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काली

काली

आजकल सोशल मीडिया पर #काली ट्रेंड कर रहा था। हर उम्र की महिलाएं इसे बहुत अधिक पसंद कर रही थीं। #काली ने उन्हें ऐसा मंच दिया था जहाँ वह अपना दिल खोलकर रख सकती थीं। यही कारण था कि यहाँ वह बेझिझक अपने साथ हुए भेदभाव पूर्ण व्यवहार के बारे में बातचीत कर रही थीं। दफ्तर में पुरुष सहकर्मियों या बॉस द्वारा की गई छेड़छाड़ या कामुक टिप्पणियों के बारे में बता रही थीं।

#काली की शुरुआत करने वाली जयंती आज महिलाओं के लिए प्रेरणा स्रोत बन गई थी। पेशे से वकील जयंती ने महिलाओं के अधिकार उनकी अस्मिता के सवाल को आज हर घर में एक विचारणीय मुद्दा बना दिया था। उसके इस प्रयास की सराहना करने के लिए 'स्त्री चेतना' नामक एक संगठन ने उसके सम्मान में एक कार्यक्रम आयोजित किया था। कार्यक्रम की संचालिका ने जयंती से मंच पर आकर सम्मान ग्रहण करने की प्रार्थना की। तालियों की आवाज़ से पूरा हॉल गूंज उठा।

पैरों में कैलीपर्स पहने लंगड़ाते हुए जयंती मंच की तरफ बढ़ी। कुछ लोग मदद के लिए आगे बढ़े लेकिन उसने हाथ जोड़ कर बड़ी विनम्रता से उन्हें मना कर दिया। वहाँ उपस्थित बहुत से लोगों के मन में यही चल रहा था कि पोलियोग्रस्त साधारण सी दिखने वाली इस लड़की में इतनी ज्वाला कहाँ से आई ? क्या सचमुच यह वही लड़की है जिसने उन तथाकथित सम्मानित लोगों से लोहा लिया ? लेकिन उनके मन में उभर रहे सवालों का जवाब तो जीता जागता उनके समक्ष खड़ा था। उनके हाथ और भी तेज़ी से तालियां बजाने लगे।

कार्यक्रम की मुख्य अतिथि एक जानी मानी समाज सेविका थीं। उन्होंने जयंती को सम्मानित करते हुए शॉल भेंट की और 'स्त्री रत्न' सम्मान प्रदान किया। सम्मान लेने के बाद जयंती वहाँ मौजूद लोगों से मुखातिब हुई।

"मुझे इस सम्मान के योग्य समझने के लिए आप सभी का धन्यवाद। मैं जानती हूँ कि यहाँ उपस्थित बहुत से लोगों को इस बात का आश्चर्य हो रहा होगा कि क्या सचमुच इस साधारण सी लड़की ने वह काम किया है। सच कहूँ तो थोड़ा आश्चर्य तो मुझे भी होता है।"

जयंती ने जिस अंदाज़ से यह बात कही उससे माहौल की गंभीरता कुछ कम हुई। एक हल्की सी हंसी की लहर दौड़ गई। जयंती भी मुस्कुरा दी। उसने आगे कहना शुरू किया।

"सही है। आश्चर्य मुझे भी हुआ। लेकिन अपने निजी अनुभव से मैंने एक बात महसूस की है कि परिस्थितियों से लड़ने की ताकत तो हमारे अंदर होती है। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है कि हम दिखते कैसे हैं। अमीर हैं या गरीब। औरत हैं या मर्द। सचमुच कोई फर्क नहीं पड़ता है। बस हम ही उस आंतरिक शक्ति को पहचान नहीं पाते हैं।"

सब बहुत ध्यान से जयंती को सुन रहे थे। उसके शब्द उनके मन के भीतर उथल पुथल मचा रहे थे। जयंती अपने साहस के कारण बहुत दिनों से चर्चा में थी। लेकिन उसके व्यक्तिगत जीवन के संघर्ष के बारे में बहुत अधिक जानकारी नहीं थी। सभी उसकी कहानी सुनना चाहते थे। इससे बेहतर क्या होता कि खुद जयंती के मुंह से उसके संघर्षों की कथा सुनी जाए। एक तेइस चौबीस साल का लड़का अपनी सीट से उठ कर खड़ा हो गया। जयंती ने जब उसे देखा तो पूँछा।

"आप क्या कुछ कहना चाहते हैं ?"

