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चरित्रहीन - 1

चरित्रहीन

भाग 1

“रमता इस दुनिया में दुख के सिवा कुछ भी नहीं। ये संसार माया है।” उस दिन मेरे जी मैं ऐसा ही ख़याल उठा था। मैंने सोचा अब ये सब दुनियादारी के चक्कर छोड़ कर जीवन का सच ढूँढने निकल जाना चाहिए। अभी ये ख़याल पूरा भी नहीं हुआ था कि दिल में एक सवाल उठा, “जीवन का सच ढूँढने के लिए मैं जाऊँगा कहाँ?” कुछ दिमागी कसरत के बाद अचानक मुझे बाबा ब्रह्मचारी के आश्रम की याद आई। उन दिनों जीवन का सच जानने के लिए शहर में उससे अच्छी कोई जगह नहीं थी। तब क्या था चल दी संतों की सवारी बाबा ब्रह्मचारी के आश्रम की तरफ। जिस जगह को आज तक देखा भी नहीं था आज उधर रहने का इरादा कर के मैं चल दिया।

तक़रीबन दो-ढाई घण्टे चलने के बाद लोगों से पूछता-पूछता किसी तरह मैं आश्रम तक पहुँचा। आश्रम देख कर कोई भी भौंचक्का हुए बिना नहीं रह सकता था। सफ़ेद इतना के नज़र भर देखते डर लगता था कहीं नज़रें ही गंदा न कर दें। आश्रम क्या! पूरा महल था याँ शायद कोई किला। आज आश्रम के द्वार खुले थे। मुझे ऐसे लगा जैसे मेरी किस्मत के दरवाज़े मेरे लिए खुले हुए हैं। मैंने दाएँ-बाएँ देखा पर कोई नज़र नहीं आया। मैं सीधा अंदर चला गया। सामने कोई हॉल सा था। दरवाज़ा देख के मैं पल भर को ठिठक गया। साँस रोक कर मैंने दरवाज़े पर लगी घण्टी बाजा दी। जैसे ही घण्टी बजी एक लम्बे-ऊँचे, दाढ़ी वाले, भगवा कपड़े पहने आदमी ने दरवाज़ा खोला और भारी सी डरावनी आवाज़ में बोला, “कौन है? अंदर कैसे आया तू? किसको मिलना है?” ऐसा लगा जैसे मेरी ज़ुबान हलक़ में गिर गई हो। उसने फिर कहा, “बोल भई, क्या काम है?”

मैं कुछ सम्भला, “जी... जी मैं रमता हूँ। बाबा ब्रह्मचारी से मिलने आया हूँ।”

“मिलने आया है? तू क्या उनका रिश्तेदार है?” उसने बड़े व्यंग से पूछा।

“जी नहीं!” मैंने बड़ी नर्मी से जवाब दिया।

“रिश्तेदार नहीं है।” उसने बड़ी उत्तेजक आवाज़ में कहा। “यहाँ तो बस उनके रिश्तेदार ही उनसे मिलने आते हैं। वो भी चुनिन्दा। बाकी सब तो उनके दर्शन को आते हैं।” उसने फिर व्यंग किया।

मैं अपनी गलती समझ गया। मैंने तुरन्त अपनी गलती को सुधार कर के कहा, “मेरा मतलब मैं यहाँ बाबा की शरण में आया हूँ।” मेरा जवाब सुनते ही उसके चेहरे पर हँसी खेल गई। मानो उसने कोई बाज़ी जीत ली। तभी अंदर से ज़ोर से आवाज़ आई, “भोला कौन है? किससे इतनी गप्पें मार रहा है?” दरवाज़े पर खड़े उस पहाड़ से आदमी ने उसी स्वर में जवाब दिया, “बाबा कोई आपके दर्शन के लिए आया है।” अंदर से फिर जवाब आया, “तो क्या दरवाज़े पर ही खड़ा रखेगा या अंदर भी लाएगा दर्शनार्थी को?” बाबा की आवाज़ सुन कर भोले ने मुझे अंदर आने का इशारा किया और अंदर चल दिया। मैं भी उसके पीछे चल दिया।

