगल में अंगारे दहक रहे हों। वही पलाश उसके जीवन में जब दहक उठा, तो वह उसकी आग में अपना पूरा जीवन झुलसा बैठी। आग ने उसके विवेक को जला डाला था। तन से फूटती महुआ की गंध जब उसे पागल कर देती, तो वह भाग जाती थी पलाश के जंगल में। अमराइयों में। ऊबड़—खाबड़ पथरीली पहाड़ी रास्ते उसे कितना लुभाते थे। उसे मां—बाप, भाई—बहन जैसे ही प्यारी लगती थी चतरा में बहती नदियां, नाले। उसने डरना तो सीखा ही नहीं था। जंगल, जमीन, नदियां और पहाड़ियां तो हर समय सहेलियों की तरह उसकी हिफाजत ही नहीं करती थीं, उसके सुख—दुख को भी सुनती थीं, गुनती थीं। हवाएं उसके घायल मन को कितने प्यार से सहला जाते थे। महुआ की गंध से बौराई सावित्राी जब पलाश के पेड़ों के नीचे सपने बुनने लगती, तो वह भूल जाती, कब दिन चढ़ा? कब शाम हुई? सपने होते भी कितने लुभावने और मोहक थे? वह तो उन सपनों को न जाने कब से सबसे छिपाकर पाल—पोस रही थी? लेकिन एक दिन इन्हीं सपनों ने डस लिया। डस लिया उसकी कुंवारी कामनाओं को, उसकी पहाड़ी नदी की तरह उफनती जवानी को। उसकी इच्छाओं और मनोकामनाओं को।

एक दिन जंगल से लौट रही थी, तभी हुई थी उसकी संजय से मुलाकात। पहली बार किसी को देखकर उसका दिल बेतहाशा धड़का था। छुईमुई—सी सकुचाई, महुआ की गंध बिखेरती वह घर तो चली आई, लेकिन अपनी मादक गंध वहीं छोड़ आई। साथ में लाई थी तो संजय की मुस्कान। भोली और मादक मुस्कान। दूसरे दिन वह लकड़ियां बीनने गई, तो संजय खड़ा था रास्ते में। उसके तन से फूटती मादक गंध के बावरे बहुत थे। आदिवासी भी, गैर आदिवासी भी। झारखंड के आदिवासी युवक उसे लालसा भरी नजरों से देखते, तो बिहारी युवकों की आंखों में उसे भूख नजर आती। भूखी आंखें उसे नोचने को आतुर दिखती थीं। बिहारियों (उत्तर प्रदेश और बिहार वालों को बिहारी ही समझती थी) को देखते ही एक अजीब से परायेपन का एहसास उसके भीतर जाग उठता था। उसने अब तक अपने शरीर से फूटती गंध के पास भी किसी को फटकने नहीं दिया था। संजय में क्या खास बात थी, वह नहीं समझ पाई। शायद उसकी आंखों में भूख नहीं थी। कि वह इतना चालाक था, उसने भूख को जाहिर होने ही नहीं दिया। नदी, ताल—पोखरों और जंगल में संजय के साथ नाचती, झूमती सावित्राी को ‘सरहुल' का इंतजार था। सरहुल आदिवासियों का प्रमुख त्योहार। प्रेम प्रदर्शन का त्योहार।

नदी, ताल, पोखर और पहाड़ में रहने वाले देवी—देवताओं को साक्षी मानकर प्रेम करने का पर्व।

उस दिन सावित्राी सुबह से ही अपने शृंगार में लगी रही। सहेलियों ने पोखर जाते समय पूछा भी, ‘तू नहीं चलेगी अभी? चल! रास्ते में पलाश और जंगली फूलों से तेरा शृंगार किया जाएगा।'

सावित्राी ने मना कर दिया। शाम को पोखर पर पहुंची, तो उसका बाप, भाई और मां हंडिया पीकर नाच रहे थे। मां ने उसे देखते ही कहा, ‘तू कहां थी अब तक? हम लोग कब से तेरी राह देख रहे थे। जा हंडिया पी ले। थोड़ा प्रसाद बचाए रखियो। सब मत पी जाइओ।'

सबकी निगाह बचाकर दो गिलास हंड़िया संजय को भी पिला आई। उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले के संजय ने पहली बार हंड़िया पी, तो उसे लगा, खाया—पिया सब कुछ बाहर आ जाएगा। उसने मन ही मन कहा, ‘ये गंवार आदिवासी कितने शौक से पी रहे हैं, जैसे अमृत हो।'

भात को पानी में सड़ाने के बाद ढानू नामक जड़ी मिलाकर तैयार की गई हंड़िया जब पोखर पर मौजूद आदिवासियों के सिर चढ़कर बोलने लगी, तो पोखर का सारा वातावरण मादक हो उठा। उसने देखा, गोद में मां का दूध पीने वाले बच्चे से लेकर जवान, वृद्ध, स्त्राी—पुरुष हंड़िया के नशे में झूम रहे हैं। पलाश, साल और जंगली फूलों से शृंगार किए आदिवासी बालाएं और युवा उन्मुक्त हो नाच रहे हैं, नाच कर अपने देव को रिझा रहे हैं। वह संजय का हाथ पकड़कर अपने बाप देवधर कोड़ा के सामने जा खड़ी हुई। पिता ने एक बार संजय को देखा, फिर सावित्राी को। नशे में मुंदती आंखों के बीच देवधर कोड़ा ने बेटी को घर चलने को कहा। अपनी पत्नी और अन्य परिजनों को आवाज दी।

घर आकर बेटी ने जब अपनी मां से संजय से विवाह करने की इच्छा प्रकट की, तो उसकी मां ने साफ कह दिया, गैर आदिवासी से उसकी शादी नहीं हो सकती। मां ने उसे बरज दिया, आज के बाद वह उस लड़के से मिले नहीं। यदि यह बात गांव और पंचायत को पता चली, तो ठीक नहीं होगा। प्रेम दीवानी सावित्राी एक दिन शाम को संजय के साथ दिल्ली की गाड़ी पकड़ने चतरा रेलवे स्टेशन पर आई, तो उसका दिल बुरी तरह धड़क रहा था। बापू, अम्मा, दीदी और भइया की याद आते ही उसकी आंखें भर आर्इं। संजय ने पीठ थपथपाकर सांत्वना दी।

दिल्ली आने पर उसके शरीर से फूटती महुआ की गंध न जाने कहां बिला गई। मन के कोने में दहकता पलाश बुझ गया। और बुझ गर्इं उसकी कामनाएं। वैसे तो दिल्ली आने के बाद सप्ताह भर दिन—रात एक सस्ते से होटल के कमरे में महुआ, पलाश और टेसू एक साथ गमकते रहे, रंगीन सपने मनमोहक आकार लेते रहे। देह में मीठी—मीठी टीस उठती और फिर बिला जाती। आठवें दिन उजागर हुआ जीवन का स्याह पक्ष। सावित्राी कोड़ा को लेकर संजय एक कोठी में पहुंचा।

‘आज से तुम यहीं ड्यूटी करोगी। साहब से बात हो गई है। कुछ दिन बाद खाली होने पर सर्वेंट क्वार्टर हमें रहने को मिल जाएगा। तब तक तुम यहीं रहो। मैं भी कोई काम खोज लेता हूं। फिर दोनों मिलकर कमाएंगे और इसी कोठी के सर्वेंट क्वार्टर में साथ—साथ रहेंगे।' इतना कहकर वह मुस्कुराया और बोला, ‘चलो, मालकिन से मिलवा देता हूं। तुम घर का काम करो, तब तक होटल से सामान ले आता हूं।'

संजय दोबारा सावित्राी से कभी नहीं मिला। कई दिनों तक उसका आसरा देखती रही। उससे पूरे दिन काम कराने वाले रात में भी चैन से नहीं सोने—बैठने देते। देर रात तक काम करने के बाद स्टोरनुमा कोठरी में पहुंचती, तो वह थककर चूर होती। थकान और पीड़ा के साथ—साथ संजय की बेवफाई ने उसे तोड़कर रख दिया था। साहब किसी सरकारी दफ्तर में बड़े अफसर थे। घर का बासी और बचा—खुचा खाना खाकर वह अपने दिन काटने लगी। धीरे—धीरे यह राज किसी तमाचे की तरह उसके शरीर पर पड़ा कि संजय उसे तीस हचार रुपये में बेच गया है।

चतरा के नदी—नालों, पहाड़ों और वनों में कोयल की तरह कूकने वाली सावित्राी मूक हो गई। बोलने की कोशिश करने पर भी कंठ साथ नहीं देते थे। बोलती भी, तो क्या और किससे? कौन था उसकी पीड़ा सुनने वाला। जिसने उसका जीवन भर साथ देने का वायदा किया था, जिसके लिए वह जन्म के बंधन एक झटके में तोड़कर घर से भाग खड़ी हुई थी, वह तो तीस हजार रुपये में बेचकर गोरैया की तरह फुर्र हो चुका था। जो उसकी बोली सुनकर रीझ जाते थे, उस मां—बाप, भाई और बहनों को तो वह जीते—जी तिल—तिलकर मरने को छोड़ आई थी। राह चलते हुए लोग उसकी मां, बाप, भाई—बहनों की ओर इशारा करके कहते होंगे, ‘देखो, इसकी ही लड़की भाग गई है।'

मां तो अपनी ही कोख को कोस रही होंगी। सावित्राी सोचती है, ‘सबके सामने अम्मा भले ही गरियाती होंगी, लेकिन अंधेरे कमरे में उसे याद जरूर करती होंगी। भइया तो पथराई निगाहों से आज भी पहाड़ी पर खड़ा रास्ता देखता होगा। बप्पा, हंडिया पीकर अम्मा को गरियाते होंगे। लेकिन वह भी क्या करें? जब उनकी बेटी ही मुंह पर कालिख पोतकर भाग गई हो, तो करें भी क्या? दुनिया भर के ताने तो उन्हें सुनने को मिलते होंगे। अब अगर अम्मा—बापू, एक बार भी पुचकार कर उसे आवाज दें, तो वह उनके चरणों में लोट जाएगी। उनसे अपनी गलती बख्शवाएगी। लाख नाराज हों, लेकिन उसकी हालत देखकर वे उसे माफ जरूर कर देंगे।'

एक दिन फर्श साफ कर रही थी। धक्का लगने से मेज पर रखा एक्यूरियम हिला और जमीन पर आ गिरा। पानी फर्श पर फैल गया। एक्यूरियम की मछलियां फर्श पर तड़पने लगीं। वह कठुआई—सी तड़पती मछलियों को देखती रही। इन तड़पती मछलियों को चंद मिनट बाद तो मुक्ति मिल जाएगी। उसे कब मुक्ति मिलेगी? उसका उद्धार करने को कोई राम आएगा भी या नहीं? और फिर राम को इतनी क्या गरज पड़ी है कि वह एक मामूली सी आदिवासी लड़की के लिए इतना कष्ट उठाएं। तड़पती मछलियों को देखकर उसमें मुक्ति की भावना बलवती हो उठी। वह खुली हवा में सांस लेने को बेचैन होने लगी। एक बार फिर चतरा की पहाड़ियों, जंगलों में उन्मुक्त अंगड़ाई लेने की कामना जाग उठी।

वह कुछ और सोच पाती कि पीठ पर एक जोरदार लात पड़ी, ‘रांड! एक्यूरियम क्या तेरे बाप का था, जो तोड़ दिया। हरामजादी जिसके साथ गुलछर्रे उड़ाने को घर से भागी थी, तेरे उस खसम को तीस हजार रुपये इसलिए नहीं दिए थे कि तू घर का सामान तोड़ती—फोड़ती रहे। ढाई हजार का एक्यूरियम तोड़कर देखो तो महारानी किस शान से बैठी हैं।'

इतना कहकर सरोज ने हाथ के साथ—साथ पांव भी चलाना शुरू कर दिया था। सावित्राी बिना कोई प्रतिरोध किए मार खाती रही। भदेस गालियां देती सरोज ने बाल पकड़कर दो बार उसका सिर फर्श पर दे मारा। माथे पर एक बड़ा—सा गूमड़ निकल आया। इतनी मार खाने के बाद भी वह न रोई, न उसे दर्द का एहसास हुआ। गालियां देती सरोज थक—हारकर खाना बनाने लगी। बिखरे कांच और मरी मछलियों को समेटने के बाद वह सीढ़ियों के पास बने स्टोर रूम में पहुंची और फूट—फूटकर रो पड़ी। पहली बार उसके दिमाग ने बगावत की सोची। करीब घंटे भर रोने के बाद स्टोर रूम से निकली। पहले की तरह काम निपटाने लगी। शाम को सरोज के दोनों बेटों नीलेंदु और पूर्णेंदु ने भी जमकर पीटा। पूर्णेंदु तो मां के सामने ही पीटने के साथ ही साथ छेड़छाड़ भी करता रहा। उसकी आंखों में हवस के लाल डोरे देख वह कांप उठी। मजाल है, सरोज ने उसे रोका या डांटा हो। वह कभी सीने पर हाथ मारता, तो कभी पीछे। सरोज ने काफी देर बाद कहा, ‘अब बस करो। हरामजादी को दो दिन तक खाना नहीं मिलेगा, तो सारी अकल ठिकाने आ जाएगी।'

रात दो बजे सावित्राी कोड़ा चुपके से निकली। बाहरी गेट पर ताला जड़ा हुआ था। पहले तो वह थोड़ी देर तक गेट पकड़कर खड़ी रही। फिर बेआवाज दरवाजे का सहारा लेकर दीवार पर चढ़ी और उस पार कूद गई। मुक्ति का एहसास होते ही कूदने पर लगी चोट की परवाह किए बिना वह एक ओर भाग खड़ी हुई। भागते—भागते थक जाती, तो बैठकर सुस्ताने लगती। थोड़ी थकान दूर होते ही फिर भागने लगती। यह क्रम दोपहर तक चलता रहा। वह जल्दी से जल्दी उन दरिंदों की पहुंच से दूर निकल जाना चाहती थी। और अंततः थककर सड़क के ही किनारे बैठ गई और बेहोश हो गई। किसी भले मानुष ने उसे बेहोश देखा, तो पानी के छींटे मारकर होश में लाया। होश आने पर उसने उस आदमी को अपनी व्यथा—कथा सुनाई। भले मानुष ने उसे पहले एक प्लेट चावल—दाल खिलाया। फिर शाम पांच बजे आदिवासी नारी उत्थान समिति के दफ्तर पहुंचा गया।

उस समय निर्मला पुतुल घर जाने की तैयारी कर रह थीं। सहमी गौरेया की तरह सावित्राी दफ्तर के दरवाजे पर आ खड़ी हुई, तो निर्मला पुतुल उसकी दशा देखकर चौंक गर्इं। वह झट से बाहर आर्इं। उसका हाथ पकड़कर अंदर ले गर्इं। सावित्राी को चाय—पानी पिलाने के बाद पूछताछ शुरू की। कुछ भी पूछने पर सावित्राी चुप्पी साध लेती। विवश होकर पुतुल उसे निकटवर्ती थाने में ले गर्इं। उसके बारे में रिपोर्ट दर्ज कराई। उसे अपनी कस्टडी में लिया। पुलिस उसे नारी निकेतन भेजना चाह रही थी। लाख समझाने के बाद पुलिस नहीं मानी, तो अंततः उन्हें अपने रसूख का उपयोग करना पड़ा। यह सब करते—कराते रात के ग्यारह बज गए। जब पुतुल सावित्राी को लेकर अपने घर पहुंची, तब भी वह किसी गौरैया की तरह डरी हुई थी। उस रात पुतुल ने उसे अपने पास ही सुलाया। सावित्राी रात में कब पुतुल के सीने से लग गई, दोनों को इसका एहसास ही नहीं हुआ। भयभीत सावित्राी को सांत्वना देने की नीयत से पुतुल ने लेटे—लेटे जब उसके सिर पर हाथ फेरा, तो वह सुबकने लगी। पुतुल का स्नेह भरा हाथ सारी रात कभी सावित्राी के सिर और माथे पर, तो कभी पीठ पर, तो कभी गाल पर थरथराता रहा। सारी रात वह सिसकियां भरती रही।

पर दुख कातर पुतुल के मुंह से सिर्फ इतना निकला, ‘रो ले बेटी! तेरा दुख कुछ कम हो जाएगा।'

सावित्राी ने पांच दिन बाद पहली बार मुंह खोला, ‘दीदी...'

इन पांच दिनों में पुतुल ने उससे बात करने की लाख कोशिश की, लेकिन सावित्राी के मुंह से बोल नहीं फूटे, तो नहीं फूटे। पुतुल ने उसे गूंगी समझकर कई बार इशारों से भी मामला जानने की कोशिश की, लेकिन वह निर्विकार चेहरा लिए किसी न किसी ओर ताकती रही।

‘हां बेटी!'

‘मैं घर नहीं जाउं+गी। मैं यहीं रहूंगी।'

‘तुम हो कौन? तुम्हारी यह दशा कैसे हुई? कुछ तो बताओ मुझे।' पुतुल ने स्नेह से सावित्राी को पुचकारा।

आंसुओं के बीच सावित्राी ने सब कुछ बता दिया। सावित्राी ने रो—रोकर अपनी राम कहानी सुनाई। पुतुल अवरुद्ध कंठ और भीगे नयनों से उसकी विपद कथा सुनती रहीं। दोनों दुखी थीं, एक अपने दुख से, तो दूसरी पहले के दुख से। पुतुल उसे लेकर दिल्ली के इलाकों में पखवारे तक भटकती रही, ताकि सावित्राी को खरीदने वालों की पहचान हो सके। उनके खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराई जा सके। काफी दौड़—भाग के बाद भी सावित्राी न तो वह कोठी पहचान सकी, जहां से वह रात में भागी थी, न ही खरीदने वालों के बारे में कोई पुख्ता जानकारी दे सकी। हां, पुतुल ने अपने निकटवर्ती थाने में संजय के खिलाफ जरूर रिपोर्ट दर्ज करा दी। यहां भी एक समस्या थी। सावित्राी को तो संजय के नाम के अलावा कोई विशेष जानकारी ही नहीं थी। पुलिस दल संजय की तलाश में चतरा गया, लेकिन उसे खाली हाथ लौटना पड़ा। पुलिस का कहना था, सावित्राी को कथित संजय ने नाम और पता फर्जी बताया था।

महीना भर बाद भी पुलिस सावित्राी के खरीदार और प्रेमी संजय के बारे में कोई जानकारी नहीं जुटा सकी, तो पुतुल ने उससे घर लौट जाने को कहा, लेकिन वह घर जाने को तैयार ही नहीं हुई। पुतुल ने सावित्राी का मसला आदिवासी नारी उत्थान समिति की सदस्याओं के सामने रखा। सबने तय किया, सावित्राी को यहीं कोई काम दिलाया जाए, ताकि वह अपने रहने और खाने के लिए किसी पर बोझ न बने। यदि संभव हो, तो वह भविष्य के लिए भी कुछ पैसे बचाए। यदि सावित्राी तैयार हो, तो उसकी शादी किसी आदिवासी युवक से कराने की कोशिश की जाए। सावित्राी चाहती थी, वह जितना कमाए, खाना—खर्चा निकालकर सारा पैसा अपनी मां को भेज दे। शायद इसी तरह उसका अपराध कुछ कम हो सके। अपराध तो उसने ऐसा किया था, अगर उसके मां—बाप उसके चमड़े का जूता भी पहनना पसंद करते, तो वह समझती कि उसके मां—बाप ने उसे बहुत कम सजा देकर क्षमा कर दिया है।

पुतुल ने भागदौड़ की, तो उसका नतीजा भी निकला। दिल्ली के मशहूर उद्योगपति रुद्र नारायण सिंह को एक नौकरानी की जरूरत थी। वे आए दिन किसी न किसी समाजसेवी संगठन की सहायता किया करते थे। कई बार आदिवासी नारी उत्थान समिति को भी उपकृत कर चुके थे। पुतुल से एक दिन उनकी कनॉट प्लेस के एक कॉफी हाउस में मुलाकात हो गई। बातों में पुतुल ने सावित्राी की चर्चा की। उसकी सहायता करने की गुजारिश की। उन्होंने घरेलू कार्य के लिए नौकरानी की जरूरत बताई, तो अगले दिन वह सावित्राी को लेकर रुद्र नारायण सिंह की कोठी पर पहुंच गर्इं। रुद्र नारायण ने ढाई हजार रुपये मासिक और खाना—कपड़ा देने का आश्वासन देकर उसे नौकरानी रख लिया। पुतुल के वापस आते समय सावित्राी ‘दीदी' कहकर रोती हुई गले लग गई। पुतुल ने काफी देर तक सांत्वना दी, उं+च—नीच समझाया। जमाने में कैसे दरिंदों से बचकर रहा जाए, इसको भी समझाने की कोशिश की। कोठी से बाहर आते समय उनकी आंखें बरस रही थीं, तो सावित्राी हिचकी लेकर रो रही थी। पुतुल किसी काम से उस इलाके में जातीं, तो वह सावित्राी से जरूर मिलती थीं। उसका कुशलक्षेम पूछकर लौट आती। सावित्राी को सुखी देखकर उन्हें बड़ा सुख मिलता था। उन्होंने सावित्राी के नाम अपने पास से एक हजार रुपये देकर बैंक में खाता भी खुलवा दिया था। हर महीने एक हजार खाते में जमा कराने के बाद हजार—बारह सौ रुपये वह नियमित उसके पिता के नाम मनीआर्डर करवा देती।

सावित्राी को रुद्र नारायण की कोठी में काम करते ग्यारह महीने बीत चुके थे। एक दिन सुबह—सुबह रुद्र नारायण के नौकर रतिनाथ ने पुतुल के घर का दरवाजा खटखटाया। निर्मला पुतुल ने दरवाजा खोला। बदहवास रतिनाथ को देखकर पूछा, ‘अरे...रतिनाथ, इतनी सुबह...? क्या बात है? तुम घबराए हुए क्यों हो?'

पुतुल जब भी सावित्राी से मिलने जाती थीं, तो रतिनाथ बिना चाय पिलाये आने ही नहीं देता था। रतिनाथ पहले भी कई बार पुतुल के घर रुद्र नारायण का संदेश लेकर आ चुका था। सावित्राी भी रतिनाथ की तारीफ किया करती थी। पुतुल सोचती थी, यदि सावित्राी का घर बस जाए, तो इससे अच्छी बात और क्या होगी। रतिनाथ देखने—सुनने में भी अच्छा था। हां, आदिवासी नहीं था। हल्द्वानी जिले के किसी गांव का सीधा—सादा युवक था। रुद्र नारायण के घर में वह बचपन से ही काम कर रहा था। यही वजह थी कि वह रतिनाथ से भी स्नेह करने लगी थीं।

‘दीदी...सावित्राी ने जहर खा लिया है। ...अस्पताल में है।' यह कहते—कहते बिलख उठा रतिनाथ। पुतुल की उनींदी आंखों में पहले तो आश्चर्य उभरा। फिर सावित्राी के अस्पताल में होने और जहर खाने की खबर से उनकी आंखें छलक उठीं। आनन—फानन कपड़े बदले। रतिनाथ को लेकर अस्पताल की ओर दौड़ पड़ीं। अस्पताल में सावित्राी अंतिम सांसें गिन रही थी। सावित्राी ने पुतुल का रोना सुनकर बंद आंखें खोली और फिर मूंद ली। जहर का प्रभाव पूरे शरीर पर हो चुका था। ड्यूटी नर्स और थोड़ी देर पहले आया डॉक्टर असहाय से इलाज में लगे हुए थे। पूरी निष्ठा और प्रतिबद्धता से अपने कर्तव्य के प्रति। यह जानते हुए भी कि रोगी का बचना अब असंभव है। जब तक मौत के ठंडे हाथ मरीज को अपनी गिरफ्त में नहीं ले लेते, डॉक्टर लगे ही रहते हैं अपने कर्म में। डॉक्टर को विश्वास हो चुका था, अब मरीज को बचा पाना मुश्किल ही नहीं, असंभव है। लेकिन वे अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते थे।

आंख खोलकर सावित्राी ने क्षीण स्वर में कहा, ‘दीदी...छोटे मालिक...।' सावित्राी की बात पूरी हो पाती, इससे पहले जीवन की डोर टूट गई। पुतुल को लगा, सावित्राी के प्राण उसे कुछ बताने के लिए ही अटके हुए थे। पुतुल के विलंब से पहुंचने के चलते वह जीवन संघर्ष लंबा नहीं खींच पाई। पुतुल स्तब्ध—सी खड़ी रह गर्इं। रतिनाथ रोता हुआ वार्ड के बाहर भाग गया। खबर पाकर रुद्र नारायण के साथ—साथ पुलिस पहुंची। पुलिस ने सबसे पहले शव अपने कब्जे में लेकर पंचनामा भरा और पोस्टमार्टम के लिए मॉर्चरी भिजवा दिया।

चतरा पुलिस को फोन करके सावित्राी के परिजनों को उसके निधन की सूचना देने की गुजारिश दिल्ली पुलिस के साथ—साथ खुद पुतुल ने की। शाम को चतरा पुलिस के सब इंस्पेक्टर प्रदीप मुर्मु ने बताया, उसके बाप ने यह कहते हुए दिल्ली आने से मना कर दिया कि जिस दिन वह घर से भागी थी, हमने उसे उसी दिन से मरा हुआ समझ लिया था। जवाब सुनकर पुतुल बौखला गर्इं।

उसने गालियां देते हुए कहा, ‘यदि उसके प्रति इतना ही गुस्सा था, तो उसके भेजे गए पैसे क्यों रख लेते थे वे लोग। पैसा तो कभी नहीं लौटाया हरामजादों ने।'

वह सोचने लगीं, क्या सचमुच इतनी अमानवीय है यह दुनिया? अगर बच्चे से एक गलती हो जाए, तो मां—बाप उसे क्षमा क्यों नहीं कर पाते? माना, सावित्राी ने गलत आदमी को चुना था, वह संजय के फरेब को समझ नहीं पाई थी। तो क्या मां—बाप को इतना बेमुरौव्वत होना चाहिए? अगर वह पतित हो गई थी, तो उसकी कमाई का पैसा कैसे पवित्रा हो सकता था? पैसा क्यों नहीं लौटाया उसके घरवालों ने? सारे रिश्ते—नाते पैसे के ही इर्द—गिर्द घूमते हैं? उस दिन सावित्राी का पोस्टमार्टम नहीं हो पाया। अगले दिन आदिवासी नारी उत्थान समिति की अध्यक्ष होने के नाते पुतुल ने सावित्राी की लाश को क्लेम किया। पुलिस और अस्पताल की कार्रवाई में सारा दिन बीत गया। शाम को अश्रुपूरित नयनों से रतिनाथ ने पुतुल और आदिवासी नारी उत्थान समिति की सदस्याओं की उपस्थिति में सावित्राी का दाह संस्कार किया। घटना के दिन ही रुद्र नारायण को किसी काम से सपरिवार दो हफ्ते के लिए कनाडा जाना था, वे पुलिस में अपना बयान दर्ज कराकर कनाडा चले गए। उन्होंने सावित्राी को अवसाद का रोगी बताकर सारा दोष उसी पर मढ़ दिया था।

दूसरे दिन पुतुल ने पुलिस थाने से पोस्टमार्टम रिपोर्ट प्राप्त की। पोस्टमार्टम रिपोर्ट उसे परेशान कर रही थी। मरते वक्त सावित्राी पेट से थी। गर्भस्थ शिशु पांच महीने का हो चुका था। परेशानी यह थी, उन्हें नहीं मालूम था कि सावित्राी किसका अंश लिए इस दुनिया से विदा हो गई? किसने किया था यह कुकृत्य? उसकी सहमति से हुआ था या बलात्कार किया गया था? गर्भ के लिए जिम्मेदार कौन था? संजय से उसे गर्भ ठहरने का सवाल ही नहीं उठता था। संजय तो उसे लगभग सवा साल पहले ही बेचकर भाग खड़ा हुआ था। संजय तब से कहां है किसी को नहीं मालूम? कहीं वह उससे दोबारा मिलने में कामयाब तो नहीं हो गया था?

पूछने पर रतिनाथ रोने लगा, ‘दीदी...हम दोनों एक दूसरे से हंसते—बोलते जरूर थे, लेकिन सावित्राी ने उसे कभी अपनी अंगुली तक छूने नहीं दी थी। कहती थी, एक बार धोखा खा चुकी हूं। अब ऐसा कुछ नहीं होगा। छह महीने पहले की है। पता नहीं क्या हुआ, एक दिन सावित्राी मेरे कंधे से लगकर खूब रोई। मैंने लाख पूछा, लेकिन उसने मुंह नहीं खोला। वह बात को टालती रही। इसके बाद वह गुमसुम सी रहने लगी। वह हंसना तक भूल गई थी।' कहकर रतिनाथ चुप हो गया। कि उसने अपने होठ सी लिए। स्वेच्छा से या किसी मजबूरी के चलते? कि किसी से भय खाकर? कौन पूछे? किससे बताएगा रतिनाथ? पुतुल ने एकाध बार रतिनाथ को पुचकार कर पूछने की कोशिश भी की, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला। तो मजबूरन चुप रह जाना पड़ा।

पुलिस ने बिना कोई जांच—पड़ताल किए किसी से अवैध संबंधों के चलते गर्भ ठहर जाने और गर्भ ठहरने से उपजी शर्मिंदगी के चलते आत्महत्या की रिपोर्ट लगाकर मामला निपटा दिया। गर्भ किससे ठहरा? यह पता लगाने की कोशिश भी पुलिस ने नहीं की। पुलिसवालों की एक अजीब ही दलील थी। उन्होंने सारा पाप संजय के सिर पर मढ़ दिया था। पुलिसिया कहानी के मुताबिक, किसी तरह उसकी रिहाइश का पता लगाकर संजय उससे दोबारा मिला होगा। अपने किए की माफी मांगी होगी। सावित्राी उसकी बातों में आकर पसीज गई और बाद में दोनों बाहर गुलछर्रे उड़ाने लगे। सावित्राी के गर्भ ठहरते ही संजय दोबारा भाग खड़ा हुआ होगा। इससे उपजे अवसाद में उसने जहर खा लिया। निर्मला को अब पुलिस से कोई आशा नहीं रह गई थी। वह यह गुत्थी आखिर तक नहीं सुलझा सकीं कि आखिरी समय में सावित्राी ने छोटे मालिक की चर्चा क्यों की? क्या सावित्राी के पेट में पनपने वाले गर्भ का जिम्मेदार रुद्र नारायण सिंह का बेटा है? लेकिन अब इसका सुबूत भी क्या है? सावित्राी के साथ ही साथ वह भ्रूण भी तो राख हो चुका है। वह चाहकर भी सावित्राी को न्याय नहीं दिला सकी। कुछ दिन बाद रतिनाथ नौकरी छोड़कर कहीं चला गया।

सोनिया के साथ हुए सामूहिक बलात्कार की खबरें अखबारों में प्रमुखता से तो छपी नहीं थीं। सोनिया के बारे में उन्हें जानकारी मिली समिति की कुछ महिलाओं से। दिल्ली में हो रही चर्चाओं और अफवाहों से। इन सभी बातों के बीच एक सच्चाई यह उभर कर सामने आई कि सोनिया से बलात्कार करने वालों में रुद्र नारायण सिंह का एक बेटा भी शामिल था। यह जानकर सावित्राी की मौत का दर्द हरा हो गया। सोनिया गैंगरेप मामले को लेकर वह आंदोलन करना चाहती थीं, सावित्राी की मौत के समय जो नहीं कर सकीं, वह इस बार कर दिखाना चाहती थीं। लेकिन नहीं कर सकीं। समिति की अध्यक्ष होते हुए भी वे सारे फैसले लेने को स्वतंत्रा नहीं थीं। समिति की ज्यादातर महिलाएं आंदोलन करना नहीं चाहती थीं। जब शिवाकांत उनसे मदद मांगने पहुंचा था, उससे थोड़ी ही देर पहले ही वह शशांक सक्सेना से मिलकर लौटी थीं। शशांक सक्सेना ने जिस तरह ठंडे स्वर में उसे इस पचड़े से दूर रहने की धमकी भरा सुझाव दिया था, उससे उनका मूड अपसेट था।

शशांक सक्सेना ने कहा था, ‘पुत्तू...तुम इस झमेले में क्यों पड़ती हो? तुम्हारा संगठन कोई बहुत बड़ा तो है नहीं? रुद्र नारायण से टकराना, कोई बच्चों का खेल नहीं है। मान लो, सोनिया को न्याय मिल भी जाए? तो सोनिया जिंदा हो जाएगी? ...नहीं न! अगर तुम एक सोनिया को भूल जाओ, तो कई सोनिया को जीवनदान दे सकती हो। सोचो...इन्हीं उद्योगपतियों, कारोबारियों और अमीरों के चंदे पर आदिवासी लड़कियों की शादियां करवाती हो। उनकी पढ़ाई—लिखाई, सिलाई—कढ़ाई आदि की ट्रेनिंग का खर्चा उठाती हो। उनके पुनर्वास की व्यवस्था करती हो। तुम्हारे आंदोलन करने से कल रुद्र नारायण नाराज होकर आर्थिक मदद देना बंद कर दे, तो? तुम्हारे पास इस ‘तो?' का जवाब नहीं है। आज रुद्र हाथ खींचेगा, कल दूसरे, परसों तीसरे लोग हाथ खींच लेंगे। सोचो, यदि ऐसा हुआ, तो क्या होगा? एक को न्याय दिलाने की खातिर सैकड़ों लड़कियों के भविष्य पर कालिख पोत देना, कहां की बुद्धिमानी है।'

हताशा, खीझ और कुंठा के बीच झूल रही पुतुल से जब शिवाकांत मिला और मदद की गुहार की, तो उनके मुंह से एकाएक निकल गया, ‘तो आप सोनिया के बहाने नेतागीरी चमकाना चाहते हैं?'

यह कहकर बाद में वह बहुत पछतार्इं। तब तक तीर कमान से निकल चुका था। शिवाकांत भी तो उन्हें कितनी खरी—खोटी सुनाकर जा चुका था।

समिति कार्यालय से निकल कर शिवाकांत काफी पछताया। एक बार सोचा, वापस जाकर ‘सॉरी' बोल आउं+, लेकिन उसकी हिम्मत नहीं हुई। उसके मस्तिष्क ने कहा, ‘उं+ह

...ज्यादा से ज्यादा वे और उनके सहयोगी आंदोलन में शिरकत नहीं करेंगे। इससे ज्यादा क्या होगा? अब तो जो होना था, हो चुका है।'

शिवाकांत ने यही सोचकर सिर को झटका, मानो सिर पर कोई तिनका आ गिरा हो। वहां से निकल कर शिवाकांत कई संस्थाओं के पदाधिकारियों से मिला। यहां तक कि लाजपतनगर के झुग्गी—झोपड़ीवासियों से भी मिला। दिल्ली के कुछ नेता टाइप गणमान्य नागरिकों से मिला। किसी ने टालमटोल की, तो किसी ने भरपूर मदद का आश्वासन देकर चलता कर दिया। बहुत कम संगठनों ने मामले में रुचि दिखाई, पूरे आंदोलन की रूपरेखा पर बातचीत की और सुझाव पेश किए। वह सोनिया के मां—बाप से भी मिला। उन्हें सांत्वना दी। उन दोनों से 23 तारीख को होने जा रहे धरने में शामिल होने को कहा। शिवाकांत की बात सुनकर सोनिया की मां परबतिया के दुख हरे हो गए। उसकी कोख में अजीब—सा दर्द उभर आया। सोनिया का बाप शंभू दुखी होने के बावजूद अपनी पत्नी को हिम्मत बंधाता रहा।

शिवाकांत ने कहा, ‘आप लोग हिम्मत रखें। यह लड़ाई हम सब मिलकर लड़ेंगे और जीतेंगे भी। दिल्ली की कई समाजसेवी संगठनों और मीडिया के कुछ लोगों ने हमारा साथ देने को कहा है। उन संस्थाओं ने भी सहयोग का वायदा किया है, जो एक बार पहले भी आपके साथ संघर्ष कर चुकी हैं।' वहां से निकल कर शिवाकांत ने रुटीन की खबरें कलेक्ट कीं और ऑफिस आ गया। चार—पांच दिन विचलित रहने के कारण वह ऑफिस नहीं गया था। बाद में उसके मित्राों और सहयोगियों ने समझाया, जब तक मन नहीं होता, मेल पर छुट्टी की अप्लीकेशन भिजवा दो। बिना सूचना दिए ऑफिस से गायब रहना ठीक नहीं है। न्यूज एडीटर रमानाथ कटियार से तल्ख बातचीत होने के दूसरे दिन उसने घरेलू कार्यों को कारण बताते हुए एक हफ्ते की छुट्टी ले ली थी। आज सुबह ही उसने छुट्टी के बाद ज्वाइन किया था।

रात के दस बज रहे थे। दिल्ली की सड़कें दिन की ही तरह शोर में डूबी हुई थीं। सड़कों के किनारे जगमगाती ट्यूब लाइट्‌स में गाड़ियों का शोर वैसा ही था, जैसे दिन में हुआ करता है। कहते हैं, दिल्ली कभी नहीं सोती है। इस कहावत की सच्चाई यह है कि दिल्ली के कुछ इलाके रात में जवां होते हैं। बाकी दिल्ली रात गहराना शुरू होते ही वीरान होने लगती है। लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं है कि रात में दिल्ली की सड़कें वीरान हो जाती हैं। हां, आवागमन कुछ कम जरूर हो जाता है। दिल्लीवासी जब तक कार्यालय में, पार्कों, रेस्त्राां या अन्य जगहों पर होता है, तो वह इंसान जैसा प्रतीत होता है। तब लगता है, उसकी भी कोई पहचान है, उसमें भी मानवीय गुण हैं। जैसे ही सड़क पर आता है, वह भीड़ का हिस्सा हो जाता है। भीड़ का हिस्सा बना आदमी भाग तो सकता है, लेकिन इंसान की तरह दिल्ली की सड़कों पर रेंग नहीं सकता। कहीं भी खड़ा होकर दो पल सुस्ता नहीं सकता। इंसान बनने के लिए सबसे पहले उसे अपने को अंतहीन भीड़ से अलग करना होगा। गति को विराम देना होगा। सड़क पर भीड़ में तब्दील शिवाकांत मोटर साइकिल भगाए चला जा रहा था। मूलचंद चौराहे पर पहुंचा, तो उसे सिगरेट की तलब महसूस हुई। जब से वह दिल्ली आया है, उसे सिगरेट पीने की लत—सी लग गई है। यार—दोस्तों के बीच शौकिया तौर पर सिगरेट पीने वाले शिवाकांत को लत ने अपनी गिरफ्त में लेना शुरू कर दिया था। कई बार वह इस लत से छुटकारा पाने की सोचता, लेकिन हर बार ‘बस आखिरी बार पी रहा हूं' कहकर सिगरेट पीने वाला शिवाकांत तलब लगने पर अपनी कसम भूल जाता था। असमय लगने वाली तलब को वह पहले नकारने का प्रयास करता रहा, जब लगा कि सिगरेट पिए बिना नहीं रह पाएगा, तो उसने भागते वाहनों की कतार से खुद को किनारे किया। पान की गुमटी के सामने गाड़ी रोक दी। हेलमेट निकालकर गाड़ी के हैंडिल में फंसाया। सिगरेट खरीद कर सुलगा ली और किनारे खड़ा होकर कश लगाने लगा।

आज सुबह देर से उठने के बावजूद उसने कुछ जरूरी काम निबटाए थे। सोनिया मामले को लेकर उसने कुछ लोगों से मुलाकात भी की। वह एंड्‌यूजगंज आ गया था शालिनी और रघुनाथ से मिलने। शिवाकांत का आज साप्ताहिक अवकाश था। रोज की किचकिच और हाय तौबा से मुक्त। जब वह रघुनाथ के घर पहुंचा, तो शाम के छह बज रहे थे। रघुनाथ ने उसे देखते ही उलाहना दिया, ‘शिवा...तुम तो गूलर के फूल हो गए। हफ्तों से मुलाकात नहीं होती। तुम्हारा फोन भी ज्यादातर बिजी रहता है।'

शिवाकांत हंस पड़ा, ‘अरे यार! ...घर में घुसने भी दोगे या बाहर ही खड़े शिकायती रजिस्टर खोल लोगे? अंदर आने दो, फिर जो कहना—सुनना है, कह सुन लेना।'

शिवाकांत की बात सुनकर रघुनाथ झेंप गया। उसने शिवाकांत को रास्ता दे दिया और खुद जाकर सोफे पर पसर गया। शिवाकांत ने भी उसके बगल में स्थान ग्रहण कर लिया।

रघुनाथ ने आवाज लगाई, ‘अरे उत्सव बेटे! अपने शिवा अंकल के लिए पानी लाना।' वह शिवाकांत की ओर मुखातिब हुआ, ‘और सुनाओ...कैसा चल रहा है काम—काज?'