जयंती ने संचालकों से कहा कि उसे अपनी बात कहने के लिए माइक दिया। जाए। माइक मिलने पर वह लड़का बोला।

"मैम आपके जज़्बे को मेरा सलाम। आपसे एक विनती है। आपने अब तक इस मुकाम तक पहुँचने के लिए जो संघर्ष किया उसके बारे में किसी को नहीं बताया। क्या आज आप खुद हमें उस संघर्ष की कहानी सुनाएंगी। प्लीज़..मैम..।"

उस लड़के की बात सुनकर सब तरफ से उसके समर्थन में आवाज़ें आने लगीं "हाँ..हाँ..सुनाइए। हम सुनना चाहते हैं। लोगों की इस गुज़ारिश को सुन कर जयंती सोंच में पड़ गई। नम्रता के साथ बोली।

"आप लोगों ने मेरे बारे में जानने की इच्छा जताई इसके लिए मैं आप सब लोगों की आभारी हूँ। किंतु यह मंच क्या इसके लिए उचित जगह है। फिर इस कार्यक्रम की अपनी समय सीमा है।"

जयंती के इस तर्क के बावजूद भी लोगों ने अपनी मांग जारी रखी। लोगों की मांग को देख कर कार्यक्रम के संचालक ने भी उससे अपने संघर्ष की कहानी सुनाने को कहा। सबकी गुज़ारिश देखते हुए जयंती मान गई।

कुछ क्षणों तक अपनी यादों को व्यवस्थित करने के बाद जयंती ने अपनी कहानी सुनाना आरंभ किया।

"मेरा जन्म पिछड़ी जाति के एक गरीब परिवार में हुआ था। एक पांव पोलियो का शिकार था। अतः आस पड़ोस नाते रिश्तेदार सभी का कहना था कि मेरे पिता भूरेलाल की छाती पर एक ऐसा बोझ आ बैठा है जिसे उतार पाना कठिन है। बिरादरी की औरतें जब भी माँ के पास बैठती तो यही कहती थीं कि ना शक्ल सूरत से अच्छी है और ना ही तुम्हारे पास देने को इतना दहेज होगा। ऊपर से एक पैर भी बेकार है। भचक कर चलती है। कैसे इसका ब्याह करोगी। उनकी इस बात पर माँ बस यही कह देती कि जिसने पैदा की है वही पार लगाएगा। हम कर भी क्या सकते हैं। पर सरकारी अस्पताल में सफाई कर्मी मेरे पिता उन लोगों को जवाब देते हुए कहते कि भले ही भचक कर चले लेकिन पढ़ लिख कर अपने पैरों पर खड़ी होगी......"

अपनी कहानी सुनाते हुए जयंती अतीत में चली गई। आज फिर उसके दूर के रिश्ते की एक मौसी ने जयंती के भविष्य को लेकर गहरी चिंता जताई। परेशान माँ रो रही थी। पिता भूरेलाल उन्हें समझा रहे थे।

"क्यों रोती हो चंपा ? रोने से क्या समस्या हल हो जाएगी। तुम रोओगी तो वह भी कमज़ोर होगी। हमें उसे मज़बूत बनाना है। डॉक्टर साहब कह रहे थे। एक खास जूता आता है। जिसमें लोहे की छड़ें होती हैं। जो पांव को सहारा देती हैं। उसे पहन कर चलने में कम दिक्कत होगी। वो सरकारी अस्पताल से दिला देंगे। उसे पहन कर स्कूल जाएगी जयंती।"