अंदर का नज़ारा तो बाहर से भी ज़्यादा दंग कर देने वाला था। पूरा फ़र्श सफ़ेद संग-ए-मरमर का, कमरे के ठीक बीच में बड़ा फ़ानूस टंगा था, थोड़ा पीछे कर के एक बड़ा सा पीतल का सिंहासन जिसकी हत्थियाँ बबर शेर जैसी थीं, सिंहासन के नीचे लाल मख़मल का कालीन था। और उस पर भोले जैसी ही भीम काया वाले भगवे चोले में बैठे एक महाराज अख़बार पढ़ रहे थे। मुझे ऐसा लगा जैसे मैं राजा के दरबार में आ खड़ा हुआ हूँ। वो भी ठीक राजा के सामने। मेरे अन्दर जाते ही अख़बार नीचे कर के महाराज ने अपनी गर्दन नीचे की और चश्मे के पीछे से देखते हुए मुझसे बोले, “हुम्म! पहली बार आए हो। मेरी शरण में आए हो?” कह कर वो मेरा मुँह देखने लगे। मैं उनकी बात सुन के हैरान हो गया। वो मेरे दिल की जान गए थे। मैं समझ गया ये दुनियावी चीज़ें सब दिखावा है। बाबा ब्रह्मचारी इस मोह माया से परे हैं। जैसा सुना था वैसा ही गुण पाया। हाँ! नाम सुन कर जो भेस ज़हन में आता था उस से थोड़े अलग थे। पर मैंने सोचा इससे क्या फ़र्क़ पड़ता था। मैं बाबा के पैरों में लोट गया। भोले ने मेरे कन्धे से खींच कर मुझे खड़ा कर दिया। बाबा फिर बोले, “ज़ात क्या है तेरी?” मुझे ये सवाल सुन कर हैरानी हुई मेरे मन की जानने वाले बाबा को मेरी ज़ात नहीं पता। मैंने धीरे से कहा, “जी ब्राह्मण हूँ!” तभी भोला बोला “बिरादरी क्या है तेरी?” इससे पहले मैं कोई जवाब देता बाबा बोले, “बिरादरी से क्या फ़र्क़ पड़ता है। हाँ! ब्राह्मण हूँ, ये बात कहने में जोश होना चाहिए। चल अब लेजा इस को अन्दर और भगवा ओढ़ा दे मूर्ति स्थापना के दिन ही इसको दीक्षा देंगे।”

बाबा की बात सुन कर मुझे समझ आया वो मुझे और भोला को ये सीख दे रहे थे की बिरदारी-विरदरी कुछ नहीं होती और ब्राह्मण को अपनी ज़ात पर फ़क्र होना चाहिए। बाबा ने मुझे देखते ही भगवा देने को कहा इसका मतलब था जीवन का सत्य जानने की मेरी ललक सच्ची भी थी और मैं इसके क़ाबिल भी था। वरना कहाँ ऐसे संत किसी को एक नज़र में अपना चेला बनाते हैं। मैं खड़ा यही सब सोच रहा था के भोला ने मेरे कन्धे पर हाथ रख के कहा, “चल भाई अब यहीं खड़ा रहेगा क्या याँ अन्दर भी चलेगा? थोड़े दिन बाद मंदिर में भगवान श्री विष्णु की मूर्ति विराजी जानी है कई काम बाकी हैं।” मैं भोला के साथ अन्दर जाने को मुड़ा ही था कि पीछे से आवाज़ आई। “नाम तो बता दे अपना।” मुझे भी एहसास हुआ कि अभी तक मैंने बाबा को अपना नाम नहीं बताया। “जी रमता! रमता नाम है मेरा।” बाबा ने एक पल मेरी तरफ देखा, “इसको सब रमता ही कहेंगे।” भोला ने कहा, “जी बाबा जी।”