शिवाकांत ने जवाब देने की बजाय पूछा, ‘शालिनी जी, अभी तक नहीं लौटीं क्या?'

‘अच्छा...तो शालिनी से मिलने आए हैं, जनाब! मैं तो जैसे कुछ हूं ही नहीं। अबे जब से तुमने उसके भीतर नेताओं वाले जर्म्स घुसेड़े हैं, वह घर पर रहती ही कहां है? कभी इस कमेटी वालों से मिलने जाती है, तो कभी उस संस्था वालों से। अभी थोड़ी देर पहले ही लौटी हैं मोहतरमा। किसी एनजीओ वाले के साथ मीटिंग करके। उनके चेहरे की चमक बता रही थी, मीटिंग सफल रही है। हालांकि, यह मेरा अनुमान है। बाकी रिपोर्ट वे खुद आकर देंगी।'

शिवाकांत कुछ कहता, उससे पहले ही ट्रे के साथ उत्सव ने कमरे में प्रवेश किया। उसके पीछे शालिनी भी थी। सेंटर टेबिल पर ट्रे रखते हुए शिवाकांत का अभिवादन किया और लौट गया। शालिनी भी अभिवादन करके सामने के सोफे पर बैठ गई। थकान के साथ—साथ दायित्वपूर्ति का संतोष भी झलक रहा था। पल भर को शिवाकांत ने आत्मग्लानि महसूस की, ‘कहां फंसा दिया शालिनी को। औरतों के जिम्मे वैसे भी क्या कम काम होते हैं? खाना बनाना, कपड़े धोना, बच्चे पैदा करना, उनका पालन—पोषण करना, पति की इच्छाओं को पूरा करना। उस पर यदि औरत कहीं कार्यरत हो, तो और आफत। ऑफिस के पचड़े अलग से उन्हें झेलने पड़ते हैं। इतने झमेले क्या कम थे शालिनी के पास, जो मैंने सोनिया का झमेला उसे पकड़ा दिया।'

‘लगता है, काफी थक गई हैं आप?' शिवाकांत ने पूछ लिया।

‘हां, थोड़ी—सी थकान आ गई है। काम पूरा हो गया है। इसका संतोष है। अब मैं कह सकती हूं, सोनिया को मरने के बाद न्याय मिलने के पूरे आसार दिखाई देने लगे हैं।' शालिनी अपनी थकान छिपाने में नाकाम थी। उसने शिवाकांत को पानी पीने का इशारा किया।

‘अबे...तुझे इसकी थकान दिखाई देती है। मेरी थकान नहीं दिखती तुझे। तेरी आंखों में मोतियाबिंद उतर आया है क्या? पिछले तीन दिन से लिफाफे पर लगे डाक टिकट की तरह शालिनी के साथ कभी यहां, तो कभी वहां डोल रहा हूं। उस पर सरकार ने गौर फरमाया ही नहीं।' रघुनाथ ने मुंह बनाते हुए कहा, ‘तेरी यही आदत मुझे अच्छी नहीं लगती। तेरी आदत शुरू से ही बिगड़ी रही है। लड़कियों के पीछे भागना तूने अभी नहीं छोड़ा? कॉलेज में लड़कियों को देखते ही फिसल जाते थे जनाब। लड़कियों को ये ढाई—ढाई सौ ग्राम के मस्के मारता था। इसका नाम ही हम सबने रख छोड़ा था ‘बटर फैक्ट्री'।'

रघुनाथ ने हंसते हुए शालिनी से कहा, ‘जानती हो! इसकी नजरे इनायत मुझ पर कुछ खास रही है। पल्लवी, अनुष्का, रागिनी...जाने कितनी लड़कियां थीं...सबकी सब मरती थीं मुझ पर। लेकिन भाई साहब...आदत से मजबूर। पट से लंगड़ी मार देते थे। पिल पड़ते थे ढाई सौ ग्राम मक्खन की टिकिया लेकर। नतीजा जानती हो क्या निकलता था? न बेवकूफ खुद पटा पाता था, न मुझे पटाने लायक छोड़ता था। हफ्तों—महीनों की सारी मेहनत पर पानी फिर जाता था। नालायक कहीं का।' रघुनाथ ने शिवाकांत को देखकर मुंह बिचका लिया।

रघुनाथ के मुंह बिचकाने पर शालिनी ठहाका लगाकर हंस पड़ी। वह जोर—जोर से तालियां पीटती हुई बोली, ‘मिस्टर रघुनाथ वर्मा, अब आप निश्चित रहें। यहां इनकी दाल गलने वाली नहीं।'

शिवाकांत भी हंस पड़ा, ‘रघु! पहली बात तो यह है, मुझे यहां अपनी दाल गलानी भी नहीं है। दुर्गा और काली का सम्मिलित अवतार धारण किए बीवी बैठी है न। लखनऊ में। वही काफी है। दूसरी बात, शालिनी जी, यह जिन दिनों का रोना रो रहा है मरदूद। उन दिनों मुझे लड़कियों से बातें करना, अच्छा लगता था। आज भी औरतों और लड़कियों से बतियाना, गप्पें लड़ाना, पसंद है। मुझसे घुल—मिल जाने वाली लड़कियां या औरतें बिस्तर तक पहुंचें, ऐसी कामना कभी नहीं रही। इसे शालीनता से कहूं, तो मैं रसिक हूं, अय्याश नहीं। तुम इसे मेरी गंवई मेंटालिटी कह सकती हो। बाराबंकी के एक छोटे से कस्बे से निकलकर जब कॉलेज के मुक्त वातावरण में पहुंचा, तो वहां लड़के—लड़कियों को खुलेआम बतियाते, गप्प लड़ाते देखा, तो मुझे भी फ्रेंडशिप का शौक चर्राया। उन दिनों लड़कियां भी खूब बातें करती थीं। प्यारी—प्यारी सी, मीठी—मीठी सी। शिवाकांत देखो तो, यह दुपट्टा मुझ पर अच्छा लग रहा है? बालों की क्लिप तीन रुपये में लाई हूं, अच्छी है न? नेल पॉलिश मेरे मामा बंगलोर से लाए थे। वहां उनकी बहुत बड़ी फैक्ट्री है नेल पॉलिश की। कुछ लड़कियां तो अपने घरेलू दुखड़े लेकर बैठ जातीं और घंटों सुनातीं। पहले लड़कियां मेरी ओर आकर्षित होती, उनकी बातों में खूब रस आता। लेकिन कुछ ही दिनों बाद मन उचटने लगता, तो दूसरी को पकड़ लेता। कई लड़कियां खुद ही किनारा कर लेतीं, तो कुछ से मैं किनारा कर लेता। शालिनी जी, आप इस बात को इस तरह से समझ सकती हैं कि जिस तरह पुरइन का पत्ता पानी में रहकर भी पानी से प्रभावित नहीं होता, ठीक उसी तरह लड़कियों के बीच रहकर भी मैंने उनके प्रति आकर्षण नहीं महसूस किया।'

‘चलो...मेरा बिसूरना किसी काम तो आया। आप लोगों के चेहरे का तनाव कुछ तो कम हुआ। अब आप लोगों को मैं बढ़िया सी चाय पिलाता हूं।' रघुनाथ किचन की ओर बढ़ गया।

थोड़ी देर शिवाकांत और शालिनी चुप रहे। बात कहां से शुरू की जाए? इस पर ही शायद दोनों सोचते रहे। दोनों के बीच एक संकोच भी था। रघुनाथ चाय लेकर लौटा। दोनों अपनी ही दुनिया में खोए हुए थे। रघुनाथ वर्मा ने टेबल पर चाय रखते हुए कहा, ‘लो कर लो बात। दो तपस्वियों के बीच मैं नराधम कहां आ फंसा? माया—मोह के प्रति आसक्ति का मारा मैं आप दोनों तपस्वियों को चाय पेश करने की धृष्टता कर रहा हूं। देव प्रसन्न हों, तो चाय गृहण करके कृतार्थ करें। यह सेवक अपने को धन्य समझेगा।'

रघुनाथ ने अपना कप उठा लिया। ‘सू...ऊ...' करके पहला घूंट भरा। दोनों ने भी अपना—अपना कप उठा लिया।

चाय पीते—पीते शिवाकांत ने पूछा, ‘तो क्या मेहनत रंग लाएगी? हमारी भागदौड़ का कोई नतीजा भी निकलेगा?'

‘आप निराश क्यों हैं? जब मैं निराश नहीं हूं जिसको शुरुआत में ही इस कार्यक्रम की सफलता पर संदेह था। जैसे—जैसे मैं लोगों से मिलती गई, एक जुनून पैदा होता गया मुझमें। आज तक मैं पंद्रह संस्थाओं के पास गई। लगभग सबने मदद देने का आश्वासन दिया है। कुछ स्कूलों के प्रबंधकों और प्रिंसिपल्स ने तो यहां तक कहा, अगर जरूरत पड़ी, तो बच्चों को भी आंदोलन में उतार दिया जाएगा। आपकी भी बहुत—सी संस्थाओं से बात हुई होगी? उनका रवैया आप बेहतर समझ सकते हैं? मैं तो कहती हूं, पांच—छह सौ लोग भी इस आंदोलन में शामिल हो जाएं, तो समझिए, हम सरकार और प्रशासन पर दबाव बनाने में सफल हो जाएंगे। कुछ नाट्य संस्थाएं जंतर—मंतर पर नुक्कड़ नाटक के मंचन को भी तैयार हैं। अभी हमारे पास कल का दिन है। कुछ दौड़ भाग और किया जाए, तो कुछ और लोग जुड़ सकते हैं।' शालिनी उत्साहित थी। उत्साह की झलक चेहरे पर दिख रही थी।

‘हूं...ऽऽऽ' कहकर शिवाकांत चाय पीने लगा।

‘यार शिवा...तुम इस तरह मुंह बनाकर मत बैठो। चुप्पी खल रही है। इस तरह

चुप बैठने की आदत नहीं है। मैं अकेला भी रहता हूं, तो बड़बड़ाता रहता हूं। दीवारों से बात करता हूं, सोफे से गप्पे मारता हूं। मेरे कहने का मतलब समझ गए? चुप मत

बैठो। बात क्या है? कुछ तो बताओ? यहां कोई प्रॉब्लम है या लखनऊ में? अगर है, तो बताओ।' रघुनाथ बैचेन हो उठा। उसे लग रहा था, शिवाकांत के मन में कुछ ऐसा है जिसे छिपाकर रखना चाहता है। रघुनाथ जानता है, शिवाकांत जब परेशान होता है, तो चुप्पी साध लेता है।

‘ऐसी कोई बात नहीं है। पता नहीं क्यों...एक अजीब—सी उलझन है। वह उलझन क्या है? क्यों है? किस तरह की है? यह मेरी समझ में नहीं आ रहा है। एक आशंका भी है। परसों अगर हम सबकी इतनी भागदौड़ बेकार चली गई, तो? एक भी संस्था...एक भी आदमी जंतर—मंतर पर नहीं पहुंचा, तब...? तब क्या होगा? यही आशंका परेशान किए जा रही है।' शिवाकांत का स्वर गंभीर था। उसके मन में अनकहा, अनचीन्हा भय समाया हुआ था। विफलता का। आंदोलन के विफल हो जाने का। जीवन में पहली बार किसी बात को लेकर वह इतना गंभीर हुआ था।

‘चलो, थोड़ी देर के लिए मान लिया, तुम्हारी आशंका सही साबित होती है। तो होने दो। इससे क्या फर्क पड़ता है। अरे! हम तीन लोग तो होंगे न! हम तीनों मिलकर जंतर—मंतर पर प्रदर्शन करेंगे? यहां तो लोग अकेले झंडा—बैनर लेकर बैठ जाते हैं धरने पर। लोग हमें देखकर हंसेंगे, तो हंसते रहें। कब तक हंसेंगे? एक दिन लोगों को जब इसकी गंभीरता का एहसास होगा, तो वे हमारे साथ खड़े होंगे। हम तीन ही सही, लेकिन हमारा इरादा हिमालय से भी ज्यादा उं+चा और दृढ़ होगा। डोंट वरी, बी हैप्पी।' रघुनाथ की आवाज में दृढ़ता थी, ललकार थी। शालिनी भी उसकी बात से प्रभावित हुई। शिवाकांत की द्विविधा के बादल कुछ—कुछ छंटने लगे थे। वह शांति से बैठा चाय पीता रहा।

चाय का कप टेबल पर रखते हुए उसने रघुनाथ से कहा, ‘खैर...अब जब ओखली में सिर डाल ही दिया है, तो मूसल से क्या डरना? अच्छा भाई! अच्छी चाय के लिए धन्यवाद। अब इजाजत चाहूंगा।'

रघुनाथ ने उससे खाना खाकर जाने का अनुरोध किया। शालिनी ने भी जोर दिया, लेकिन शिवाकांत नहीं माना। रघुनाथ उसके साथ—साथ बाहर आया। सड़क के किनारे लगी पान की गुमटी पर उसने सिगरेट खरीदा। एक सिगरेट शिवाकांत की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘तुम तो पीते हो न?' शिवाकांत ने सिगरेट लेकर सुलगा लिया।

शिवाकांत ने मूलचंद चौराहे के पास बाइक खड़ी कर दी। सिगरेट की तलब लगी थी। हैंडिल के सहारे उसने हेलमेट टांगा ही था कि उसे लगा, कोई किसी को पुकार रहा है। उसने आवाज की दिशा में मुंह घुमाया। मोनिका लपकती चली आ रही थी।

‘हैल्लो...मिस्टर...हैल्लो...क्या नाम बताया था आपने उस दिन?'

शिवाकांत ने मुंह बनाया, ‘शिवाकांत...।'

‘राइट...राइट, मिस्टर शिवाकांत। उस दिन की बदतमीजी के लिए ‘सॉरी' बोलना था। वाकई...उस दिन मैंने हद कर दी थी। और फिर...आपने मुझे घर भी पहुंचाया था। अगेन सॉरी...मिस्टर शिवाकांत। मैंने कई लोगों से आपका हुलिया बताकर जानकारी हासिल करने की कोशिश की। लेकिन सॉरी... कुछ पता नहीं चला।' दौड़कर आने से मोनिका हांफ रही थी। उसके दायें हाथ की अंगुलियों में एक सिगरेट भी फंसा हुआ था।

उसने सिगरेट फेंककर हाथ जोड़ लिया, ‘अच्छा शिवाकांत जी! आप मुझे माफ कर दीजिए। मैं अपने व्यवहार के लिए शर्मिंदा हूं। वैसे...मेरा अपराध तो माफी के योग्य नहीं है, लेकिन फिर भी...मैं दिल से माफी मांगती हूं। आप चाहें, तो मैं कान पकड़कर माफी मांगने को तैयार हूं।' मोनिका ने सचमुच कान पकड़ लिए।

शिवाकांत ने मोनिका के चेहरे को ध्यान से देखा। सिर्फ पांच सौ रुपये की शर्त जीते की खातिर उसे बेइज्जत करने वाली, आधी रात को शराब के नशे में धुत और कान पकड़कर ‘सारी' बोलने वाली मोनिका में जमीन आसमान का अंतर था। उसे विश्वास नहीं हो रहा था, ये तीनों रूप एक ही लड़की के हैं? जो सच था, वह उसे झुठला भी नहीं सकता था? गौर से देखने पर उसके मन में एक विचार पनपा, लड़की अभिनय अच्छा कर लेती है। मुंबई चली जाए, तो कई हीरोइनों की छुट्टी कर सकती है। लेकिन जब, उसने उसके चेहरे को गौर से देखा, तो वह अभिनय करती नहीं महसूस हुई। उसके चेहरे पर वाकई शर्मिंदगी थी। चेहरे और आवाज से पश्चाताप झलक की साफ—साफ मिल रही थी।

‘लगता है, आप माफ नहीं कर पाए हैं। मैंने ही कौन—सा अच्छा व्यवहार किया था आपके साथ। कोई भी होता, तो मुझसे यही व्यवहार करता। शायद आपसे भी बुरा। आप कोई भगवान तो हैं नहीं, जो राग—द्वेष, मान—अपमान से ऊपर उठ चुके हों। अपमान को कोई कैसे भूल सकता है?' मोनिका का स्वर भीगने लगा था। उसने नजरें झुका ली थीं। असहाय भाव से वह अपनी दोनों हथेलियां एक दूसरे के ऊपर रखकर मसलने लगी थी।

शिवाकांत बेसाख्ता हंस पड़ा, ‘मैं तो उस बात को कभी भूल गया था। आपको घर छोड़ने गया था न? इसका यही मतलब है कि मैं आपको माफ कर चुका हूं। अब आपने क्षमा भी मांग ली है, तो मेरी तरफ से वह बात खत्म हो चुकी है। आप भी उस बात को भूल जाएं।'

शिवाकांत को हंसता देख मोनिका झेंप गई। उसे लगा, शिवाकांत उस पर हंस रहा है।

‘शिवाकांत जी...मेरा चेहरा इतना खराब है? कि उसको देखकर किसी को हंसी आ सकती है? मैं भूतनी दिखती हूं या चुड़ैल? मेरे दांत बाहर निकले हैं?'

‘अरे नहीं! मैं आप पर हंस नहीं रहा था। दरअसल, मुझे आपके तीन रूपों का ध्यान हो आया था। मुझे लगा, आप वैसी हैं नहीं, जैसी दिखती हैं या दिखने की कोशिश करती हैं। ऊपर से आप बिंदास, मुंहफट, शराबी और बिगड़ी हुई दिखती हैं, लेकिन अंतरमन से किसी पहाड़ी नदी की तरह चंचल, किंतु निर्मल हैं। बस, यही सोचकर हंसी आ गई थी।'

‘ऐ बाबू मोशाय! चेहरे पर मत जाओ। चेहरा बहुत झूठा होता है।' उसने फिल्म ‘आनंद' के राजेश खन्ना की तरह डायलॉग मारा। शिवाकांत को उसकी इस बात पर फिर हंसी आ गई। वह खुद भी हंसने लगी थी। शिवाकांत का हाथ पकड़कर खींचते हुए कहा, ‘शिवाकांत जी! आइए, कहीं बैठकर चाय पीते हैं। और बातें भी करते हैं।'

‘नहीं, मै जरा जल्दी में हूं। मुझे किसी खास काम से एक जगह पहुंचना है।'

‘आपका ज्यादा समय नहीं लूंगी।'

‘तो ठीक है, चलिए कहीं बैठ लेते हैं। हां, चाय—वाय का चक्कर छोड़ दीजिए।' दोनों ने सड़क के किनारे स्थित छोटे से पार्क की सीमेंटेड बेंच पर कब्जा जमाया।

मोनिका ने बैठते हुए कहा, ‘आप भी सोचते होंगे, यह मुसीबत कहां से गले आ पड़ी।'

वह हलके से मुस्कुरा पड़ा, ‘मैं आपको मुसीबत नहीं समझता।' उसने बातचीत का रुख बदलने की कोशिश की, ‘और बताइए, कैसा चल रहा है आपका काम—काज?'

‘कोई खास नहीं ...। बस, रुटीन की खबरें कर रही हूं। यह बताइए, आप कहीं धरना—प्रदर्शन करने जा रहे हैं? आज मेरे ऑफिस में चर्चा हो रही थी। मेरे कुछ साथी बार—बार दिल्ली टाइम्स का पत्राकार...दिल्ली टाइम्स का पत्राकार कहकर किसी धरना—प्रदर्शन की बात कह रहे थे। आप शायद दिल्ली टाइम्स में हैं? मेरे साथियों को आपका नाम नहीं पता था। क्या वह महापुरुष आप ही हैं?'

मोनिका के महापुरुष कहने के लहजे पर वह मुस्कुराया।

‘आपको लगता है, दिल्ली की मीडिया जगत या उसका कोई पार्ट किसी तरह का आंदोलन या धरना—प्रदर्शन कर सकता है? किसी के पास है फुरसत, ऐसे कामों में भाग लेने की? देश में धर्म, जाति, संप्रदाय के नाम पर दंगे तो बड़ी आसानी से करवाए जा सकते हैं, उन्मादी भीड़ भी इकट्ठी की जा सकती है, लूटपाट के लिए युवाओं को प्रेरित किया जा सकता है, लेकिन किसी जायज मांग या मुद्दे पर चार आदमी इकट्ठा किए जा सकते हैं, ऐसा मुझे नहीं लगता। अगर आज भगत सिंह को क्रांति और मोहनदास करमचंद गांधी को सत्याग्रह करना होता, तो उन्हें छठी का दूध याद आ जाता। चार समर्थक भी नहीं मिलते साथ चलने को। हुजूम की बात तो भूल ही जाइए।'

शिवाकांत के भीतर एक बार फिर कुछ खदबदाने लगा, ‘आठ—नौ साल की बच्ची को चार अमीरजादे उठा ले जाते हैं। सामूहिक बलात्कार के बाद चलती गाड़ी से फेंक जाते हैं। लोग तमाशबीन की तरह खड़े देखते रहते हैं। न कोई बच्ची को अस्पताल पहुंचाने की हिम्मत करता है, न ही अपराधियों को पकड़ने की। हुंह...इसी समाज के लिए भगत सिंह, नेताजी सुभाष चंद्र बोस या मोहनदास करमचंद गांधी मरे जा रहे थे? ऐसा ही देश और समाज चाहते थे ये लोग?'

मोनिका ने धीरे से अपना दायां हाथ शिवाकांत की पीठ पर रखा। सांत्वनापूर्ण ढंग से थपथपाने लगी, ‘आज के हालात तो वाकई हौलनाक हैं। मैं बहुत कुछ ज्यादा कर पाने की स्थिति में नहीं हूं, लेकिन फिर भी...मुझसे जो हो सकेगा, जरूर करूंगी। यदि किसी काम लायक मुझे समझो, तो जरूर बताना। संकोच मत करना। मेरा फोन नंबर नोट कर लो। इस कार्य में अगर मैं किसी तरह का सहयोग कर सकी, तो मुझे बहुत खुशी होगी। उस बच्ची के प्रति मेरी श्रद्धांजलि होगी।'

मोनिका पूरा मामला जानती थी। वह गंभीर हो गई, ‘उन अमीरजादों को अपने किए की सजा मिल जाए, तो समझिए, हमने किला फतह कर लिया।'

‘हां, मैं भी यही समझता हूं। वैसे बलात्कार के आरोपी अभी जेल में हैं। मां—बाप कुछ दिन बाद पैसे के बल पर उनकी जमानत करवा लेंगे। फिर मामला चलता रहेगा दस—बीस साल। दो—चार महीने बाद किसे याद रहेगा, सोनिया भी कोई थी जिसके साथ किसी तरह का हादसा हुआ था। फुरसत भी किसे है याद रखने की। फिर ये अमीरजादे पहले की तरह सीना चौड़ा करके समाज में दनदनाते घूमेंगे। किसी अमीरजादी से शादी कर लेंगे। पत्नी को नैतिकता और सद्‌चरित्राता का पाठ पढ़ाएंगे।' शिवाकांत अब सामान्य हो चला था। एकाएक उसने मोनिका से ऐसा सवाल सवाल पूछ लिया, जिसको सुनकर दोनों ही असहज हो उठे।

‘आप इतना ज्यादा ड्रिंक क्यों करती हैं?'

मोनिका अकबका गई, ‘मतलब?'

‘नहीं, इस समय आपको देखकर कोई विश्वास नहीं करेगा कि आप ड्रिंकर हैं? इतना पीती हैं कि बेसुध हो जाती हैं।'

‘उस दिन वाकई ज्यादा पी गई थी। पहली बार पीकर बेसुध हुई थी। आपको क्या लगता है? शौक के लिए पीती हूं? नहीं। थोड़ा—सा पीकर झूमती ज्यादा हूं। लोगों को गालियां देती हूं। उनसे मिसबिहेव करती हूं, ताकि वे मुझसे दूर रहें। लोग जितना मुझसे दूर रहेंगे, मैं उतनी ही सुरक्षित रहूंगी। मैंने यह छवि गढ़ी है। इसके लिए मुझे कम कुर्बानी नहीं देनी पड़ी। पियक्कड़, बद्‌मिजाज...आवारा...न जाने कैसे—कैसे नाम रख छोड़े हैं लोगों ने।'

‘तो फिर आप शादी क्यों नहीं कर लेतीं?' एकाएक शिवाकांत के मुंह से निकला।

शिवाकांत समझ गया, मोनिका ने अपने आपको और दूसरों को समझाने के लिए कुछ तर्क गढ़ रखे हैं। शिवाकांत को श्याम कुमार चंचल की याद आ गई। लखनऊ की गलियों में शामो—सहर नशे में झूमता फिरता चंचल नारा लगाने वाले अंदाज में गाता—फिरता था, ‘पिला दे ओक से साकी जो मुझसे नफरत है, गर प्याला नहीं देती न दे शराब तो दे।' कई बार ऐशबाग के मालवीय नगर चौराहे पर पीकर झूमता या लोगों से बहस करता चंचल मिल जाता। शिवाकांत अक्सर कतराकर निकल जाता, तो कई बार पकड़ लिया जाता, ‘बच्चू, आंख चुराकर निकल रहे थे।' आगे वह जोड़ता, ‘दारू पियोगे? थोड़ी—सी बची है मेरे पास।'

शिवाकांत मना कर देता, ‘नहीं, मैं दारू नहीं पीता।'

‘नहीं पीता का क्या मतलब? पीनी पड़ेगी। मैं कहता हूं, तुम्हें पीनी पड़ेगी।' चंचल जिद पर उतर आता।

शिवाकांत उसका ध्यान बंटाने की कोशिश करता, ‘आप यहां क्या कर रहे हैं?' उसके बायें हाथ में लटक रहे थैले की ओर इशारा करते हुए कहता, ‘सामान लेने निकले थे क्या?'

‘सब्जी लेने निकला था। सब्जी के पैसे की दारू पी गया। अब समय काट रहा हूं। बीवी कुछ देर इंतजार करेगी, फिर कुछ न कुछ बना ही लेगी। कुछ नहीं होगा, तो दाल या आलू की सब्जी ही बना लेगी। चलो, एक—एक पैग पीते हैं। थोड़ा टाइम और कट जाएगा।'

शिवाकांत मना कर देता। उसे चंचल के घर में इंतजार करती दो जोड़ी भयभीत आंखें याद आ जातीं। चंचल की पत्नी आरती और बेटी नव्या की भयभीत हिरणी जैसी मासूम आंखें। मां—बेटी दोनों हमेशा डरी—डरी सी रहतीं। घर से बाहर रहता, तो किसी हादसे या अप्रिय समाचार की आशंका से जूझती रहती थीं ये आंखें। आठ साल की नव्या अपने पिता को पूछने आने वालों को खामोश और उदास निगाहों से घूरती। फिर धीरे से कहती, ‘पापा घर में नहीं हैं। कहीं गए हैं...।'

शिवाकांत नव्या को जब भी देखता, तो उसके प्रति करुणा और प्यार उमड़ आता। उसका मन होता, वह उस बच्ची के सिर पर हाथ फेरकर उसे सांत्वना दे। उसे दुलार करे। वह थी ही इतनी मासूम कि उसकी आंखों में व्याप्त पीड़ा और भय से कोई भी द्रवित हो उठता था।

दस—बारह घर छोड़कर आरती का मायका भी था। मालवीय नगर कालोनी में ही। आरती ने प्रेम विवाह किया था। लड़कपन में किए गए प्रेम की सजा भुगत रही थी वह। चंचल कहने को ‘नया पृष्ठभूमि' नामक साप्ताहिक अखबार निकालता था। महीने में एकाध अंक ही छपते थे, जो बिकते कम और नवोदित लेखक और कवियों में बंटते अधिक थे। आरती आलमबाग स्थित एक सरकारी प्राथमिक विद्यालय में साइंस टीचर थी। उनकी तनख्वाह से घर चलता था। घर में चंचल का रौब चलता था।

फिल्म ‘साहब' के चर्चित गीत ‘यार बिना चैन कहां रे...' को थोड़ा—सा बदल कर ‘शराब बिना चैन कहां रे...' कर दें, तो यही था चंचल का जीवन दर्शन। वह जैसे शराब पीने की लिए ही जीता था। बातचीत के दौरान चंचल अकसर कहता—फिरता था, ‘अच्छी पी ली, खराब पी ली, जैसी पाई शराब पी ली।'

पीने के लिए वह कुछ भी कर सकता था। कोई भी काम, कोई भी पाप। एक बार तो उसने पाप कर ही डाला था। लखनऊ के एक वरिष्ठ कवि विमल जी से चंचल ने कहा, ‘दादा...आप अपना कोई काव्य संकलन क्यों नहीं निकालते?'