डॉक्टर की मदद से भूरेलाल ने जयंती के लिए कैलीपर्स ले लिए। उसने कैलीपर्स पहन कर स्कूल जाना शुरू कर दिया। यह उसके सुरक्षित भविष्य की तरफ बढ़ाया गया पहला कदम था। पांव भले ही कमज़ोर हो पर दिमाग बहुत तेज़ था। जो कुछ स्कूल में पढ़ाया जाता उसे ध्यान से समझती थी। घर आकर सबक को दोहराती थी।

स्कूल घर से दूर था। कंधे पर बस्ता लादकर पैदल चलना उसके लिए आसान नहीं था। लेकिन वह हिम्मत के साथ रोज़ स्कूल जाती थी। वह होशियार थी। जो भी पूँछा जाता था उसका झट से जवाब देती थी। यह बात कुछ छात्रों को अखरती थी। एक बार एक लड़के ने ताना मारा।

"मेहतर की लड़की है, पांव की लंगड़ी लेकिन खुद को महारानी समझती है। पढ़ लिख कर कोई अफसर नहीं बन जाएगी।"

जयंती को उसके कड़वे बोल चुभ गए। वह रोती हुई घर लौटी। भूरेलाल काम पर गए हुए थे। अपनी सारी परेशानियां वह अपने प्यारे बाबू से कहती थी। बाबू जब घर पहुँचे तो उन्हें देखते ही जयंती रो पड़ी। सारी बात बताई। उसकी बात सुनकर भूरेलाल ने कहा।

"देखो बिटिया अगर तुम उनकी बातें सुनकर इसी तरह कमज़ोर होकर रोओगी तो वह तुम्हें और रुलाएंगे। अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी पड़ती है। तुम्हारा बाबू तो बस तुम्हारी मदद कर सकता है।"

जयंती को अपने बाबू की कही बात समझ में आ गई। उस दिन के बाद उसने लोगों की कड़वी बातों का अपनी तरह से जवाब देना शुरू कर दिया। उसकी पढ़ाई आगे बढ़ने लगी। लेकिन समस्या यह थी कि उसका स्कूल केवल आठवीं कक्षा तक ही था। उसके आगे पढ़ने के लिए और भी दूर जाना पड़ता था। जयंती के एक शिक्षक थे बृजभूषण। वह जयंती की मेहनत व लगन से बहुत प्रभावित थे। वह चाहते थे कि जयंती पढ़ लिख कर आगे बढ़े। लेकिन आगे की पढ़ाई के लिए रोज़ इतनी दूर पैदल जाना उसके लिए चुनौतीपूर्ण था।

बृजभूषण ने भूरेलाल को सुझाव दिया कि वह जयंती को साइकिल चलाना सिखा दें। उन्होंने अपनी एक पुरानी साइकिल जयंती को दे दी। भूरेलाल की देखरेख में गिरते पड़ते जयंती ने साइकिल चलाना सीख लिया। पढ़ाई के सफर में यह साइकिल उसकी अच्छी साथी साबित हुई। वह साइकिल चला कर स्कूल जाती थी। उसने दसवीं का इम्तिहान दिया। पर्चे बहुत अच्छे हुए थे। वह नतीजे का इंतज़ार करने लगी। किंतु नतीजा आने से पहले ही उसके प्यारे बाबू दुनिया छोड़ कर चले गए।

अभी तक अपने जीवन में जब भी वह दुखी या परेशान होती थी तब अपने बाबू के साथ ही उसे बांटती थी। लेकिन अब उसकी तकलीफ बांटने वाला कोई नहीं था। माँ अपने ही दुख से दुखी थीं। वह अकेली पड़ गई थी। इसके बावजूद जयंती ने हिम्मत नहीं हारी। घर की माली हालत ठीक नहीं थी। फीस के लिए उसने छोटे छोटे काम किए पर अपनी पढ़ाई जारी रखी।