बाबा से विदा ले कर हम पीछे वाले कमरे को चले। भोला ने मुझ से कहा, “तू बड़ा किस्मत वाला है, बाबा ने तेरा नाम पूछा और बदला भी नहीं। वरना बाबा को तो चेले का नाम दीक्षा वाले दिन पता लगता है। फिर वो उसको नया नाम देते हैं। कई बार तो वो चेले का नाम भी नहीं पूछते और उसको नया नाम दे देते हैं।” एक बार फिर मुझे अपनी किस्मत पर घमण्ड सा होने लगा। “पर बाबा का चेला बनना इतना आसान नहीं। बड़ी तपस्या का काम है”, भोले फिर बोला। मैं चुपचाप हामी में गर्दन हिलाता रहा। कमरे में आकार फिर मेरे दंग होने की बारी थी। ये कमरा बिल्कुल मुर्गी के दड़बे की तरह था। बीस फुट के पूरे कमरे में एक रोशनदान था। दोनों तरफ फ़र्श पर दस-दस बिस्तर लगे थे। हर बिस्तर के ऊपर एक खूंटी थी जिसमें कुछ एक को छोड़ कर सब पर कपड़े टंगे थे। “जब तक तेरी दीक्षा नहीं होती तुझे इसी कमरे में रहना है। बाकी नए लौंडों के साथ।” कह कर भोला ने मेरी पीठ पर हाथ मारा। “घबराना मत ये तेरे इम्तिहान का पहला पड़ाव है। परमात्मा को पाने के लिए तो इंसान को लाखों इम्तिहान देने होते हैं।” मैंने भी सोचा वो तप ही कैसा जिसमें पीड़ा न हो। जितनी पीड़ा उतनी ही गहरी तपस्या। यही सोच कर मैं मुस्कुरा दिया। भोला ने मुझे मेरा बिस्तर दिखा दिया। थोड़ी देर बाद आ कर एक लड़का मुझे भगवा कपड़े दे गया। मंदिर में बाबा जी के नीचे छः महंत, आठ सेवक और नौ रंगरूट थे। छः महंत पक्के थे। जो रंगरूट एक साल तक आश्रम में टिक जाता वो सेवक बन जाता। सेवक का महंत बनना उसकी सेवा भाव पर निर्भर करता था। जिस दिन बाबा सेवा से खुश हो जाते उसी दिन सेवक को महंत बना देते। सुनने में आया भोला को बाबा ने सीधा रंगरूट से महंत बना दिया था। महंतों के अपने अपने कमरे थे बाकी सेवक और रंगरूट इसी कमरे में बस्ते थे।

भगवा पहन कर मैं अभी लेटा ही था कि एक पतला-दुबला सा लड़का कमरे में आया और बोला, “तू ही रमता है?” मैंने हाँ में सिर हिला दिया। वो आगे बोला, “बाहर पानी की बाल्टी रखी है, सामने बाग से दस-पाँच भर ला। भोला भैया कह रहे हैं आँगन की धुलाई करनी है।” मैं उठा और बाल्टी ले कर बाग़ की तरफ बढ़ा। भगवा पहन कर हाथ में बाल्टी लिए चलना ऐसा लगता था जैसे मैं एक बहुत बड़ा सन्यासी हूँ और हाथ में कमण्डल लिए हिमालय पर जा रहा हूँ। बाग़ में चारों तरफ अँधेरा था। दो कोनों में लगी स्ट्रीट लाईट की वजह से कुछ रौशनी आ रही थी। मैं जैसे ही बाग़ में घुसा तो ऐसा लगा मुझे देख कर कोई डर के भागा। मैं भी घबरा गया कहीं कोई प्रेत-वेत तो नहीं जिस वजह से वो लड़का यहाँ आने से डर रहा था। मैंने ध्यान से देखा तो वो सांयां किसी औरत का था जो दौड़ते हुए पलट के देख रही थी। जहां से वो उठ के दौड़ी थी मैं वहाँ पहुँचा तो देखा वो मिट्टी में रुके हुए गंदे पानी के पास कुछ भीगे कपड़े रखे थे। मैं समझ गया वो औरत वहाँ कपड़े धो रही थी। पर वो गंदे पानी से कपड़े क्यों धो रही थी और मुझे देख कर वो भागी क्यों मुझे समझ नहीं आया। वो औरत बाग़ के दूसरे प्रवेश के पास जाकर रुक गई थी और मेरी और देख रही थी। मैंने आवाज़ मारी, “अपने कपड़े तो ले जाओ। डरो नहीं माई मैं कुछ नहीं कहूँगा।” कह कर मैं कुछ कदम उसकी और बढ़ा। वह औरत वहाँ से ऐसे भागी जैसे पहाड़ से उतर कर लावा उसकी तरफ बढ़ रहा हो। मुझे बड़ा अचम्भा हुआ।