विमल जी ने कहा, ‘चंचल...कौन हाथी मारे और कौन टांग उखाड़े। बड़े झमेले का काम है काव्य संकलन निकालना। पहले कविताओं को छांटो, उनकी पांडुलिपि तैयार करो। फिर प्रकाशकों के ऑफिसों के चक्कर लगाओ। इनकी चिरौरी करो, उनकी चिरौरी करो। वैसे भी कोई प्रकाशक काव्य संकलन छापने को तैयार नहीं होता। कहते हैं, कविताएं सेलेबुल नहीं हैं। अब इस बुढ़ापे में मुझसे यह सब नहीं होगा।'

‘दादा...आप पांडुलिपि तैयार तो करो। प्रकाशकों के यहां मैं लगाउं+गा चक्कर। आपका यह छोटा भाई जाएगा प्रकाशकों के दफ्तर। अगर इस पर भी बात नहीं बनी, तो मैं छापूंगा आपका काव्य संकलन। ‘नया पृष्ठभूमि' प्रकाशन की ओर से छपेंगी आपकी कविताएं।'

काफी तर्क—वितर्क और जद्दोजहद के बाद विमल जी इस शर्त पर काव्य संकलन छपवाने को तैयार हो गए कि वे पांडुलिपि तैयार करके दे देंगे, कागज—स्याही का खर्च उठा लेंगे। छापने—छपवाने की जिम्मेदारी चंचल की रहेगी। काफी जोड़ने—घटाने के बाद चार सौ प्रतियों का खर्च तय हुआ आठ हजार रुपये। चंचल ने कंपोजिंग और कागज आदि के खर्च के लिए चार हजार रुपये विमल जी से झटक लिये। बाकी रकम बाद में देने की बात तय हो गई। संयोग से उस समय शिवाकांत भी मौजूद था। उन दिनों उसे भी कवि बनने का शौक चर्राया हुआ था। वह भी तुकबंदी करके कवियों में शुमार होने की लालसा से लखनऊ की कवि गोष्ठियों और सम्मेलनों में मारा—मारा फिरता था। उस दौर के ज्यादातर नवोदित कवियों में उसकी कविताएं कथ्य और शिल्प की दृष्टि से बेहतर होती थीं। कुछ नए—पुराने कवि तो सिर्फ गले की बदौलत लखनऊ में जमे हुए थे। कई तो ऐसे भी महारथी थे, जिन्होंने किसी तरह जोड़—घटाकर दो—तीन कविताएं रच ली थीं। उन्हीं कविताओं की बदौलत प्रदेश के वरिष्ठ और गरिष्ठ कवियों में शुमार भी किए जाने लगे थे।

विमल जी ने काफी मेहनत करके एक माह में पांडुलिपि तैयार कर दी। तब तक चंचल सारे रुपये शराब में उड़ा चुका था। पांडुलिपि और बाकी रुपये लेने के बाद चंचल ने विमल जी से मिलना ही छोड़ दिया। विमल ने कई बार घर पर घेरा। अकसर विमल को देखकर चंचल बेटी या पत्नी से घर पर नहीं होने की बात कहलवा देता। किसी दिन अगर बाहर खड़ा पकड़ा जाता, तो झट से कहता, ‘दादा...आप काहे को परेशान हो रहे हैं? आप तो लोकार्पण की तैयारी कीजिए। लोकार्पण समारोह से पहले आपको पुस्तक छापकर दे दूंगा। दादा...उसी समारोह में मेरी भी एक लंबी कविता ‘अखबार के दफ्तर में आई है एक लड़की' नामक पुस्तक का लोकार्पण होगा।'

सरल और विनम्र विमल ने उसकी बात पर विश्वास किया। करते भी क्यों नहीं, वह उनके मित्रा का बेटा था। वह विमल को बचपन से ही दादा और विमल की पत्नी को भाभी कहता आ रहा था। खैर...विमल ने अपनी साहित्यिक संस्था ‘नव जन साहित्य परिषद्‌' की आपातकालीन बैठक बुलाई। अपनी पुस्तक के लोकार्पण समारोह के आयोजन का प्रस्ताव रखा। वे संस्था के पिछले चौबीस साल से अध्यक्ष थे। हर चार साल बाद होने वाले चुनाव में वे निर्विरोध अध्यक्ष चुने जा रहे थे। उनके विरोध में कोई खड़ा ही नहीं होता था। संस्था में विमल का प्रस्ताव पास कर दिया गया। संस्था के कुछ कर्मठ कार्यकर्ताओं ने दौड़—भाग कर चारबाग स्थित रवींद्रालय का कॉन्फ्रेंस हाल बुक करा लिया। लखनऊ और आसपास के जिलों में रहने वाले कवियों, साहित्यकारों और पत्राकारों को कार्यक्रम में शरीक होने के न्यौते भेजे गए। लोकार्पण समारोह का नियत दिन आ पहुंचा, लेकिन चंचल नदारद। संस्था के कई कार्यकर्ता चंचल की खोज में दौड़ाए गए। साहित्य परिषद्‌ के पदाधिकारी और सदस्य हलाकान हो रहे थे कि दोपहर के दो बजे चंचल एकाएक परिषद्‌ के अध्यक्ष विमल के सामने उपस्थित हुआ, ‘दादा! आपकी किताब के चक्कर में मैं घनचक्कर होकर रह गया हूं। आज सुबह ही कंपोजिंग पूरी हो पाई। आप चिंता न करें। शाम पांच बजे तक पांच प्रतियां बाइंड होकर आपके पास पहुंच जाएंगी। फिलहाल, आज पांच प्रतियों से काम चला लें। बाकी प्रतियां कल शाम तक घर पहुंच जाएंगी। मैं लेकर आउं+गा, दादा। आज लोकार्पण ही तो कराना है। वह हो जाएगा। बाकी जो खरीदना चाहेगा, पैसा जमा कर दे। कल छपाई पूरी होने पर उनको डाक से भेज दी जाएगी या हाथों हाथ दे दी जाएगी।'

चंचल की बात सुनकर विमल तिलमिलाकर रह गए। विश्वास करने का प्रतिफल सामने था। चंचल को कडुवी बातें कहकर वे समारोह चौपट नहीं करना चाहते थे। किसी तरह उन्हें अपनी प्रतिष्ठा बचानी थी। चौपट हो रहे कार्यक्रम को येन—केन प्रकारेण संपन्न कराना उनकी पहली प्राथमिकता थी। बहुत कुछ कहना चाहते हुए भी कुछ नहीं कह सके। सिर्फ इतना ही कह पाए, ‘देखो! टाइम पर पहुंच जाना। संस्था और मेरी इज्जत अब तुम्हारे हाथ में है। करीब दो दर्जन कवि तो बाहर से आ रहे हैं।'

‘कैसी बात करते हैं दादा! आपको बेइज्जत नहीं होने दूंगा।'

काफी देर तक इधर—उधर की बातें करने के बाद चंचल ने कहा, ‘दादा! ...किताब छपवाने के चक्कर में दो रातों से सो नहीं पाया हूं। अब तो आंखें मुंदी जा रही हैं। बिना पिए, तो मुझसे रहा नहीं जाएगा। अगर सौ रुपये मिल जाते, तो थोड़ा गला तर कर लेता।'

और विमल को सौ रुपये की कुर्बानी देनी पड़ी।

शाम पांच बजे रवींद्रालय का कॉन्फ्रेंस हाल भर गया। साढ़े पांच बजे विमल के काव्य संकलन ‘धधकती धरती' का लोकार्पण होना था। संस्था के अध्यक्ष विमल, मुख्य अतिथि बाज बहादुर ‘व्यथित जी', मुख्य वक्ता दिनेश सिंह ‘भयंकर' सहित कार्यक्रम के अध्यक्ष श्याम सिंह ‘प्रतापगढ़ी' मंचासीन हो चुके थे। मंच पर बैठे विमल बार—बार घड़ी देखते और बेचैनी से पहलू बदलते। वे कार्यक्रम संचालक कमलेश से इशारे में पूछते, चंचल आया कि नहीं। उद्‌घोषक कमलेश, जो संस्था का महामंत्राी भी था, हर बार नकारात्मक ढंग से सिर हिला देता। सवा छह बजे नशे में धुत चंचल ने रवींद्रालय में प्रवेश किया। चंचल को देखते ही संचालक कमलेश ने उत्साहित होकर कार्यक्रम के शुरुआत की घोषणा करते हुए विमल और संस्था नव जन साहित्य परिषद्‌ की प्रशंसा में कसीदे काढ़ना शुरू किया। विमल के व्यक्तित्व और कृतित्व की जो विशद व्याख्या संचालक ने पेश की, उससे विमल गर्व से फूल उठे।

गर्व से गर्दन उठाए चंचल सीधा मंच पर पहुंचा। विमल के कान में फुसफुसाया, ‘दादा, किताब तो तैयार नहीं हो पाई। लेकिन चिंता मत कीजिए। कवर पेज सहित कंपोज मैटर को फोटोस्टेट कराकर बुक शेप में बाइंडिंग करा लिया है। फिलहाल इसी को लोकार्पित कर काम चलाइए। बाद में देखा जाएगा। चार—पांच हफ्ते बाद मेरी एक किताब का लोकार्पण होना है, उस कार्यक्रम में आपकी भी इस किताब का विधिवत लोकार्पण किया जाएगा।'

चंचल की बात सुनते ही अपमानित विमल का चेहरा क्रोध से श्यामवर्णी हो गया। उन्होंने घूरकर उसे देखा, तो वह फिस्स से हंस पड़ा। उसने रवींद्रालय के व्यवस्थापक से मंच पर एक और कुर्सी लगाने का इशारा किया। कुर्सी आते ही विमल की बगल में बैठ गया। विमल ने आंखें तरेरते हुए उसे मंच से नीचे उतरने का इशारा किया। वह ढीठ बना बैठा रहा। यही प्रक्रिया जब कई बार दोहराई गई, तो वह उठा। कार्यक्रम संचालक कमलेश के हाथ से माइक छीना और बोला, ‘लौंडे में गया लोकार्पण...और मां की...में गई किताब। हटाओ यह सब। अब नहीं होगा लोकार्पण समारोह। भोसड़ी वाले विमल के लिए मैंने इतना कुछ किया। यह साला विमलवा मुझसे नीचे बैठने को कहता है।'

इसके बाद उसने विमल की मां—बहन के साथ जो नजदीकी रिश्ता कायम किया, वह अत्यंत अपमानजनक था। लखनऊ और बाहर से आए साहित्यकार, कवि और पत्राकार चंचल की बदतमीजी और उदंडता का नपुंसक विरोध भी नहीं कर सके। वह विमल सहित कई साहित्यकारों का नाम ले—लेकर आधे घंटे तक गालियां देता रहा। लोग सुनते रहे। लगभग आधे घंटे के बाद चंचल झूमता हुआ मंच से उतरा। रवींद्रालय के बाहर चला गया। रंग में भंग पड़ चुका था। एक—एक कर लोग खिसकने लगे। मंचासीन विमल, समारोह के मुख्य अतिथि, मुख्य वक्ता ने अपनी—अपनी डायरियां संभालीं और बाहर निकल गए। शिवाकांत जब ऑफिस से थोड़ी देर का अवकाश लेकर रवींद्रालय पहुंचा, तब तक मजमा उखड़ चुका था।

रविंद्रालय के बाहर सड़क के किनारे खड़े कुछ साहित्यकार और कवि बतकूचन में लगे हुए थे। उन्हीं लोगों से शिवाकांत को सारी जानकारियां मिली। वह बहुत दुखी हुआ। शहर के वयोवृद्ध और वरिष्ठ कवि विमल जी का अपमान किए जाने की घटना से वह काफी दुखी हुआ।

‘तो फिर आप शादी क्यों नहीं कर लेतीं?' इस सवाल पर मोनिका कुछ असहज हो गई। गोया किसी रोगी से कहा जा रहा हो, तुम दवा क्यों नहीं ले लेती हो?

‘क्या मतलब? आपको इस वक्त मेरी शादी की कैसे सूझ पड़ी। शादी और मेरे पीने से क्या रिश्ता है?' मोनिका झेंपी—सी हंसी हंस पड़ी।

‘एकाकीपन और पीने के साथ काफी गहरा रिश्ता है। अकेले रहने वाले आम तौर पर या तो नशा करने की सोचते हैं या फिर आत्मघात की। मेरी जानकारी के मुताबिक, शराब पीने वालों की पांच दशाएं हैं। इन दशाओं को डीडी वन, डीडी टू आदि कहते हैं।'

‘क्या...?'

‘हां, मैं नहीं जानता, आप डीडी के किस स्टेज तक पहुंचती हैं। जिस दिन मैंने आपको घर पहुंचाया था, उस दिन शायद आप डीडी थ्री स्टेज पर थीं।' शिवाकांत मुस्कुरा पड़ा।

‘मैं आपकी बात समझ नहीं पा रही हूं।' मोनिका उलझन में थी।

‘मैं समझाता हूं। डीडी वन शराबियों की वह दशा है, जब वह एकाध पैग लगाकर संतोष कर लेता है। मेडिकल साइंस में इसे ‘ड्राई एंड डीसेंट' स्टेज कहते हैं। डीडी टू स्टेज में आदमी नशे की गिरफ्त में आ जाता है, लेकिन उसके होश कायम रहते हैं। इसे कहते हैं ‘डिलाइटेड एंड डैविलिश' स्टेज। डीडी थ्री में आदमी की जुबान लड़खड़ाने लगती है। पग धरता इधर है, पड़ता उधर है। इस दशा को ‘डैजी एंड डैलीरियस' स्टेज कहते हैं। चौथी स्टेज यानी डीडी फोर में आने पर शराबी की हालत पैरालाइसिस के रोगी की तरह हो जाती है। मूवमेंट पर से उसका नियंत्राण खत्म हो जाता है। इसे कहते हैं ‘डेज्ड एंड डिजेक्टेड' स्टेज। फिफ्थ स्टेज सबसे खतरनाक होती है। इस दशा में पहुंचने पर आदमी की मौत भी हो सकती है। इस दशा को कहते हैं ‘डेड ड्रंक।' शिवाकांत ने ज्ञान बघारा। पियक्कड़ों का यह वर्गीकरण उसने किसी जासूसी उपन्यास में पढ़ा था।

उसने आगे जोड़ा, ‘मेरे हिसाब से अभी आप डीडी टू या थ्री के बीच झूलती रहती हैं। कभी इस पार, कभी उस पार। हो सकता है, आप अवसाद, एकाकीपन और फ्रस्टेशन के चलते किसी दिन डीडी फाइव तक पहुंच जाएं। इससे बेहतर है कि आप शादी करके एकाकीपन से निजात पा लें।'

‘शादी अगर सभी समस्याओं का हल होती, तो शायद किसी के पास कोई समस्या ही नहीं होती। मैं देखती हूं, शादीशुदा लोग सबसे ज्यादा परेशान हैं।' मोनिका हंस पड़ी। उसका साथ दिया शिवाकांत ने। अब शिवाकांत को भी बातचीत में आनंद आने लगा था।

‘शादी के फायदे भी कम नहीं हैं। शादी सिर्फ शारीरिक जरूरतों की पूर्ति के लिए ही आवश्यक नहीं है, सामाजिक और मानसिक अवलंबन के लिए भी जरूरी है। अकेले सुख—दुख भोगने से बेहतर है, किसी के साथ मिलकर भोगा जाए, किसी से अपने सुख—दुख शेयर किया जाएं। ऐसे में सुख द्विगुणित और दुख का परिमाण न्यून हो जाता है।'

‘शिवाकांत जी छोड़िए न इस मुद्दे को। यह बताइए, रैली की क्या तैयारियां हो चुकी हैं? आप अकेले इतना सब कुछ कैसे कर लेंगे?'

‘रैली नहीं निकालनी है। सिर्फ जंतर—मंतर पर प्रदर्शन किया जाएगा।' शिवाकांत को लगा, उसे यहां से चल देना चाहिए। उसे अभी कई जगहों पर भी जाना था। वह उठ खड़ा हुआ, ‘अच्छा मोनिका जी! चलता हूं। बहुत देर हो चुकी है। इस समय मुझे कहीं और जगह होना चाहिए, लेकिन लेट हो गया।' शिवाकांत की बात सुनकर मोनिका भी खड़ी हो गई। दोनों साइड में खड़ी मोटरसाइकिल तक आए। शिवाकांत विदा मांगकर चल पड़ा। मोनिका काफी देर तक वहीं खड़ी सोचती रही, फिर घर की ओर चल पड़ी।

शिवाकांत ऑफिस पहुंचा। अन्य दिनों की अपेक्षा आज वह जल्दी आ गया था। न्यूज रूम में रोज की तरह शोर—शराबा हो रहा था। एकदम मछली बाजार की तरह। शिवाकांत अपनी सीट तक पहुंचा ही था कि रिपोर्टर घनश्याम चौरसिया ने अभिवादन के बाद न्यूज एडिटर कटियार का संदेश सुनाया, ‘भाई साहब! आपको कई बार कटियार साहब पूछ चुके हैं। शायद आपको फोन भी किया हो?'

‘क्यों...? कोई खास बात है?'

‘कुछ मालूम नहीं ...मैं खबरों पर उनसे डिस्कस करने गया था। चलने लगा, तो बोले, शिवाकांत आए, तो उससे कहो, मुझसे आकर मिले।' चौरसिया इतना कहकर अपने रास्ते चला गया।

शिवाकांत कुछ देर तक बैठा सोचता रहा। सुबह ही तो मिला था उनसे रिपोर्टर्स मीटिंग में। हंस—हंस कर बतिया रहे थे। कभी चुटकुले सुनाते, तो कभी अपनी गर्लफ्रेंड्‌स के किस्से। खबरों के बारे में सुबह ही डिस्कस हो चुकी थी। कोई खास घटना भी नहीं हुई थी जिसको लेकर बात करना शिवाकांत को जरूरी लग रहा हो। काफी देर सोचने के बाद भी जब कोई सिरा पकड़ में नहीं आया, तो उसने सिर इस तरह झटका मानो, सिर से कोई बोझ जमीन पर पटक दिया हो। उसने मेज पर ढका रखा पानी का गिलास उठाया और गटागट पी गया। उसने अपनी बांह से मुंह पोछा और कटियार से मिलने चल दिया।

कटियार के सामने पहुंचकर उसने कहा, ‘भाई साहब! आपने मुझे बुलाया था।'

एजेंसी के तार निकालकर छांट—छांटकर रख रहे रमाकांत ने सिर उठाया। बैठने का इशारा किया और फिर अपने काम में लग गए। शिवाकांत ने विजिटर्स चेयर संभाल ली। थोड़ी देर बाद गहरी सांस लेते हुए कटियार ने कहा, ‘और सुनाओ, कैसा चल रहा है काम काज?'

‘ठीक ही चल रहा है, भाई साहब।'

‘क्या ठीक चल रहा है?'

‘काम काज...'

‘आजकल खबरें बहुत छूट रही हैं। कह रहे हो, काम काज ठीक चल रहा है। क्या खाक ठीक चल रहा है।'

‘इधर एकाध हफ्ते में कोई मेजर खबर छूटी हो, तो बताइए। कई खबरें तो मैंने ऐसी दी थी, जो काफी महत्वपूर्ण थीं। अगर वे खबरें जातीं, तो हम दूसरे अखबारों को पीट सकते थे, जिन्हें डेस्क ने बिना कोई कारण बताए रोक दी थीं। वे मेरी एक्सक्लूसिव खबरें थीं।' शिवाकांत को अब कहीं कुछ पकने की गंध आने लगी थी। क्या पक रहा है? कौन पका रहा है? यह शिवाकांत की समझ में नहीं आ रहा था। अब तो वह यही जानने की कोशिश में था।

‘खाक एक्सक्लूसिव थीं। दूसरे अखबारों में एकाध महीने पहले ही छप चुकी थीं तुम्हारी एक्सक्लूसिव खबरें। एकाध खबरें तो मैंने ही रुकवाई थीं।' रमाकांत ने अंगुलियों को बड़ी जोर से चटकाया। दाहिने हाथ की दो अंगुलियों में पहनी गई अंगूठियों के नग को उन्होंने सीधा किया।

‘आप कोई एक खबर बता दीजिए, जो किसी अखबार में छप चुकी थी या किसी की नकल थी। फालोअप ही हो, तो वही बता दीजिए।' घटिया और छिछोरे आरोपों से शिवाकांत तिलमिला उठा, ‘आप अपने आरोप को साबित कर दें, तो मैं नौकरी ही नहीं, हमेशा के लिए पत्राकारिता छोड़ दूंगा।'

‘मैं यहां कोई अदालत लगाकर नहीं बैठा हूं, जो मुझसे जिरह कर रहे हो। देखो, मैं तुम्हें लास्ट वार्निंग देता हूं। अपने काम पर ध्यान दो, खबर एक भी नहीं छूटनी चाहिए। और...तुम जो इन दिनों राबिनहुड या हातिमताई बनने की कोशिश में हो, वह बंद करो। तुम्हारे ऐसा करने से अखबार की इमेज खराब हो रही है। दिल्ली की मीडिया में अखबार को लेकर बेवजह चर्चा हो, इसे संपादक जी या मालिकान पसंद नहीं कर रहे हैं।' कटियार का स्वर तीखा हो उठा।

उसने शिवाकांत की आंखों में झांकते हुए कहा, ‘सुना है, कल कोई रैली—वैली निकालने जा रहे हो। जाओ, एक कागज पर यह लिखकर लाओ, तुम्हारा उस रैली से कोई लेना—देना नहीं है। दोपहर में संपादक जी का फोन आया था, वे काफी नाराज हो रहे थे। मैंने उन्हें आश्वस्त कर दिया है, तुम्हारा उस प्रोग्राम से कोई मतलब नहीं है। यह बात मैंने तुमसे लिखित ले लिया है। जाओ, जो मैंने कहा है, वह लिख लाओ। ताकि संपादक के सामने मैं झूठा नहीं साबित होउं+। और हो सके, तो इस रैली को होने से रोको।'

‘आपको विश्वास है, मैं ऐसा लिखकर दे सकता हूं? अगर रैली को रोकना मेरे वश में होता, तो भी ऐसा नहीं करता। मैं समझ नहीं पा रहा हूं, इस बात को इतना तूल क्यों दिया जा रहा है? किसी रैली या धरना—प्रदर्शन में शामिल होना, हर व्यक्ति का अधिकार है। अगर मैं भी ऐसी किसी रैली में शामिल होता हूं, तो अपराध कैसे हो गया? यह सच है कि मैं कल जंतर—मंतर पर होने वाले प्रदर्शन में भाग ले रहा हूं।'

‘इसका मतलब यह है कि तुम रैली में भाग नहीं ले रहे हो, यह लिखकर देने को तैयार नहीं हो?' कटियार का स्वर तीखा हो उठा था।

‘नहीं...सर...मैं यह कतई लिखकर देने को तैयार नहीं हूं। आप सोचिए, जो लोग सोनिया को न्याय दिलाने के लिए लामबंद हो रहे हैं, उनके साथ विश्वासघात नहीं

होगा, मेरा कदम पीछे रखना? वे क्या सोचेंगे मेरे बारे में।' शिवाकांत धीरे—धीरे उत्तेजित होने लगा। उसे लगा, वह कटियार की क्षुद्र मानसिकता के चलते कहीं मारपीट पर उतारू न हो जाए। उसकी समझ में कहानी कुछ—कुछ आने लगी थी। वह यह भी समझ गया, आज दिन भर इस अखबार के दफ्तर में जो पकाया गया है, उसकी परिणति किस रूप में होगी।

‘लोग क्या सोचेंगे, यह मेरे लिए महत्वपूर्ण नहीं है। मेरे लिए मायने रखता है कि इस अखबार के मालिकान क्या चाहते हैं और क्या सोचते हैं? अखबार का मैनेजमेंट क्या चाहता है? वह अपने किसी रिपोर्टर के लिए लाखों रुपये के विज्ञापनदाता को खोना नहीं चाहता है।' कांइया न्यूज एडीटर कटियार अब भी तुरुप कार्ड दबाकर चाल चल रहा था। ऐसे खेल के महारथी इसी तरह खेलते हैं कि तुरुप का पत्ता हाथ में ही रह जाए और सामने वाले को मात हो जाए। तुरुप के पत्ते का इस्तेमाल कोई चारा न बचने पर करने वाले लोग ऐसे ही खेल के आदी होते हैं।

‘तो ठीक है, यही बता दीजिए। क्या चाहता है मैनेजमेंट?' शिवाकांत ऐसे खेल से थकने लगा था। वह मामले को निबटाकर खबरें लिखना चाहता था। उसके पास आज भी क्राइम की एक एक्सक्लूसिव स्टोरी थी। लेकिन थॉट और खबरों को चुराने का आरोप लगाकर कटियार ने उसके सारे उत्साह पर पानी फेर दिया था।

‘या तो कल होने वाली रैली या धरना—प्रदर्शन जो कुछ भी है, वह विड्रा हो। उसमें अगर तुम भाग लेते हो, तो तुम्हारी बर्खास्तगी तय है। अभी तुम्हारा प्रॉबेशन पीरियड चल रहा है। तुम्हें हटाने में मैनेजमेंट को कोई खास दिक्कत नहीं होगी। मैं अच्छी तरह से जानता हूं, यह सारा वितंडा तुम्हीं ने खड़ा किया है। अब तुम्हीं इसे साल्व करो।' कटियार ने ड्रॉअर से सिगरेट निकालकर सुलगा लिया।

धुआं शिवाकांत की ओर छोड़ते हुए कहा, ‘जानते हो, अब तक आल एडीशन पैंतीस लाख का विज्ञापन मिला है उन कंपनियों से। भविष्य में भी कई लाख रुपये के विज्ञापन मिलने हैं। तुम्हारे रैली निकालने से क्या हो जाएगा? यह मैं आज तक नहीं समझ पाया हूं। लोगों की थोड़ी बहुत सहानुभूति...बस।'

‘मतलब...मैनेजमेंट या मालिकान के लिए पैसा ही सब कुछ है।'

‘यस...ऑफकोर्स। करोड़ों रुपये खर्च करके मलहोत्राा जी ने दिल्ली टाइम्स क्यों शुरू किया था। पैसे कमाने के लिए ही न। जब किसी संस्थान को फायदा ही नहीं होगा, तो वह अखबार कितने दिन चला पाएगा? घाटे का सौदा तो कोई भी नहीं करना चाहता। चाहे तुम हो, चाहे मैं या फिर कोई दूसरा। अखबार निकालना भी तो एक बिजनेस है। घाटे पर किसी बिजनेस को कितने दिन चलाया जा सकता है?' कटियार ने सवाल दागा।

‘पैंतीस लाख रुपये का विज्ञापन मिल गया, तो मालिक पत्राकारिता के सरोकार को भूल गए। पत्राकारीय सरोकारों को तिलांजलि दे दी। ईमान बेच दिया। पत्राकारिता के कुछ एथिक्स भी हैं या नहीं? उसे भी आप लोग घोलकर पी गए हैं? अब तक हम अखबार वाले स्पेस बेचते थे। अब हम कलम बेचने लगे हैं। जमीर बेचने लगे हैं।' शिवाकांत ने मुंह पर फैल रहे सिगरेट के धुएं को हाथ से इधर—उधर करने का प्रयास किया।

‘तुम किस एथिक्स की बात करते हो, हां? आज का सबसे बड़ा एथिक्स है पैसा। सर्वे गुणाः कांचनम आश्रयंति। सुधी रुदंति, मूर्खाः हसंति। अखबार चलाने के लिए पैसा चाहिए। अखबार में ये जो मोटी—मोटी तनख्वाह पर लोग रखे गए हैं, उनकी तनख्वाह भी इसी विज्ञापनों की बदौलत दी जाती है। कागज, स्याही, ऑफिस का खर्च, फर्नीचर आदि के लिए भी पैसा चाहिए। ये सभी चीजें मुफ्त में नहीं आती हैं। आज जीवन का मूल मंत्रा है, ‘टके लेना, टके देना, बिन टके टकटकायते।' बिना टका के कुछ भी नहीं हो सकता है।' उपहासजनक स्वर में कटियार ने बात पूरी की। साथ में जोड़ना नहीं भूला, ‘कविता, कला, नृत्य, संगीत/प्रेमी—प्रेयसि मन के मीत/रिश्ता, नाता, जग की रीत/बिना अर्थ के जुड़े न प्रीत।'

‘तो क्या समाज, राष्ट्र, देश, रिश्ते—नाते, मानवीय संवेदनाओं का कोई अर्थ नहीं है। उनका कोई मूल्य नहीं रह गया है। आज पैसा ही सब कुछ हो गया।' शिवाकांत के भीतर ही भीतर कुछ दरकने लगा। वह अपने भीतर का दरकना देख भी रहा था और महसूस भी कर रहा था। यह दरकना ही उसको चैन से नहीं बैठने दे रहा था। यह दरकन ही उसे उत्तेजित कर रही थी।

रमानाथ ने सिगरेट का टोटा ऐश ट्रे में कुछ ऐसे रगड़ा, मानो शिवाकांत को दिखाना चाहता हो, अगर तुमने मेरी बात नहीं मानी, तो इसी तरह मसल दिए जाओगे।

‘अच्छा, एक बात बताओ...अगर तुमने कल रैली निकाल ली, तो क्या होगा? क्रांति हो जाएगी इस देश में? जन सैलाब उमड़ पड़ेगा? सरकार जन सैलाब को देखकर हिल जाएगी? सरकार गिर जाएगी? नहीं ...ऐसा कुछ नहीं होगा। तुम जैसे दो—चार सिरफिरे जंतर—मंतर पर इकट्ठे होंगे, इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाएंगे, थोड़ी—बहुत सनसनी फैलेगी। फिर अपने—अपने घर लौट जाएंगे। इससे इतर कुछ नहीं होगा। यह दुनिया जैसी चल रही है, वैसी ही चलती रहेगी। कोई भगत सिंह नहीं पैदा होगा। कोई चंद्रशेखर आजाद नहीं आएगा। जाओ...जैसा मैंने कहा है, वैसा करो और भूल जाओ मामले को।' रमानाथ ने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा।

रमानाथ की बातें सुनकर शिवाकांत को काठ मार गया। वह जवाब तो करारा देना चाहता था, लेकिन उसने शांत रहना ही उचित समझा।

‘कैसे भूल जाउं+, सर! भूल ही तो नहीं पाता। आज बीस—पच्चीस दिन बाद भी सोनिया की आखिरी चीख नहीं भूल पाया हूं। सोते—सोते चौंक जाता हूं। आप कहते हैं, भूल जाउं+। सपने में भी सोनिया का बाहर लटक गया अंग मुझे दिखता है। जांघों के बीच बहकर आया खून मैं ही क्या, शायद आप भी देखते तो नहीं भूल पाते। मेरी जगह आप होते, तो पीड़ा से बाहर निकल आई आंखें देखकर पागल हो गए होते। सोनिया तो मर गई, लेकिन उसकी चीखें आज भी जिंदा हैं। वे चीखें आज भी मेरे कानों में गूंज रही हैं। वे चीखें तब तक जिंदा रहेंगी, जब तक उसे न्याय नहीं मिल जाता।'

‘न्याय मिल ही जाएगा, इसकी उम्मीद है तुम्हें।' रमानाथ ने उपहासात्मक लहजे में कहा, ‘न्यायपालिका का सच तुम भी जानते हो और मैं भी। टके—टके में बिकता है न्याय। सोनिया को न्याय मिल जाएगा, इसका ख्वाब देखना भी छोड़ दो। चलो...जल्दी करो। जो मैंने कहा है, वह लिखकर लाओ। मुझे मैनेजमेंट को खबर करना है, कल रैली में तुम भाग नहीं ले रहे हो। अब आगे से ऐसी नादानी कभी मत करना। जानते हो, जिसके खिलाफ रैली निकालने जा रहे हो, उसमें से एक का बाप हमारा विज्ञापनदाता है। पैंतीस लाख का विज्ञापन उसी ने दिया है। जब उसको पता चला कि उसके बेटे को सजा कराने को कुछ लोग रैली निकालने जा रहे हैं और रैली के अगुवा दिल्ली टाइम्स का एक पत्राकार है, तो उन लोगों ने मलहोत्राा साहब को फोन करके विज्ञापन रोकने और पुराना पेमेंट न देने की धमकी दी है। मलहोत्राा साहब बहुत परेशान हैं उनकी धमकी से।'

‘सर...बिकता होगा टके—टके में न्याय। न्यायपालिका में भी कुछ काली भेडे़ं हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि अच्छे और ईमानदार लोगों का अभाव है। इसी भ्रष्ट न्यायपालिका में बहुत सारे लोग अच्छे और ईमानदार हैं। जिस दिन उनकी संज्ञान में सोनिया की चीख आएगी, सोनिया को न्याय जरूर मिलेगा। जहां तक प्रदर्शन में भाग न लेने का आश्वासन देने का सवाल है, यह मैं नहीं कर सकता। मैंने इतनी भागदौड़ की है, उस पर पानी फेर दूं। यह मेरे वश में नहीं है।'

‘इस्तीफा देना तो तुम्हारे वश में है। चलो, यही कर डालो।' रमानाथ हंस पड़ा, ‘या तो सॉरी लिखो और जाकर काम करो। नहीं तो इस्तीफा दो और घर जाओ।'

शिवाकांत परेशान हो उठा, लेकिन उसने रमानाथ के सामने जाहिर नहीं होने दिया। उसने तल्ख स्वर में कहा, ‘जब सब कुछ आप लोगों ने पहले से ही तय कर लिया है, तो फिर मेरे कहने को कुछ बचता नहीं है। मेरा जो भी फैसला होगा, वह जल्दी ही आपको पता चल जाएगा।' इतना कहकर शिवाकांत झटके से उठा और बाहर निकल गया।

केबिन से बाहर निकलकर उसे लगा, वह मीलों की लंबी दौड़ लगाकर आया है। एक—एक पग उठाना, उसके लिए भारी हो रहा था। अभी कुल चार महीने ही हुए थे उसे अखबार ज्वाइन किए हुए। बेरोजगारी का भयावह दैत्य एक बार फिर उसके सामने खड़ा अट्टाहास करता दिखाई दे रहा था। पता नहीं, किस मनहूस घड़ी में इसी रमानाथ ने सोनिया से हुए बलात्कार की खबर कवर करने को कहा था। दिल्ली के दमघोंटू और उबाऊ वातावरण में वह पहले से ही अपने को समायोजित नहीं कर पा रहा था। देश के विभिन्न शहरों और गांवों से आए लोग दिल्ली में किस कदर मशीन बन जाते हैं, यह उसने इन चार महीनों में ही देख लिया था। दिल्लीवासियों में एक अजीब सी बेरुखी पाई जाती है। कटखने कुत्ते की तरह बौराए हुए, हर बात पर खिसियानी बिल्ली की तरह नोच खाने को आतुर। पता भी भूल से पूछ लो, तो उकताए हुए से ऐसे जवाब देते हैं कि पूछने वाला सिटपिटाकर अपना मुंह सी लेता है।

दिल्ली में रहने वालों में न जाने कौन—सी आग या ऊर्जा थी, जो उन्हें हमेशा गतिमान बनाए रखती है। इसी गतिशीलता में एक उबाऊपन भी शामिल है। ऊपर से भागती—हांफती दिल्ली के भीतरी सतह में एक भय प्रवाहित होता रहता है, किसी अंडर करंट की तरह। ऐसा क्यों था? उसकी समझ में नहीं आता है। लखनऊ में जिस बात पर लोग बड़े उन्मुक्त भाव से ठहाके लगा लिया करते हैं, दिल्ली के लोग उन्हीं बातों पर बनावटी हंसी हंसकर रह जाते हैं। लगता है, हंसे कि औकात हुई कम। कि जैसे हंसने पर कोई अघोषित रोक हो। कि जैसे हंसना दिल्ली में रवायत के खिलाफ है, अशिष्टता है। इसका कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कारण शिवाकांत नहीं सोच पाता। सिर झटककर वह ऐसी बातों से बचने लगता है, लेकिन थोड़ी देर बाद यही सोच, विचार उस पर हावी होने लगते, तो वह झुंझला उठता है।

अपनी सीट पर पहुंचकर ‘धप्प' की आवाज करता हुआ बैठ गया। उसने सिर पकड़ लिया। उसने सामने से जा रहे चपरासी को पानी लाने का इशारा किया। वह सोचने लगा, माधवी को क्या बताए? वह तो यही कहेगी, आपको क्या जरूरत थी सोनिया की चीख सुनने की। नहीं सुनी जा रही थी, तो कान बंद कर लेते। आंखें मूंद लेते। सोनिया आपकी लगती भी क्या थी, जिसको लेकर नौकरी जाने की नौबत आ गई? शायद न भी सोचे। वह एक औरत है और औरत की पीड़ा किसी औरत से बेहतर कोई समझ सकता है क्या? अब उसे क्या बताए कि उसकी बेवकूफी के चलते एक बार फिर नौकरी चली गई? अगर उसने नहीं बताया, तो वह भी गलत होगा। दांपत्य जीवन में झूठ की तो कोई गुंजाइश ही नहीं होती है। पति और पत्नी दोनों जीवन में एक दूसरे के पूरक हैं। कोई पर्दा भी तो नहीं होता दोनों के बीच। कुछ बातें ऐसी भी होती हैं, जो पति—पत्नी एक दूसरे से छिपाते हैं। अब शिवाकांत को भी यह महसूस होने लगा कि नौकरी छूटने की बात उसे न बताए। उसे तो यह बताते हुए शर्मिंदगी महसूस हो रही थी। क्या कहेगा वह माधवी से। चार महीने भी नौकरी नहीं कर सका और इस्तीफा देना पड़ा। एक बार फिर बेरोजगारी का कोबरा अपना विकराल फन उठाए डसने को उसकी ओर बढ़ता चला आ रहा है। माधवी तो यही सोचेगी, उसकी किसी से बनती नहीं है। यही वजह है, उसे या तो नौकरी छोड़नी पड़ती है या फिर निकाल दिया जाता है। अगर वह माधवी को बताए ही न कि उसने नौकरी छोड़ दी है, तो...? लेकिन कल उसे पता तो चल ही जाएगा। कितना नाराज होगी वह? आखिर यह बात कितने दिन छिपाई जा सकती है? ऐसे में उसे सब कुछ साफ—साफ बता देना ही उचित है। ज्यादा से ज्यादा वह नाराज होगी। लेकिन अगर नहीं बताया और उसे किसी से पता चला, तो उसे बहुत दुख होगा। यह फैसला करते ही उसने राहत महसूस की।

चपरासी पानी लाया, तो उसने एक ही सांस में सारा पानी पी लिया।

इसके बाद उसने ड्राअर खोली। अपनी किताबें, नोटबुक्स और अन्य जरूरी चीजें समेटने लगा। उसने चपरासी को बुलाया, ‘सुनो! जाकर कटियार साहब से कह दो, मैं अपनी जरूरी चीजें ले जा रहा हूं। इस्तीफा कल भेज दूंगा।'

थोड़ी देर वह कटियार के जवाब का इंतजार करता रहा। इस बीच पूरे ऑफिस में उसके संस्थान छोड़कर जाने की खबर फैल चुकी थी। लोग एक दूसरे की निगाह बचाकर आते, न्यूज एडीटर कटियार, संपादक मनोज कोठारी के साथ—साथ मैनेजमेंट की निंदा करते, उसके साथ अन्याय होने की बात कहकर सहानुभूति जताते और चले जाते। कुछ लोग खुलेआम शिवाकांत से बातें करते रहे, जैसे उन्हें किसी का कोई भय न हो। अधिसंख्य लोगों के चेहरे पर बातें करते समय एक भय व्याप्त था। वह बाहर निकल रहा था कि रजनीश ने आवाज दी। वह किसी खबर के सिलसिले में गया हुआ था। उसे फोन पर किसी ने यह सूचना दी थी कि शिवाकांत से इस्तीफा मांग लिया गया है।

‘भाई साहब, आपने इस्तीफा दिया ही क्यों? आपने जब कोई गलती नहीं की है, तो इस्तीफा किस बात का? हम ऐसा नहीं होने देंगे। आप इस मामले को प्रेस परिषद में उठा सकते हैं। कोई मजाक है क्या? कि जब चाहा इस्तीफा मांग लिया। जब चाहा टर्मिनेट कर दिया।' रजनीश उत्तेजित था।

‘छोड़ो भी यह सब कुछ। अभी मैंने इस्तीफा नहीं दिया है। कल भेजूंगा। मैं भी ऐसे संस्थान में काम करने का इच्छुक नहीं हूं। जहां तक प्रेस परिषद में मामला उठाने की बात है। इससे कोई फायदा नहीं होने वाला है। इधर प्रेस परिषद में जाउं+गा, तो ये कोई दूसरा आरोप लगाकर निकाल देंगे। अगर बाहर जाते समय गार्ड से कहकर दो अखबार की चोरी का ही आरोप लगा दिया, तो कोई क्या कर लेगा। ऐसा होता है, तो दूसरे संस्थान में भी नौकरी नहीं मिलेगी।'

‘आपने मेरे बारे में सोचा, इसके लिए मैं आभारी हूं।' इतना कहकर शिवाकांत ने अपनी मोटरसाइकिल स्टार्ट की। तब तक चपरासी उसकी जरूरी चीजों को अखबार में लपेटकर ले आया था। उसने उसे साइड में लटक रहे थैले में डाला और निकल गया।

‘अरे शिवानी...तुम्हें कितनी देर लगेगी? नौ बज रहे हैं।' रघुनाथ ने घड़ी देखते हुए कहा।

जंतर—मंतर पर आयोजित होने वाले प्रदर्शन को लेकर वह काफी उत्तेजित था। पिछले दो—तीन दिन से वह ऑफिस से आने के बाद पोस्टर और बैनर तैयार करने में जुटा रहा। लगभग बीस—बाइस पोस्टर और बैनर तैयार हो चुके थे। रात डेढ़ बजे तक सारा काम निबटाकर सोने वाला रघुनाथ सुबह छह बजे ही जाग गया। मोहल्ले की महिलाओं और पुरुषों से मिलकर वह उन्हें जंतर—मंतर चलने को राजी कर चुका था। नहा—धोकर सबसे पहले तैयार भी वही हुआ। उससे अब देरी बर्दाश्त नहीं हो रही थी।

‘बस, आती हूं। साड़ी की तह बार—बार बिगड़ रही है। साड़ी की वजह से देर हो रही है।' शिवानी की आवाज आई।

‘मैं ठीक कर दूं?' रघुनाथ हंस पड़ा।

‘नहीं रहने दो...साड़ी ठीक करते—करते क्या—क्या बिगाड़ दोगे, यह मैं बखूबी समझती हूं।'