बारहवीं पास करने के बाद स्नातक करने के लिए गांव या उसके आसपास कोई कॉलेज नहीं था। उसके पास दो रास्ते थे। एक यह कि वहीं रहते हुए पत्राचार से पढ़ाई करे। दूसरा यह कि शहर जाकर रेग्यूलर पढ़े। जयंती चाहती थी कि वह गांव से निकल कर शहरी जीवन की चुनौतियां स्वीकार करे। उसने दूसरा रास्ता चुना।

सब बहुत ध्यान से जयंती की कहानी सुन रहे थे। उसने एक नज़र वहाँ उपस्थित लोगों पर डाली। पास रखी बोतल से कुछ पानी पिया। उसके बाद अपनी कहानी आगे बढ़ाई।

"शहर में रहने की अपनी चुनौतियां थीं। लेकिन मैं चाहती थी कि अब अपने आप को बड़े संघर्ष के लिए तैयार करूँ। मुझे छात्रवृत्ति मिल रही थी। मैंने भी आसपास के बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया। कठिनाई से ही सही पर गाड़ी आगे बढ़ रही थी। मैं जितना अधिक समस्याओं को सुलझाती उतना ही मेरा आत्मविश्वास बढ़ता जा रहा था। बीए करने के बाद मैंने प्राइमरी स्कूल की शिक्षिका बनने के लिए बीटीसी किया। अंततः मुझे एक सरकारी स्कूल में शिक्षिका की नौकरी मिल गई....."

शिक्षिका बनने के बाद जयंती अब अपने पैरों पर खड़ी थी। उसके बाबू का सपना कि एक दिन पढ़ लिख कर वह आत्मनिर्भर बनेगी पूरा हो गया था। उन सभी लोगों को उसने अपनी मेहनत से चुप करा दिया था जो यह समझते थे कि वह जीवन में कुछ नहीं कर सकती है।

जयंती खुश थी कि अब वह अपनी माँ के लिए कुछ कर सकने की स्थिति में थी। उसके संघर्षों में माँ ने उसका पूरा साथ दिया था। जीवन की गाड़ी अब पटरी पर आ गई थी। जयंती उस मुकाम पर थी जहाँ से वह और सुनहरे भविष्य की तरफ बढ़ सकती थी। उसके साथ स्कूल में मदन नाम का एक शिक्षक काम करता था। वह भी उसकी भांति संघर्ष करके आगे आया था। उसने सुझाव दिया कि दोनों मिल कर प्रशासनिक सेवा परीक्षा की तैयारी करते हैं। जयंती को यह सुझाव अच्छा लगा। दोनों सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी करने लगे।

जयंती के स्कूल के प्रधानाचार्य का तबादला हो गया। उनके स्थान पर अभय कुमार नाम का एक नया प्रधानाचार्य आया। अभय एक स्थानीय नेता का रिश्तेदार था। उसके आते ही स्कूल में कई प्रकार की गड़बड़ियां शुरू हो गईं। बच्चों को मिलने वाले मिड डे मील की गुणवत्ता दिन पर दिन खराब होने लगी। लड़कियों के लिए शौचालय बनाने की योजना स्थगित कर दी गईं। इस उद्देश्य के लिए मिली हुई राशि का क्या हुआ यह भी नहीं बताया गया। जयंती ने इन सब गड़बड़ियों को लेकर आवाज़ उठाई तो उसे बुरे अंजाम का डर दिखा कर चुप रहने को कहा गया। मदन भी उसे समझाता था कि वह इन सब चक्करों में ना पड़ कर अपने काम से काम रखे। लेकिन जयंती धमकियों से नहीं डरी। उसने यह मामला ऊपर के अधिकारियों तक पहुँचाया। चुनाव का समय होने के कारण प्रधानाचार्य का नेता रिश्तेदार भी उसकी मदद नहीं कर सका। अभय की गड़बड़ियां सामने आने पर उसे निलंबित कर दिया गया।