ख़ैर! मुझे क्या? यही सोच कर मैंने बाल्टियाँ भरनी शुरू कीं और बीस मिनट में आठ-दस बाल्टियाँ भर के आँगन में पहुँचा दीं। भोला ने कहा, “वाह रे! तू तो बड़ा फुर्तीला, जोशीला है। जा अंदर जा...।” मुझे लगा खाने का वक़्त हुआ जाता है रसोई में ही भेजता होगा। “अंदर से झाड़ू ले आ और आँगन धो दे। आश्रम की सेवा का पूरा मेवा ले”, भोला ने अपनी बात पूरी की। पहले तो मैं जी ही जी में बहुत बुरी तरह कुढ़ गया। फिर जैसे मुझे अपने इस आश्रम में आने का मक़सद याद आया। मैंने सोचा चल रमता गुरु की सेवा के मेवे से बड़ा कौनसा आहार है। खाने से तो बस पेट की आग बुझेगी पर गुरु सेवा से, प्रभु सेवा से मेरे अंदर जो ज्ञान की आग जलेगी वो मेरे सारे अज्ञान, सारे दुख को निगल जाएगी। बस यही सोच कर मैं आँगन की सफाई में लग गया। दो-ढाई घण्टे बाद जब मैं सफ़ाई कर के फारिग़ हुआ तो पता लगा कि रसोई में खाना ख़त्म हो चुका है। उससे भी बड़ा धक्का ये था कि गुरुवार को आश्रम में सफ़ाई का कोई काम नहीं होता। ये मुझे तब पता लगा जब मुझे एक महंत से झाड़ खाने को मिली। मुझसे सफाई करवाना भोला और उसके साथियों की चाल थी। पर जब बाबा जी को पता लगा कि मैंने गुरुवार को पूरा आँगन धो दिया है। उन्हें इस बात पर गुस्सा आ गया और सज़ा के तौर पर उन्होंने मुझे आँगन में बिना तकिया चादर के सो कर अपने पाप का प्रायश्चित करने को कहा।

गुरु की हर करनी में कोई सीख होती है यही सोच कर मैंने कोई विरोध नहीं किया और चुपचाप जा कर भूखे पेट आँगन में लेट गया। ठहलते हुए एक रंगरूट वहाँ आया। मैंने उससे बात की तो पता लगा कि भोला और बाकी सब महंत, सेवक नए आने वालों के साथ ऐसा ही व्यहवार करते हैं। आने वाले ज़्यादातर ग़रीब घर के होते हैं इसलिए चुपचाप सब सह लेते हैं। दो-चार महीने बाद जब उनके सब्र का बाँध टूट जाता है तो वो भाग जाते हैं। थोड़े दिन में आश्रम के मंदिर में नई मूर्तियाँ आने वालीं हैं। जिस वजह से आश्रम में काम बढ़ जाएगा। इसलिए रंगरूटों की भर्ती ज़ोरों पर है। ये लड़का भी ऐसे ही आया था और भोला के ज़ुल्मों से परेशान हो कर भागने का रास्ता ढूँढ़ते हुए ही यहाँ आ निकला था। उसने मुझे भी भाग चलने को कहा। शाम वाले किस्से की याद आते ही मुझे भी उसकी बात सही लगी। पर मैंने सोचा ये धर्म की परीक्षाओं से घबरा गया है। खुद तो धर्मपथ से डोल गया है मुझे भी डिगाना चाहता है। मैंने उसके साथ भागने से इंकार कर दिया।