‘उफ! तुम्हें आज साड़ी पहनने की क्या सूझी। कोई दूसरी ड्रेस पहन लेती। आज जब जल्दी है, तो पूरा शृंगार करने लगी।' रघुनाथ बेसब्र था। दरअसल, आज उसे लीक से हटकर कुछ करने का मौका मिला था। यही वजह थी, वह अधीर हो रहा था।

शिवानी कमरे से बाहर आई, तो रघुनाथ उसे देखकर दंग रह गया। उसका मन हुआ, वह टेसू से दहकते सुर्ख होंठों पर किसी भंवरे की तरह जा बैठे, लेकिन उसने अपने पर काबू किया। शिवानी उसके मनोभावों को समझ गई। वह आहिस्ता—आहिस्ता उसके पास पहुंची। दोनों हाथों से उसके सिर को पकड़कर तपते अधर पर सुर्ख टेसू रख दिया।

‘घर से मुंह मीठा करके निकलना शुभ होता है' कहकर शिवानी इठलाती हुई हंस पड़ी। दोनों घर से निकलकर सड़क तक आए। मोहल्ले की औरतों और पुरुषों ने हाथों में तख्तियां, पोस्टर और बैनर ले रखे थे। एक बुजुर्ग महिला ने शिवानी से कहा, ‘बहू! सिंदूर नहीं लगाया। सुहागिन के माथे का गहना तो यही सिंदूर ही है। खाली मांग अच्छी नहीं लगती।'

महिला की बात सुनकर शिवानी और रघुनाथ अचकचा गए। दोनों से कोई जवाब नहीं सूझा। बात टालने की गरज से रघुनाथ ने कहा, ‘अम्मा...वो क्या है, हम दोनों को देर हो रही थी, इसलिए...।'

‘ऐसी भी क्या जल्दी...बेटा कि सुहागिन सिंदूर लगाना भूल जाए।' महिला को उसके जवाब से संतोष नहीं हुआ।

‘माता जी, सिंदूर की डिब्बी कहीं रखकर भूल गई। कल से ही नहीं मिल रही है। आज शाम को लौटते हुए समय निकालकर नई डिबिया जरूर खरीद लूंगी।' शिवानी ने अटकते हुए जवाब दिया। झूठ बोलते समय उसकी जुबान अटकने लगी थी। वह लोगों को कैसे समझाती, उसने रघुनाथ के साथ अग्नि के सात फेरे नहीं लिए हैं। उसका और रघुनाथ का मन का बंधन है, जो अग्नि या लोगों के साक्षी होने का मोहताज नहीं है। उसे फेरों का बंधन स्वीकार नहीं। जब वह यह बात सोच रही थी, तो उसके अंतर में छिपी बैठी भारतीय नारी ठठाकर हंस पड़ी। कभी उसने भी सपना देखा था, उसके सपनों का राजकुमार एक दिन घोड़े पर बैठकर आएगा। उसे ब्याह कर ले जाएगा। उसे भी दूसरी लड़कियों की भांति हल्दी लगेगी, बारात आएगी, धूम—धड़ाका होगा, अग्नि के चारों ओर फेरे होंगे। वह पति पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देगी। लेकिन ऐसा कहां हुआ? उसे तो बिन ब्याह एक बच्चे को जन्म देना पड़ा। और फिर...रघुनाथ तो उससे विवाह करने को तैयार ही था। वही स्वाधीनता की तस्बीह फेरती फिर रही थी। विवाह को वही तैयार नहीं हुई थी।

रघुनाथ ने हौले से उसकी पीठ पर हाथ रखा, तो उसकी तंद्रा भंग हुई। रघुनाथ ने उसे आगे बढ़ने का इशारा किया, ‘अब आप लोग चल दीजिए। वहां पहुंचते—पहुंचते देर हो जाएगी।'

सबने तख्तियां, बैनर और पोस्टर उठा लिये। फिर दो—तीन दर्जन लोगों ने कतारबद्ध होकर नारा लगाया, ‘सोनिया के हत्यारों को फांसी दो...सोनिया के बलात्कारियों को फांसी दो।'

जुलूस की शक्ल में लोग धीरे—धीरे अपने गंतव्य की ओर चल पड़े। रघुनाथ बीच—बीच में जोर—जोर से नारे लगाता जा रहा था। उसका उत्साह देखते ही बनता था। रघुनाथ और शिवानी अपने समूह के साथ जंतर—मंतर पहुंचे, तो पाया शिवाकांत पहले ही पहुंच चुका था। कई संस्थाओं ने अच्छी भीड़ जुटा ली थी। लगभग डेढ़ हजार की भीड़ इकट्ठी हो चुकी थी। रैली की शक्ल में आए लोग अब धरना स्थल पर बैठने लगे थे। लोग सरकार और बलात्कारियों के खिलाफ नारे लगा रहे थे। कुछ नेता टाइप लोग धरना देने वालों को समझाने की कोशिश में थे, शांति से जुलूस निकालकर धरना देने से कुछ होने वाला नहीं है। सरकार और न्यायपालिका कोई नोटिस लेने वाली नहीं है। भगत सिंह को भी अंधी—बहरी ब्रिटिश हुकूमत के कान के पास धमाका करना पड़ा था। यह तो अपने देश की सरकार है, जो पैदाइशी गूंगी—बहरी है। जब तक सड़कें ब्लाक नहीं की जातीं, बसों का चक्का जाम नहीं किया जाता, तब तक कुछ नहीं होने वाला। इस तरह वर्षों तक पड़े रहो, कोई पूछने नहीं आएगा।

इन लोगों की बातें रघुनाथ के कानों तक पहुंची। उसने शिवाकांत को इन बातों से अवगत कराने को खोजा, लेकिन वह नहीं मिला। अब उसकी समझ में आने लगा था, शांतिपूर्ण ढंग से आयोजित धरने को कुछ लोग हिंसक बना देना चाहते हैं। आग बोना चाहते हैं। अभी कल ही तो रघुनाथ और शिवाकांत ने तय किया था, जब लोग जंतर—मंतर पर इकट्ठा होंगे, तो उन्हें नियंत्रिात करना सबसे बड़ी चुनौती होगी। कुछ लोगों को भीड़ को नियंत्रिात करने के लिए लगाना होगा। यहां तो कुछ और ही कहानी रची जा रही थी। उसने चारों ओर नजर दौड़ाई, शिवाकांत कहीं नजर नहीं आया। वह परेशान हो उठा। उसकी छठी इंद्री बार—बार संकेत कर रही थी, कोई अनर्थ होने वाला है। कुछ ऐसा घटित होने वाला है जिसकी कल्पना उसने नहीं की होगी। लेकिन क्या? इसका कोई स्पष्ट आभास नहीं मिल पा रहा था।

रघुनाथ असहाय सा देखता रहा, लगभग एक दर्जन लोग भीड़ से अलग हुए। जंतर—मंतर के पास वाली सड़क पर आ खड़े हुए। यहां कुछ पुलिस कर्मी तैनात थे। भीड़ से अलग हुए लोग सड़क के बीचोबीच आकर खड़े हो गए। उनके ऐसा करते ही आवागमन बाधित हो उठा। तेज रफ्तार में दौड़ते वाहनों के पहिए चीख उठे। पुलिसकर्मियों ने पहले उन्हें समझा—बुझाकर वापस भेजने का प्रयास किया, लेकिन वे नहीं माने। उधर, सड़क पर गाड़ियों की कतार लंबी होती जा रही थी, तो दूसरी ओर पुलिस की अधीरता अजगरी अंगड़ाइयां लेने लगी थी। पुलिस वाले सड़क के बीचोबीच खड़े लोगों को अपनी अजगरी गिरफ्त में लेने को आकुल हो उठी। समझाने पर भी लोग नहीं माने, तो पुलिस ने लाठियां भांजनी शुरू कर दी। लाठीचार्ज से सड़क पर आ—जा रही महिलाओं और बच्चों में घबराहट फैल गई। वे चीखती—चिल्लाती इधर—उधर भागने लगीं। जंतर—मंतर पर जमा लोग सड़क की ओर भाग छूटे। इसी बीच पता नहीं कहां और किस ओर से सनसनाता हुआ एक पत्थर आया। परिणामस्वरूप एक पुलिसकर्मी रक्त रंजित हो उठा। सिर पकड़कर चिल्लाता हुआ पुलिस कर्मी जमीन पर ढेर हो गया। अपने साथी को रक्त से नहाया देखकर पुलिस वाले पागल हो उठे। एक सब इंस्पेक्टर ने चीख मारी, ‘सालों को मार—मार कर ढेर कर दो।' सब इंस्पेक्टर के मारने—पीटने का निर्देश देने से पहले पुलिस वाले अपने काम में जुट गए थे। निहत्थी भीड़ पर पुलिस ने लाठियां भांजनी शुरू कर दीं। जो सामने आया, उसे रुई की तरह धुन डाला। महिलाओं और बच्चों को भी नहीं बख्शा। भागती भीड़ जंतर—मंतर की ओर वापस मुड़ी, तो पुलिस ने खदेड़ लिया।

भगदड़ में रघुनाथ ने अपने को बचाते हुए शिवानी को खोजा। वह कहीं नजर नहीं आई। उसने मन ही मन सोचा, अभी तो यहीं खड़ी बात कर रही थी। पलक झपकते ही कहां गायब हो गई? अब उसे खोजूं भी, तो कहां? उधर, पुलिस भीड़ को खदेड़ती आ रही थी। उसने देखा, दर्जनों लोग जमीन पर गिरे पड़े थे। पुलिस की निर्दयता चरम पर थी। लोग चीख रहे थे, कराह रहे थे, हाथ जोड़कर छोड़ देने की विनती कर रहे थे। अपने साथी को रक्तरंजित देखकर पुलिस वाले तो जैसे बहरे हो गए थे। दर्जन भर पुलिस वाले सुरसा के मुंह की तरह बढ़ते जा रहे थे। लगभग सवा सौ पुलिस कर्मचारी भीड़ को किसी तरह नियंत्रिात करने में जुट गए। रघुनाथ को लगा कि पूरे इलाके में तैनात पुलिस वाले यहीं आ जुटे हैं।

लाठीचार्ज की खबर फैलते ही प्रेस फोटोग्राफर और रिपोर्टर जंतर—मंतर पर पहुंचने लगे। जब तक पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों का जमावड़ा होता, तब तक दर्जनों लोग धराशायी हो चुके थे। चोटिल होकर जमीन पर पड़े कराह रहे थे। रघुनाथ बेचैन निगाहों से शालिनी को खोजता फिर रहा था। काफी दूर जाने पर फुटपाथ पर शालिनी को घायल पड़ा देखा, तो वह बदहवास होकर दौड़ा। घायल शालिनी की तस्वीर खींचने में व्यस्त प्रेस फोटोग्राफर से उसने शालिनी को अस्पताल पहुंचाने में मदद मांगी। उसने यह भी बताया, घायल शालिनी भी पत्राकार है, लेकिन उसने अनसुना कर दिया। तब तक कुछ पत्राकार भी उसके इर्द—गिर्द जमा हो गए। उनमें से एक ने पूछा, लाठीचार्ज क्यों हुआ? पुलिस कांस्टेबल कैसे घायल हुआ? पहल किसने की? पुलिस वालों ने या भीड़ ने? कितने लोग घायल हुए हैं? उनके नाम क्या हैं? पत्राकार और फोटोग्राफर की खबर और फोटो में ही रुचि थी, वे घायल की मदद करने या उन्हें अस्पताल पहुंचाने में मदद करने को तैयार नहीं थे।

रघुनाथ को देख शालिनी ने खड़ी होने का प्रयास किया। लाठी प्रहार से फटे सिर से रक्तधारा बह रही थी। रक्त कान की बगल से बहता हुआ वक्ष पर बूंद—बूंद टपक रहा था। रघुनाथ ने लपक कर उसे सहारा दिया। शालिनी ने कराहते हुए सिर्फ इतना कहा, ‘रघु...मुझे अस्पताल ले चलो। दर्द बहुत हो रहा है। मुझे चक्कर आ रहे हैं।'

इतना कहकर वह गिरने को हुई, तो रघुनाथ ने मजबूती से थाम लिया। वह उसे सहारा देकर लगभग घसीटते हुए सड़क तक लाया। उसे लगभग घसीटते हुए काफी दूर तक जाना पड़ा। फोटोग्राफर उसकी मशक्कत को कैमरे में कैद करते रहे, लेकिन मदद को कोई आगे नहीं आया। घटनास्थल से काफी दूर आने पर एक खाली जा रहे ऑटो को रुकवाया और शालिनी को लेकर बैठ गया, ‘जल्दी से किसी अस्पताल पहुंचाओ।'

ऑटो चालक उसे दयावती नर्सिंग होम लेकर पहुंचा। तब तक कुछ और घायलों को एंबुलेंस की तीन गाड़ियां दयावती नर्सिंग होम लेकर पहुंच चुकी थीं। शायद किसी राहगीर या पुलिस वाले ने नर्सिंग होम को फोन कर दिया था। घायलों में ज्यादातर धरने में शामिल होने आए लोग थे। चार—पांच पुलिस वाले भी थे। शालिनी को अस्पताल पहुंचाने के बाद रघुनाथ को शिवाकांत की चिंता हुई। वह भी इन घायलों में शामिल तो नहीं है? या उसे पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया है? वह शिवाकांत के प्रति चिंतित होते हुए भी उसकी खोज में नहीं जा सकता था। नर्सिंग होम स्टाफ शालिनी को लेकर अंदर जा चुका था। उसे उत्सव की चिंता अलग से सताने लगी। उसने पड़ोसी गुप्ता जी को फोन करके बता दिया, उत्सव स्कूल से आए, तो वह उसे अपने घर में रख लें। वह शाम को आकर उसे ले लेगा।

शालिनी को अस्पताल में भर्ती हुए तीन दिन बीत चुके थे। उसके सिर में गहरी चोट आई थी। रघुनाथ आईसीयू के बाहरी हिस्से में बैठा शीशे से शालिनी को निहारता रहता था। वह उत्सव को उसी शाम घर जाकर ले आया था। उत्सव भी तीन दिन से उसकी ही गोद में सोता था।

‘पापा...मम्मा को क्या हुआ है? वह बोलती क्यों नहीं?' कहकर उत्सव जब शालिनी के पास जाने की जिद करता, तो वह लाख कोशिश के बावजूद अपने आंसू नहीं रोक पाता।

डॉ. वीना मल्होत्राा ने आशा व्यक्त की थी, शायद आज उसे होश आ जाए। दिमाग में जमे खून के थक्कों को दवाइयों के सहारे हटाने की कोशिश हो रही है। लाठीचार्ज से उसके दिमाग की नस फट जाने से बहा खून जमा हुआ है, जब तक थक्के को वहां से रिमूव नहीं किया जाता, तब तक कुछ कहना जल्दबाजी होगी। डॉ. मल्होत्राा की बात सुनकर सिर्फ गहरी सांस लेकर रह गया था रघुनाथ। कुछ कहने के बजाय उसने सिर्फ थरथराते हाथ जोड़ लिए थे। आईसीयू के बाहर की गैलरी में बिछी चादर पर सो रहे उत्सव पर उसने निगाह डाली।

और फिर...दीवार से सिर टिकाकर सोने की कोशिश करने लगा। वह सोचने लगा, शिवाकांत पता नहीं किस हालत में होगा? क्या पता वह भी किसी अस्पताल में पड़ा शालिनी की तरह जीवन—मौत के बीच संघर्ष कर रहा हो? तीन दिन से वह लगातार शिवाकांत के मोबाइल पर संपर्क करने की कोशिश कर रहा था, लेकिन रिंग जा ही नहीं रही थी। कई बार तो रघुनाथ झुंझला उठा। उसे अपनी बेबसी पर रोना आ रहा था। शालिनी को ऐसी हालत में छोड़कर भी तो वह कहीं नहीं जा सकता था।

उसे झपकी आई ही थी कि नर्स ने उसका कंधा पकड़कर हिलाते हुए कहा, ‘तुम्हारे पेशेंट को होश आ गया है। मैं डॉ. मल्होत्राा को फोन करने जा रही हूं। तुम्हारे पास सिर्फ चार—पांच मिनट हैं। चाहो तो पेशेंट को देख लो। उसके बाद पेशेंट से मिलने की इजाजत डॉ. मल्होत्राा से लेनी होगी।' यह कहकर वह चली गई।

रघुनाथ हड़बड़ा गया। वह तेज कदमों से शालिनी के पास पहुंचा। उसके सिर पर पट्टियां बंधी हुई थीं। उसने रघुनाथ को पास आने का इशारा किया। वह शालिनी के चेहरे पर झुक गया, ‘धीरज रखो, सब ठीक हो जाएगा।'

शालिनी के मुंह से अस्फुट स्वर फूटा, ‘उत्सव...कहां...है?'

‘यहीं...बाहर सो रहा है। जगाउं+ क्या उसे?'

शालिनी ने हाथ के इशारे से मना कर दिया। पलभर कुछ सोचती रही। फिर उसने दाहिने हाथ की अनामिका को सिर के उस हिस्से पर कुछ ऐसे फिराया, मानो सिंदूर से मांग भर रही हो। वह शालिनी के मन की पीड़ा समझ गया। जब वह शालिनी से सिंदूर लगाने को कहता था, भले ही दुनिया को दिखाने के लिए। तब वह इसे नारी स्वतंत्राता में बाधक बताकर इंकार कर देती थी। वह कहती थी, ‘इसी दो चुटकी सिंदूर ने हम औरतों को सदियों से गुलाम बना रखा है। फिर हमारा विवाह तो हुआ नहीं है, न समाज के सामने, न मैरिज रजिस्ट्रार के सामने। एक मैचुअल अंडरस्टैंडिग है। उसी मैचुअल अंडर स्टैंडिंग के तहत हम साथ रह रहे हैं, फिर दिखावा काहे का।'

अब जब मरणासन्न हालत में है, तो चुटकी भर सिंदूर के बारे में सोच रही है। पगली कहीं की। क्या पता, जीवन भर बिछुआ और सिंदूर का विरोध करने वाली नारी के अंतरमन में कहीं न कहीं इसके प्रति मोह छिपा रहा हो। यह मोह संकट के समय में जोर मारने लगा हो।

उसे डॉ. मल्होत्राा की आवाज सुनाई दी। वह नर्स को किसी मरीज की पट्टी बदलने का इंस्ट्रक्शन दे रही थीं। उसने शालिनी की बांह को हौले से थपथपाकर आश्वस्त किया और बाहर जाने को मुड़ा ही था कि डॉ. मल्होत्राा आ गर्इं।

उसे देखते ही भड़क उठीं, ‘अरे! इन्हें यहां किसने आने दिया? निकालो इन्हें बाहर।'

वह शालिनी की ओर मुड़ीं। शालिनी का शरीर सफेद चादर से ढका हुआ था। उन्होंने चादर हटाकर कलाई थाम ली। चादर कुछ ज्यादा ही खिंच गई थी। उनकी निगाह शालिनी की जांघों के बीच पड़ी, तो वह चौंक उठीं, ‘अरे! पेशेंट को ब्लीडिंग हो रही है। लगता है, प्रेग्नेंट थी। किसी वजह से मिसकैरेज हो गया है। इसे जल्दी से ओटी में ले चलो।'

बाहर जाता हुआ रघुनाथ एक बार फिर पलटा। उसने देखा, शालिनी के निचले हिस्से से निकलता रक्त का धब्बा फैलता जा रहा है। शालिनी नर्सों और डॉ. मल्होत्राा को टुकुर—टुकुर निहार रही थी। मानो उसे किसी प्रकार की अनुभूति नहीं हो रही हो। रघुनाथ घबरा गया, ‘डॉक्टर...।'

‘शटअप...यहां से बाहर निकलिए। नर्स, इन्हें बाहर निकालो। ओटी वालों को फोन करो, वे तैयार रहें। शायद ऑपरेशन करना पड़े।' डॉ. मल्होत्राा शालिनी की जांच करने लगीं।

रुंआसा रघुनाथ आईसीयू से बाहर आ गया। उसने देखा, उत्सव गहरी निद्रा में सो रहा है। उसे उत्सव पर प्यार और दया एक साथ आई। उसकी मासूमियत और चंचलता रघुनाथ का मन मोह लेती थी। उत्सव को देखकर उसने कभी यह महसूस नहीं किया, वह उसका बेटा नहीं है। उसने उत्सव के सिर पर हाथ फेरना शुरू किया। चक्षुकोटरों से बाहर निकलने को आतुर अश्रुओं को जब वह रोकने में असफल रहा, तो फूट—फूटकर रो पड़ा। उसने सिसकते हुए अपना गाल उत्सव के गाल से सटा लिया। उसने देखा, आईसीयू में डॉक्टर और नर्सों की चहलकदमी बढ़ गई थी। नर्सें हड़बड़ाती हुई अंदर जातीं और बड़बड़ाती हुई निकलती थीं। वह उनसे कुछ पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था।

थोड़ी देर बाद उसने देखा, स्ट्रेचर पर शालिनी को लेकर वार्ड ब्वाय ऑपरेशन थियेटर की ओर जा रहा है। पता नहीं क्यों, उसका मन भारी हो गया। उसे लगा, शालिनी उससे क्या...पूरी दुनिया से नाता तोड़कर जा रही है। उसे तो शायद अब उत्सव से भी मोह नहीं रहा। उसने उत्सव को चूम लिया। सिसकियों को सुनकर वार्ड के अन्य मरीजों के परिचारक उसके पास सिमट आए।

एक बुजुर्ग ने उसके सिर पर हाथ रखते हुए कहा, ‘बेटा! धीरज रखो। सब ठीक हो जाएगा। मुझे देखो, बेटा आठ साल पहले साथ छोड़कर चला गया था। टीबी हो गई थी उसे। मैं फूट—फूटकर रोया था उसकी मौत पर। लगा, मैं टूटकर बिखर जाउं+गा। पागलों जैसी दशा हो गई थी मेरी।'

इतना कहकर बुजुर्ग ने अपनी झुकी कमर सीधी की। उसने आईसीयू की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘वो उधर...चार नंबर बेड पर जो लेटी मौत से जूझ रही है, वह मेरी बहू है। जब मेरा बेटा मरा था, तब चार महीने की गर्भवती थी। लेकिन मजाल है, उसने मुझे बेटे की कमी महसूस होने दी हो। बेटा बनकर मेरी देखभाल की। जिंदगी भर राक्षस से लड़ती रही। गरीबी किसी राक्षस से कम नहीं है बेटा। अंधेरी रातों में विषधर जब भी उसे डसने आए, तो साहस की लाठी लेकर उनका मुकाबला किया। आज देखो तो, किस तरह शांति से सोई पड़ी है। थोड़ी देर पहले चिल्ला रही थी, बप्पा बचा लो

...बप्पा बचा लो। चिरौरी करने पर डॉक्टर ने सुई लगाई, तो उसे नींद आई। डॉक्टर कहते हैं, उसे कैंसर है। खून का कैंसर। पहली बार बीमार पड़ी थी तो कहती थी, बप्पा! अगर मुझे कुछ हो जाए, तो रोना नहीं। जिस दिन मैंने तुम्हारी आंखों में आंसू देखा, उस दिन समझूंगी कि मैं हार गई। उसे जैसे एहसास हो गया है, वह नहीं बचेगी। एक दिन जब दर्द बहुत ज्यादा था, तो उसने मेरा हाथ पकड़कर कहा था, बप्पा! जब तक जीना, दविंदर का ख्याल रखना। उसके बाद भगवान की मर्जी। ऊपर वाला जैसा उसे रखना चाहेगा, वह वैसे ही रह लेगा।' कहते—कहते बुजुर्ग की आवाज भर्रा गई। वह रघुनाथ को सांत्वना देते—देते खुद रो पड़ा।

इंसान कितना ही मजबूत हो, दुख की घड़ी उसे कमजोर और निरीह बना देती है। बुजुर्ग आया तो था रघुनाथ को सांत्वना देने, लेकिन अपना दुख बताते—बताते रोने लगा। जब दो दुखी हृदय एक साथ होते हैं, तो दुखों की अनुभूतियों का प्रवाह सघन से विरल की ओर होने लगता है। एक समय ऐसा आता है, जब दुखों का घनत्व दोनों हृदय में एक समान हो जाता है। ऐसे में या तो कुछ समयांतराल बाद दोनों एक दूसरे को सांत्वना देकर चुप हो जाते हैं या फिर अपनी—अपनी दुखभरी गाथा सुनाकर एक दूसरे की सहानुभूति पाने की कोशिश करते हैं।

रघुनाथ अपना दुख भूल गया। उसने आंसुओं को पोंछते हुए कहा, ‘दादा! धीरज रखिए। भगवान ने चाहा, तो आपकी बहू जल्दी ठीक हो जाएगी।'

रघुनाथ की बात सुनकर बूढ़े आदमी की आंखों में विषाद और होठों पर फीकी मुस्कान उभरी। रघुनाथ कुछ कहता, अस्पताल में जगह—जगह लगे स्पीकर से एनाउंसमेंट किया जाने लगा।

‘बेड फोर्टीन की पेशेंट मिसेज शालिनी के अटेंडेंट ग्राउंड फ्लोर पर बिलिंग डिपार्टमेंट से संपर्क करें। बेड फोर्टीन के पेशेंट...।' यह एनाउंसमेंट कई बार दोहराया जाने लगा।

एनाउंसमेंट सुनते ही रघुनाथ उठ खड़ा हुआ। उसने उत्सव को धीरे से जमीन पर लिटाया। बुजुर्ग से बोला, ‘दादा! बच्चे का ख्याल रखना, मैं अभी आता हूं।'

पेशेंट का नाम बताने पर बिलिंग क्लर्क ने फार्म आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘आपके पेशेंट का इमरजेंसी आपरेशन करना पड़ रहा है। आपको तत्काल फार्म भरना होगा। पैंतालिस हजार रुपये जमा कराने होंगे।' इतना कहकर वह रसीद बनाने लगा।

‘देखिए, पैसे की व्यवस्था तो अभी नहीं हो सकती है। बहुत जल्दी व्यवस्था करूंगा, तो भी सुबह के दस बज ही जाएंगे। हां, अगर आप चाहें, तो फार्म अभी भर दे सकता हूं।'

‘कोई बात नहीं ...आप स्लिप पर दस्तखत कर दें। पेमेंट आप दोपहर तक जरूर जमा करवा दें।' बिलिंग क्लर्क ने स्लिप आगे बढ़ाते हुए कहा।

रघुनाथ ने भारी मन से स्लिप पर दस्तखत किए। वह इन अस्पतालों की लुटेरी प्रवृत्ति से वाकिफ था। चार—पांच साल पहले की बात है। उसकी चचेरी बहन अंशुल के गर्भाशय में रसौली हो गई थी। बाराबंकी के नीम हकीम डॉक्टरों ने उसे साल भर तक खूब चूसा। इस डॉक्टर से उस डॉक्टर तक चक्कर लगाते—लगाते जब अंशुल की ससुराल वाले थक गए, तो उसे एक दिन मायके में पटक गए। उन दिनों एक सप्ताह के लिए रघुनाथ गांव गया हुआ था। अंशुल की हालत देख वह रो पड़ा। हफ्ते भर बाद जब वह लखनऊ आने लगा, तो अंशुल को भी साथ लेता आया। उसने इंदिरा नगर के एक मशहूर नर्सिंग होम में अंशुल को भर्ती करवा दिया। डॉ. वीके सार्थ ने आनन—फानन कई टेस्ट लिखे। टेस्ट के नाम पर बाइस हजार रुपये का बिल थमा दिया गया। रिपोर्ट आने पर डॉ. सार्थ ने कहा, ‘देखिए! आप लोगों ने इतनी देर कर दी है कि मैं क्या कहूं? मरीज की हालत अच्छी नहीं है। तत्काल ऑपरेशन करना पड़ेगा। उल्टी—सीधी दवाओं ने हालात और बिगाड़ दिए हैं। जितनी जल्दी हो सके, ऑपरेशन करा लेने में ही भलाई है।'

डॉ. सार्थ की गंभीरता से रघुनाथ मन ही मन डर गया। वह डॉक्टर की केबिन से बाहर निकला ही था कि चचेरा भाई उसे खोजता हुआ मिल गया।

‘भइया, जल्दी कीजिए। दीदी रो रही हैं।' पंद्रह वर्षीय अनिकेत ने घबराये स्वर में कहा।

रघुनाथ भागकर वार्ड में पहुंचा। अंशुल जिबह होती बकरी की तरह छटपटा रही थी। वह भागकर नर्स के पास गया। बोला, ‘मरीज की तबीयत बिगड़ रही है। जरा उसे देख लें। डॉक्टर को भी सूचित कर दें।'

वार्ड ब्वाय से गप्पें लड़ाती नर्स वार्ड की ओर दौड़ी। अंशुल पेट पकड़े छटपटा रही थी। वार्ड ब्वाय की सूचना पर डॉ. सार्थ के साथ डॉ. रत्ना जोशी और अन्य स्टाफ पहुंच गया। डॉ. जोशी के कहने पर स्टाफ ने अंशुल को स्ट्रेचर पर लादा और ऑपरेशन थियेटर की ओर ले भागे। ऑपरेशन थियेटर से दो घंटे के बाद निकले डॉ. सार्थ और डॉ. जोशी ने मुंह लटकाते हुए कहा, ‘सॉरी...यंगमैन! हम पेशेंट को नहीं बच सके।'

डॉ. पार्थ ने सांत्वना देने को उसकी पीठ थपथपाई, ‘बॉडी मिलने में अभी दो—तीन घंटे लगेंगे। तब तक आप नोड्यूज करा लें। पेशेंस रखो, भगवान को शायद यही मंजूर था। वैसे भी आप लोगों ने काफी देर कर दी थी। शुरुआत में ही ले आए होते, तो कम से कम पेशेंट की मौत नहीं होती। वैसे भी कोई इतना बड़ा केस नहीं था।'

डॉक्टर्स के साथ—साथ ओटी स्टाफ आगे बढ़ गया। रघुनाथ लुटा—पिटा वहीं खड़ा रहा। फिर वह फफककर रो पड़ा। अंशुल के साथ आए अन्य लोगों ने नर्सिंग होम का बकाया जमा किया। डेडबॉडी लेकर निकले, तो कुछ दिन पहले नर्सिंग होम से निकाले गए वार्डब्वाय निक्काराम ने पूछ लिया, ‘डेडबॉडी ले आए, भइया! मुर्दा के ऑपरेशन का कितना वसूला इन कसाइयों ने?'

रघुनाथ चौंका, ‘क्या मतलब? मुर्दे के ऑपरेशन से तुम्हारा क्या मतलब है?'

‘यह बेचारी तो ऑपरेशन थियेटर में पहुंचने से पहले ही दम तोड़ गई थी। तब मैं अपना बकाया वेतन लेने डॉ. कश्यप के पास जा रहा था। रास्ते में ही ओटी इंचार्ज वैभव ने चौंक कर कहा था, अरे यह तो मर गई। तब डॉ. रत्ना ने आंखें तरेरते हुए कहा था, बकवास मत कर। भइया, इन कसाइयों ने दो घंटे तक ऑपरेशन का नाटक कर शरीर को यहां काटा, वहां काटा और सी दिया।'

‘मैं इनका पर्दाफाश करूंगा। इन्हें जेल भिजवाउं+गा।' चीख पड़ा था रघुनाथ।

‘कुछ नहीं कर पाओगे, भइया। कोई इनके खिलाफ गवाही नहीं देगा, मैं भी नहीं। अब इस उम्र में कहीं नौकरी खोजूं या गवाही के चक्कर में अदालत के फेरे लगाउं+। अब धीरज के अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं है। और फिर इस मिट्टी की दुर्गति न कराओ। इसे जितनी जल्दी हो सके, सद्‌गति को पहुंचा दो।' इतना कहकर निक्काराम चलता बना।

रात ढाई बजे शालिनी चल बसी। अथक प्रयास के बावजूद डॉ. मल्होत्राा उसे बचा नहीं सकीं। रघुनाथ उसकी मौत की खबर पाकर उत्सव को सीने से लगाकर रो पड़ा। उसे रोता देखकर उत्सव भी रोने लगा। दोनों सुबह तक रोते रहे। धीरे—धीरे जब आंसू सूखने लगे, तो रघुनाथ को अपने कर्तव्य का एहसास हुआ। उसने बाहर निकलकर मित्राों और शालिनी के ऑफिस वालों को फोन करके हादसे की सूचना दी। दो घंटे बाद पांच—छह लोग आ गए। शालिनी की सहेली अनामिका दहाड़े मार कर रो रही थी। रोते—रोते वह कभी उत्सव को सीने से लगाती, तो कभी शालिनी का मुखड़ा दोनों हथेलियों में लेकर विलाप करती। अनामिका पिछले सात महीने से अपने पति बलविंदर सिंह चटवाल के साथ हिंदुस्तान में थी। उसके पति ने आस्ट्रेलिया का कारोबार समेट कर भारत में ही बसने का फैसला किया, तो उसने सबसे पहले यह खबर शालिनी को दी थी। दिल्ली में उनके सेटल होने में भी शालिनी ने काफी मदद की थी।

रघुनाथ के सहकर्मी प्रतीक पांडेय ने अस्पताल बिल के बारे में दरियाफ्त किया, तो स्टाफ ने उसे बिलिंग कार्यालय भेज दिया। बिलिंग क्लर्क ने नाम पूछने पर रजिस्टर पलटते हुए कहा, ‘आपको सिर्फ बत्तीस हजार रुपये जमा कराने हैं। डॉ. मल्होत्राा ने अपनी फीस लेने से इंकार कर दिया है। उन्होंने आपरेशन थियेटर और अन्य मदों में वसूली जाने वाली फीस भी माफ कर दी है।'

कानूनी औपचारिकताएं पूरी करते—करते लगभग बारह बज गए। डेडबॉडी लेकर रघुनाथ घर पहुंचा। लाश सुरक्षित रखने की व्यवस्था करने के बाद उसने अविनाश ठाकुर से पूछा, ‘शिवाकांत की कोई खबर है?'

अविनाश ठाकुर ने बताया, ‘शिवाकांत भी एक अस्पताल में भर्ती है। लाठीचार्ज के दौरान वह काफी घायल हो गया था। भगदड़ में उनका मोबाइल पता नहीं कहां गिर गया? किसी से संपर्क करते भी तो कैसे? शिवाकांत के बायें हाथ में फ्रैक्चर है। बड़ी मुश्किल से वे दीपक तक अपना संदेश पहुंचवा सके थे। आप भी परेशान थे, इसलिए आपको यह जानकारी नहीं दी गई थी। सुरेश को भेजा गया है शालिनी की मौत की खबर लेकर उनके पास।'

शाम चार बजे दाह संस्कार के लिए शव ले जाते समय शिवाकांत भी आ गया। उसके शरीर पर जगह—जगह पट्टियां बंधी थीं। हाथ में प्लास्टर चढ़ा हुआ था। वह शालिनी की लाश को देखते ही बिलख उठा। वह अपने को शालिनी की मौत का जिम्मेदार मान रहा था। रघुनाथ से वह आंख मिलाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। रघुनाथ को देखते ही उसके कंधे से लगकर फूट—फूट कर रो पड़ा। शालिनी का दाह संस्कार रघुनाथ ने मासूम उत्सव करवाया। शालिनी के परिजनों ने उसके अंतिम संस्कार में भाग लेने से इंकार कर दिया था। दाह संस्कार के बाद अविनाश ठाकुर रघुनाथ के साथ बाद तक खड़ा रहा। उसे विश्वास नहीं हो रहा था, शालिनी अब उनके बीच नहीं है।

मोबाइल फोन की घंटी बजी। शिवाकांत खाना खाते—खाते चौंक पड़ा। उसने जल्दी से कौर हलक के नीचे उतारा। बायें हाथ से सामने रखा मोबाइल फोन उठा लिया। स्क्रीन पर नजर डालते हुए तत्काल काल रिसीव की, ‘हां भाई साहब...प्रणाम!'

दूसरी ओर लक्ष्मीकांत मिश्र थे, ‘नमस्कार...शिवाकांत, इन दिनों दिल्ली में ही हो?'

‘नहीं भाई साहब! लखनऊ में। बताएं।'

‘कहीं किसी अखबार में हो या...?' उन्होंने वाक्य पूरा नहीं किया।

‘भाई साहब! डेढ़ महीने से खाली हूं। दिल्ली वाली घटना तो आपको मालूम होगी ही। वहां चार—पांच महीने में ही नौकरी छोड़कर आना पड़ा था।'

‘हां, वह सब कुछ जानता हूं। यह बताओ, आगरा में नौकरी करोगे? एक चिटफंड कंपनी दैनिक अखबार निकालने जा रही है, दिल्ली और आगरा से एक साथ। कंपनी एक न्यूज चैनल भी लांच करने जा रही है अखबार के साथ ही। अगर इंट्रेस्टेड हो, तो बताओ।' लक्ष्मीकांत कह रहे थे।

शिवाकांत जल्दी से बोला, ‘हां...हां...भाई साहब! क्यों नहीं। नौकरी की तो मुझे सख्त जरूरत है। नौकरी और ठीक ठाक पैसे मिलें, तो मैं आगरा... क्या पाकिस्तान भी चला जाउं+। आप आदेश कीजिए।' उसका स्वर नौकरी मिलने की संभावना के चलते पैदा हुई उत्तेजना से कांप रहा था।

उधर से लक्ष्मीकांत ने कहा, ‘ठीक है। परसों आगरा में मिलो। आज तो दिल्ली में हूं। परसों मैं भी आगरा पहुंच रहा हूं। आगरा पहुंचने पर मुझे इसी नंबर पर कॉल करना।' इसके बाद फोन कट गया। शिवाकांत भोजन करने लगा।

माधवी ने उत्सुक स्वर में पूछा, ‘कौन था?'