अपनी इस जीत से जयंती बहुत खुश हुई। यह उसके विश्वास की जीत थी कि यदि प्रयास किया जाए तो व्वस्था को सुधारा जा सकता है। वह पुनः सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी में जुट गई। मदन और जयंती कुछ देर स्कूल में रुक कर साथ पढ़ाई करते थे। एक दिन पढ़ते हुए उन्हें कुछ अधिक समय हो गया। सर्दी का मौसम था। अंधेरा जल्दी हो जाता था। जयंती ने जब घर जाने के लिए अपनी साइकिल निकाली तो पाया कि वह पंचर है। वह परेशान हो गई कि घर पैदल जाना पड़ेगा। मदन ने उससे कहा कि वह परेशान ना हो वह उसे मोटरसाइकिल से घर छोड़ देगा। कल छुट्टी है। वह साइकिल का पंचर ठीक करवा कर उसके घर पहुँचा देगा। जयंती उसकी बात मान गई।

रास्ते में मदन ने अचानक रास्ता बदल दिया। उसने कहा कि उसे अपने दोस्त से कुछ ज़रूरी सामान लेना है। पहले वह ले ले फिर उसे घर छोड़ देगा। जयंती मान गई। दोस्त के घर पहुँच कर मदन उसे बैठक में बिठा कर अंदर चला गया। जयंती उसके आने की प्रतीक्षा करने लगी। कुछ समय बाद अपने सामने एक शख्स को खड़ा देख कर वह दंग रह गई। वह निलंबित प्रधानाचार्य अभय था। उसके साथ ही मदन और उसका दोस्त भी बाहर आए। जयंती समझ गई कि मदन ने उसके साथ धोखा किया है।

उस रात बहुत अधिक ठंड थी। सर्द हवा के थपेड़े झेलती जयंती हिम्मत कर अपने आप को सड़क पर घसीटती चल रही थी। कपड़े फटे थे। उसके जख्मों में पीड़ा हो रही थी। तीनों वहशियों ने उसे बड़ी निर्ममता से नोचा था। किसी ने भी उसकी चीखें नहीं सुनी। अपनी वासना पूरी कर उन्होंने उसे सड़क पर फेंक दिया। लुटी पिटी जब वह घर पहुँची तो उसकी माँ उसे देख कर चीख पड़ी।

अपने अपमान की आग में जयंती जल रही थी। उस पर बलात्कार करते हुए अभय ने कहा था 'तू अपनी औकात भूल गई थी। तुझे तेरी जगह दिखाना आवश्यक था। " उसके यह शब्द पिघले शीशे की तरह उसके कानों से दिल में उतर गए थे। वह हर हाल में उन वहशियों को सज़ा दिलाना चाहती थी। उसकी माँ इस बात के पक्ष में नहीं थी। लेकिन जयंती हर हाल में न्याय चाहती थी। उसने लड़ने का निश्चय किया।

उसकी यह लड़ाई बहुत कठिन साबित हुई। अभय को इस बार अपने रिश्तेदार का सरंक्षण प्राप्त था। जयंती को बलात्कार की रिपोर्ट लिखाने के लिए ही दौड़ धूप करनी पड़ी। उसके बाद मामला जब कोर्ट में पहुँचा तब भी सबूतों के साथ छेड़ छाड़ की गई। झूठी गवाहियों के ज़रिए यह साबित कर दिया गया कि वारदात के दिन अभय वहाँ मौजूद नहीं था। यह साबित कर दिया गया कि जो कुछ हुआ वह केवल मदन और जयंती के बीच हुआ। वह भी उसकी रज़ामंदी से। उसके साथ कोई जबरदस्ती नहीं हुई थी। सब बाइज्ज़त बरी हो गए।

अपनी कहानी सुनाते हुए जयंती भावुक होकर रुक गई। वहाँ उपस्थित लोगों की आँखों में भी नमी थी। अपने आप को नियंत्रित कर उसने आगे कहना शुरू किया।

"मैं न्याय लेने गई थी पर मुझे केवल बदनामी मिली। मेरी माँ के लिए यह सब असहनीय था। वह इस सदमे से गुज़र गईं। यह मेरे लिए सबसे कठिन दौर था। जीवन में पहली बार मैं हारा हुआ महसूस कर रही थी। मेरे मन में आत्महत्या करने का विचार आया। मैं यह कदम उठाने ही वाली थी कि मेरे अंतर्मन में एक आवाज़ गूंजी। 'जीवन की लड़ाई अधूरी छोड़ना कायरता है'। मेरे बाबू दूर रह कर भी मुझे सही राह दिखा रहे थे। फिर मैंने वो फैसला लिया जिसने मेरा जीवन बदल दिया....."