आश्रम की वो रात मैं कभी नहीं भूल पाऊँगा। रात भर सिर पर कभी चमगादड़ पंजा मारते कभी मच्छर काटते। सारी रात मैं बस करवटें लेता रहा। मैंने कसम खाई कि अब भोला के बातों में नहीं आऊँगा। पर औखली में भी कोई मूसल से बच सकता है। अगली सुबहा ही मुझे पता लगा भोला सिर्फ बाबा का प्यारा चेला ही नहीं नए रंगरूटों का हैड भी वही है। वो ही सबके काम काज तय करता है। और मेरा काम अब से बाग़ से पानी भर के लाना था। ये भी बड़ा कड़वा अनुभव था।

जब मैं सो के उठा तो पता लगा सुबहा की आरती हो चुकी है और मैं उस वक़्त सोता ही रहा इसलिए बाबा जी मुझसे नाराज़ हैं। पर मैं नया हूँ अंजान भी सो मेरे पाप की शांति के लिए बाबाजी ने मुझे शिव स्त्रोत संस्कृत में ऊंची आवाज़ में पढ़ने को कहा है। मैंने बाबा जी से बिनती की के मुझे संस्कृत नहीं आती तो वो और नाराज़ हो गए। पर भोला के इशारा करने पर उन्होंने मुझे एक सो एक बार शिव चालीसा पढ़ कर मेरा पाप शांत करने का हुक़्म दिया। मेरी निगरानी का जिम्मा भोला को दिया। भोला मुझे एक पेड़ के नीचे ले कर बैठ गया। बगल में उसने एक बड़ासा फलों से भरा थाल रख लिया। मुझे लगा शायद मेरे लिए हैं। पाठ कर के मुझे खाने को मिलेंगे। जब पाठ शुरू हुआ तो भेद खुला। “जैसे ही तेरे पाँच पाठ पूरे होंगे मैं एक फल खाऊँगा। तू समझ जाना तेरे पाँच पाठ हो गए। ये पूरे बीस फल हैं जैसे ही सब ख़त्म होंगे तेरे पाठ पूरे हो जाएंगे। पाठ का उच्चारण सही करना। पाठ में दोष न तो गुरु जी को पसंद है न मुझे।... और हाँ जल्दी पाठ ख़त्म करियो मुझे भूख लगी है। खाना खाने जाना है। फिर आश्रम के ट्रस्टी साहब के आने की तैयारी करनी है। पूरा मंदिर धोना है।” मंदिर धोने की बात सुन कर रात वाला नज़ारा मेरी आँखों के आगे आ गया। भोलेनाथ के नाम से मुझे इतना डर ज़िंदगी में कभी नहीं लगा। जैसे-तैसे मैंने दो घण्टे में पाठ ख़त्म किया।