‘लक्ष्मीकांत जी। बड़े पत्राकार हैं। कई अखबारों में रहे हैं। आज, दैनिक जागरण, राष्ट्रीय सहारा जैसे प्रतिष्ठित अखबारों में वर्षों तक बड़े पदों पर रहे हैं। तुम कभी नहीं मिली हो। ‘चाचा' को जानती हो न! दैनिक जागरण में ‘चाचा' से सीनियर थे। ‘चाचा' जुगाड़ और मालिकों को साधने की कला में निष्णात होने से संपादक हो गए।'

शिवाकांत उत्साहित होकर बताने लगा, ‘लखनऊ में भइया जी और मेरठ में माहेश्वरी सर को साधकर ‘चाचा' सफलता की सीढ़ियां चढ़ते नहीं, फलांगते गए। लक्ष्मीकांत जी काबिल होने के बावजूद पिछड़ते गए। कई साल से घर बैठे हैं। लगभग नौ—दस साल पहले एक फाइनांस कंपनी के अखबार में बड़े पद पर थे। कंपनी के मालिक से किसी बात पर मतभेद हो गया, तो उसी दिन नौकरी छोड़ दी। कंपनी के मालिक ने लक्ष्मीकांत जी के परिचितों से कई बार कहा, अरे भाई! मिश्र जी से कहो, अपना बकाया तो ले जाएं। लेकिन स्वाभिमानी लक्ष्मीकांत जी ने उस कंपनी या अखबार के दफ्तर की सीढ़ियां चढ़ना गंवारा नहीं किया। वे पैसा लेने नहीं गए, तो नहीं गए।'

‘फिर घर का खर्च कैसे चलता है?' माधवी पूछ बैठी।

‘चलता क्या है। घिसटता है। कभी आकाशवाणी में कोई कार्यक्रम मिल जाता है, तो कभी किसी अखबार के लिए फ्रीलांसिंग कर लेते हैं। कभी कोई मित्रा मदद कर देता है, तो कभी कोई। वैसे गांव में खूब लंबी—चौड़ी खेती है। अनाज वहां से आ जाता है। लक्ष्मीकांत जी के पिता जी हर महीने कुछ न कुछ भेज ही देते हैं। आजादी से पहले बंगाल और उत्तर प्रदेश में काफी लोकप्रिय, किंतु इन दिनों सिर्फ इलाहाबाद से निकल रहे एक पुराने अखबार के मालिक ने दौड़—भाग करके एक सरकारी आवास एलाट करा दिया है। रहने की समस्या हल हो गई है। लगता है, इस बार कोई जुगाड़ फिट हो गया है। बाकी सारी बातें आगरा जाने पर ही पता चलेंगी।' हाथ धोते हुए शिवाकांत ने कहा।

उस दिन सारा दिन शिवाकांत एक अजीब—सी उत्तेजना और खुशी से पगलाया घूमता रहा। कई दिनों बाद उसका मन हुआ कि बाहर निकला जाए। यार दोस्तों के साथ गपॉस्टिक लड़ाया जाए। गंजिंग की जाए। माधवी को लेकर गोमती नदी के किनारे रोमांटिक माहौल में इश्क फरमाया जाए। उसने सब कुछ किया। दोपहर बाद हजरतगंज गया। काफी हाउस में दो—तीन घंटे मजमेबाजी की। माधवी और बच्चों को हजरतगंज बुलाया, उनके साथ खरीदारी की और फिर गोमती नदी के किनारे स्थित वोटक्लब गए। किराये पर वोट लेकर दो—ढाई घंटे तक वोटिंग करते रहे। माधवी भी काफी खुश थी। बच्चे भी नाचते, कूदते और खेलते रहे। शिवाकांत को बच्चों पर बड़ा प्यार आ रहा था।

आगरा कैंट पहुंचकर शिवाकांत ने लक्ष्मीकांत को फोन किया, ‘भाई साहब! ...मैं आगरा कैंट रेलवे स्टेशन के बाहर खड़ा हूं। बताइए, कहां पहुंचना है।'

लक्ष्मीकांत ने बोदला चौराहे पर पहुंचने के बाद कृष्ण प्रसाद विश्वकर्मा से फोन पर बात करने को कहा। थोड़ी देर बाद विश्वकर्मा का नंबर भी उन्होंने एसएमएस कर दिया। बोदला चौराहे पर पहुंच कर शिवाकांत ने विश्वकर्मा को फोन लगाया। विश्वकर्मा ने बोदला चौराहे पर ही खड़े रहने की बात कही और फोन काट दिया। दस मिनट बाद मोटरसाइकिल पर एक व्यक्ति बोदला चौराहे पर आकर खोजपूर्ण निगाहों से चारों तरफ देखने लगा। फिर उसने मोबाइल निकाला। नंबर डायल करके कान में लगा लिया। शिवाकांत के मोबाइल फोन की घंटी बजी। उसने कॉल रिसीव की, ‘हां...हल्लो...विश्वकर्मा जी! मैं माधुरी पेठे की दुकान के सामने खड़ा हूं। आप कहां हैं?'

‘सर! मैं आपके सामने ही खड़ा हूं। इधर देखिए, सामने।'

शिवाकांत की नजर विश्वकर्मा पर पड़ चुकी थी। वह अपना बैग उठाकर उसकी ओर बढ़ा। नजदीक पहुंचने पर विश्वकर्मा ने अपना दायां हाथ बढ़ाते हुए कहा, ‘सर! मैं कृष्ण प्रसाद विश्वकर्मा...मुझे लक्ष्मीकांत जी ने आपको लाने के लिए भेजा है।'

शिवाकांत ने उसे गौर से देखा। तोते की तरह नुकीली नाक, क्लीन शेव्ड, खिजाब लगे छोटे—छोटे, किंतु सलीके से संवारे गए बाल, फोटोक्रोमेटिक चश्मे के पीछे से झांकती मिचमिची आंखें और लंबा छरहरा कद। शिवाकांत उस व्यक्ति के बारे में कोई निश्चित धारणा नहीं बना पाया। फिर भी पता नहीं क्यों उसे लग रहा था, यह आदमी जितना धरती के ऊपर है, उससे कहीं ज्यादा धरती के नीचे है।

‘लाइए सर, आपका बैग ले लूं। आप मोटरसाइकिल पर पीछे बैठ जाएं।' विश्वकर्मा ने बैग की ओर हाथ बढ़ाया।

‘नहीं, मैं इसे लेकर बैठ जाता हूं। आपको मोटरसाइकिल चलाने में दिक्कत होगी।'

शिवाकांत पीछे बैठ गया।

एडीए कालोनी के सेक्टर पांच में पहुंचकर विश्वकर्मा ने गाड़ी रोक दी। विश्वकर्मा के साथ शिवाकांत अंदर गया। बैग एक मेज पर रखने का इशारा करते हुए विश्वकर्मा ने कहा, ‘आप तब तक फ्रेश हो जाइए। मैं दूध लेकर आता हूं। फिर चाय—नाश्ता करते हैं।'

तभी एक आदमी भीतर बने कई कमरों में से एक से निकला। विश्वकर्मा ने उसका परिचय कराते हुए कहा, ‘शिवाकांत जी, ये यादव जी हैं। बड़े सर के बॉडीगार्ड।'

फ्रेश होकर जब शिवाकांत हालनुमा कमरे में पहुंचा, तो उसने तौलती निगाहों से सबको देखा। चाय खत्म करने के बाद उसने विश्वकर्मा से पूछा, ‘लक्ष्मीकांत जी से कहां मुलाकात होगी?'

‘लक्ष्मीकांत सर तो शाहगंज के पास सरप्राइज होटल में ठहरे हुए हैं।' विश्वकर्मा ने शिवाकांत का खाली कप उठाकर किचन में रखते हुए कहा, ‘सर! आप चाहें तो लक्ष्मीकांत जी से बात कर लें। मेरा ख्याल है, बारह—एक बजे के बाद सीएमडी ऑफिस में ही मिलेंगे।'

इस बीच यादव भी नहा—धोकर तैयार हो चुका था। उसने विश्वकर्मा से कहा, ‘मैं चल रहा हूं। भदौरिया जी शायद आज आएं।'

बर्तन धोने के बाद विश्वकर्मा ने शिवाकांत के सामने की कुर्सी संभाल ली। उसने अपनी कमीज के आगे का हिस्सा उठाकर चश्मा साफ करते हुए पूछा, ‘सर! आप अखबार में ज्वाइन करने आए हैं या चैनल में।'

‘अखबार में...' उसका जवाब संक्षिप्त था। पता नहीं क्यों, विश्वकर्मा के सवाल पूछने से उसे खीझ हो रही थी। थकान भी शायद एक वजह थी।

‘इससे पहले आप किस अखबार में थे?'

‘दिल्ली टाइम्स में...'

‘दिल्ली टाइम्स तो छोटा अखबार है। सिर्फ दिल्ली में ही छपता, बिकता है।'

‘आप कितना जानते हैं दिल्ली टाइम्स को? पांच एडीशन निकलते हैं दिल्ली टाइम्स के। और फिर यह अखबार इतना भी छोटा नहीं है कि उसमें काम करने के बाद नौकरी न मिले या उसका नाम लेने में झिझक हो। देश का रेपुटेड अखबार है।' झल्ला गया शिवाकांत।

‘आप रहने वाले कहां के हैं?' उसकी झल्लाहट को नजर अंदाज करते हुए विश्वकर्मा ने अगला सवाल दागा।

‘बाराबंकी का रहने वाला हूं।'

‘आप भी पुरबिए हैं?'

‘पुरबिए हैं मतलब?'

‘लक्ष्मीकांत जी पूरब के हैं न! गोरखपुर के।'

‘तो...? गोरखपुर या बाराबंकी को होना कोई अपराध है क्या? आप लंदन से हैं?' शिवाकांत न चाहते हुए भी उबल पड़ा।

‘सर, मैं झांसी का हूं। बुंदेलखंड मुक्ति मोर्चा का प्रेसीडेंट रह चुका हूं। बुंदेलखंड आंदोलन के चलते कई बार जेल भी जा चुका हूं। पिछले सत्राह साल से ‘बुंदेलखंड संदेश' निकाल रहा हूं। उसका संपादक हूं।' विश्वकर्मा अब भी काफी विनम्र था। अपनी बात खत्म कर वह उठा और बगल के कमरे से बुंदेलखंड संदेश की कई प्रतियां ले आया।

शिवाकांत ने सरसरी निगाह से बुंदेलखंड संदेश के पन्ने पलटे। दैनिक अखबारों की कतरन और प्रकाशित लेखों का एक अजीब सा घालमेल था बुंदेलखंड संदेश। आठ पेज के बुंदेलखंड संदेश के अंतिम पन्ने पर जगदीश सिंह भदौरिया का साक्षात्कार छपा था। जगदीश सिंह भदौरिया यानी ‘पृथ्वी' फाइनांस कंपनी के सीएमडी। भदौरिया की तस्वीर को घूरते हुए शिवाकांत ने मन ही मन कहा, ‘तो यही हैं भदौरिया। इन्हीं के अखबार में नौकरी करने आया हूं।'

‘बुंदेलखंड संदेश' को एक तरफ रखते हुए शिवाकांत ने कहा, ‘आप मुझे सीएमडी ऑफिस का पता बता दें। मैं लक्ष्मीकांत जी से बात करके उनसे मिल लेता हूं।' वह उठ खड़ा हुआ।

विश्वकर्मा ने कहा, ‘सर...थोड़ी देर रुकें। मैं आपको वहां छोड़ देता हूं। बस, दस—पंद्रह मिनट और लगेंगे। वैसे अगर आप मेरी सलाह मानें, तो लक्ष्मीकांत सर से बात कर लें। वे आपको बता देंगे, सीएमडी सर कब तक ऑफिस पहुंचेंगे। उन्हें सीएमडी सर के आने का पता होगा।'

उसे विश्वकर्मा की यह बात जायज लगी। उसने लक्ष्मीकांत से बात की। उन्होंने लगभग एक बजे सीएमडी ऑफिस पहुंचने को कहा। विश्वकर्मा को उन्होंने निर्देश दिया कि वह शिवाकांत को सीएमडी ऑफिस छोड़ आए।

‘पृथ्वी' फाइनांस लिमिटेड के ऑफिस पहुंचने पर शिवाकांत की लक्ष्मीकांत से मुलाकात हुई। उन्होंने शिवाकांत का परिचय भदौरिया से करवाया। भदौरिया ने एचआर हेड सुबोधिनी राय को उसका बॉयोडाटा देते हुए जल्दी से जल्दी अप्वाइंटमेंट लेटर बनाकर लाने का निर्देश दिया। भदौरिया और लक्ष्मीकांत में पहले ही उसकी नियुक्ति को लेकर बातचीत फाइनल हो चुकी थी। आधे घंटे बाद उसका नियुक्ति पत्रा भी आ गया। उसने हस्ताक्षर करने से पहले डेजिग्नेशन देखा, न्यूज एडीटर। उसने सवालिया निगाहों से लक्ष्मीकांत की ओर देखा, तो वे उसका मंतव्य समझ गए।

उन्होंने सांत्वना देते हुए कहा, ‘यह पद और पैसा फिलहाल टंप्रेरी है। यह तब तक के लिए है, जब तक अखबार लांच नहीं होता। जिस दिन अखबार निकलेगा, उस दिन तुम्हें प्रमोट करके स्थानीय संपादक बना दिया जाएगा, तुम्हारी सेलरी भी बढ़ा दी जाएगी। चिंता मत करो, प्रिंट लाइन में तुम्हारा ही नाम जाएगा। क्यों सर! मैं ठीक कह रहा हूं न?'

डस्टबिन में पान थूकते हुए भदौरिया ने कहा, ‘हां मिश्र जी! आप ठीक कह रहे हैं। आगरा एडीशन के सर्वेसर्वा तुम्हीं रहोगे। यह एक क्षत्रिाय का वचन है। जाओ, सुबोधिनी से एक महीने की तनख्वाह एडवांस ले लो। बाकी सब बातें तुम्हें मिश्र जी समझा देंगे।'

इतना कहकर भदौरिया ने कॉलबेल बजाई। चपरासी नरेंद्र अंदर आया।

‘सुनो, बाहर कितने लोग बैठे हैं मिलने वाले?' गुटखे का पाउच फाड़कर मुंह में डालते हुए भदौरिया ने दरियाफ्त किया।

‘सर, आठ—दस लोग होंगे। विश्वकर्मा जी भी आए हैं। उन्हें अभी भेजूं या बाद में?' नरेंद्र ने पूछा।

‘यह साला विश्वकर्मा रोज सुबह मुंह उठाए चला आता है।' कहते हुए भदौरिया ठहाका लगाकर हंस पड़े, ‘उसे बैठा रहने दो। बाकी लोगों से कह दो, आज मुलाकात नहीं हो पाएगी। मुझे अभी थोड़ी देर में मथुरा जाना है। हां, बघेल को भेजना जरा।'

‘जी सर' कहकर नरेंद्र बाहर चला गया।

गुटखे की पीक थूकने के बाद भदौरिया ने अपना सिर चेयर से टिकाया। आंखें बंदकर आगे पीछे झूलने लगे। लक्ष्मीकांत ने खड़े होते हुए कहा, ‘मैं भी चलता हूं। कल यहीं भेंट होगी। हो सकता है, कल दिल्ली भी जाना पड़े।' इतना कहकर दोनों बाहर आ गए।

भदौरिया

जगदीश सिंह भदौरिया

आगरा—मथुरा रोड पर सिकंदरा से लगभग आठ—दस किलोमीटर दूर स्थित रुनकता कस्बे के गांव राधोगढ़ का निवासी भदौरिया। चकबंदी विभाग में चपरासी सुशील सिंह भदौरिया की पहली संतान। सन्‌ अस्सी में साढ़े नौ सौ रुपये वेतन पाने वाले चपरासी सुशील सिंह भदौरिया की उत्कट इच्छा थी, उसके तीनों बेटे जगदीश, हरीश और महेश कम से कम इतना पढ़ लें कि उन्हें चपरासी की नौकरी न करनी पड़े। वह बड़े साहब को जब थोड़ा प्रसन्न देखता, तो चिरौरी करने लगता, ‘साहब! जब मेरा जगदीश बारहवीं पास कर लेगा, तो आप उसे कहीं बाबू या पटवारी भर्ती करा देंगे न!'

सहायक चकबंदी अधिकारी अनुज सक्सेना कभी प्रसन्न होते, तो व्यंग्यात्मक लहजे में कहते, ‘अरे, उसे बारहवीं पास तो होने दो।'

सुशील उनकी व्यंग्यात्मक लहजे में कही गई बात समझ नहीं पाता। उनके आश्वासन भर से ही प्रसन्न हो जाता। कई बार जब उनका मूड ठीक नहीं होता, तो वे उसे झिड़क देते। उस दिन सुशील झिड़की सुनकर उदास हो जाता। वह सोचता, उससे जरूर कोई गलती हुई है, तभी तो साहब ऐसी बात कह रहे हैं। वह पहले तो अपने को कोसता और फिर उसे एक ही रास्ता अपनी कुंठा, खीझ निकालने का नजर आता। वह छुट्टी के बाद सीधा दारू के ठेके पर जाता। कच्ची शराब का एक पौवा खरीदता। थोड़ा सा नमकीन या मसालेदार चना लेकर कहीं बैठकर पीता और शाम को सात—आठ बजे घर पहुंचता। पहले पत्नी और बेटों की मां—बहन एक करता। पत्नी प्रतिरोध करती, तो पिट जाती। पिटने पर वह सुशील की सात पुश्तों को न्यौतती। खाना बनाती जाती या घर का दूसरा काम करती जाती और अपने पति और उसके मां—बाप को घंटों गालियां बकती रहती।

जिस दिन सुशील नशे में होता, उस दिन तो बच्चों की शामत ही आ जाती। खेलने में मशगूल जगदीश और हरीश के कान उमेठ कर कहता, ‘सालों! पढ़ लो, वरना मेरी तरह साहबों को पानी पिलाते—पिलाते उम्र बीत जाएगी। किसी दफ्तर में चपरासी की नौकरी करोगे या फिर सड़क पर चाट—सब्जी का ठेला लगाओगे।'

पिता की बात सुनकर जगदीश किलस कर रह जाता। विरोध करने पर भरपूर पिटाई होती। पिटने पर वह पहले तो अपनी दोनों हथेलियों से आंसू पोछता। और फिर मन ही मन भगवान से प्रार्थना करता, ‘हे भगवान! मेरा बापू मर जाए।'

कई सालों तक भगवान ने जगदीश की प्रार्थना कुबूल नहीं की। जब कुबूल हुई, तब वह नहीं चाहता था कि उसका बाप मर जाए। तब उसे अपने बाप से मोह हो गया था।

सुशील का जगदीश से मन पहली बार तब खट्टा हुआ, जब वह नौवीं में फेल हो गया। सहायक चकबंदी अधिकारी सक्सेना साहब ने शायद किसी से जगदीश के फेल होने की खबर सुन ली थी। जब सुशील ऑफिस में पहुंचा, तो उन्होंने इरादतन पूछ लिया, ‘अरे सुशील! आज तो तुम्हारे जगदीश का रिजल्ट आया होगा। क्या हुआ?'

सुशील रो पड़ा। भरे गले से जवाब दिया, ‘साहब! वह तो फेल हो गया। अगली बार देखिएगा, वह जरूर पास हो जाएगा।'

जवाब देते समय उसे लग रहा था, वह अपने जगदीश को अब पटवारी या बाबू नहीं लगवा पाएगा। उसके बेटों को सड़क के किनारे सब्जी या चाट का ठेला ही लगाना होगा। उसके सपने कांच के टुकड़े की तरह बिखर रहे थे। उसे लग रहा था, कांच के प्रत्येक टुकड़े में उभरने वाला अक्स उसे चिढ़ा रहा था। कि उसकी बेबसी और गरीबी का उपहास उड़ा रहा था। घबरा कर उसने आंखें बंद कर ली। यह क्या! कांच के ये टुकड़े उसकी बंद आंखों और मन में समा रहे थे। वह बंद आंखों और मन का क्या करे? ये दोनों तो उसके जैसे शत्राु बन गए थे। किसी मौके की घात लगाए शत्राु की तरह। मन में छिपा बैठा कोई बार—बार चीख रहा था, ‘तेरा बेटा सड़क के किनारे ठेला लगाएगा या किसी दफ्तर का चपरासी बनेगा। लोगों को पानी पिलाएगा तेरा बेटा। तेरे बेटों की यही तकदीर है सुशील...तेरे बेटों की यही तकदीर है।'

इस बीच उसकी आंखों से अश्रुधार कब बह निकली? उसे पता ही नहीं चला। कुछ देर तक वह अपने भाग्य पर रोता रहा। फिर उसकी आंखों से नमी कम होनी शुरू हुई। उसके नेत्रा क्रोध से आरक्त हो उठे।

उसने किसी तरह ऑफिस के बंद होने का इंतजार किया। घर पहुंचा, तो उसने पहले जगदीश को खोजा। जब वह नहीं मिला, तो घर के सामने कुएं के पास बर्तन धो रही श्यामकली के पास पहुंचा, ‘साली! तू जिंदगी भर बर्तन ही मांजती रहेगी। तेरी सूअर जैसी औलादें भी ठेला लगाएंगी। कहां हैं कुंवर साहब?'

‘खुद कौन से लाट—गवर्नर लगे हो? बापू ने चिरौरी करके चपरासी लगवा दिया। नहीं तो खुद दर—दर की भीख मांगते या फिर गांव भर की गाय—भैंस चराते।'

सुशील की आंखों में लपलपाती ज्वाला भीतर ही भीतर उसे दहला रही थी, लेकिन उसकी जुबान चल पड़ी, तो चल पड़ी। वह भी अपनी कोख को दी गई गाली बर्दाश्त नहीं कर पाई। पहले भी वह जब तिलमिलाती थी, तो अपने पति के सात पुश्तों को जी भरकर गालियां सुनाती थी, लेकिन मन को ठेस पहुंचाने वाली बात नहीं कहती थी। कोख को मिली गाली ने यह रास्ता भी खोल दिया था।

‘साली जुबान लड़ाती है...ताना मारती है' कहकर सुशील ने श्यामकली को एक लात जमाई। तिलमिलाया हुआ सुशील घर से बाहर निकल गया। मैदान में गिल्ली—डंडा खेलता जगदीश दिखा, तो उसके क्रोध का पारा सातवें आसमान पर जा पहुंचा। पिता के क्रोध को समझकर जगदीश कुछ संभल पाता कि वनराज की तरह सुशील ने एकाएक जगदीश को दबोच लिया, ‘मादर...फेल हो गया है, लेकिन खेलना—कूदना नहीं छोड़ा। शर्म—हया तो जैसे घोलकर पी गया है हरामजादा। यहां हाड़तोड़ मेहनत करूं, चार पैसे कमाकर लाउं+, इनका पेट भरूं, कापी—किताबों की व्यवस्था करूं और साहब फेल होकर बैठ जाएं। शर्म भी नहीं आती, साले को।'

क्रोध में पिता यह भूल ही गया, उसके हाथ—पांव बेटे के किस अंग पर पड़ रहे हैं। पहले तो बेटे ने बचाव की कोशिश की, लेकिन पिता के क्रोध की प्रचंड लहर के सामने उसका विरोध टिक नहीं पाया। पिता पीटता और बेटा पिटता रहा। कुछ बुजुर्गों ने आकर सुशील का हाथ पकड़ा, तब तक जगदीश बेहोश हो चुका था।

मातीराम ने कहा, ‘क्या मार ही डालोगे, बेटा? देखो, कैसी हालत हो गई है इसकी?'

क्रोध का अंधड़ थमा, तो पिता ने गौर से बेटे को देखा। उसे लगा, उसके हाथों आज बेटे की हत्या हो गई। उसने बेटे के लुंज—पुंज शरीर को उठाया और लेकर भागा अस्पताल की ओर। मार से अधमरे बेटे ने होश आने पर सबसे पहले अपने पिता की मौत की कामना बरसाने की अधिष्ठात्राी राधारानी से की। पिता पश्चाताप में दो दिन तक भूखा रहा, जब तक जगदीश अस्पताल से घर नहीं पहुंच गया। मां श्यामकली और दोनों भाई जगदीश की दशा पर रोना चाहते थे, लेकिन सुशील के आतंक ने उनके आंसुओं पर अंकुश लगा रखा था। मारपीट ने बेटे जगदीश के मन में एक गांठ को जन्म दिया, जो आजीवन उसके हृदय में शूल बनकर चुभता रहा। पिता—पुत्रा के संबंघ इसके बाद कभी सामान्य नहीं हो पाए। उसके हृदय में पिता के प्रति बगावत का सूक्ष्म बीज पलता रहा, जिसने आगे चलकर वट वृक्ष का रूप धारण कर लिया। जगदीश ने पिता से बोलना छोड़ दिया। उससे सुशील जितना पूछता, उतना जवाब देकर वह चुप हो जाता। घर हो या बाहर, जब तक उसके आसपास पिता मौजूद रहते, वह गुमसुम—सा बना रहता। जैसे ही वह वहां से टलते, वह ठहाके लगाता, शरारतें करता। साथियों और भाइयों के साथ खेलता, उनसे मारपीट करता, उन्हें दुलराता—पुचकारता। लेकिन पिता की अपेक्षाएं...उसकी उम्मीदें... अभी टूटी नहीं थीं। वह श्यामकली और जगदीश से पूछ—पूछकर उसकी जरूरतों का ख्याल रखता। सुशील ने पीना कम नहीं किया था, लेकिन श्यामकली, जगदीश, हरीश और मुकेश से होने वाली मारपीट, गाली—गलौज जरूर कम हो गई थी। एकदम न के बराबर। बहुत गुस्सा आने पर वह घर से निकल जाता, किसी पेड़ की छाया या सड़क के किनारे खड़ा होकर किसी अज्ञात को गालियां बकता, थोड़ा बहुत पी—पाकर घर आता और खा—पीकर सो जाता। शरीर भी जर्जर होने लगा था। बुढ़ाता शरीर आराम मांग रहा था, लेकिन आराम किस चिड़िया का नाम है, यह सुशील जैसे लोग कैसे जान सकते थे।

जिस दिन जगदीश ने द्वितीय श्रेणी में स्नातक की परीक्षा पास की, उस दिन सुशील सिंह भदौरिया ने पूरे गांव में मिठाई बांटी। बड़े साहब से कहकर उसने अपने ही विभाग में क्लर्क की नौकरी का जुगाड़ किया, लेकिन जगदीश तो जैसे इस नौकरी के लिए पैदा ही नहीं हुआ था। पिता के जिद करने पर वह कहता, ‘एक दिन मैं सैकड़ों लोगों को नौकरी दूंगा। यह नौकरी मेरे लायक नहीं है।'

सुशील चिढ़ जाता, ‘हां...हां...तुम मथुरा के महाराज हो। सबको नौकरी दोगे। गांड पर लपेटने को लत्ता नहीं है और ख्वाब टाटा—बिरला बनने का पाल रखा है। ससुर के नाती...नौकरी कर लो। थोड़ा मुझे भी आराम मिले, कहीं ठीक ठाक घर में शादी ब्याह हो जाए। नहीं तो गली—गली भीख मांगते फिरोगे।'

पिता ने लाख समझाया, सरकारी नौकरी के फायदे बताए, न मानने पर घर से निकालने की धमकी दी। जगदीश अपने इरादे से टस से मस नहीं हुआ। सुशील ने अपनी बढ़ती उम्र और घर की आर्थिक परेशानियों का भी वास्ता दिया। पिता की नाराजगी और नौकरी कर लेने की सुबह—शाम की जाने वाली जिद और धमकी से आजिज आकर एक दिन जगदीश घर से भाग निकला। कुछ दिन आगरा में अपने मित्राों के पास रहा। उसके मित्रा कमलेश राणा के पिता ने एक दिन उसे अपने ऑफिस में बुलवाया। एक नामी चिटफंड कंपनी में फील्ड ऑफिसर नियुक्त करवा दिया।

चतुर और मृदुभाषी भदौरिया ने धीरे—धीरे चिटफंड कंपनी के अधिकारियों और निवेशकों का विश्वास जीत लिया। नियुक्ति के छह महीने के भीतर ही चिटफंड कंपनी ‘वात्सल्य' को काफी लाभ पहुंचाया। उसके नेतृत्व में टीम ने उस साल अच्छा खासा बिजनेस किया। पांच साल में ही जगदीश सिंह भदौरिया ने कंपनी में खूब तरक्की की। वह चीफ कंट्रोलर बनकर पैसा कमाने की मशीन बन गया। पांच साल के दौरान रुनकता का सीधा—सादा दब्बू—सा दिखने वाला जगदीश चतुर व्यवसायी, कुशल नेतृत्वकर्ता और महत्वाकांक्षी युवक के रूप में ख्याति अर्जित कर चुका था। उसने चिटफंड कंपनी की सफलता के सारे दांव—पेंच सीख लिए थे। मीडिया और पुलिस को मैनेज करने की कला में उसने अपने सीनियर्स से बाजी मार ली। उसके सीनियर्स पुलिस या मीडिया में पहुंचने वाली शिकायतों को मैनेज करने के लिए शराब और पैसे पेश कर मामले को रफा—दफा करा देते थे। भदौरिया ने थ्री डब्ल्यू वाला फार्मूला अपनाया। ‘वाइन' और ‘वेल्थ' के साथ—साथ ‘वीमेन' का उपयोग धंधे के लिए बड़ा लाभकारी साबित हुआ। उसके इस नए प्रयोग से चिटफंड कंपनी ‘वात्सल्य' के मैनेजिंग डायरेक्टर सिन्हा जी काफी प्रभावित हुए। जब भी चिटफंड कंपनी के खिलाफ कोई शिकायत पुलिस थाने में दर्ज होती, वह पुलिस अधिकारियों को वेल्थ और वाइन पेश करके शिकायतकर्ता को ही परेशान करने की कोशिश करता। यदि बात नहीं बनती, तो वह खूबसूरत कॉलगर्ल या ऑफिस की ही कोई सुंदर लड़की पुलिस अधिकारियों को उपलब्ध करा देता। यह दांव ब्रह्मास्त्रा साबित होता। पुलिस अधिकारी से लेकर बड़े—बड़े प्रशासनिक अधिकारी और नेता उसकी अंगुलियों पर नाचते। वह पुलिस, प्रशासन और नेताओं के साथ—साथ मीडिया को भी साधने की कला सीख गया था। बड़े—बड़े पत्राकारों के बीच उसकी धाक थी। वह सबको ‘थ्री डब्ल्यू' के सहारे संतुष्ट और अपने पाले में किए रहता।

गरीब किसान, मजदूर और मध्यम वर्ग के लोग अपना पेट काटकर बचाए गए पैसे को जल्दी से जल्दी दोगुना करने की लालच में चिटफंड कंपनी में जमा करते। उसमें से एक तिहाई पैसा कंपनी के खाते में जाता, बाकी पैसा पुलिस, प्रशासन, राजनीतिक दलों और मीडिया से जुड़े लोगों को खुश करने में खर्च होता। भदौरिया भी इस बहती गंगा में हाथ धोने से भला कैसे पीछे रह सकता था। यदि कभी कोई निवेशक, अभिकर्ता भदौरिया या कंपनी के खिलाफ बोलने की जुर्रत करता, वह पिट जाता। कभी भदौरिया के इशारे पर पुलिस पीट देती, तो कभी उसके कुछ गुंडे पीट जाते। शिकायतकर्ता को खुलेआम धमकियां दी जातीं। इसके ऐवज में हर महीने पुलिस अधिकारियों और मीडिया वालों को ‘हफ्ता' पहुंचाया जाता।

और एक दिन...

कंपनी के बाइस करोड़ रुपये, कुछ महत्वपूर्ण कागजात लेकर भदौरिया फरार हो गया। कंपनी ने भदौरिया के खिलाफ न कोई पुलिस में कोई रिपोर्ट दर्ज कराई, न ही उसे खोजने का प्रयास किया। लगभग डेढ़ साल तक फरार रहने के बाद भदौरिया जब दोबारा आगरा लौटा, तो अपनी चिटफंड कंपनी ‘पृथ्वी फाइनांस एंड प्रॉपर्टीज लिमिटेड' खोलने की योजना के साथ। उसने हरिपर्वत इलाके में ‘पृथ्वी फाइनांस एंड प्रॉपर्टीज लिमिटेड' का आलीशान कार्यालय खोला। कुछ खूबसूरत और कम उम्र लड़कियों को कलेक्शन क्लर्क, फील्ड ऑफिसर, एजेंट भर्ती किया। जल्दी अमीर होने का सपना बेचने का कारोबार चल निकला। जल्दी से जल्दी अमीर हो जाने का सपना देखने वाले मध्यम और निम्न वर्ग के लोगों को अपनी वाक्पटुता से फांस लेने में प्रवीण भदौरिया ने दोनों हाथों से दौलत बटोरी। कुछ साल पहले तक चकबंदी विभाग के जिला कार्यालय में पानी पिलाने और फाइलों को इधर से उधर ले जाने वाला चपरासी सुशील सिंह भदौरिया पजेरो और मारुति वैन से चलने लगा। उसके घर की दशा बदल गई। बेटे के कहने पर उसने वीआरएस ले लिया। पैसा आने लगा, तो उसके बेटों के लिए रिश्ते भी आने लगे। मथुरा के एक धनाढ्य परिवार की लड़की से जगदीश की शादी हुई, तो भाई—पट्टीदारों को चपरासी सुशील सिंह भदौरिया की किस्मत से ईर्ष्या होने लगी। कुछ लोग तो अपने भाई—बेटों को डांटते भी, ‘देखो...अपने को देखो और उस चपरासी के छोरे को देखो। कहां से कहां पहुंच गया चपरासी का छोरा। लाखों—करोड़ों कमा रहा है। अब तो चपरासी हम लोगों से बात करना भी पसंद नहीं करता। पांच—छह साल पहले देशी ठर्रा पीने वाला चपरासी आज विलायती शराब पीता है। भाग्य हो तो उस चपरासी जैसा।'

कंपनी खोलने के छह महीने बाद ही भदौरिया ने मथुरा की एक पॉश कालोनी में पैंतीस लाख रुपये का मकान खरीदा। पूरा परिवार रुनकता छोड़कर मथुरा चला आया। मथुरा की पॉश कालोनी में आने को तैयार नहीं हुआ, तो सिर्फ सुशील सिंह भदौरिया।

उसने बेटे का प्रतिवाद करते हुए कहा, ‘बेटा! मथुरा कंस की नगरी है। वहां जाने का मन नहीं करता। पुराने लोगों का कहना है, अपने रुनकता में सूरदास जी पैदा हुआ थे। जीवन भर सूरदास जी की जन्मस्थली में रहने के बाद अब बुढ़ापे में पापी कंस की नगरी में जाने को जी नहीं करता। और...फिर अपने नाते—रिश्तेदार, भाई—पट्टीदार भी तो यहीं हैं। इस उम्र में उन्हें छोड़कर जाना, कुछ अच्छा नहीं लग रहा है। न हो तो, तुम सब जाओ, मुझे यहीं रहने दो।'

पर बेटे की जिद बाप की विनती पर हमेशा भारी पड़ती रही है। वह पिता को लगभग जबरदस्ती अपने नए मकान में ले गया। शायद इसके पीछे यह भावना भी थी। तुमने जिस बेटे को हमेशा नालायक समझा, जिसे जीवन भर पटवारी या क्लर्क बनाने का सपना देखते रहे। देखो! आज वह बेटा किसी अफसर से ज्यादा कमाता है। उनसे ज्यादा शान से रहता है। पिता को आखिरकार मथुरा जाना ही पड़ा। पिता—पुत्रा अब भी एक दूसरे से कम बोलते थे। मथुरा जाने के बाद सुशील सिंह भदौरिया बीमार पड़ा, तो दोबारा

उठ नहीं सका। काफी इलाज कराया गया, मथुरा के बड़े से बड़ा डॉक्टर घर पर देखने आया। बड़े—बड़े नर्सिंग होम्स में मोटी—मोटी फीस देकर बाहर के डॉक्टरों को बुलाकर दिखाया गया, लेकिन सबने लगभग एक ही बात कही, ‘दारू पीने से लीवर ने काम करना बंद कर दिया है।'

जगदीश ने पानी की तरह पैसा बहाया, लेकिन चार महीने से ज्यादा पिता को जिंदा नहीं रख सका। बचपन में पिता से पिटने पर मौत की कामना करने वाला भदौरिया उनकी मौत पर फूट—फूट कर रोया। दोनों छोटे भाई पढ़—लिखकर अपने काम धंधे से लग गए थे। पिता की मौत के बाद रुनकता की पुश्तैनी जमीन और मकान उसने अपने दोनों छोटे भाइयों को दे दिया। रोजी—रोजगार में भी खूब मदद की। समय का चक्र चलता रहा। पृथ्वी फाइनांस एंड प्रॉपर्टीज लिमिटेड का विस्तार होता रहा। अब तक वह दो पुत्राों और एक पुत्राी का पिता भी बन चुका था।

महीने भर बाद शिवाकांत आगरा पहुंचा। लक्ष्मीकांत दिल्ली में थे। उन्हीं के निर्देश पर वह आगरा ज्वाइन करने पहुंचा था। हरिपर्वत थाने के पास ही ‘पृथ्वी एक्सप्रेस' का दफ्तर तैयार हो रहा था। दफ्तर को सजाने—संवारने का जिम्मा विश्वकर्मा को दिया गया था। विश्वकर्मा खुले हाथ पैसा खर्च करता था। शिवाकांत की वह खूब आवभगत करता। शिवाकांत यह नहीं समझ पाता कि आखिर विश्वकर्मा के पास इतना पैसा आता कहां से है? कि उसको कोई कारू का खजाना मिल गया है? कि कोई लॉटरी लग गई है? कि कहीं से कोई गड़ा धन मिल गया है? आखिर चार पन्ने का टुटपुंजिया अखबार निकालने वाले और सीएमडी का मुंहलगा विश्वकर्मा इतना पैसा लाता कहां से है?