जयंती ने नौकरी छोड़ कर लॉ कॉलेज में प्रवेश ले लिया। उसने महसूस किया कि न्याय पाना कितनी जटिल प्रक्रिया है। आम आदमी को कानून की सही समझ ना होने का लाभ कई वकील अपने हित में उठाते हैं। जैसा उसके वकील ने किया था। उसके पक्ष में रह कर भी वह उसके केस को कमज़ोर कर रहा था। एक गरीब आदमी का केस लड़ने को कोई तैयार नहीं होता है। अमीर लोग बड़े वकीलों के ज़रिए आसानी से झूठ को सच बना देते हैं। अपने निजी अनुभव की कड़वाहट के बावजूद उसने न्याय व्वस्था पर अपना विश्वास नहीं खोया। बल्कि कानून का सच्चा सिपाही बनने का फैसला किया।

यह निर्णय आसान नहीं था। नौकरी छोड़ कर वह एक दांव खेल रही थी। लेकिन उसने अब अपने जीवन का नया लक्ष्य तय कर लिया था। उसकी जमा पूंजी मुकदमे की भेंट चढ़ गई थी। अपने गुज़ारे के लिए उसने एक प्राइवेट स्कूल में नौकरी कर ली। शाम को कानून की पढ़ाई करती थी और दिन में स्कूल में पढ़ाती थी। एक बार फिर वह अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही थी। लेकिन इस बार पहले से भी अधिक मज़बूत इरादे के साथ।

कानून की डिग्री लेने के बाद जयंती एक ऐसे वकील की तलाश में थी जिसके साथ काम करके वह कानून के दांव पेंच सीख सके। ताकि जब वह कोई केस लड़े तब दूसरे पक्ष के दांव समझ सके। सरदार सतनाम सिंह एक ऐसे वकील थे जो कानून का प्रयोग अमीर लोगों के झूठ को सच बनाने में नहीं करते थे। वरन कानून की सहायता से गरीब लोगों को इंसाफ दिलाते थे। जयंती भी सतनाम सिंह के साथ इस मुहिम में जुड़ गई। जयंती मन लगा कर सब कुछ सीख रही थी। वह उस दिन की प्रतीक्षा में थी जब वह अपना पहला केस हाथ में लेगी।

करीब डेढ़ साल मेहनत करने के बाद जयंती को वह केस मिला जिसने उसे सबके बीच पहचान दी। कोचिंग से पढ़ कर लौटती हुई लड़की को एक रईसज़ादे ने अपने दोस्तों के साथ मिल कर अगवा कर लिया। अपने फॉर्म हॉउस ले जाकर दोस्तों के साथ उसका बलात्कार किया। फिर देर रात उसे सड़क पर फेंक कर चले गए। लड़की के पिता केस लेकर सतनाम सिंह के पास आए तो सब सुनकर जयंती ने उनसे अनुरोध किया कि यह केस उसे लड़ने दें। सतनाम सिंह को उसकी काबिलियत पर पूरा यकीन था। उन्होंने केस जयंती को सौंप दिया।