पाठ ख़त्म होते तक बोल-बोल के मेरा गला सुख गया था। मैंने पानी मांगा तो भोला ने मुझे बाग़ से पानी पी कर आने को कहा। वैसे बाग़ से सिर्फ आश्रम की धुलाई के काम आने वाला पानी ही भरा जाता था। पर मैं झट से बाग़ की तरफ दौड़ा। मैंने जाते ही टूटी से मुँह लगा लिया। पहला घूट पानी का गले से उतारा तो रात से खाली पड़े मेरे पेट में पत्थर की तरह गिरा। पेट में ऐसा दर्द उठा कि जान निकाल गई। उस दिन मुझे एहसास हुआ कि सचमुच खाली पेट को पानी भी पत्थर होता है। अपनी प्यास बुझा कर मैं मुड़ा ही था कि मेरी नज़र रात वाली औरत पर पड़ी। वो एक बच्चे को लिए बाग़ की तरफ आ रही थी। मैं एक पेड़ के पीछे छुप गया। जैसे ही वो पानी के पोखर के पास पहुँची मैं कूद के उसके सामने आ गया। वो डर के पीछे गिर गई। उसका बच्चा उसको चिपक गया। वो घबरा कर बोलने लगी, “साधू जी माफ कर दो, आगे से इस बाग़ में नहीं आऊँगी। मुझे मारना मत। हम भी ज़ात के पण्डित हैं।” मैंने आगे बढ़ कर उसको उठाया, “माता मैं क्यों तुझे मारने लगा। मैं क्या! कोई भी तुमको क्यों मरेगा? मैं तो बस ये जानना चाहता था रात को मुझे देख कर तुम भागीं क्यों? मैंने तो तुमको कुछ नहीं कहा था। और तुमको बाग़ में आने से रोकने वाला मैं कौन हूँ? ये तो सबका बाग़ है।”, उस औरत ने बड़ी हैरानी से मेरी तरफ देखा। वो बोली, “साधू जी, मैंने उस दिन वो बूढ़े साधू जी को भी यही कहा था तो उन्होंने मुझे कुलटा कह कर डण्डा मार दिया। हम कुछ रोज़ पहले ही अपने पण्डितजी के साथ शहर आए थे। सोचा था यहाँ पण्डिताई कर के कुछ पैसे कमा लेंगे। पर यहाँ आ कर तो हमारे भाग उल्टा फूट गए।” मैंने उसके ऐसा सोचने का कारण पूछा। वो औरत बोली, “जिस दिन हम यहाँ आए उसी दिन एक मोटर ने हमारे पण्डित जी को कुचल दिया। उस टक्कर में हमारे पण्डित जी परलोक सिधार गए। मोटर किसी बड़े सेठ की थी इसलिए पुलिस टेशन में भी हमारी कोई सुनवाई नहीं हुई। बताओ ऐसे में हम कैसे कुलटा हुए। हम तो अभागिन हैं।” उस औरत की बात सुन कर मेरा कलेजा चाक हो गया। मैंने पूछा क्या वो बाबा ब्रह्मचारी जी से मिली है तो उसने मना कर दिया। मैंने उसको शाम को आश्रम आने को कहा। सोचा तब तक मैं भी बाबा जी से उसके बारे में बात कर लूँगा। शायद इससे इसका कुछ भला ही हो जाए। “माता तुम जब चाहो इस बाग़ में आ सकती हो अब यहाँ की निगरानी मेरे हाथ में है। तुमको कोई कुछ नहीं कहेगा।” मैंने जाते- जाते कहा। “और हाँ! अब तुम ये नल का साफ पानी लेना। गंदा नहीं।” कह कर मैं वापस आश्रम की तरफ चल दिया।

लौटते हुए मुझे पेट की भूख ने फिर दस्तक दी। मेरी रफ़्तार ज़रा तेज़ हो गई। मैं रसोई की तरफ लपका। पर जाता कहाँ? मुझे रसोई का पता नहीं था। पूछता-पाछ्ता मैं रसोई तक पहुँचा। वहाँ पंगत लगी थी मैं भी जा कर बैठ गया। अभी मैंने निवाला तोड़ा ही था कि भोला आकार मेरे सिर पर खड़ा हो गया। “अभी तक यहीं बैठा है। जल्दी खा और मेरे कमरे पर आ। शाम को आश्रम में धर्मभोज है अपना काम समझ ले।” मुझे समझ ही नहीं आया की ये धर्मभोज क्या होता है? मैंने अपने बगल में बैठे एक बुज़ुर्ग सन्यासी से पूछा। मेरा सवाल सुन कर सन्यासी को गुस्सा आ गया। उसने चार निवाले और तोड़े फिर वो अपनी थाली धोने के लिए रख कर चला गया। उसके जाते ही एक नया रंगरूट मेरे पास आया। “तुम क्या करते हो? जानते नहीं बाबा अखण्ड योगी जी खाना खाते हुए कुछ नहीं बोलते। न ही बोलना पसंद करते हैं।” मैंने कहा, “भाई मैं तो यहाँ नया हूँ। कल ही शाम को आया हूँ। मुझे तो अभी अपना नहीं पता। किसी का क्या पता होगा?... वैसे ये बाबा हैं कौन?” उसने बताया, “बाबा अखण्ड योगी जी बड़े शास्त्र ज्ञाता हैं और गुरु ब्रह्मचारी जी के सबसे खास हैं। बाबा की शास्त्रों में ऐसी गहन आसस्था है। तुझसे पहले मैं ही बाग़ की सेवा पर था। अभी परसों एक कुलटा ने बाग़ के नल को छू लिया तो बाबा ने उस गंदे पानी से आश्रम को गंदा नहीं होने दिया। अपने दण्ड से उसको दण्ड दे कर उसको उसकी गलती की सज़ा दी और मंत्र पढ़ कर नल को पवित्र किया।” मैं समझ गया ये वही महाराज हैं जिन्होंने बाग़ वाली माता को मारा था। मैंने पूछा, “क्या इस बात का बाबा ब्रह्मचारी जी को पता है?” उस लड़के ने मुझे ऐसे देखा जैसे मैं घोड़ों के झुण्ड में गधा हूँ, “अरे! हर बात थोड़ा ही जा कर गुरुजी से कही जाती है”। उसके बाद मैंने बाबा के बारे में कुछ नहीं पूछा।