शाम को शिवाकांत और विश्वकर्मा एक साथ ऑफिस से घर लौटते थे। विश्वकर्मा की बाइक पर। अभी शिवाकांत के रहने की व्यवस्था विश्वकर्मा के साथ ही सेक्टर पांच में थी। रात में विश्वकर्मा, शिवाकांत, बॉडीगार्ड यादव, शिवेश दत्त और रामेंद्र सिंह की महफिल जमती। बटुली, कड़ाही और मेज वाद्य यंत्रा बन जाते। शिवेश दत्त तन्मय होकर सुदर्शन फाकिर का गीत ‘ये दौलत भी ले ले, ये शोहरत भी ले ले/भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी/मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन/वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी' गाता, तो लोग मंत्रा मुग्ध हो जाते। शिवाकांत को यह गीत काफी पसंद था। वह भी कई बार शिवेश का साथ देने के लिए गाने लगता। महफिल देर रात तक जमी रहती। बीच—बीच में नॉनवेज चुटकुले भी सुने—सुनाए जाते। ऑफिस लगभग तैयार हो गया था। आसपास के जिलों से पत्राकार नौकरी मांगने आने लगे थे। विश्वकर्मा उनका इंटरव्यू लेता, उनको कुछ दिन बाद संपर्क करने का आश्वासन देकर विदा कर देता। एक दिन मौका निकालकर उसने लक्ष्मीकांत को फोन किया, ‘भाई साहब! विश्वकर्मा तो पत्राकारों की भर्ती कर रहा है। उसकी इस संस्थान में हैसियत क्या है? जब ग्रुप एडीटर आप हैं, तो पत्राकारों की भर्ती आपको करनी चाहिए।'

लक्ष्मीकांत ने निश्चिंत भाव से कहा, ‘अरे! करने दो साले को भर्ती। उसके द्वारा की गई भर्ती का कोई मतलब नहीं है। दस—बारह दिन बाद आता हूं, तो भदौरिया जी से बात करता हूं। वह अपना चार पन्ने का साप्ताहिक अखबार निकालता है, वही निकाले। उससे कह दो, ज्यादा दिमाग मत खराब करे अपना।' इतना कहकर उन्होंने फोन काट दिया।

शिवाकांत मन मसोस कर रह गया। वह अपने दिल की बात लक्ष्मीकांत के अलावा किसी और से कह भी नहीं सकता था। पहली बार उसे लक्ष्मीकांत पर क्रोध आया। वह बुदबुदाया, ‘आपकी यही सिधाई किसी दिन ले डूबेगी। अति विनम्रता जितना बड़ा पाखंड है, अति सिधाई उतना ही बड़ा गधापन।'

रात को फिर खाना खाने के बाद महफिल जमती थी। इधर कुछ दिनों से रात को रोज ऐसी महफिलें जमने लगी थीं। पहले की ही तरह चुटकुले, फिल्मी गीत आदि सुनाए जाने लगे थे। शिवाकांत को ऐसी गप गोष्ठियां कभी नहीं भार्इं। लखनऊ में वह कई पत्राकारों को ऐसी गोष्ठियां आयोजित करते देख चुका था। एकाध बार शामिल होने के बाद जब भी किसी ने उससे ऐसी गोष्ठियों में शामिल होने का न्यौता दिया, तो उसने बड़ी विनम्रता से हाथ जोड़ लिए। वैसी ही गप गोष्ठियां यहां उसके गले पड़ गई थीं। पचास—बावन साल का विश्वकर्मा और छब्बीस साल का विजय गुप्ता दोनों एक दूसरे की उम्र का लिहाज किए बिना अश्लील चुटकुले और फूहड़ पैरोडियां सुनाते, तो वहां मौजूद सारे लोग ठहाके लगाते, शाबाशी देते, मानो दोनों ने कोई प्रतियोगिता जीती हो। ऐसी बातें सुनकर उसे उबकाई आने लगती। वह अपने कमरे में जाकर लेट जाता। वहां भी लोग उसे घेर लेते। फूहड़ गोष्ठी वहीं शुरू हो जाती।

रात को कई बार उसकी नींद उचट जाती। वह सोचता, कहीं वह बेकार के संगठन में तो नहीं फंस गया है। चिटफंड कंपनी वालों का क्या भरोसा। आज जोश है, तो अखबार और चैनल शुरू करने का जा रहे हैं। कल घाटा हुआ, तो किसी भी समय अपना तंबू—कनात समेट सकते हैं। इनका कोई क्या कर लेगा। नंगे का कोई बिगाड़ ही क्या सकता है? कई बार उसकी सोच इन गप गोष्ठियों की ओर मुड़ जाती। वह सोचता, गप हांकने और महफिलें जमाने में लोगों को आखिर क्या मजा आता है? गंभीरता से विचार करने पर उसने पाया, गोष्ठियां जमाने और गप हांकने की प्रवृत्ति आदिम मनुष्यों में भी थी। भाषा और लिपि का आविष्कार होने और नगरीय सभ्यता में प्रवेश करने के साथ ही इंसानों में यह प्रवृत्ति घर कर गई थी। दिन भर पसीना बहाने वाले लोगों ने मनोविनोद के लिए गप गोष्ठियां आयोजित की होंगी। कालांतर में इन गोष्ठियां का आयोजन राजा—रजवाड़ों के आगारों में होने लगा, तो विद्रूपता आने लगी होगी।

एक दिन हरिपर्वत ऑफिस में शिवाकांत और शिवेश दत्त बैठे चाय पी रहे थे। एक लंबे—चौड़े पहलवान टाइप व्यक्ति ने ऑफिस में प्रवेश किया। वह सीधा शिवाकांत के पास पहुंचा, ‘सीईओ साहब से मिलना है।'

शिवाकांत चौंक गया, ‘सीईओ साहब...कौन सीईओ?'

‘पृथ्वी एक्सप्रेस के सीईओ विश्वकर्मा जी...'

शिवाकांत ने शिवेश दत्त से पूछा, ‘यह विश्वकर्मा कब से सीईओ हो गया?'

शिवेश दत्त के कुछ कहने से पहले ही वह व्यक्ति बोला, ‘आप शायद जानते नहीं ...आज सुबह ही उनसे मेरी मुलाकात हुई थी। भदौरिया जी के ऑफिस में। ढाई बजे यहीं मिलने को कहा था।'

शिवेश दत्त ने उस व्यक्ति को बैठने का इशारा किया, ‘आपका परिचय भाई साहब?'

‘मैं शिव प्रताप सिंह हूं। मैंने आज ही स्थानीय संपादक पद पर ज्वाइन किया है। भदौरिया साहब ने कहा था, एक बार ऑफिस देख आउं+, तो मैं चला आया। वैसे सीईओ विश्वकर्मा यहीं मिलने वाले थे। पता नहीं कहां रह गए?' आगंतुक ने खड़े खड़े अपना परिचय पेश किया।

शिव प्रताप सिंह की बात सुनकर शिवाकांत का दिमाग भक्क से उड़ गया। चाय का स्वाद अब उसे कसैला लगने लगा था। उसने बची चाय डस्टबिन में डालते हुए कहा, ‘आप बैठिए, विश्वकर्मा जी आते होंगे।'

शिवेश दत्त ने चपरासी महेंद्र को पानी पिलाने का इशारा किया, ‘भाई साहब! पहले मैं अपना परिचय दे दूं। मेरा नाम शिवेश दत्त है। और ये शिवाकांत जी हैं, पृथ्वी एक्सप्रेस के न्यूज एडीटर।' शिवेश दत्त ने शिवाकांत की ओर इशारा करते हुए कहा।

‘सीईओ साहब ने आपके बारे में बताया था। आपकी खूब तारीफ कर रहे थे।' शिव प्रताप ने पानी पीकर गिलास मेज पर रखते हुए कहा।

शाम को जब शिवाकांत ऑफिस से लौटा, तो काफी उदास था। इस बीच उसने मौका निकालकर लक्ष्मीकांत से बात की। उन्हें विश्वकर्मा के सीईओ और शिव प्रताप सिंह के स्थानीय संपादक नियुक्त किए जाने की खबर दी। उन्होंने तत्काल भदौरिया से बात की। भदौरिया ने उन्हें आश्वासन दिया, कोई कुछ भी कहता रहे। आप दैनिक ‘पृथ्वी एक्सप्रेस' के ग्रुप एडीटर और आगरा एडीशन के स्थानीय संपादक शिवाकांत ही होंगे। शिव प्रताप की नियुक्ति झांसी एडीशन के लिए हुई है। लक्ष्मीकांत की बात सुनकर उसने थोड़ी राहत महसूस की।

इस घटना को लगभग दो महीने बीत गए। वह रोज ऑफिस जाता, वहां कुछ देर बैठता। मन ऊबने लगता, तो वह लौट आता। काफी लोग भर्ती किए जा चुके थे। भर्तियां विश्वकर्मा और शिव प्रताप सिंह मिलकर कर रहे थे। कई ऐसे लोग भी भर्ती हो गए थे, जिनको अपना नाम भी शायद ठीक से लिखना नहीं आता था। पृथ्वी एक्सप्रेस का कार्ड और विजिटिंग कार्ड लिए सीना फुलाए इस तरह घूमते, मानो दुनिया भर को हेय समझने का लाइसेंस मिल गया हो। ऑटो और रिक्शा वालों को किराया मांगने पर धमकाते, ‘जानते हो, मैं कौन हूं? पृथ्वी एक्सप्रेस का ब्यूरो चीफ। अभी दो मिनट में तुम्हारा ऑटो पुलिस थाने में नजर आएगा। तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई किराया मांगने की।' ऑटो वाला दबंग होता, तो थोड़ी नोक—झोंक के बाद किराया अदा करके गालियां देते। ऑटो चालक दब्बू होता, तो ये सीना फुलाते हुए आसपास के लोगों को सुनाते, ‘अच्छा हुआ...साला चला गया। जानता नहीं, थानेदार बब्बन सिंह मेरा जिगरी दोस्त है। अभी पुलिस आकर चार डंडा चूतड़ पर लगाती, तो समझ में आ जाता मीडिया क्या है? उसका पॉवर क्या होता है?'

एसपी सिंह यानी शिव प्रताप सिंह की नियुक्ति के ढाई महीने बाद चिटफंड कंपनी के ऑफिस में दैनिक पृथ्वी एक्सप्रेस और न्यूज चैनल ‘वी एक्सप्रेस' के कर्मचारियों की मीटिंग बुलाई गई। मीटिंग में लक्ष्मीकांत, एसपी सिंह, शिवाकांत, चैनल हेड सुदेश कुमार, सीईओ कृष्ण मोहन विश्वकर्मा और चिटफंड कंपनी की एचआर हेड सुबोधिनी राय शामिल हुर्इं। फैसला हुआ कि न्यूज चैनल ‘वी एक्सप्रेस' और समाचार पत्रा ‘पृथ्वी एक्सप्रेस' की लांचिंग नोएडा में एक साथ हो। फिलहाल अखबार का नोएडा एडीशन ही लांच किया जाए। बाद में सुविधानुसार अखबार का विस्तार किया जाए। न्यूज चैनल ‘वी' एक्सप्रेस और दैनिक पृथ्वी एक्सप्रेस का सारा तामझाम नोएडा शिफ्ट किया गया।

मीटिंग के बीस दिन बाद शिवाकांत भी नोएडा पहुंचा। आगरा छोड़ने से तीन दिन पहले वह सीएमडी ऑफिस गया। वह चाहता था, मीडिया सेक्सन की एचआर हेड का काम देख रही सुबोधिनी राय से उसे ट्रांसफर लेटर मिल जाए, ताकि वह जल्दी से जल्दी नोएडा पहुंच सके। अभी तक सुबोधिनी आई नहीं थीं। वह संध्या जादौन के पास बैठककर बतियाने लगा। काफी देर तक जब सुबोधिनी नहीं आई, तो उसने उकताते हुए संध्या से पूछा, ‘क्या सुबोधिनी हमेशा विलंब से आती हैं?'

सवाल सुनकर संध्या मुस्कुराई, ‘नहीं, जिस रात देर तक जागती हैं, उस दिन सुबह जरा देर से उठती हैं। उस दिन ऑफिस भी जरा देर से आती हैं?'

‘क्या मतलब?' शिवाकांत चौंक ही तो पड़ा था।

‘अब आपको मतलब भी बताना पड़ेगा। आप इतने नासमझ तो नहीं दिखते हैं।' कहकर संध्या ने एक बार फिर बतीसी दिखा दी।

‘मैं वाकई आपका मतलब नहीं समझ पाया।'

‘आपने विक्रम बेताल की कथा सुनी है? उसमें विक्रमादित्य बेताल को पेड़ से उतार कर अपने कंधे पर रख जब श्मशान की ओर चल देते हैं, तो बेताल उन्हें अपने जाल में फंसाने के लिए यह कहते हुए एक कथा कहता है, राजन! आपके श्रम को भुलाने के लिए एक कथा कहता हूं। आप ध्यान लगाकर सुनें। आपके इंतजार की उकताहट भुलाने के लिए मैं भी आपको ‘प्रमोशन' कथा सुनाती हूं। आप ध्यान से सुनें, तभी इस कथा का निहितार्थ भी समझ पाएंगे। आज से सात साल पहले मार्च में मेरी इस चिटफंड कंपनी में एक क्लर्क के रूप में इंट्री हुई थी। तब इस संस्थान में कम से कम डेढ़ दर्जन लड़कियां काम करती थीं। मेरे ज्वाइन करने के एक महीने बाद सुबोधिनी राय की इंट्री हुई। उन दिनों सीएमडी भदौरिया साहब हर तीसरे महीने ऑफिस की लड़कियों के ‘सर्वांगीण' विकास के लिए उन्हें एक हफ्ते के टूर पर ले जाते थे।' संध्या ने ‘सर्वांगीण' शब्द पर कुछ ज्यादा ही जोर दिया।

‘उस टूर के साथ सीएमडी के एक वकील मित्रा भी जाते थे। कंपनी के बारे में छह दिन दोपहर में एकाध घंटे का प्रवचन होता। सीएमडी साहब अपने साथ हम लड़कियों को लेकर दर्शनीय स्थल पर घूमने निकल जाते। कुछ लड़कियों को महंगे—महंगे गिफ्ट मिलते। बाकी को हजार—बारह सौ के गिफ्ट के साथ—साथ कंपनी को आगे बढ़ाने की नसीहत देकर वापस ले आया जाता। कंपनी ज्वाइन करते समय सुबोधिनी की तनख्वाह चौबीस सौ पचास रुपये थी। संयोग से इसके दो महीने बाद सर्वांगीण विकास टूर बनारस गया। भोले बाबा की नगरी। औघड़, महादानी। उनसे जो मांगो, मिल जाता है। सीएमडी ने महादानी भोलेबाबा के साथ ही साथ सुबोधिनी से कुछ मांग लिया। बदले में सुबोधिनी ने भी कुछ चीजें मांग लीं। सुबोधिनी जब बनारस से लौटीं, तो उनकी काया का सर्वांगीण विकास हो चुका था। वे खिली—खिली सी रहने लगीं। अगले महीने जब उनको तनख्वाह मिली, तो पता चला, उनकी कार्यकुशलता से प्रसन्न होकर सीएमडी ने पांच हजार का स्पेशल इंक्रीमेंट दिया है।' इतना कहकर संध्या फिस्स से हंस पड़ी। शिवाकांत के चेहरे पर असमंजस का भाव उभरा।

संध्या जादौन ने व्यंग्यात्मक लहजे में पूछा, ‘अब भी नहीं समझे आप? अगर वाकई नहीं समझे, तो बुद्धू हैं। समझकर भी नासमझ बन रहे हैं, तो अव्वल दर्जे के धूर्त हैं।'

शिवाकांत ने गहरी सांस लेते हुए कहा, ‘मैं वाकई अव्वल दर्जे का बुद्धू हूं।'

संध्या ने कहा, ‘फिर तो आपको समझा पाना बड़ा मुश्किल है। आप इतना समझ लें, सुबोधिनी ने अपना ‘कुछ' खोकर कुछ पा लिया। वे हमारी सीनियर हो गर्इं। इशारों—इशारों में बनारस टूर के दौरान सीएमडी साहब ने मुझ पर भी अपनी कृपा बरसाने का प्रस्ताव रखा था, लेकिन मैंने सख्ती से मना कर दिया। तब तक इस कंपनी की आधी से ज्यादा लड़कियां सीएमडी साहब की कृपा प्राप्त कर चुकी थीं। यह तो मुझे बाद में पता चला, हर बार टूर पर वही लड़कियां जाती थीं, जो या तो कृपा प्राप्त कर चुकी होती थीं या जिनके कृपा प्राप्त करने की आशा होती थी। अगली बार जब टूर का प्रोग्राम बना, तो उसमें मेरा नाम नहीं था। मुझे यह कहते हुए टूर पर जाने से रोक दिया गया, तुम क्या करोगी टूर पर जाकर? वहां तुम्हारा मन कुछ सीखने की ओर तो रहता नहीं है। और फिर

...जब सभी लोग टूर पर ही चले जाएंगे, तो यहां का काम कौन देखेगा? इससे कंपनी को काफी नुकसान होगा। इस तरह ढाई हजार रुपल्ली पर कंपनी में अपना कैरियर शुरू करने वाली सुबोधिनी आज महज सात साल में कंपनी के मीडिया सेक्सन की एचआर हेड हैं। पच्चहत्तर हजार रुपये वेतन पाती है। कंपनी की ओर से गाड़ी मिली हुई है। इनके पिता सुभाष राय कंपनी द्वारा संचालित लेदर इंडस्ट्री में मैनेजर हैं। एक लाख रुपये वेतन उठाते हैं।'

संध्या ने फुसफुसाते हुए कहा, ‘कभी सुबोधिनी की बेटी मृणालिनी राय को ध्यान से देखना, चार साल की है। उनके नाक—नक्श सीएमडी साहब से काफी मिलते हैं। लोग कहते हैं कि जिस रात सीएमडी साहब आगरा में रुकते हैं, उस रात या तो सुबोधिनी उनकी सेवा में हाजिर होती हैं या कंपनी की ही कोई दूसरी महिला कर्मचारी। सुना है, कल रात सीएमडी साहब आगरा में ही थे। शायद सुबोधिनी के विलंब से आने का यही कारण हो।' इतना कहकर संध्या पहले तो धूर्ततापूर्वक मुस्कुराई और फिर अपने काम में लग गई।

‘तो यह है सीएमडी भदौरिया का असली चरित्रा!'

‘सीएमडी का ही क्यों...लगभग ऐसा ही चरित्रा इस कंपनी में काम करने वाली अधिकतर लड़कियों और लोगों का है। जनता का पैसा है, दोनों हाथों से शराब और शबाब पर लुटाया जा रहा है। आपको शायद नहीं मालूम। अभी कुछ दिन पहले ही पैंतालिस लाख का घपला एचआर डिपार्टमेंट में पकड़ा गया है। लोग दबी जुबान से कहते हैं, यह सब सुबोधिनी का ही किया धरा है। बाप चमड़ा उद्योग में रहकर कंपनी को लूट रहा है। बेटी ‘चमड़ी' की बदौलत सीएमडी को लूट रही है। सब कुछ जानते हुए भी सीएमडी साहब आंखें मूंदे हुए हैं। यहां तो रंडियों और दलालों की भरमार है।'

शिवाकांत को यह सब सुनकर वितृष्णा हुई। उसे कुछ ही दिन पहले ‘पृथ्वी एक्सप्रेस' में भर्ती होने आई अदिति की याद आ गई। उसके बाप—दादे अलीगढ़ के किसी गांव में किसान हैं। उस समय वह विश्वकर्मा और एसपी सिंह के साथ बैठा गप लड़ा रहा था। शायद उस दिन रविवार था। कोई काम नहीं था। थोड़ी देर बाद ऊबकर शिवाकांत निर्माणाधीन न्यूज रूम में लगी टीवी पर प्रसारित हो रहे भारत—श्रीलंका के बीच चल रहा वनडे मैच देखने चला गया। श्रीलंकाई टीम दो सौ चौबीस रन बनाकर आउट हो चुकी थी। दस ओवर में दो विकेट गंवाकर भारतीय टीम सत्तर रन पर खेल रही थी। भारतीय टीम के जीतने के पूरे आसार थे। तभी एक लड़की ने न्यूज रूम में प्रवेश किया। शिवाकांत उसे देखता रह गया। गोरी—चिट्टी, छरहरी सी काया, भरे—पूरे यौवनांग, भूरी आंखें। शरीर पर टाइट टीशर्ट और घिसी जींस। उसने पास आकर कहा, ‘सर, क्या मैं यहां थोड़ी देर बैठ सकती हूं? एसपी सिंह सर ने थोड़ी देर बाहर इंतजार करने को कहा है।'

मैच देखने के साथ—साथ बीच—बीच में वह चोर निगाहों से लड़की को देख लेता था। उसे बैठे पांच—सात मिनट ही बीते थे कि गमछे से पसीना पोंछते हुए शिवेश दत्त ने न्यूज रूम में प्रवेश किया। उसने शिवाकांत को देखते ही नारा लगाया, ‘सर जी...राधे—राधे।'

उसने उसी झोंक में जवाब दिया, ‘भौजाई में आधे—आधे।'

अचानक उसे लड़की की उपस्थिति का भान हुआ, तो वह झेंप गया। लड़की

ने बड़ा—सा मुंह फाड़ दिया। लड़की को देख लार टपकाता शिवेश उसके पास पहुंचा,

‘आप...?'

सवाल पूछते ही लड़की घबराकर खड़ी हो गई, ‘सर! मैं अलीगढ़ से आई हूं। मुझे पता चला है, आपके अखबार में डेस्क के लिए कुछ जगह खाली है।'

शिवेश ने लड़की के शरीर का भरपूर जायजा लिया, ‘तुमने इससे पहले कहीं काम किया है?'

‘हां सर। वीकली टुडे में काम कर रही हूं। इससे पहले पांच महीने नीलांचल टाइम्स में काम किया है। कुछ दिन भार्गव क्लीनिक में रिशेप्सनिस्ट भी रह चुकी हूं।'

‘तो रिशेप्सनिस्ट वाला जॉब क्यों छोड़ दिया? लड़कियों के लिए यह कोई अच्छा पेशा नहीं है। यहां कई तरह के समझौते करने पड़ते हैं।'

‘सर, मैं आपकी बात समझी नहीं।'

‘मैंने फारसी में बात कही है क्या? मेरा मतलब है, अब मीडिया जगत काफी बदनाम हो चुका है। खास तौर पर लड़कियों के मामले में।'

‘मैं समझ गई।'

‘क्या समझ गई?' शिवेश दत्त बातों को प्याज के छिलके की तरह परत—दर—परत उधेड़ने में लगा हुआ था।

‘लड़कियों को कई तरह के समझौते करने पड़ते हैं। उन्हें अपने बॉस के साथ सोना पड़ता है।' शिवेश दत्त लड़की के बेबाक कहने पर अचकचा उठा। उसने कहा, ‘तुमने अपना नाम नहीं बताया।'

‘अदिति...अदिति सिंह। बॉस के साथ सोने पर नौकरी तो मिल जाएगी न! मुझे नौकरी चाहिए। उसकी मुझे सख्त जरूरत है। यह नौकरी सोने की कीमत पर मिलती है, तो भी मुझे मंजूर है।'

बाद में शिवाकांत को कुछ स्थानीय कर्मचारियों से ही पता चला, उस लड़की को उसके आशिक ने ही विश्वकर्मा और एसपी सिंह के आगे परोसकर नौकरी का जुगाड़ भिड़ा लिया था। शिवेश दत्त तो कई बार चर्चा होने पर खुलेआम कहने लगा, विश्वकर्मा, एसपी सिंह और प्रोडक्शन इंचार्ज श्याम नागर अदिति सिंह के साथ सोए थे, तभी उसकी नियुक्ति हो पाई। इसमें कितनी सच्चाई थी, शिवाकांत नहीं जानता।

आगरा के ही कुछ सहकर्मी अदिति सिंह की बात चलते ही यह कहने से नहीं चूकते, ‘आप भी भाई साहब! किसकी बात ले बैठे। रंडी है...रंडी। मीडिया जगत में यह कॉलगर्ल के तौर पर बदनाम है। इसका आशिक जहां भी काम करता है, वहां इसे किसी न किसी जुगाड़ से घुसा देता है। अधिकारियों के सामने उसे पेश कर अपना मतलब गांठता है। यह लड़की भी स्वार्थ साधने के लिए किसी के भी आगे बिछ जाने को हमेशा तैयार रहती है।'

तब तक लंच टाइम हो गया। संध्या ने ड्रॉअर से लंच बाक्स निकालते हुए कहा, ‘आप लंच लेने चलेंगे मेरे साथ। आज मम्मी ने मूली के पराठे बनाए थे। मेरी मम्मी पराठे बहुत बढ़िया बनाती हैं। ये तो ठंडे हो गए हैं। फिर भी आपको अच्छा लगेगा। चलिए, कैंटीन में लंच लेते हैं। तब तक हो सकता है कि सुबोधिनी भी आ जाए।'

दोनों तीसरी मंजिल पर बनी कैंटीन में आ बैठे। थोड़ी देर बाद विश्वकर्मा भी आ गया। उसने इन दोनों से थोड़ी दूर खाली कुर्सी पर बैठते हुए कहा, ‘नमस्ते शिवाकांत जी! कैसे हैं आप?'

‘ठीक हूं भाई साहब...' कहकर शिवाकांत खाने में मशगूल हो गया। संध्या जादौन ने दबी जुबान से कहा, ‘विश्वकर्मा आपको कैसा आदमी लगा?'

‘ठीक ही हैं...अपने आपको बुंदेलखंड मुक्ति संग्राम का मसीहा कहते हैं। चार पेज का अखबार निकालते थे, अब पृथ्वी एक्सप्रेस के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं। इनकी तो बल्ले—बल्ले है। दसों अंगुलियां घी में और सिर कढ़ाई में।'

‘लफंगा है...लफंगा। साला...लड़कियों को देखकर कुत्ते की तरह लार टपकाता है।'

लगता था, संध्या जादौन किसी बात को लेकर विश्वकर्मा से खफा थी, ‘यह साला दिखने में भोला है, लेकिन फितरत इसकी आपको पता चले, तो आप दांतों तले अंगुली दबा लेंगे। भोला—भाला चेहरा है, दिल बेईमान है। इसके कभी दोस्त हुआ करते थे घनश्याला जी। पंकज कुमार घनश्याला। सीएमडी साहब के पुराने दोस्त। विश्वकर्मा और घनश्याला जी झांसी के रहने वाले हैं। दोनों के गांव एक दूसरे से थोड़ी दूरी पर हैं। पृथ्वी फाइनांस में इसकी इंट्री घनश्याला जी ने कराई थी। जानते हैं इसने क्या किया? दो लंगोटिया यारों को लड़ा दिया।' इतना कहकर संध्या मेज पर गिरी जूठन बटोरकर अपना लंच बाक्स समेटने लगी।

‘लगता है, तुम्हारी इससे कोई पुरानी लाग—डाट है?'

‘नहीं, मेरी इससे सीधी कोई बातचीत नहीं है, लेकिन इसकी सारी धूर्तता जानती हूं। मेरे अंकल के दोस्त हैं घनश्याला जी। हमारे पारिवारिक रिश्ते हैं घनश्याला अंकल से। एक दिन मेरे अंकल जी के घर आए थे घनश्याला जी। अंकल के घर में संयोग से मैं भी थी। बातचीत के दौरान घनश्याला जी ने बताया, यह विश्वकर्मा कालिया नाग है...नाग। यह जब भी मुंह खोलेगा, जहर ही उगलेगा। जानते हैं सर! घनश्याला अंकल ने इसके बारे में क्या बताया था? घनश्याला अंकल और विश्वकर्मा दोनों झांसी से हैं।'

‘हां, अभी थोड़ी ही देर पहले तुमने बताया था।'

‘आज से लगभग दस या ग्यारह साल पहले तक यह आदमी एक लोकल अखबार में चार हजार रुपये में सब एडीटरी करता था। एक दिन पता नहीं किस बात पर अखबार की महिला सहकर्मी से इसकी झड़प हो गई। उसने छेड़छाड़ का आरोप लगाकर मैनेजमेंट से शिकायत कर दी, तो अखबार से निकाल दिया गया। अखबार से निकाले जाने के बाद यह परिवार को गांव छोड़ आया। झांसी के ही एक मंदिर में प्रसाद खाकर गुजारा करने लगा। भिखारियों जैसी हालत में इसने पांच महीने गुजारे। तब घनश्याला जी बुंदेलखंड मुक्ति मोर्चा के लिए काम करते थे। एक दिन इसकी मुलाकात घनश्याला जी से हुई। इसने अपना दुखड़ा घनश्याला जी को सुनाया। कहीं नौकरी दिलाने की गुजारिश की। घनश्याला जी ने इससे मुक्ति मोर्चा के लिए काम करने को कहा।'

शिवाकांत चुपचाप सुन रहा था। संध्या बता रही थी, ‘लगभग एक—डेढ़ साल तक तो इसने काफी मेहनत की। फिर जब पेट भरने का जुगाड़ हुआ, तो पर निकलने शुरू हुए। यह मोर्चा से जुड़े कार्यकर्ताओं और नेताओं को घनश्याला जी के खिलाफ भड़काने लगा। एक दिन नौबत यहां तक आ पहुंची कि घनश्याला जी मोर्चो से निकाल दिए गए। मोर्चे के कुछ अगुआ नेताओं का यह बड़ा मुंहलगा हो गया था। लल्लो—चप्पो पसंद नेताओं ने मुक्ति मोर्चा का हिसाब किताब रखने का जिम्मा इसी नासपीटे विश्वकर्मा को सौंप दिया। कई राजनीतिक दल मुक्ति मोर्चा वालों को भीतर—भीतर आर्थिक मदद कर रहे थे। इसके पीछे उनके कुछ राजनीतिक स्वार्थ थे। एक दिन वह भी आया, जब झांसी के लोगों ने सुना, मुक्ति मोर्चा के बैंक एकाउंट से सत्राह लाख रुपये निकालकर विश्वकर्मा फरार हो गया है। बुंदेलखंड मुक्ति मोर्चे के नेता और कार्यकर्ता लट्ठ लेकर विश्वकर्मा को झांसी भर में खोज रहे थे और यह ‘गधे के सिर से सींग' की तरह गायब था।'

शिवाकांत को अब कहानी में मजा आने लगा था। वह रस लेकर बोला, ‘फिर क्या हुआ?'

‘हुआ क्या? फरारी के लगभग बीस—पच्चीस दिन बाद एक दिन घनश्याला जी के पास विश्वकर्मा का फोन आया। उसने रोते हुए कहा, घनश्याला जी! अब आप मेरी बीवी, बच्चों का ख्याल रखिएगा। मैं आत्महत्या करने जा रहा हूं। घनश्याला जी घबरा उठे। उन्होंने सांत्वना देते हुए सारा मामला पूछा। इसने नाटकीय अंदाज में बताया कि इस समय मैं गोवा में हूं। मैं सारा पैसा यहां के एक कैसीनो में हार गया हूं। मेरे पास अब भोजन करने को कौन कहे, जहर खाने के भी पैसे नहीं हैं। घनश्याला अंकल ने इसे काफी समझाया—बुझाया। कहा कि तुम मुझे अपना एकाउंट नंबर बताओ। मैं बीस हजार रुपये उसमें डलवाता हूं। तुम वहां से झांसी चले आओ। फिर मैं देखता हूं, तुम्हारे लिए क्या हो सकता है। घनश्याला अंकल ने खाते में बीस हजार रुपये डलवा दिए। इसके बाद उन्होंने इसके परिवार और इसकी काफी मदद की। जब यह झांसी आया, तो उन्होंने अपने प्रयास से भोपाल में छोटी—मोटी नौकरी दिला दी। एक साल पहले जब सीएमडी साहब ने अखबार और चैनल शुरू करने की बात घनश्याला जी को बताई, तो उन्होंने विश्वकर्मा को भी अखबार में कोई काम देने की सिफारिश की। घनश्याला जी ने आनन—फानन विश्वकर्मा को भोपाल से बुला लिया। एक बार विश्वकर्मा यहां आया, तो जम गया।'

‘सीएमडी और घनश्याला के बीच का क्या किस्सा है?'

‘देखिए, घनश्याला जी पृथ्वी फाइनांस की एनसीआर वाली सारी ब्रांचों का काम देखते थे। वे एक तरह से उन ब्रांचों के सर्वेसर्वा थे। अभी चार—पांच महीने पहले यह नोएडा में जाकर घनश्याला जी से मिला और कहा, आपका मुझ पर काफी एहसान है। भाई साहब! मैं आपके सम्मान में मथुरा में एक पार्टी देना चाहता हूं। आप इसमें शिरकत करेंगे, तो मुझे अच्छा लगेगा। घनश्याला जी ने इस शर्त पर पार्टी में शामिल होने की स्वीकृति दी कि वह सिर्फ उसके दो—तीन मित्राों को ही बुलाएगा। नियत समय पर मथुरा के आलीशान होटल में पार्टी हुई। विश्वकर्मा ने खुद कम पी और घनश्याला जी को ज्यादा पिला दी। नशे में घनश्याला जी कहीं यह कह बैठे, सीएमडी भदौरिया आज जो कुछ भी हैं, वह उनकी बदौलत। अगर मैं चाहूं, तो ऐसे दसियों सीएमडी पैदा कर सकता हूं। विश्वकर्मा पार्टी शुरू होने के साथ ही आटोमेटिक कैमरे से वीडियो फिल्म तैयार करता जा रहा था। वह जानबूझकर घनश्याला को सीएमडी के खिलाफ भड़काता रहा। इसकी कमीनगी तो देखिए, बाद में इस एहसान फरामोश ने वह पूरी फिल्म सीएमडी को दिखा दी। नतीजा यह हुआ, सीएमडी और घनश्याला के बीच दूरियां बढ़ गर्इं। ...और एक दिन विश्वकर्मा के विश्वाघात और सीएमडी की उपेक्षा के चलते घनश्याला जी ने नौकरी ही छोड़ दी। आजकल कुछ फाइनांस कंपनियों की कंसल्टेंसी करके परिवार चला रहे हैं।'

‘अगर ऐसा है, तो सचमुच यह बहुत बड़ा कुत्ता है। आपको सच बताउं+, संध्या जी! पता नहीं क्यों, यह आदमी मुझे शुरू से ही नहीं जंचा। यह आदमी जितना मीठा बोलता है, शरीफ दिखता है, उतना ही इसके मन में जहर भरा हुआ है। बेसिकली ही इज करप्ट एंड ग्रीडी पर्सन। आई हेट लाइक दिस पर्सन।' यह कहते—कहते शिवाकांत उठ खड़ा हुआ। दोनों कैंटीन से बाहर आ गए। वह सुबोधिनी राय के पास पहुंचा। उसने ट्रांसफर लेटर इशू करने को कहा।

ट्रांसफर लेटर लेने के दूसरे दिन नोएडा ऑफिस में शिवाकांत उपस्थित हुआ। वहां का माहौल बदला हुआ था। जो एसपी सिंह आगरा में बड़े तीसमार खां बने घूमते थे, उनके पर कतर दिए गए थे। विश्वकर्मा ने मैनपुरी के किसी रवींद्र चौरसिया को संपादक नियुक्त करवा दिया था। कुछ और पत्राकार भर्ती किए जा चुके थे। राजनीतिक संपादक निखिलेश निखिल, सहायक संपादक प्रतुल गुप्ता और मुंबई में ब्यूरो ऑफिस खोलकर एक गुमनाम फिल्मी गीतकार कमलेश सिन्हा को सहायक संपादक नियुक्त किया जा चुका था। यह तो काफी दिनों बाद शिवेश दत्त ने बताया, अखबार और चैनल को आगरा से नोएडा शिफ्ट करने का सुझाव एसपी सिंह का था। लूट के माल में बंटवारे को लेकर उनकी विश्वकर्मा से ठन गई थी। उन्होंने विश्वकर्मा की लूटखसोट पर रोक लगाने की नीयत से सीएमडी को चैनल और अखबार को नोएडा से निकालने का सुझाव दिया था। वह उन्हें यह विश्वास दिलाने में सफल हो गए थे कि दिल्ली या एनसीआर से अखबार और चैनल शुरू करने से दोनों को राष्ट्रीय स्तर की मान्यता मिलने में आसानी होगी। एसपी सिंह की इस हरकत से खिसियाए विश्वकर्मा ने स्थानीय संपादक से ऊपर और नीचे के पदों पर अपने आदमी बिठा दिए। मीडिया की कार्य प्रणाली से नावाकिफ विश्वकर्मा ने अखबार और चैनल में ऐसे— ऐसे पद सृजित किए जिनका कोई मतलब नहीं था। बाद में चैनल हेड सुदेश कुमार के विरोध करने पर विश्वकर्मा का अधिकार क्षेत्रा सिर्फ अखबार तक ही सीमित कर दिया गया।

शिवाकांत को स्थानीय संपादक बनाने का आश्वासन इन दोनों की आपसी जंग में कहां बिला गया, यह तो शिवाकांत खुद नहीं समझ पाया। शिवाकांत को मन मसोस कर रह जाना पड़ा। उसने लक्ष्मीकांत से भी इसके बारे में चर्चा की, तो उन्होंने यह कहते हुए पल्ला झाड़ लिया, ‘अब जो होना था, वह हो गया। जब भदौरिया जी ही अपने वायदे से मुकर गए, तो क्या किया जा सकता है। अगर बहुत ज्यादा दिक्कत न हो, तो काम करते रहो। आगे देखा जाएगा।'

विश्वकर्मा और एसपी सिंह अब खुलेआम आलोचना के साथ एक दूसरे पर आर्थिक भ्रष्टाचार के आरोप लगाने लगे। जिन दिनों डमी निकालने की तैयारी चल रही थी, उन्हीं दिनों एसपी सिंह दो दिन की छुट्टी पर आगरा गए। छुट्टी से वापस आने पर वे बड़े प्रसन्न थे।

शिवाकांत ने मौका देखकर पूछ ही लिया, ‘भाई साहब! सब खैरियत तो है? आज कुछ खुश ज्यादा लग रहे हैं। भाभी जी का आज बर्थडे या मैरिज एनवर्सरी तो नहीं है?'

