Azad Katha - 1 - 18 books and stories free download online pdf in Hindi

आजाद-कथा - खंड 1 - 18

आजाद-कथा

(खंड - 1)

रतननाथ सरशार

अनुवाद - प्रेमचंद

प्रकरण - 18

मियाँ आजाद एक दिन चले जाते थे, तो देखते क्या हैं, एक चौराहे के नुक्कड़ पर भंगवाले की दुकान है और उस पर उनके एक लँगोटिए यार बैठे डींग की ले रहे हैं। हमने जो खर्च कर डाला, वह किसी को पैदा करना भी नसीब न हुआ होगा, लाखों कमाए, करोड़ों लुटाए, किसी के देने में न लेने में। आजाद ने झुक कर कान में कहा - वाह भई उस्ताद, क्यों न हो, अच्छी लंतरानियाँ हैं। बाबा तो आपके उम्र भर बर्फ बेचा किए और दादा जूते की दुकान रखते-रखते बूढ़े हुए। आपने कमाया क्या, लुटाया क्या? याद है, एक दफे साढ़े छह रुपए की मुहर्रिरी पाई, मगर उससे भी निकाले गए। उसने कहा - आप भी निरे गावदी हैं। अरे मियाँ, अब गप उड़ाने से भी गए? भंगवाले की दुकान पर गप न मारूँ, तो और कहाँ जाऊँ? फिर इतना तो समझो कि यहाँ हमको जानता कौन है। मियाँ आजाद तो एक सैलानी आदमी थे ही, एक तिपाई पर टिक गए। देखते क्या हैं, एक दरख्त के तले सिरकी का छप्पर पड़ा है, एक तख्त बिछा है, भंगवाला सिल पर रगड़ें लगा रहा है। लगे रगड़ा, मिटे झगड़ा। दो-चार बिगड़े-दिल बैठे गुल मचा रहे हैं - दाता तेरी दुकान पर हुन बरसे, ऐसी चकाचक पिला, जिसमें जूती खड़ी हो। थोड़ा सा धतूरा भी रगड़ दो, जिसमें खूब रंग जमे। इतने में मियाँ आजाद के दोस्त बोल उठे - उस्ताद, आज तो दूधिया डलवाओ। पीते ही ले उड़ें। चुल्लू में उल्लू हो जाएँ। दुकानवाले ने उन्हें मीठी केवड़े से बनी हुई भंग पिलवाई। आप पी चुके, तो अपने दोस्त हरभज को भंग का एक गोला खिलाया और फिर वहाँ से सैर करने चले। इन्हें मुटापे के सबब से लोग भदभद कहा करते थे। चलते-चलते हरभज ने पूछा - क्यों यार, यह कौन मुहल्ला है?

भदभद - चीनीबाजार।

हरभज - वाह, कहीं हो न, यह चिनियाबाजार है।

भदभद - चिनियाबाजार कैसा, चीनीबाजार क्यों नहीं कहते।

हरभज - हम गली-गली, कूचे-कूचे से वाकिफ हैं, आप हमें रास्ता बताते हैं? चिनियाबाजार तो दुनिया कहती है, आप कहने लगे चीनीबाजार है।

भदभद - अच्छा तो खबरदार, मेरे सामने अब चिनियाबाजार न कहिएगा।

हरभज - अच्छा किसी तीसरे आदमी से पूछो।

आजाद ने दोनों को समझाया - क्यों लड़े मरते हो? मगर सुनता कौन था। सामने से एक आदमी चला आता था। आजाद ने बढ़ कर पूछा - भाई, यह कौन मुहल्ला है? उसने कहा - चिनियाबाजार। अब हरभज और भदभद ने उसे दिक करना शुरू किया। चीनीबाजार है कि चिनियाबाजार, यही पूछते हुए आध कोस तक उसके साथ गए। उस बेचारे को इन भंगड़ों से पीछा छुड़ाना मुश्किल हो गया। बार-बार कहता था कि भई, दोनों सही हैं। मगर ये एक न सुनते थे। जब सुनते-सुनते उसके कान पक गए, तो वह बेचारा चुपके से एक गली में चला गया।

तीनों आदमी फिर आगे चले। मगर वह मसला हल न हुआ। दोनों एक दूसरे को बुरा-भला कहते थे; पर दो में से एक को भी यह तसकीन न होती थी कि चिनियाबाजार और चीनीबाजार में कौन सा बड़ा फर्क है।

हरभज - जानते भी हो, इसका नाम चिनियाबाजार क्यों पड़ा?

भदभद - जानता क्यों नहीं। पहले यहाँ दिसावर से चीनी आ कर बिका करती थी!

हरभज - तुम्हारा सिर? यहाँ चीन के लोग आ कर आबाद हो गए थे, जभी से यह नाम पड़ा;

भदभद - गावदी हो!

इस पर दोनों गुथ गए। इसने उसको पटका, उसने इसको पटका। भदभद मोटे थे, खूब पिटे।

आजाद ने उन दोनों को यहीं छोड़ा और खुद घूमते-घामते जौहरी बाजार की तरफ जा निकले। देख, एक लड़का झुका हुआ कुछ लिख रहा है। आजाद ने लिफाफा दूर से देखते ही खत का मजबून भाँप लिया। पूछा - क्यों भई इस गाँव का क्या नाम है?

लड़का - दिन को रतौंधी तो नहीं होती? यह गाँव है या शहर?

आजाद - हाँ, हाँ वही शहर। मैं मुसाफिर हूँ, सराय का पता बता दीजिए।

लड़का - सराय किस लिए जाइएगा? क्या किसी भठियारी से रिश्तेदारी है?