मैंने धर्मभोज के बारे में पूछा तो पता लगा कि आज शाम शहर के सभी पण्डित, ब्राह्मण बुला कर बाबा ब्रह्मचारी उनको भोजन कराएंगे। उसी को धर्मभोज का नाम दिया गया है।

शाम को आश्रम में स्थापित होने वाली मूर्तियाँ आने वालीं थी। उन्हीं मूर्तियों का स्वागत करने के लिए शहर भर के ब्राह्मणों को बुलाया जा रहा था। वो सब अपने पाठ से आश्रम और मंदिर का वातावर्ण पवित्र करेंगे। फिर मैंने कुछ नहीं पूछा, अपना खाना खाया और वहाँ से चला गया।

मैं सीधा बाग़ में पहुँचा। माता एक पेड़ के नीचे सोई हुई थी। मैंने उसको शाम को आश्रम में धर्मभोज में शामिल होने का निऔता दिया। पहले वो ज़रा घबराई फिर मैंने उसको समझाया कि बाबा ब्रह्मचारी ऐसे नहीं हैं। मैंने कहा बल्कि शाम को अगर वो वहाँ आई तो मैं उस अखण्ड योगी की पोल बाबा के सामने खोल कर माता के लिए आश्रम में रहने का इंतजाम कर दूंगा। माता आने को राज़ी हो गई। पर उसने अपने बच्चों को लाने से मना कर दिया। मैं उसके डर को समझ गया। मैंने उसको अकेले आने को ही कह दिया।

बड़ी ख़ुशी से मैं आश्रम को लौट रहा था। मैंने देखा एक आदमी आश्रम के दरवाज़े पर परेशान सा खड़ा था। मैंने जा कर उससे उसकी परेशानी का कारण पूछा। उसने कहा वो बाबा ब्रह्मचारी जी से मिलना चाहता है पर कोई उसको उन तक जाने नहीं देता। मैंने पूछा अगर कोई ऐसी बात है जो वो मुझे बता सके और मैं बाबा से उस बारे में बात कर सकूँ तो वो मुझे बता दे। मुझ पर यक़ीन करना उसको शायद इतना आसान नहीं था। उसकी झेंप को ताड़ कर मैंने उसको यक़ीन दिलाया कि मैं बाकियों जैसा नहीं हूँ और वैसे भी सारी दुनियादारी छोड़ कर मैं यहाँ आया हूँ। इसलिए ऐसी कोई बात नहीं है जो वो मुझे नहीं बता सकता। बड़ी बातों के बाद उसने मुझे बताया कि वो एक व्यापारी है। और इस मंदिर के ट्रस्टी धरमपाल सहाय ने उसका तीन लाख रुपया मार रखा है। इस रुपये के रुक जाने की वजह से उसका सारा धंधा बंद होने के कागार पर आ गया है। इस पैसे की तंगी के चलते बच्चों का नाम स्कूल से कटाने की नौबत तक आ गई है। मैंने उससे शाम तक की महोलत माँगी। तब तक उसको बाग़ में इंतज़ार करने को कहा। वो मेरी बात पर राज़ी हो गया।