‘हां...ठीक है। बर्थ डे या एनवर्सरी वाली बात भी नहीं है।' एसपी सिंह मुस्कुरा दिए।

‘अभी चाय पीने बाहर गया था, तो कुछ चर्चा हो रही थी। क्या वह सही है?'

‘क्या चर्चा हो रही थी?' एसपी सिंह का मंद—मंद मुस्कुराना जारी था।

‘चर्चा है, कोई नया संपादक आ रहा है?'

‘नया संपादक नहीं, विश्वकर्मा और रवींद्र चौरसिया का बाप आ रहा है। प्रधान संपादक बनकर आ रहे हैं शुभ्रांशु दत्ता।'

‘वही शुभ्रांशु दत्ता जो कई अखबारों में रह चुके हैं?'

‘हां...वही। दादा अब तक कई अखबारों को लांच करा चुके हैं। मीडिया जगत में दादा का काफी नाम है। लगभग हर बड़े मीडिया संस्थान में काम कर चुके हैं। उनका नाम ही सफलता की गारंटी है।'

‘लेकिन सुना है, जिन अखबारों या चैनलों की लांचिंग दादा ने कराई है, वे अखबार और चैनल या तो एकाध साल में बंद हो गए या फिर उसके मालिक को जेल जाना पड़ा है।' शिवाकांत के मुंह से निकल ही गया। हालांकि तत्काल उसे लगा कि गलती हो गई? उसे यह नहीं कहना चाहिए था।

‘ऐसी बातें तुम्हें विश्वकर्मा या रवींद्र चौरसिया ने बताई होगी। ये साले दादा का आना पचा नहीं पा रहे हैं। इसी से अनर्गल प्रलाप कर रहे हैं। आने दो दादा को। सबको ठीक करा दूंगा। बस, तुम इस चांडाल चौकड़ी से दूर रहना। सीधे—साधे आदमी हो, तुम्हें ये अपनी गिरफ्त में ले सकते हैं।'

शिवाकांत ने जब देखा, मामला दूसरे ट्रैक पर जा रहा है, तो वह खबरों पर बातचीत करने लगा। थोड़ी देर बाद वह एसपी सिंह की केबिन से उठकर चला आया।

शिवाकांत अपनी डेस्क पर पहुंचा। सभी साथी काम में जुटे थे। वह भी अपने काम में लग गया। दो—ढाई घंटे बाद निखिलेश निखिल ने आकर पूछा, ‘शिवाकांत जी! चलिए कुछ खा—पी लिया जाए। भूख लग आई है।'

‘अभी थोड़ी देर पहले ही आया हूं।' इतना कहकर उसने पास में पड़ी खाली कुर्सी पर बैठने का संकेत करते हुए कहा, ‘निखिल जी, मेरे पास एक ब्रेकिंग न्यूज है। प्रधान संपादक के रूप में एक—दो दिन में शुभ्रांशु दत्ता ज्वाइन करने वाले हैं। आपका इनसे कोई परिचय है?'

‘अरे छोड़िए...यह सब बातें। कोई भी ज्वाइन करे, हम लोगों को क्या लेना—देना है। मैं ऊपर से लेकर नीचे तक सबकी असलियत जानता हूं। ये सब चोट्टे हैं। दे आर टोटली क्रिमिनल्स। इन सबको एक लाइन में खड़ा करके गोली मार देनी चाहिए।' निखिलेश उबल पड़े।

‘यह तो बताइए, आप दादा को जानते हैं? कैसे आदमी हैं?' शिवाकांत पता नहीं क्यों शुभ्रांशु दत्ता के बारे में सब कुछ जानने को आतुर था। वह दत्ता के बारे में क्या जानना चाहता था, अभी उसके दिमाग में स्पष्ट नहीं था।

‘तुम जानना क्या चाहते हो? यही कि वह चमचागिरी पसंद करता है या नहीं? रंडापे में उसकी रुचि है या नहीं? वह आएगा, तो अपनी टीम साथ लाएगा या अकेला आएगा? यही सब कुछ जानना चाहते हो न! तो यह जान लो, कोई भी संपादक इन सब बुराइयों से अछूता नहीं होता है। शुभ्रांशु दत्ता भी वही करेंगे, जो रवींद्र चौरसिया कर रहे थे। एसपी सिंह कर रहे थे। विश्वकर्मा कर रहे थे। ऐसा कुछ नहीं होने वाला है, जो मीडिया जगत में नहीं होता हो।' निखिल अपनी रौ में आ गए थे।

थोड़ी देर में यह खबर पूरे दफ्तर में फैल गई। कोई दत्ता को एक साल से जानने का दावा कर रहा था, तो कोई पांच साल से। कोई उनके साथ काम कर चुका था, तो किसी का मित्रा दत्ता का खास था। एसपी सिंह तो घूम—घूम कर लोगों को बता रहे थे, ‘अब नहीं चलने वाली चौरसिया की धांधली...बड़े कड़क हैं दादा। दादा के साथ काम करना, आसान नहीं है। अनुशासन के मामले में तो पूरे कट्टर हैं। दस बजे अगर उन्होंने ऑफिस में बुलाया है, तो इसका मतलब दस बजे ही है, दस बजकर पांच मिनट नहीं। अब चौरसिया की मनमानी—घरजानी नहीं चलेगी। क्या समझे?'

संपादक रवींद्र चौरसिया तक यह बात पहुंची, तो उन्होंने यह कहकर बात हवा में उड़ा दी, ‘आने दो साले को...देखता हूं कितना बड़ा बल्लम है। किसी दिन दूंगा मिलाके रप से बत्ती...कि मैय्यू हो जाएगी। जब तक सीएमडी साहब अपने फेवर में हैं, तब तक कोई मेरा रोयां भी टेढ़ा नहीं कर सकता। मेरा एक भी बाल नहीं उखड़ सकता।' इसके बाद ठहाका लगाकर हंस पड़े। उनकी हंसी में बहुतों ने साथ दिया। शिवाकांत ने ऐसे मौके पर चुप रहना ही बेहतर समझा।

एक दिन रवींद्र चौरसिया ऑफिस पहुंचे, तो उन्हें सीएमडी भदौरिया का भेजा गया एक पत्रा प्राप्त हुआ जिसमें शुभ्रांशु दत्ता को प्रधान संपादक बनाए जाने की जानकारी देते हुए उन्हें सहयोग करने की बात कही गई थी। सीएमडी के पत्रा से चौरसिया भीतर ही भीतर किलस कर रह गए। उन्हें उम्मीद नहीं थी, दत्ता को अखबार में ज्वाइन कराया जाएगा। वह तो दत्ता के ज्वाइन करने की बात को एसपी सिंह का शगूफा मानकर चल रहे थे। पत्रा मिलने के दूसरे दिन जब संपादक रवींद्र चौरसिया ऑफिस पहुंचे, तो वहां का नजारा ही बदला हुआ था। एक शख्स उनकी केबिन में उनकी ही कुर्सी पर बैठा हुआ था। ऑफिस के ज्यादातर कर्मचारी उस केबिन में जमा थे। उनको देखते ही कुछ लोगों ने कहा, ‘संपादक जी आ गए। आइए सर...।'

चौरसिया ने प्रश्नवाचक दृष्टि से अपनी कुर्सी पर बैठे व्यक्ति को घूरा। परिचय कराने का जिम्मा संभाला प्रतुल गुप्ता ने। प्रतुल ने अपनी सीट से उठते हुए चौरसिया से कहा, ‘सर...आपका परिचय करा दें। ये हैं प्रधान संपादक शुभ्रांशु दत्ता जी।' दत्ता की ओर मुंह करके प्रतुल गुप्ता ने कहा, ‘और आप हैं...पृथ्वी एक्सप्रेस के संपादक रवींद्र चौरसिया जी।'

दत्ता ने उठकर चौरसिया से हाथ मिलाते हुए कहा, ‘तो आप ही हैं चौरसिया जी। माफ कीजिएगा...वास्तु के हिसाब से कोई जगह जंच नहीं रही थी, इसलिए आपकी केबिन में बैठना पड़ा। जब तक मेरे बैठने की कोई व्यवस्था नहीं होती, तब तक मैं यहीं बैठूंगा। आप कहीं और बैठ लें।'

चौरसिया कुछ कहते इससे पहले एसपी सिंह ने बात लपक ली, ‘हां...हां...कोई बात नहीं। चौरसिया सर कहीं भी बैठ जाएंगे। चौरसिया सर का नेचर बहुत ही को—आपरेटिव है। बड़े भले आदमी हैं सर।'

दत्ता की बात से जले—भुने बैठे चौरसिया ने एसपी सिंह को डपटते हुए कहा, ‘क्यों

...कहीं और बैठ जाएंगे। तुम्हारे पिता जी ने मुझे यहां बिठाया था क्या? और आप भी उठिए मेरी सीट से।'

उन्होंने दत्ता का हाथ पकड़कर सीट से उठा दिया। चौरसिया का रौद्र रूप देखते ही केबिन में जमा हुए लोग तितर—बितर होने लगे। तमतमाया चेहरा लेकर दत्ता और एसपी सिंह केबिन से बाहर आ गए। कुछ लोग अंदर ही रह गए और कुछ उन दोनों के साथ हो गए। शिवाकांत अपनी सीट पर बैठा यह तमाशा देखता रहा। उसकी सीट संपादक की केबिन के सामने ही थी। उसने निखिल की ओर झुककर फुसफुसाते स्वर में कहा, ‘राजनीतिक संपादक जी! आपकी समझ से इस कुत्ता घसीटी का परिणाम क्या होगा? जरा प्रकाश डालिए।'

‘एक बात बता दें...जल्दी ही यह दफ्तर रंडलों का अड्डा बनने वाला है। मैंने तो एक से बढ़कर एक रंडलों को देखा है, उनके साथ काम किया है। डरता हूं कि कहीं किसी दिन मेरे हाथों कोई पिट ना जाए। पूरी मीडिया में मैं तो बदनाम हूं कि मैं मैनेजरों और संपादकों को पीट देता हूं। एक घटना बताउं+। भोपाल से एक साप्ताहिक पत्रिाका निकलती थी ‘समय धारा।' दस—बारह साल पहले मैं उसमें दिल्ली का ब्यूरो चीफ हुआ करता था। सन तो ठीक—ठीक याद नहीं, लेकिन लगभग इतना ही समय हुआ होगा। एक नवकुबेर थे कमल मुंजारे। मध्य प्रदेश के आदिवासियों और अफसरों से ठगी और जाल—बट्टा करके काफी पैसा कमाया था। कुछ लोग तो उसे आदिवासी लड़कियों का दलाल भी कहते थे। उसे शौक चढ़ा पत्रिाका निकालने का। भोपाल के एक बड़े नामी—गिरामी संपादक उन दिनों बेरोजगार थे। उन्होंने कमल मुंजारे को जाने क्या पट्टी पढ़ाई, वह पत्रिाका के नाम पर चार—पांच करोड़ रुपये डुबाने को तैयार हो गया। खैर...। उन दिनों मैं भी बेरोजगार था। मैं भी उसका दिल्ली ब्यूरो चीफ बन गया। तनख्वाह तय हुई सत्राह हजार रुपये। दो महीना काम किया। एक दिन ऑफिस पहुंचा, तो चपरासी ने डरते—डरते बताया, सुधींद्र बाबू उसकी दो महीने की तनख्वाह रोके हुए हैं। मांगने पर कहते हैं तुम्हारी तनख्वाह अभी भोपाल से नहीं आई है। सर...हम गरीब लोग हैं। मेरी बीवी को बच्चा होने वाला है। इस तनख्वाह के आसरे हैं। कुछ कहता हूं, तो निकाल देने की धमकी देते हैं। बताइए, मैं क्या करूं?'

इतना कहकर निखिल सांस लेने के लिए रुके, ‘समय धारा का ऑफिस वहीं था

...अरे करोलबाग में।' उन्होंने बायां हाथ हवा में लहराते हुए ‘करोलबाग' शब्द पर जोर दिया।

‘अब मैं तुमको बताउं+...चपरासी की बात सुनते ही तन—बदन में आग लग गई। मैंने सुधींद्र को बुलाया। वह दिल्ली का मार्केटिंग मैनेजर था। चपरासी की तनख्वाह के बारे में पूछते ही उसने कहा, नेतागिरी मत झाड़ो। अपने काम से काम रखो। फिर तो मेरा कपार ही जलने लगा। माथा गरमा गया एकदम। मैंने लपककर उसकी कनपट्टी पर धाड़ से मुक्का मारा। लपककर उसकी टाई पकड़ी और घसीटता हुआ न्यूजरूम में लाकर दो हाथ जमाया। किसी की हिम्मत नहीं हुई बोलने की। मैंने कहा, तू अभी दे इसका पैसा।' निखिल ने चारों ओर देखा। बात का प्रभाव आंका और फिर बोले, ‘दो—चार हाथ पड़ते ही सुधींद्र बाप—बाप चिल्लाने लगा। उसने ड्राअर से पैसे निकालकर चपरासी को दे दिए। मैंने कहा, कल मैं दस बजे ऑफिस आउं+गा। देखता हूं, तू कितना बड़ा गुंडा है। अगर कल दस बजे तक मेरी तनख्वाह नहीं मिली, तो मैं तुझे फिर मारूंगा। इतना कहकर मैं घर चला आया।'

शिवाकांत का मूड बदलने लगा था। उसने अपनी परेशानियों को दिमाग से झटक दिया। अब कथारस आनंद देने लगा था। वे बिहारी टोन में हाथ उठाकर और झटककर बात करते हैं, तो सुनने वाले का आनंद और बढ़ जाता है। उसने कहा, ‘फिर क्या हुआ?'

निखिल बोले, ‘होना क्या था...जोश में मैं उसे पीट तो बैठा था। फिर बीवी—बच्चों का ख्याल आया। अभी दो महीने ही तो हुए थे बेरोजगारी से निजात मिले। एक बार फिर नौकरी खोजने का संकट सिर पर आ खड़ा हुआ। दोस्तों को जब घटना की जानकारी मिली, तो उन्होंने जी भरकर गालियां दीं। खूब कोसा। प्रीतेश भाई ने कोढ़ी, कूढ़मगज, बनतू...न जाने क्या—क्या कहा। ...लेकिन अगले दिन दस बजे बकाया पैसा लेने समय धारा के ऑफिस पहुंच गया। इस बीच उसने भोपाल में रो—गाकर मेरा पूरे महीने का वेतन पास करा लिया था। संपादक ने कहा था, तुम अपने पास से निखिल को पैसे दे दो। बाद में मैं पेमेंट कर दूंगा। वहां से तनख्वाह लेकर दुखी मन से निकला, तो सीपी में टहलने लगा...।'

शिवाकांत को मजाक सूझा, ‘सीपी मतलब...?'

‘अरे वही...कनाट प्लेस...तुम सीपी का फुलफॉर्म नहीं जानते? तुमको तो गोली मार देनी चाहिए...दिल्ली में पत्राकारिता करते हो और सीपी का मतलब नहीं जानते। तो सुनो...वहां मेरा एक दोस्त मिला। उसको अपनी व्यथा—कथा सुनाई। उसने शांत रहने का आश्वासन मिलने पर अमृत उजाला के सहयोगी प्रकाशन ‘नया कारोबार' में नौकरी दिला दी। पच्चीस दिन वहां भी काम किया। फिर पता नहीं किस बात पर संपादक से भिड़ बैठा। वहां की नौकरी से भी हाथ धोना पड़ा।'

‘क्यों तुम खाना खाने नहीं चलोगे...?'

शिवाकांत ने असमर्थता जताई, ‘नहीं भाई साहब...भूख नहीं है। अभी थोड़ी देर पहले ही तो आया हूं। कुछ जरूरी काम हैं, उन्हें निबटाना है। उसके बाद ही कहीं चल पाउं+गा।'

‘तुम सब चोट्टे हो...। तुम सबको गोली मार देनी चाहिए। पूरे ऑफिस में रंडल फैला रखा है।' इतना कहकर निखिल उठे और चले गए।

एसपी सिंह के चैंबर में दत्ता और उनके समर्थक माने जाने वाले कर्मचारियों की मीटिंग हुई। पृथ्वी एक्सप्रेस में पहले से काम कर रहे दत्ता के कुछ समर्थकों में काफी आक्रोश था। वे उसी समय चौरसिया को उसकी औकात बता देने के मूड में थे। दत्ता ने सबको शांत कराते हुए कहा, ‘अभी हल्ला मत करो। पहले सारी स्थितियां समझ लेने दो। उसके बाद तंबोली के बच्चे का इलाज करता हूं। बस...महीने—दो महीने की बात है

...इसके चमचों को अंडमान—नीकोबार द्वीप और तंबोली को मैनपुरी ही भेजूंगा। मुझे सब पता है। मैंने आने से पहले इसकी हिस्ट्री—ज्योग्राफी पता कर ली है। मैनपुरी में रेल विभाग में दलाली करता था। रेलवे और फिल्मों के टिकटों की दलाली के चक्कर में कई बार जेल भी जा चुका है। बस...महीना—दो महीना रुको। सबको निकाल बाहर करता हूं।'

एसपी सिंह चिंतित थे, ‘यह तंबोली बहुत बदमाश है। पिछले चार महीने से नाको में दम किए है। इसको भगा पाना, मुश्किल दिख रहा है। साला विश्वकर्मा भी इसके

साथ है।'

‘कोई काम नहीं आएगा। तुम देखते चलो, कितनी सफाई से इनका पत्ता साफ

करता हूं। मैं सीएमडी सर से इजाजत लेकर कुछ लोगों की नियुक्ति कराने जा रहा हूं। मेरे नियुक्त किए गए लोग खुरपेंच में माहिर हैं। ये इतने हरामी हैं कि सीधे—सादे आदमी को भी कुछ न कुछ बोलने पर मजबूर कर देते हैं। चौरसिया के चमचों में से कोई जहां कुछ भी उल्टा—सीधा बोला, बस उसका निपटना तय है। छोटी सी बात को मुद्दा बनाकर निपटाना मुझे बखूबी आता है। ये मुझे जानते नहीं हैं, मैं कितना बड़ा हरामी हूं।' कहकर दत्ता मुस्कुरा उठे।

तभी ‘वी' एक्सप्रेस के चैनल हेड सुदेश कुमार ने केबिन में प्रवेश किया। दत्ता ने कुर्सी से उठकर उनका स्वागत किया, ‘आइए...आइए... सुदेश सर। मैं अभी थोड़ी देर बाद आपके पास आने वाला था।'

सुदेश कुमार ने दत्ता से हाथ मिलाया, ‘ज्वाइन कर लिया न...कोई दिक्कत तो नहीं हुई। कोई बात हो, तो बताना। मैं सामने वाली बिल्डिंग में ही बैठता हूं। हां, इस ऑफिस में एक ठग है। उससे बचकर रहना। वह चिटफंड कंपनी के लोगों को पुलिस के चक्कर में उलझाता है, फिर उन्हें छुड़ाने के नाम पर पैसे वसूलता है। अपने सीएमडी को भी यह महाठग अपने जाल में कई बार उलझा चुका है।' सुदेश कुमार के मुंह से बात निकलते ही एसपी सिंह और उनके साथी हंस पड़े।

दत्ता ने सिर्फ इतना कहा, ‘सुदेश भाई! आप निश्चिंत रहें। मैं वह गुड़ नहीं हूं, जिसे चींटे खा जाएं। जिस पर नजर टेढी कर देता हूं, वह ज्यादा दिन तक बारोजगार नहीं रहता। आप बेफिक्र रहे।'

दत्ता केबिन से निकल रहे थे। उसी समय गलियारे से रवींद्र चौरसिया निकले। दत्ता ने उनसे कहा, ‘चौरसिया जी! मैंने आज शाम को एडिटोरियल, सरकुलेशन और मार्केटिंग की मीटिंग बुलाई है। आपको तो पता ही होगा।'

‘दत्ता जी, मुझे सपने नहीं आते। सपने आते भी हैं, तो अंड—बंड आते हैं। जैसे पचपन साल की उम्र में मैं सोलह साल की छोकरी से इश्क फरमा रहा हूं। ट्यूनीशिया का राष्ट्रपति बन गया हूं। अमेरिका के राष्ट्रपति से मेरी झड़प हो गई है। अफसोस है कि सपने में ऑफिस की सूचनाएं नहीं आतीं। मुझे किसी ने बताया तो है नहीं। हां, उड़ती खबर अवश्य सुनी थी। ऐसी खबरों पर मैं भरोसा भी नहीं करता।' चौरसिया का स्वर तल्ख हो उठा।

‘अरे...आपको बताया नहीं ...? मैंने सुकांत अस्थाना से कहा था, आपको बता दे। मैं पूछता हूं उससे... उसने आपको बताया क्यों नहीं? दरअसल, चौरसिया जी...मैं चाहता हूं, जिस दिन अखबार मार्केट में जाए, तो मुकम्मल जाए। कोई भी चूक न हो। तीन दिन से डमी भी निर्धारित समय पर नहीं छूट पा रही है। कहां कमी रह जाती है, इसका जायजा लेने के लिए जरूरी है, हम सभी एक बार बैठक करके चर्चा कर लें। अपने कील—कांटे दुरुस्त कर लें। फिर मार्केट में उतरें। शाम को चार बजे कॉन्फ्रेंस रूम में मीटिंग है। आप जरूर आइएगा। अब मैं आपको सूचना दे रहा हूं।' इतना कहकर दत्ता आगे बढ़ गए।

चौरसिया वाशरूम से लौटे, तो उनकी केबिन के इर्द—गिर्द डीएनई सुकांत अस्थाना चक्कर काट रहा था। उसकी भर्ती प्रधान संपादक दत्ता ने विशेष तौर पर करवाई थी। चौरसिया को देखते ही उसने कहा, ‘नमस्कार सर, दत्ता जी ने मुझे आज की मीटिंग की सूचना देने की जिम्मेदारी दी है। शाम को कॉन्फ्रेंस रूम में मीटिंग बुलाई गई है।'

‘दत्ता ने बुलाई है, तो दत्ता ही अटेंड करें। मुझे क्यों बुला रहे हैं?'

‘सर...यह बात मैंने भी दत्ता जी से कही थी। जब आप सबकी मीटिंग बुला रहे हैं, तो संपादक जी से पहले चर्चा कर लें। लेकिन वे नहीं माने। मुझे डपट दिया। सर

...सच बताउं+, पत्राकारिता करते हुए मुझे बाइस—तेइस साल हो गए, लेकिन ऐसा पहला संस्थान देखा, जहां प्रधान संपादक सब कुछ तय कर लेता है। संपादक से पूछता ही नहीं है।' सुकांत अस्थाना ने जैस हवन में थोड़ी—सी और घी डाली। मन ही बुदबुदाया हो, ओम अग्नि देवाय नमः... स्वाहाः।

‘उससे कह दो, मुझसे ज्यादा खुजाए न...नहीं किसी दिन मैय्यू कर दूंगा। प्रधान संपादकी धरी रह जाएगी। मैंने ऐसे प्रधान संपादक बहुत देखे हैं। ऐसे संपादकों को मैं किसी लाइन में नहीं लेता। रहे होंगे बड़े तुर्रमखां...मां...के खलिहान बना दूंगा उनकी। यह बता देना मेरी तरफ से।'

सुकांत अस्थाना की हवन में डाली गई घी काम आ रही थी। आग तेज होती जा रही थी। केबिन में कुर्सी हथियाने के बाद सुकांत धूर्ततापूर्वक मुस्कुराया। बोला, ‘सर जी

...अब क्या बताउं+? दत्ता जी को मैं पहले से जानता हूं। ये जहां भी जाते हैं, ऐसी ही गंदगी फैलाते हैं। राजनीति करके लोगों को आपस में लड़ा देते हैं। सर जी...इससे पहले जिस अखबार में दत्ता जी थे, वहां कई लड़कियां भर्ती कर रखी थीं। बड़े अय्याश हैं दत्ता जी। सर जी...मुझे इनकी ऐसी—ऐसी कहानियां मालूम हैं कि अब क्या बताउं+? अगर मैं वो कहानियां सुनाउं+, तो आप हैरान रह जाएंगे। कई लड़कियों के साथ तो इन्होंने ऑफिस में ही धत्कर्म किया है।'

तभी केबिन में शिवाकांत ने प्रवेश किया, वह सुकांत की बगलवाली कुर्सी पर विराजमान हो गया।

‘यहां इन्होंने कोई गड़बड़ की तो मैं तुरंत नाप दूंगा। प्रशासन चलाना मुझे आता है। जब मैं आसरा में था, तो एक बार मैंने आसराश्री को दिया था मिला के रप से बत्ती। रायपुर की भरी मीटिंग में मैंने आसराश्री की मां—बहन एक कर दी। उसके बाद उन्हें एक पत्रा भी लिख दिया, आज मुझे आपको गालियां देनी पड़ी। आपके चमचों ने मुझे मजबूर ही इतना कर दिया था। इधर, मेरी शिकायत आसराश्री के पास पहुंची, उधर मेरा पत्रा। मुझे लखनऊ तलब किया गया। मैंने सारी बातें साफ—साफ बता दीं और इस्तीफा पेश कर दिया। आसराश्री ने इस्तीफा फाड़कर फेंक दिया। तनख्वाह में एक हजार रुपये की बढ़ोतरी करते हुए कहा, जाओ ठीक से काम करो। अब शिकायत नहीं मिलनी चाहिए। मैं जानता हूं प्रशासन कैसे चलाया जाता है। मुझे सब पता है। कोई भी मुझे दत्ता के खिलाफ एक सुबूत दे दे, मैं जाउं+गा थाने रपट लिखाने। मैनेजमेंट से भी कार्रवाई के बाद पूछूंगा।' चौरसिया रौ में आ गए थे।

‘सर जी...मेरे पास सुबूत तो कई हैं, लेकिन इस संस्थान के नहीं। लगा हुआ हूं, जैसे ही कोई सुबूत हाथ लगा, आपको सौंप दूंगा।' इतना कहकर सुकांत अपनी सीट से उठा, ‘तो सर जी...आ रहे हैं न शाम की मीटिंग में?'

‘मैं क्यों आउं+गा? मुझे कोई लेडूं संपादक समझ रखा है क्या? दत्ता चाहे मीटिंग बुलाएं, चाहे अपनी मैय्यू कराएं। मुझे नहीं आना है मीटिंग में।'

सुकांत के जाने के बाद शिवाकांत ने पूछ ही लिया, ‘भाई साहब! आप सचमुच मीटिंग में नहीं जाएंगे? हम लोग क्या करें? जाएं या नहीं?'

‘जाउं+गा क्यों नहीं? नहीं जाउं+गा, तो दत्ता इसी बात को मुद्दा बनाकर सीएमडी के सामने पेश कर देगा। यह जो अभी गया है, यह मेरी टोह लेने आया था। जो भी बातचीत हुई है, उसकी रिपोर्ट यह दत्ता को देगा। ये लोग तो इस गफलत में रहेंगे कि मैं नहीं आउं+गा। मैं ऐन मौके पर पहुंचकर उनकी सारी प्लानिंग फेल कर दूंगा।' कहकर चौरसिया हंस पड़े।

शाम को कॉन्फ्रेंस रूम में सारे कर्मचारी जमा हो गए। प्रतुल गुप्ता ने चुपके से आकर चौरसिया को बताया, ‘सर...मीटिंग शुरू होने वाली है।'

चौरसिया जब मीटिंग में पहुंचे, निखिलेश निखिल अपनी बात रख रहे थे, ‘अखबार की डमी मैंने देखी है। सब कूड़ा—कचरा छाप रखा है आप लोगों ने। स्पॉट रिपोर्टिंग करवाइए आप लोग। अखबार का कंटेंट सुधारें। अच्छी खबरों को तो आप लोग अपनी चूतड़ के नीचे दबाकर बैठ जाते हैं, सिर्फ बाइट वाली खबरों को तान देते हैं। बंद कीजिए यह बाइट जर्नलिज्म। चौरसिया जी और दत्ता जी...मैं तो खरी बात कहना जानता हूं। मैं आप दोनों से हाथ जोड़कर प्रार्थना करता हूं, आप दोनों राजनीति करना छोड़ दीजिए। नहीं तो कहिए...मैं ही संस्थान छोड़कर चला जाउं+। मैं संस्थान में राजनीति करने वालों को देखना नहीं चाहता हू्‌ं।' इतना कहकर उन्होंने सामने बैठे दत्ता और चौरसिया की ओर देखते हुए हाथ जोड़ लिया। मीटिंग में भाग ले रहे लोग अवाक रह गए। मीटिंग में शामिल लड़कियां और महिलाएं शर्मा गर्इं। उन्होंने अपनी नजरें झुका लीं। वे अपने पुरुष साथियों से नजरें मिलाने से कतराने लगीं।

निखिल कुछ आगे कहते, इससे पहले दत्ता ने बीच में टोक दिया, ‘आप संस्थान में रहिए, चाहे जाइए...लेकिन मुझ पर राजनीति करने का आरोप लगाना बंद कीजिए।

जहां तक कंटेंट की बात है, आप बताइए...क्या कमी अखबार के कंटेंट में? अगर किसी के खिलाफ कोई खबर आती है, तो क्या संबंधित पक्ष से उसका वर्जन नहीं पूछा जाना चाहिए?'

दत्ता के उग्र तेवर को देखते हुए निखिल तत्काल पीछे हटे, ‘नहीं...मैं आप लोगों पर कोई आरोप नहीं लगा रहा। मैं तो संस्थान की भलाई के लिए कह रहा था। खबरों में वर्जन तो जाना ही चाहिए। वर्जन जाने से खबर पुख्ता हो जाती है। पक्ष—विपक्ष को अपनी बात रखने का मौका मिलता है। कंटेंट में भी वैसे तो मुझे कोई खराबी नहीं दिख रही है। बस, मैं इतना कहना चाहता था कि यदि कंटेंट में थोड़ा और सुधार किया जाए, तो बेहतर होगा। मैं तो अखबार की बेहतरी के लिए कह रहा था, बाकी आप लोग जानें। आप लोग सीनियर हैं। अखबार की बेहतरी के बारे में मुझसे ज्यादा जानते हैं।'

इस द्वंद्व में कूद पड़े चौरसिया। उन्होंने कहा, ‘आप लोग बंद कीजिए अपनी बकवास। कोई सार्थक बात करनी हो, तो कीजिए। यह ड्रामा देखने नहीं आया हूं। कूड़ा—करकट जो भी छापना हो, छापिए। मुझे इससे कोई लेना—देना नहीं है। बस...मुझसे खुजाए...तो बहुत बुरा होगा।'

इतना कहकर वे उठे और कॉन्फ्रेंस रूम से बाहर निकल गए। मीटिंग में उपस्थित लोग यह नहीं समझ पाए कि मीटिंग में ऐसा क्या हुआ जिसको लेकर संपादक को इतना गुस्सा आ गया। कॉन्फ्रेंस रूम में कानाफूसी होने लगी। कुछ लोगों ने इसे चौरसिया का फ्रस्टेशन कहा, तो कुछ ने इसे अपनी बेइज्जती का बदला लेना बताया। आखिर मीटिंग बुलाने की बात तय करते समय उनसे पूछा जो नहीं गया था।

फिर तो मजमा ही उखड़ गया। निखिल ने दूसरा ही राग अलापा, ‘जिसको मीटिंग छोड़कर जाना हो जाए। मैं इतना जरूर कहूंगा, कंटेंट पर ध्यान दिया जाना चाहिए। कंटेंट इज द बॉस। कंटेंट ही आपको पाठकों के सिर पर बिठा सकता है, कंटेंट में जहां चूके, तो आपका अखबार बच्चों का चूतड़ पोंछने के काम आएगा।'

सुकांत अस्थाना बगल में बैठी सीनियर रिपोर्टर गीतिका के कान में फुसफुसाया, ‘मैंने दत्ता सर से पहले ही कहा था, चौरसिया जी को बुलाओ ही नहीं। मेरी बात कोई कहां सुनता है। करवा लिया न मीटिंग का कबाड़ा।'

गीतिका ने उसकी बात पर गौर ही नहीं किया। वह चुपचाप बैठी रही। इस बीच दत्ता अपनी कुर्सी से उठे और कॉन्फ्रेंस रूम से बाहर निकल गए। सुकांत अस्थाना भी उनके पीछे लपका। इसके बाद तो किसी के वहां बैठने का प्रश्न ही नहीं था। ज्यादातर लोग अपनी डेस्क पर जाकर बैठ गए। कुछ लोग बतकूचन के लिए चाय पीने के बहाने ऑफिस से बाहर निकल गए। चैंबर में पहुंचकर दत्ता हंसने लगे। हंसने पर उन्हें खांसी का दौरा पड़ा, तो उनकी आंखों में आंसू आ गए। सुकांत अस्थाना ने कहा, ‘सर...क्या हुआ? आप हंस क्यों रहे हैं? एक तो आपकी मीटिंग की हवा निकल गई और आप खुश हो रहे हैं? मामला क्या है, सर जी?'

‘मैं जो चाहता था, वही हुआ। मुझे आभास था, अपनी बेइज्जती से खफा चौरसिया कोई न कोई हंगामा खड़ा करेगा। हो गया हंगामा। अब बताता हूं पनवाड़ी को। सारी हेकड़ी दो मिनट में निकाल दूंगा। मुझसे राजनीति करने चला था?'