आजाद - क्यों साहब, मुसाफिरों से भी दिल्लगी! हम तरजुमा करते हैं! अर्जी का तरजुमा कर दो। एक चवन्नी दूँगा।

आजाद - खैर, लाइए, बोहनी कर लूँ। अर्जी पढ़िए।

लड़का - आप ही पढ़ लीजिए।

आजाद - (अर्जी पढ़ कर) सुभान-अल्लाह, यह अर्जी है या घर का दुखड़ा। भला तुम्हारे कितने लड़के-लड़कियाँ होंगी?

लड़का - अजी, अभी यहाँ तो शादी ही नहीं हुई।

आजाद - तो फिर यह क्या लिख मारा कि सारे कुनबे का भार मेरे सिर है। और नौकरी भी क्या माँगते हो कि जमाने भर का कूड़ा साफ करना पड़े! तड़का हुआ और बंपुलिस झाँकने लगे; कभी भंगियों से तकरार हो रही है; कभी भंगियों से चख चल रही है। अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है, पढ़ो-लिखो, हम कर मेहनत करो, नौकरी की तुम्हें क्या फिक्र है?

लड़का - आप अर्जी लिखते हैं कि सलाह बताते हैं? मैं तो आपसे सलाह नहीं पूछता।

आजाद - मियाँ, पढ़ने-लिखने का यह मतलब नहीं है कि नौकरी ही करे। और न हीं, तो बंपुलिस का दारोगा ही सही। खासे जौहरी बने हो, ऐसी कौन सी मुसीबत आ पड़ी है कि इस नौकरी पर जान देते हो?

इतने में एक लाला साहब कलमदान लिए, ऐनक लगाए, आ कर बैठ गए।

आजाद - कहिए, आपको भी कुछ तरजुमा कराना है?

लाला - जी हाँ, इस अर्जी का तरजुमा कर दीजिए। मेरे बुढ़ापे पर तरस खाइए।

आजाद - अच्छा, अपनी अर्जी पढ़िए।

लाला - सुनिए -

'गरीबपरवर सलामत,

अपना क्या हाल कहूँ, कोई दो दर्जन तो बाल-बच्चे हैं। आखिर, उन्हें सेर-सेर भर आटा चाहिए या नहीं। जोड़िए कितना हुआ। और जो यह कहिए कि सेर भर कोई लड़का नहीं खा सकता, तो जनाब, मेरे लड़के बच्चे नहीं हैं, कई-कई बच्चों के बाप हैं। इस हिसाब से 80 रु. का तो आटा ही हुआ। 10 रु. की दाल रखिए। बस, मैं और कुछ नहीं चाहता। मगर जो यह कहिए कि इससे कम में गुजर करूँ, तो जनाब, यह मेरे किए न होगा। रोटियों में खुदा का भी साझा नहीं।

मेरे लियाकत का आदमी इस दुनिया में तो आपको मिलेगा नहीं, हाँ शायद उस दुनिया में मिल जाय। बच्चे मैं खिला सकता हूँ, बाजार से सौदे ला सकता हूँ, बनिये के कान कतर लूँ, तो सही। किस्से-कहानियों का तो मैं खजाना हूँ। नित्य नई कहानियाँ कहूँ। मौका आ पड़े, तो जूते साफ कर सकता हूँ; मेम साहब और बाबा लोगों को गाकर खुश कर सकता हूँ। गरज, हरफन-मौला हूँ। पढ़ा-लिखा हूँ। बदनसीबी से मिडिल पास तो नहीं हूँ; लेकिन अपने दस्तखत कर लेता हूँ। जी चाहे इम्तहान ले लीजिए।

'अब रही खानदान की बात। तो जनाब, कमतरीन के बुजुर्ग हमेशा बड़े-बड़े ओहदों पर रहे। मेरे बड़े भाई की बीवी जिसे फूफी कहते हैं और जिससे मजाक का भी रिश्ता है उसके बाप के ससुर के चचेरे भाई नहर के मोहकमे में 20 रु. महीने पर दारोगा थे। मेरे बाबाजान म्युनिसिपलिटी में सफाई के जमादार थे और 10 रु. महीना मुशहरा पाते थे। चूँकि सरकार का हुक्म है कि अच्छे खानदान के लोगों की परवरिश की जाय, इसलिए दो-एक बुजुर्गों का जिक्र कर दिया। वरना यहाँ तो सभी ओहदेदार थे। कहाँ तक गिनाऊँ।'

'अब तो अर्जी में और कुछ लिखना नहीं बाकी रहा। अपनी गरीबी का जिक्र कर ही दिया। लियाकत की भी कुछ थोड़ी सी चर्चा कर दी और अपने खानदान का भी कुछ जिक्र कर दिया।'

'अब अर्ज है कि हुजूर, जो हमारे आका हैं, मेरी परवरिश करें। अगर मुझ पर हुजूर की निगाह न हुई, तो मजबूर हो कर मुझे अपने बाल-बच्चों को मिर्च के टापू में भरती करना पड़ेगा।'

मियाँ आजाद ने जो यह अर्जी सुनी तो लोटने लगे। इतना हँसे कि पेट में बल पड़-पड़ गए। जब जरा हँसी कम हुई, तो पूछा - लाला साहब, इतना और बता दीजिए कि आप हैं कौन ठाकुर?

लाला - जी, बंदा तो अगिनहोत्री है।

आजाद - तो फिर आपके शरीफ-खानदान होने में क्या शक है। मियाँ, आदमी बनो। जा कर बाप-दादों का पेशा करो। भाड़ झोंकने में जो आराम है, वह गुलामी करने में नहीं। मुझसे आपकी अर्जी का तरजुमा न होगा।

***