अंदर जाते हुए मैं सोच रहा था कि अब सीधा बाबा के पास जाया जाए और दोनों तकलीफ़ के मारों की व्यथा कह कर अपने सन्यासी धर्म का पालन किया जाए। आश्रम के अंदर बिल्कुल सन्नाटा सा छाया हुआ था। ये देख कर मुझे बड़ी हैरानी हुई। तभी एक नया रंगरूट हॉल की तरफ भागता नज़र आया। मैंने उसे रोक कर माजरा पूछा। उसने कहा, “गुरु जी ने सब लोगों को बुलाया है। मंदिर के दो बड़े ट्रस्टी आ रहे हैं।... जल्दी चलो।” उसकी बात सुन कर मैं भी उसके पीछे हो लिया। हॉल में पूरा दरबार लगा हुआ था। बाबा अपने सिंहासन पर विराजमान थे। उनके दाएँ-बाएँ, बाबा के सिंहासन से थोड़ी छोटी कुर्सियों पर, दो आदमी बैठे थे। हुलिए से ही ज़ाहीर होता था ये दोनों ही मंदिर के ट्रस्टी हैं। तीन पुजारी वैसी ही कुर्सी पर बाबा के दाईं तरफ बैठे थे, तीन बाईं तरफ। बाकी सब लोग खड़े थे। बाबा जी ने कहा, “आज मुझे तुम सबको ये बताते हुए बड़ी ख़ुशी हो रही है के हमारे चीफ ट्रस्टी धर्मपाल सहाय जी ने आश्रम को तीन लाख रुपये दान दिए हैं। जिसमें डेढ़ लाख रूपये माँ लक्ष्मी, भगवान नारायण और शिव परिवार की मूर्तियाँ ख़रीदने के लिए उनकी सेवा है। पचास हज़ार मूर्ति स्थापना के दिन होने वाले हवन और धर्मभोज पर ख़र्च होगा। बाकी की राशि से आश्रम की मरम्मत का काम होगा। मरम्मत में कम पड़ने वाले एक लाख रूपये हमारे ट्रस्टी सत्यनारायण कनोजिया जी ने दान दिये हैं।” बाबा बात सुन कर सभी तालियाँ पीटने लगे। धर्मपाल सहाय का नाम सुनते ही मेरे कान खड़े हो गए। मुझे लगा हो न हो मंदिर के लिए दान में दिए जाने वाले ये तीन लाख रूपये वहीं हैं जो ट्रस्टी ने उस व्यापारी के मार रखे हैं।

एक कनोजिया का मंदिर के ट्रस्टी रूप में मंदिर से जुड़ा होना और बाबा जी का उस मंदिर से सम्बंध है। ये सोच कर मुझे यक़ीन सा हो चला था कि बाबा जी का ज़ात पात में कोई विश्वास नहीं। वरना किसी नीची ज़ात वाले को बाबा जी ऐसे ही अपने आश्रम का ट्रस्टी तो नहीं बना सकते। फिर मैं ख़्यालों ही में पूरे आश्रम की सैर करते हुए वो कोना ढूँढने लगा जिसको इतनी मरम्मत की ज़रूरत हो। तभी बाबा जी फिर बोले, मेरा ध्यान ऐसा टूटा जैसे किसी ने खाली कमरे में काँच तोड़ा हो, “और तुम सब के लिए ख़ुशी की बात ये है की दोनों ही ट्रस्टीओं ने सभी पुजारियों की तनख़्वाह दो हज़ार बढ़ाने का वादा किया है। साथ ही इस महीने से सेवकों को भी दो हज़ार रूपये महीना दिया जाएगा।” बाबा की इस बात पर पहले से भी ज़्यादा तालियाँ बजने लगीं। ऐसा लग रहा था जैसे उन तालियों में लक्ष्मी के पैरों की पायल भी खनक रही थी जिससे तालियों की आवाज़ और तेज़ हो गई थी। “बस! बस! अब जल्दी से सब अपने काम पर लग जाओ शाम के धर्मभोज में ज़्यादा देर नहीं है”, कह कर बाबा जी ने सभा बर्खा़स्त की।

आगे की कहानी भाग 2 में…..

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आशा करता हूँ आप भी अपने विचार मुझसे निस्संकोच बांटेंगे।

आभारी

तलब