दत्ता की बात पर सुकांत अस्थाना भी हंस पड़ा। उसके हंसने में घोड़े के हिनहिनाने जैसी ध्वनि निकल रही थी। अपनी ही बात पर हंस लेना, उसकी आदत है। भले ही सामने वाला हंसे या नहीं। उसने कहा, ‘सर! आपने जैसा कहा था, ठीक वैसा ही किया। मैं चौरसिया के पास तभी पहुंचा, जब आपने उसे मीटिंग के बारे में बता दिया। इससे वह तिलमिला गया था। मुझसे कह रहा था, दत्ता मेरे बारे में नहीं जानता। किसी दिन दूंगा मिला के रप से बत्ती...तो फट के हाथ में आ जाएगी।' सुकांत अस्थाना ने चौरसिया की नकल उतारी।

‘सर...आज एसपी सिंह जी नहीं दिख रहे हैं। कहीं गए हैं क्या?' पूछ बैठा सुकांत।

‘हां...उनका ब्लड प्रेशर काफी बढ़ गया था। वे मुझे बताकर डॉक्टर के पास गए हैं। अब तुम देखना, इस मीटिंग की रिपोर्टिंग सीएमडी साहब के सामने कैसी करता हूं। ऐसी जलेबी बनाउं+गा कि यह साला चौरसिया और उसके लगुए—भगुए ही विलेन नजर आएंगे। इसकी प्रस्तावना मैंने सुबह ही लिख दी थी। सुबह सीएमडी साहब को फोन कर यह आशंका जता दी थी कि चौरसिया एंड कंपनी मीटिंग में गड़बड़ी कर सकती है...अब लिखूंगा भूमिका। थोड़ी देर में करता हूं सीएमडी साहब को ई—मेल। इसके बाद उनका फोन आना तय है।' दत्ता मुस्कुरा रहे थे। उनको मुस्कुराते देख सुकांत भी मुस्कुराने लगा।

‘सर...अगर सीएमडी को चौरसिया ने फोन कर लिया, तो...?' सुकांत अस्थाना ने आशंका जताई।

‘नहीं करेगा...चौरसिया है बड़ा हेकड़ीबाज। कोई खास जरूरत पड़ने पर ही सीएमडी साहब को फोन करता है। इसका पीआर बहुत खराब है। सीएमडी साहब भी इसकी इस आदत से परेशान रहते हैं। यह रिपोर्ट ही नहीं करता है। मैं तो सुबह उठते ही ‘गुड मॉर्निंग' का एसएमएस भेजता हूं। ऑफिस आने से पहले उनको प्लॉनिंग बताता हूं, शाम को पूरी रिपोर्ट देता हूं। अब अगर नौकरी करनी है तो नौकरी वाला कायदा अख्तियार करना ही पड़ेगा।' दत्ता ने गंभीरता ओढ़ ली थी।

‘अच्छा चलता हूं। देखता हूं, विपक्षी शिविर में क्या चल रहा है? क्या—क्या रणनीतियां बनाई जा रही हैं? कौन—सा योद्धा युद्ध भूमि में उतारा जाना है? कोई खास बात होगी, तो रात में फोन करूंगा।'

शिवाकांत एक प्रोग्राम अटेंड करके ऑफिस पहुंचा। देखा, न्यूज रूम में मजमा लगा हुआ है। सहायक संपादक प्रतुल गुप्ता, रिपोर्टर गीतिका, क्राइम रिपोर्टर सागर दत्त शुक्ल, जनरल डेस्क इंचार्ज नमो नारायण भारद्वाज, फीचर डेस्क का संजीव चौहान, डिप्टी न्यूज एडीटर सुकांत अस्थाना, आईटी डिपार्टमेंट के कुछ लड़के बैठे ठहाका लगा रहे थे। निखिलेश निखिल कथावाचक की तरह दोनों पैर सिकोड़कर कुर्सी पर बैठे हुए थे। पास रखे डस्टबिन में वे बार—बार गुटखे की पीक थूकते और फिर बातों में लग जाते। उन्होंने शिवाकांत को देखा, तो बिगड़ गए।

शिवाकांत का हाथ पकड़कर कुर्सी पर बिठाने की कोशिश की, लेकिन शिवाकांत ने हेलमेट रखकर आने का इशारा किया। निखिलेश कह रहे थे, ‘तुम मुझे सिखाओगे न्यूज लिखना? पहले यह बताओ, तुम खुद क्या हो? यू आर टोटली क्रिमिनल। तुम्हें तो बीच चौराहे पर खड़ा करके गोली मार देनी चाहिए, ताकि गांड से धुआं निकल जाए। मैं बताउं+। इस देश में कंटेंट के दस मास्टर हैं। उनमें से एक मैं भी हूं। बाकी सब जगलर हैं, लाइजनर हैं, मैनेजर हैं, लेकिन पत्राकार कोई नहीं है। क्या...पत्राकार कोई नहीं है। खुद जिंदगी भर एसपी सिंह का जूठा खाते रहे, उनकी लंगोट धोते रहे। पूरी जिंदगी एसपी सिंह को बेचते रहे। इसके सिवा तुमने किया ही क्या है...जी। मुझे चले हो न्यूज समझाने। मैंने भी एसपी सिंह के साथ काम किया है। आज तक किसी से यह कहने नहीं गया कि मैं एसपी सिंह का उत्तराधिकारी हूं। काफी लंबे समय तक एसपी सिंह के साथ काम किया है? और फिर

...एसपी सिंह किस चिड़िया का नाम है? बताओ...मुझे?'

निखिल हाथ नचा—नचाकर बमक रहे थे, ‘मैं सबकी असलियत जानता हूं। इस दिल्ली में जितने भी छोटे से लेकर बड़े अखबारों के संपादक और पत्राकार हैं, उन सबकी असलियत जानता हूं। मैं तो लिखने जा रहा हूं न...इन बड़े—बड़े संपादकों पर किताब लिख रहा हूं, ‘देश के सौ रंडीबाज संपादक' उसमें लिख रहा हूं न...कौन किसकी रंडी है, कौन किसका भड़ुवा?'

निर्धारित जगह पर अपना हेलमेट रखने के बाद शिवाकांत जा पहुंचा निखिल के पास, ‘क्या हुआ भाई साहब? आप कुछ खफा दिख रहे हैं?'

डस्टबिन में गुटखा थूकने के बाद शिवाकांत की ओर अंगुली उठाकर निखिल बोले, ‘यह सब तुम्हारी ही करतूत है। क्यों जी...मुझमें न्यूजसेंस नहीं है क्या? मेरी भाषा खराब हो सकती है, मात्राा—फुलस्टाप की गलतियां हो सकती हैं, लेकिन मेरी रिपोर्ट खराब है, यह कहने वाले तुम कौन होते हो?'

एकाएक हुए हमले से शिवाकांत पहले से ही घबराया हुआ था, ‘मैंने कब कहा, आपकी रिपोर्ट खराब है? मुझसे क्यों कह रहे हैं? जिसने कहा है, उससे जाकर कहिए। है हिम्मत? खामख्वाह मुझ पर धौंस जमा रहे हैं। आज सुबह से दूसरा कोई नहीं मिला था क्या, धौंस जमाने को?' धीरे—धीरे उसका स्वर तल्ख होता गया।

‘क्या...मुझमें हिम्मत नहीं है? मेरी हिम्मत को चुनौती तो दो ही नहीं। मैं क्या कर सकता हूं, इसकी तुम लोग कल्पना भी नहीं कर सकते हो। तुम लोग मेरे बारे में शायद जानते नहीं हो। दिल्ली के बड़े—बड़े धुरंधर पत्राकारों से पूछो, मैं क्या चीज हूं? एक बात बताउं+, मैं अब तक कई संपादकों को पीट चुका हूं। एक सरकारी चैनल पर बहुत पहले अनीता सिंह का एक न्यूज प्रोग्राम आता था। एक दिन किसी बात पर उसने ऑफिस के एक कर्मचारी पर हाथ उठा दिया। बस, मुझे गुस्सा आ गया। मैंने पकड़े उसके बाल और खींचते हुए न्यूज रूम तक लाया। उसके काफी बाल उखड़कर मेरे हाथ में आ गए थे। आज भी अनीता सिंह के सिर के बीचोबीच कुछ जगह बाल नहीं हैं।'

‘लेकिन मैं कहां से आ गया आपके इस झमेले में? मुझे भी पीटने का इरादा है क्या?' शिवाकांत पूछ बैठा।

‘नहीं...तुम नहीं ...लोग कह रहे हैं मेरी खबरें अच्छी नहीं होती हैं। मेरे सामने कहें, तो मैं गोली मार दूं। खुद तो चोट्टे हैं, दूसरों पर इल्जाम लगाते हैं। मैं जानता हूं इस अखबार के कितने रिपोर्टर और डेस्क के लोग सिर्फ कटिंग—पेस्टिंग करते हैं। कुछ इस खबर का हिस्सा उठाया, कुछ उस खबर का हिस्सा। दोनों हिस्सों को जोड़—गांठ कर किसी तरह खबर पूरी कर ली। इधर—उधर से कापी पेस्ट कर लिया और हो गए बड़का रिपोर्टर। जीत ली जंग। पत्राकारिता के सबसे बड़े योद्धा। पूरी जिंदगी रिपोर्टरी करते हैं और पूछो, तुम्हारे नाम कोई ब्रेकिंग न्यूज टैग है, तो दांत निपोर देंगे। अरे...वह रिपोर्टर कैसा? जिसने अपनी पत्राकारीय जीवन में एक भी खबर ब्रेक न की हो, पत्राकारिता जगत में जिसे किसी खबर को ब्रेक करने के लिए न जाना जाता हो।' निखिल धारा प्रवाह बोलते जा रहे थे।

प्रतुल गुप्ता ने मानो आग में जलता लोहबान डाला, ‘सर जी...सारे लोग ऐसे ही हैं? ऐसा ही करते हैं?'

‘बिल्कुल...ऐसा ही करते हैं। मैं तुम्हें बताउं+। सन 98 या उसके एकाध साल बाद की बात है। उन दिनों मैं बेरोजगार था। बेरोजगारी तो जैसे मैं अपनी किस्मत में लिखवा कर लाया हूं। मेरी पत्नी अक्सर कहती हैं, सारे पत्राकार झुट्ठे होते हैं। मेरी पत्नी तो पत्राकारों को देखना नहीं चाहती। उसका वश चले, मेरे समेत सारे पत्राकारों को लाइन से खड़ा करके गोली मार दे।'

सुकांत अस्थाना ने बात काटी, ‘सर जी...आप किसी घटना के बारे में बता रहे थे? वह बताइए न!'

बात बीच में काटने पर निखिल ने सुकांत को पल भर घूरा, ‘हां, तो मैं बता रहा था कि सन 98 या उसके एक साल बाद की घटना है। एक दिन सुबह—सुबह मेरे पड़ोसी के घर इंटरनेशनल टुडे से एक मित्रा का फोन आया। उन दिनों मेरे पास न तो लैंड लाइन और न ही मोबाइल फोन हुआ करता था। फोन अटेंड करने पर मित्रा ने बताया, इंटरनेशनल टुडे के संपादक ने बुलाया है। मैं पहुंचा, तो संपादक ने कहा, मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले में बड़े पैमाने पर आदिवासी धर्म परिवर्तन कर रहे हैं। मुझे इस धर्म परिवर्तन पर एक बढ़िया—सी मुकम्मल रिपोर्ट चाहिए। अगर आप कर सकें, तो मैं यह स्टोरी आपको एसाइन कर दूं। मुझे भी पैसे की जरूरत तो थी ही। मैंने झट से हां कर दी। उन्होंने दस हजार रुपये दिलाए भी। चलते समय दैनिक सत्यार्थ के विभांशु बाबू ने भी अलग से एक रिपोर्ट मांगी। मैं किसी तरह लस्टम—पस्टम इंदौर पहुंचा। लोगों से पूछता—पाछता झाबुआ। देखा, एक चर्च के सामने सभी टीवी चैनलों ने अपने—अपने ओबी वैन लगा रखे हैं। एक टीवी पत्राकार ने पूछने पर बताया कि उसके चैनल पर टिकर और फ्लैश चल रहे हैं, ‘यही है वह चर्च, जहां हुआ बड़े पैमाने पर धर्म परिवर्तन' ...‘आदिवासियों का धर्म परिवर्तन कराने के लिए आया विदेश से पैसा' ...‘खतरे में है हिंदू धर्म' ...‘पांच हजार से ज्यादा आदिवासी बने ईसाई... आदि आदि।'

‘बाद में तहकीकात की, तो मैं माथा पकड़ कर बैठ गया। बाप रे बाप! पत्राकारिता का यह पतन! पत्राकारिता का यह स्तर! कुछ स्थानीय लोगों से पूछने पर पता चला, जहां धर्म परिवर्तन हुआ है, वह गांव नवापारा तो यहां से चौदह पंद्रह किमी दूर घने जंगलों में है। टीवी चैलन वाले झुट्ठै...फर्जी खबर चला रहे हैं। मन नहीं माना। छोटी—मोटी पहाड़ियां, जंगल, नदी पार करके किसी तरह दूसरे दिन झाबुआ जिले के नवापारा गांव पहुंचा, जहां कथित रूप से धर्म परिवर्तन हुआ था। मन में एक डर भी था, कहीं कोई जंगली जानवर न हमला कर दे, नक्सलियों के हाथ न लग जाउं+? फिर भी, पत्राकारिता का जुनून खींचे लिए चला जा रहा था। वहां पहुंचा, तो सब तरफ सन्नाटा। दूर—दूर तक जंगल और उस जंगल में पसरी एक अजीब सी चुप्पी। एक छोटे से बच्चे को पकड़ा, उसे दस रुपये दिए। उससे पूछा, यहां के लोग कहां गए? तो उसने कुछ कहने की बजाय एक छोटे से चर्च की ओर इशारा कर दिया।'

इतना कहकर निखिल ने डस्टबिन में फिर गुटखा थूका। बोले, ‘मैं इधर उधर ताकता—झांकता उस ओर बढ़ा। तभी पता नहीं कहां से चर्च का फादर प्रकट हुआ। उससे बात की, तो वह भड़क उठा। काफी देर समझाने—बुझाने और यह विश्वास दिलाने के बाद कि जो भी घटना हुई है, उसको उसी रूप में छापा जाएगा, वह बात करने को तैयार हुआ। मैंने फादर को यह भी बताया, अगर आप कुछ बोलेंगे नहीं तो ईसाई मिशनरियों की छवि खराब होगी। प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया तो ईसाई मिशनरियों की छवि वैसे ही बिगाड़ रहा है। काफी ना—नुकुर करने के बाद उसने जो बताया, वह हैरतअंगेज था। सच बताउं+...धर्मांतरण तो हुआ था, लेकिन असली बात तो मीडिया को पता ही नहीं था। ईसाई मिशनरियों में काम करने वाली तीन ननों के स्तन काटे गए थे। दो तो गंभीर हालत में अस्पताल में भर्ती थीं। उनसे मारपीट की गई थी, उन्हें लूटने की कोशिश हुई थी।'

निखिल ने जैसे ही यह बात पूरी की, प्रतुल गुप्ता ने तालियां बजाते हुए कहा, ‘यह अच्छा हुआ था। ईसाइयों और मुसलमानों के साथ ऐसा ही किया जाना चाहिए। मैं तो होता, तो बहुत कुछ करता। उन लोगों ने सिर्फ स्तन ही काटे थे।'

नमो नारायण भारद्वाज ने प्रतुल को झिड़कते हुए कहा, ‘आप हर बात और घटना को हिंदूवादी चश्मे से देखना बंद कीजिए। आपको ऐसी बात कहते हुए शर्म आनी चाहिए। आप अपने को बुद्धिजीवी कहते हैं। यदि हिंदुत्ववादी होने का इतना ही शौक है, तो दीजिए इस्तीफा और चले जाइए भाजपा या संघ में। बन जाइए उसके प्रवक्ता। आपको मना किसने किया है?'

‘अरे जाने दो...ये लोग किसी औरत की पीड़ा को क्या समझेंगे। पत्राकारिता में ऐसे लोग घुस आए हैं या कहो कि पत्राकारिता में ऐसे ही लोगों का वर्चस्व है, जो समाज विरोधी हैं, मानवता विरोधी हैं। ये कहते हैं कि हम तो न्यूज के व्यापारी हैं, हमें समाज से क्या लेना देना। समाज लेकर बैठें, तो अपनी दुकान ही लुट जाएगी। सच कहता हूं, ऐसे लोगों को तो बीच चौराहे पर खड़ा करके गांड पर गोली मार देनी चाहिए।' निखिल अपनी रौ में फिर आ गए। यह उनकी आदत है। वे जब भी बोलने लगते हैं, तो यह भूल जाते हैं कि वे कहां बैठे हैं। बिहारी स्टाइल में बातचीत के दौरान गालियां भावाभिव्यक्ति में सहायक होती हैं।

नमो नारायण ने हस्तक्षेप किया, ‘हां तो ...भाई साहब! फिर क्या हुआ?'

निखिल ने फिर पिच्च से थूक दिया, ‘हां...तो मैं कह रहा था। फादर ने सात ननों को लाकर मेरे सामने पेश कर दिया। मैंने देखा, सभी ननों के शरीर पर चोट के निशान अवश्य थे। मैं घबड़ा गया। मैंने पूछा, मामला क्या है? फादर बताने लगा। पिछले कई दशक से ईसाई मिशनरियां यहां काम कर रही हैं। इन मिशनरियों में काम करने वाली ननें गांव—गांव जाकर आदिवासियों को शिक्षित करती हैं। उनमें जागरूकता पैदा करती हैं। उनकी हर तरह से मदद करती हैं। ऐसे में वे चाहती भी हैं कि आदिवासी ईसाई हो जाएं। जब वे मदद करती हैं, तो धर्म परिवर्तन कराने की इच्छा स्वाभाविक है। तभी एक लड़की ने कराहते हुए कहा, मैं भगौर गांव में दवाइयां बांटने जा रही थी। टिहिया की पांच वर्षीय बेटी हिकरी बीमार थी। तभी दूसरे गांव के पंद्रह—सोलह भील आदिवासी लाठी, कुल्हाड़ी और तीर—धनुष लेकर आए और हम पर हमला बोल दिया। उन्होंने हमें मारा—पीटा, कुल्हाड़ी से हम तीन लड़कियों के सीने पर प्रहार किया। वे हमारे पास मौजूद खाने—पीने का सामान छीन ले गए। दो अस्पताल में भर्ती हैं। इसी बीच कुछ लोग आ गए, तो हमलावर भाग खड़े हुए। बाद में हम अस्पताल गए। मैंने उन सब ननों के नाम नोट किए। मैंने फादर से कहा, मैं धर्म परिवर्तन करने वालों से भी मिलना चाहता हूं। फादर ने बताया, दंगा—फसाद के भय से इन लोगों को यहां से हटा दिया गया है। अगर कल दोपहर तक का मौका दें, तो उनसे मिलवा सकता हूं।'

‘फिर तो मेरे पास कोई विकल्प ही नहीं था। मैं रात में उसी चर्च की बाउंड्री में सो गया। थका होने से नींद आ रही थी। मन में भय भी था, कहीं कोई बदमाशी न करें। रात में सोते समय ही हमला कर दें। मार डालें। अनजान इलाका था। एक तरफ आदिवासियों का खतरा था, तो दूसरी ओर नक्सलियों का। अपनी कमजोरी बता रहा हूं, चर्च वालों पर भी पता नहीं क्यों, विश्वास नहीं हो रहा था। खैर...नींद आई, तो सुबह तक सोता रहा। सुबह उठा, तो चर्च वालों ने ही चाय—नाश्ता करवाया। दोपहर डेड़—दो बजे तक धर्मांतरण करने वाले आदिवासी भी आ गए।'

निखिल बता रहे थे, ‘मैंने एक आदिवासी से उसका नाम पूछा।'

उस आदिवासी ने कहा, ‘फादर ने नया नाम दिया है थॉमस, वैसे नाम है झीतरा।'

‘तुमने धर्म क्यों बदल लिया?' मेरा सवाल था।

झीतरा उर्फ थॉमस पहले तो चुपचाप सामने देखता रहा, मानो पहाड़ों से, नदियों से, जंगल में सघन उग आए पेड़—पौधों से सवाल का जवाब पूछ रहा हो। फिर कुछ इस तरह बोला, मानो उसकी आवाज आसपास की पहाड़ियों से टकराकर लौट रही हो...एकदम भर्राई हुई सी, ‘धर्म न बदलता, तो मर जाता। जिंदा रहूंगा, तभी न धर्म रहेगा। लाश का भी कोई धर्म होता है क्या? जब से धर्म बदला है, भरपेट खाना खा रहा हूं। इससे पहले तो मुझे याद ही नहीं था, मैंने भरपेट खाना कब खाया था? मिशनरी वाले खाना देते हैं, बीमार पड़ने पर दवा—दारू कराते हैं। जिस धर्म में पैदा हुआ था, वे हमें दुरदुराते थे। ये हमें दुरदुराते नहीं, हमें घृणित नहीं समझते। अछूत नहीं समझते। हमारे साथ भेदभाव नहीं करते। हमारी बहू—बेटियों से बलात्कार नहीं करते। अगर हम झीतरा से थॉमस नहीं बनते, तो क्या करते। सिर्फ धर्म के सहारे तो जिंदा नहीं रहा जा सकता है, साहब! पेट तो भरना ही है न। पेट की आग सब कुछ जला देती है, धर्म को, समाज को, जाति को, रिश्ते—नातों को। पेट कहां मानता है? इसे तो भरना ही पड़ता है।'

निखिल आगे कुछ कहते, तभी न्यूज रूम में शुभ्रांशु दत्ता आ गए। लोगों को सिर जोड़कर बातें करता देख उनका पारा सातवें आसमान पर पहुंच गया, ‘सब लोग इसी तरह गप्प लड़ाते रहोगे या काम भी करोगे? जब भी मैं तुम लोगों को देखता हूं, सिर जोड़कर खिखियाते रहते हो। कंपनी काम करने की तनख्वाह देती है, खिखियाने की नहीं। जाओ

...सब लोग अपनी—अपनी सीट पर।' वे संजीव चौहान से बोले, ‘क्यों संजीव? फीचर के पेजेज तैयार हो गए?'

‘नहीं सर! कुछ पेजेज बाकी हैं। अंकित थपलियाल बनवा रहा है। तीन पेज तैयार हो गए हैं। एक बाकी है। इसके बाद एडिट पेज का काम शुरू होगा, सर।'

‘दिन भर गप्पे लड़ाओगे, तो काम पूरा होगा? निखिल जी...आज की क्या रिपोर्ट है? पिछले तीन दिन से आपने कोई रिपोर्ट नहीं लिखी है। दूसरे अखबारों में क्या ऐसे ही पॉलिटिकल एडीटर होते हैं? पॉलिटिकल एडीटर दूसरों को व्यूज सुझाते हैं, उनसे पॉलिटिकल न्यूज लिखवाते हैं, खुद भी कोई न कोई स्टोरी लिखते हैं। आप तो सिर्फ किस्से—कहानियां सुनाने में ही सारा दिन गुजार देते हैं? कुछ काम कर लिया कीजिए निखिल जी।' इतना कहकर वे घूमे और जाने लगे।

निखिल ने उनकी बात का विरोध करते हुए कहा, ‘सर...आप अखबारों में पालिटिकल एडीटर का जो रोल बता रहे हैं, वह मैं आपसे ज्यादा जानता हूं। इस अखबार में सबसे ज्यादा स्टोरियां अगर किसी ने लिखी हैं, तो वह मैं हूं। आपके कहने से क्या होता है, जी? थोड़ी देर किसी से बात क्या कर ली, आप लगे ताना देने।'

दत्ता ने निखिल की बात सुनकर भी अनसुना कर दिया। कुछ कदम चलने के बाद वे मुडे़ और बोले, ‘सुकांत...तुम थोड़ी देर बाद मुझसे मिलो। कुछ बातों पर तुमसे डिसकस करना है।'

दत्ता के जाते ही वहां हंसी का फौव्वारा छूट पड़ा। सुकांत ने हंसते हुए कहा, ‘यह बुड्ढा आज सनका हुआ क्यों है? कहीं भाभी जी ने हाथ फेरने से मना तो नहीं कर दिया?'

‘इस उम्र में क्या हाथ फेरेगा? बात कुछ और है। या तो सीएमडी ने इसकी चमचई से आजिज आकर झिड़क दिया होगा या फिर इन दिनों जिस लड़की से इसका टांका भिड़ा हुआ है, उसने कुछ कह—सुन दिया होगा।' यह आवाज शिवाकांत की थी। वह भी इस चुहुल में शामिल हो गया।

‘क्या कह रहे हैं, सर! ...किससे बुढ़ऊ का टांका भिड़ा हुआ है? जरा मुझे भी तो बताएं...?' सुकांत अस्थाना ने जिज्ञासा प्रकट की। उस जिज्ञासा के पीछे छिपा भाव शिवाकांत भी समझ गया।

‘अरे यार छोड़ो...मैं तो मजाक कर रहा था। मेरे मुंह से कोई बात निकलते ही बात का बतंगड़ बन जाएगा।' शिवाकांत ने मामले को टाल देना चाहा।

‘नहीं सर...कुछ तो बताइए। कोई बात जरूर है, तभी आपने कहा है? आप इस तरह लूज टॉक करने वाले व्यक्ति नहीं हैं। मैं अब तक इतना तो समझ ही गया हूं।'

‘कह दिया कि मजाक कर रहा था। ऐसी कोई बात नहीं है।'

‘श्रुति की बात तो नहीं कर रहे हैं? उसके बारे में थोड़ा—थोड़ा मैंने भी सुना है। सच क्या है? मैं नहीं जानता।' अस्थाना ने मानो परमाणु बम फोड़ दिया। सारे लोग उत्सुक हो गए। कुछ के होठों पर उमड़—घुमड़कर बात आती, लेकिन फिर लौट जाती। कहकर कौन मुसीबत मोल ले।

‘कौन श्रुति...?' नमो नारायण से रहा नहीं गया, तो वह पूछ बैठा। शिवाकांत ने चुप रहना ही उचित समझा।

‘श्रुति को नहीं जानते...?' सुकांत इधर—उधर देखने के बाद फुसफुसाया, ‘अपने ही अखबार के स्ट्रिंगर की पत्नी है। दोनों ने हाल ही में लव मैरिज की है। श्रुति की यह दूसरी शादी है। पहला पति एक हादसे में चार—पांच साल पहले मारा गया था। अपने अखबार के स्ट्रिंगर को उसके पिता ने विधवा श्रुति से शादी करने पर घर से निकाल दिया है। लोग तो यहां तक कहते हैं, दत्ता जी से पहले यह औरत अपने ससुर की रखैल थी। पति थोड़ा बुद्धू किस्म का था। शादी के कुछ ही साल बाद किसी हादसे में मारा गया। बाद में जब ससुर की भी मौत हो गई। फिर पता नहीं कैसे, खुर्जा के स्ट्रिंगर से उसकी जान पहचान हो गई। उसने तीन साल पहले श्रुति का परिचय दत्ता से दोस्त की विधवा कहकर करवाया था। दत्ता जी उस समय जिस अखबार में थे, उसमें श्रुति के खूब लेख छापे गए। अच्छा पेमेंट किया गया। बाद में नौकरी पर भी रख लिया गया। उस अखबार में तो दत्ता और श्रुति के किस्से खूब चटखारे लेकर सुने—सुनाए जाते थे। रात दो—तीन बजे तक दोनों रुकते थे। दत्ता जी उसे छोड़ने घर जाते थे। घर पर सुना है, दोनों पटखनियां खाते थे।' इतना कहकर सुकांत ने एक बार फिर इधर—उधर सतर्क निगाह डाली और हंस दिया।

फिर बोला, ‘एक बात और बताउं+। है बड़ी खतरनाक...समाज विरोधी भी...अब उस स्ट्रिंगर के संबंध श्रुति की सोलह वर्षीय बेटी सुकृति से भी है। प्रकारांतर से वह स्ट्रिंगर अब मां—बेटी दोनों का भरतार है।' इसके बाद सुकांत उठकर चल दिया, ‘चलूं देखूं, दत्ता जी ने किसलिए बुलाया है।'

दत्ता की केबिन में घुसते ही सुकांत बोला, ‘क्या सर...? आजकल आपके इश्क के चर्चे बड़ी जोरों पर हैं? लोग चटखारे लेकर सुना रहे हैं।'

‘कौन बदतमीजी कर रहा है? नाम बताओ। अभी उल्टा टांग देता हूं साले को। तुम तो जानते हो। मुझे इस तरह के मजाक कतई पसंद नहीं हैं।' दत्ता गरज उठे। उनका चेहरा क्रोध से तमतमा उठा।

‘बस...यही तो आपमें गड़बड़ी है। आपको कोई बात बताई जाती है, तो आप सोर्स को ही खत्म करने में लग जाते हैं। अभी नाम लूंगा, तो बुलाकर उसकी ऐसी तैसी कर देंगे। अगले दिन से मैं सबके बीच अछूत हो जाउं+गा। कोई मुझे अपने पास बिठाएगा नहीं। आपको फिर खबरें कैसे मिलेंगी?' सुकांत अस्थाना ने मुस्कुराते हुए कहा।

‘मैं तुम्हें इतना बेवकूफ दिखाई देता हूं। वैसे मेरी आशनाई वाली बात क्या है?' दत्ता थोड़ा नरम पड़े।

‘जब आप सबको डांटकर चले आए, तो नमो नारायण ने कहा, आपकी प्रेमिका ने आज आपको डांटा है। शिवाकांत पूछने लगा, कौन—सी? श्रुति या पल्लवी ने। या रिशेप्सन पर बैठने वाली कृतिका ने। ये सब शुभ्रांशु दत्ता की रखैलें हैं। यह बात हो ही रही थी, संपादक जी आ गए। वे आपके और श्रुति के किस्से बताने लगे। सर...मैं क्या बताउं+? मेरा मन तो हो रहा था, दूं घुमा के एक लात इन सबकी की ‘जी' पर। लेकिन इनके पदों का ख्याल रखकर मैं चुप रह गया। आपने भी मुझे चूतियों वाला पद देकर इन नाकारा और काहिल लोगों को मेरे ऊपर बिठा दिया। डीएनई का पद भी भला कोई पद होता है। जब रिक्रूटमेंट आपके हाथ में था, तो रेजिडेंट एडीटर बना सकते थे, सीनियर न्यूज एडीटर बना सकते थे। भले ही पैसा इतना ही देते।'

‘क्या कह रहा था पनवाड़ी? सबसे पहले इसके पर कतरने होंगे, तभी यह काबू में आएगा। द्विविधा में हूं, पहले पेड़ को जड़ से काटूं, या फिर डालियों को? सीएमडी भी साला चूतिया है...उसने पता नहीं कहां—कहां से लाकर जमूरे भर्ती कर दिए हैं। बताओ भला

...दलाल को संपादक बना दिया।'

‘सर...चौरसिया जी...चटखारे लेकर किसी श्रुति और आपके संबंधों की चर्चा कर रहे थे। कह रहे थे, आपके और श्रुति के संबंध कई साल पुराने हैं। अब वह अपने अखबार के खुर्जा स्ट्रिंगर की बीवी है।'

‘बकवास करता है, साला। ...यह तो पूरा माहौल ही खराब करने पर तुला हुआ है। इसका जल्दी से जल्दी कोई उपाय करना होगा।'

इससे आगे दत्ता कुछ कहते कि चौरसिया ने चैंबर में प्रवेश किया। उन्हें देखते ही दत्ता ने बात अधूरी छोड़ दी, ‘आइए चौरसिया जी...अभी आपके ही बारे में ही सुकांत से बातचीत कर रहा था। आप कितनी मेहनत करते हैं अखबार के लिए। सच कहूं चौरसिया जी...आपकी मेहनत, लगन और संस्थान के प्रति निष्ठा देखकर कभी—कभी मुझे आपसे ईर्ष्या होती है। अभी कल ही सीएमडी साहब कह रहे थे, चौरसिया जी अपने संस्थान के हीरा हैं...हीरा। कल परसों आपकी सीएमडी साहब से कोई बातचीत हुई थी?'

‘अरे छोड़िए सर...अपना काम है अखबार निकालना। इन चिटफंडियों की जी—हुजूरी करना नहीं। सच बताउं+। मेरा अपना अनुभव है, मैनेजमेंट किसी का सगा नहीं होता। इनके आगे—पीछे जितना घूमोगे, ये साले उतना ही भाव खाएंगे। इनके पिछवाड़े जितना लट्ठ बजाओ, ये उतना ही सही रहते हैं। और फिर...एक बहुत पुरानी कहावत है पहाड़ के संदर्भ में, लेकिन इसे मैंने संशोधित कर लिया है। ‘सूर्य अस्त, चौरसिया मस्त।' रात ग्यारह बजे के बाद तो मैं देश का प्रधानमंत्राी हो जाता हूं, राष्ट्रपति हो जाता है। इधर दो घूंट सटक अंदर गई, तो फिर मैं किसी की भी मैय्यू कर सकता हूं। सुना है...आप सटक नहीं मारते, फिर जीते कैसे हैं?'

चौरसिया की बात सुनकर दत्ता हंसे, ‘नशा तो मैं करता हूं...लेकिन आप वाला नहीं। मैं वर्क एल्कोहलिक हूं। मुझे काम करने का नशा है। और बताएं? क्या चल रहा है नया ताजा?'

‘बात यह है दत्ता जी! मैं अभी किसी काम से कनॉट प्लेस जा रहा हूं। मैंने सोचा, आपको बताता चलूं। आपकी जानकारी में यह बात रहनी चाहिए। क्या पता कब कोई जरूरत आ पड़े?'

‘हां...हां...बिल्कुल जाएं। और सर...आपको यह सब बताने की जरूरत नहीं है। आप संपादक हैं। आपको यह शोभा नहीं देता। मैं तो अपने साथियों से कहता रहता हूं, कुछ सीखना है, तो चौरसिया जी से सीखो। सर...मैंने कई संस्थानों में नौकरी की, जनसत्ता, नवभारत, अमर उजाला, जागरण जैसे अखबारों में छोटे—बड़े पदों पर रहा। ऊपरी लेवल पर जितना तालमेल यहां है, उतना कहीं नहीं देखा। यह भी आपके ही कारण है। आपके साथ काम करके वाकई मजा आ गया। अगर मैं पृथ्वी एक्सप्रेस नहीं ज्वाइन करता, तो इस सुख से वंचित रह जाता।' दत्ता कह रहे थे।

चुप बैठा सुकांत अस्थाना बोल पड़ा, ‘हां सर...यह बात तो है। अभी थोड़ी देर पहले ही दत्ता सर आपकी तारीफ कर रहे थे। आपकी सभी इज्जत करते हैं। आप हैं भी इतने सरल और उदार कि किसी को आपसे बात करने में परेशानी नहीं होती। किसी को यह महसूस नहीं होता कि अपने अधिकारी से बात कर रहा है। वैसे दत्ता जी की भी यही प्रवृत्ति है। मैं तो रहा हूं न, दत्ता जी के साथ कई अखबारों में। यह चपरासी के लिए मालिकों से भिड़ जाते हैं। वैसा ही आपको भी यहां करते देखा है।' सुकांत ने दोनों नावों पर पैर रखकर खुद को साधने का प्रयास किया।

‘अच्छा सर...मैं निकलता हूं। आप जरा यह देख लीजिएगा कि पेज समय पर छूट जाएं। लेट होने पर सरकुलेशन वाले सारा ठीकरा एडीटोरियल पर ही फोड़ते हैं। परसों, कई जिलों से बंडल लौट आए थे।'

‘आप निश्चिंत होकर जाएं, सर। मैं सब देख लूंगा।' दत्ता ने आश्वासन की गठरी खोल दी, ‘अखबार ठीक टाइम पर छूटेगा। आज का संपादकीय भी मैं लिखवा दूंगा। कोई दिक्कत नहीं है। वैसे फीचर के सारे पेज तैयार हो गए हैं। अभी थोड़ी देर पहले संजीव चौहान सारे पेज दिखा गया है। आपसे भी चेक करवाया होगा?'

संपादक चौरसिया के बाहर निकलते ही सुकांत ने खींसे निपोर दी, ‘सर...यह किसी से सेटिंग करने गया है। मैं पक्का कह सकता हूं। या फिर ‘बार इन कार' के चक्कर में होगा।'

‘यह बार इन कार क्या बला है?' दत्ता ने मूछों को दांत से कुतरते हुए कहा। दत्ता को जब किसी बात की उत्सुकता होती थी, तो वह अपनी मूछों को कुतरने लगता था। मूंछ कुतरते समय होठों पर हंसी और आंखों में उत्सुकता एक अजीब सा कोलाज रचती थी। कुछ लोगों का विश्वास था, दत्ता जब भी ऐसा करता है। समझो, कोई गहरी साजिश उसके दिमाग में पक रही है। वह किसी की भट्ठी बुझाने वाला है।

‘अरे सर! कार में जब बार खोल लिया जाए, तो उसे ‘बार इन कार' कहा जाता है। एक दफा ‘बार इन कार' का मजा मैं भी उठा चुका हूं। वे क्या है सर! चौरसिया जी, नमो नारायण, संजीव चौहान और कभी—कभी निखिलेश निखिल जी काम खत्म होने के बाद एक ही कार में बैठ जाते हैं। संजीव चौहान अक्सर ही फंसता है। ये लोग दिल्ली के किसी वाइन शॉप से वाइन खरीदते हैं। सड़क के किनारे खुली गुमटियों से गिलास, पानी और नमकीन खरीदे जाते हैं। फिर शुरू हो जाता कार में पीना—पिलाना। गाड़ी सुस्त रफ्तार में आगे बढ़ती रहती है और गाड़ी में पैमाना छलकता रहता है। यह प्रक्रिया दूसरे—तीसरे दिन दोहराई जाती है। नमो नारायण और चौरसिया तो हमेशा रहते हैं, बाकी लोग अदलते—बदलते रहते हैं।' सुकांत अस्थाना ने ‘बार इन कार' की व्याख्या की।

‘जाने दो...अपने बाप का क्या जाता है। चाहे बार इन कार हो या कार इन बार हो। हां, जितनी देर यह ऑफिस से बाहर रहे, उतना ही अच्छा है। इसके सहयोगियों की वॉट लगाने में उतनी ही आसानी होगी। अब ऐसा करो, तुम भी यहां से खिसको...कुछ काम—धाम भी कर लिया करो, वरना एक दिन तुम्हारी मटरगश्ती ही तुम्हारे खिलाफ हथियार का काम करेगी। यह बात चौरसिया या उसके चमचों की समझ में आने की देर है। फिर यही काहिली और कामचोरी तुम्हारे लिए मारक अस्त्रा साबित होगा।'

‘क्या सर जी...मैं कितना काम करता हूं। आप कहते हैं, मटरगश्ती करता हूं। जब आप ही यह बात कहेंगे, तो दूसरों का क्या है? वे तो कहेंगे ही।' इतना कहकर सुकांत बाहर आ गया।

सुकांत के बाहर जाते ही शुभ्रांशु दत्ता कुछ देर तक टीवी पर प्रसारित हो रही खबरें देखते रहे। फिर उन्होंने किसी को फोन लगाया।

‘हेलो...कौन? ...प्रतिमा...जरा सीएमडी सर हों, तो उनसे मेरी बात कराओ।'

थोड़ी देर रिसीवर थामे रहने के बाद दत्ता बोले, ‘सर जी...प्रणाम। कैसे हैं आप? ...हां...हां...वह काम तो हो गया। मैंने कहा था न! आप निश्िंचत रहिए, काम हो जाएगा। सर एक बात कहूं, अपने ही अखबार के कुछ लोग उस काम में अडंगा लगा रहे थे।

...नाम तो आप जानते ही हैं।' इतना कहकर दत्ता ने चपरासी को बुलाने के लिए घंटी बजाई।

क्रमषः...