इस केस के ज़रिए जयंती केवल एक वकील के तौर पर अपनी पहचान नहीं बनाना चाहती थी। उस लड़की को इंसाफ दिला कर वह अपने अपमान का बदला लेना चाहती थी। उसने पूरी तरह से खुद को इस केस में झोंक दिया। दूसरा पक्ष पैसों से मजबूत था। उनकी पहुँच भी बहुत ऊपर तक थी। चालाक वकील के द्वारा उन्होंने सारे दांव खेले। पर जयंती डरी नहीं। सतनाम सिंह का अनुभव भी उसके साथ था। केस के दौरान कई बार ऐसा दौर आया जब जयंती को लगा कि वह इन शातिर लोगों के सामने हार जाएगी। किंतु हर एक बार किसी अदृश्य ताकत ने उसे टूटने से बचा लिया। वह उस दीपक की तरह थी जिसकी लौ तेज़ हवा में लपलपाती तो है पर बुझती नहीं है। अंततः सच्चाई की ही जीत हुई। लाख सहारे मिलने के बावजूद झूठ मुंह के बल गिर पड़ा। जयंती न्याय की एक उम्मीद किरण बन कर उभरी।

जयंती के साहस की कहानी सुनकर सभी अपने स्थान पर उसके सम्मान में खड़े होकर तालियों बजाने लगे। कुछ मिनटों के बाद जब तालियों की गड़गड़ाहट रुकी तो जयंती ने कहा।

"मैंने कई लोगों को कहते सुना है कि पैसे की ताकत के सामने सब झुक जाता है। पर इस केस ने साबित कर दिया कि सच की ताकत सबसे बड़ी ताकत है। अव्यवस्था को दूर करना है तो उसकी लड़ाई हमें ही लड़नी पड़ेगी। सच हमारे साथ है तो हमें डरने की आवश्यक्ता नहीं है।"

एक लड़की अपनी जगह पर खड़ी होकर बोली।

"मैम आपकी कहानी से मैं बहुत प्रभावित हुई हूँ। आप प्रेरणा स्रोत हैं। पर मैम #काली की शुरुआत कैसे हुई।"

उस लड़की की बात सुनकर जयंती ने कहा।

"मेरे केस के दौरान सोशल मीडिया पर इसकी बहुत चर्चा थी। मुझे समाज के हर वर्ग से समर्थन मिल रहा था। तब मैंने सोशल मीडिया की शक्ति को पहचाना। उसी दौरान कुछ महिलाओं ने मेरा समर्थन करते हुए दबी ज़ुबान अपना दुख भी साझा किया। तब मैंने महसूस किया कि हमारे देश में कई महिलाएं ऐसी हैं जो अपने ऊपर हुए अत्याचार को चुपचाप सहन कर रही हैं। लेकिन कहती कुछ नहीं हैं। यह महिलाएं हर उम्र की हैं। हर वर्ग से ताल्लुक रखती हैं। उन्हें एक ऐसे मंच की आवश्यक्ता है जहाँ से वह अपनी बात कह सकें। वह मंच #काली ने उन्हें दिया।"

वह लड़की बहुत ध्यान से जयंती को सुन रही थी। उसने जिज्ञासा दिखाई ।

"पर काली क्यों ??"

उस लड़की का प्रश्न सुनकर जयंती कुछ देर विचार करने के बाद बोली।

"काली शक्ति का विध्वंसकारी रूप है। नारी को सदा कोमल सरल ह्रदय ममतामई कोमलांगी माना गया है। उसमें जीवन के सृजन की क्षमता है। किंतु उसके इन्हीं गुणों को उसकी कमज़ोरी मान कर उसे दबाया जाता रहा है। अतः अब आवश्यक्ता है कि नारी काली का रूप धारण करे। काली के रूप में उन मान्यताओं का ध्वंस करे जिनके तहत नारी को केवल एक भोग की वस्तु माना जाता है। उन बेड़ियों का नाश करे जो उसे एक व्यक्ति के रूप में जीने का अधिकार नहीं देती हैं। अपने अंदर के उस संकोच का नाश करे जो अपने ऊपर हुए अत्याचार के खिलाफ बोलने से उसे रोकता है। किंतु ममता के अपने नैसर्गिक गुण को ना त्यागे। क्योंकी काली विकराली भी माँ रूप में पूजी जाती हैं।"

जयंती के विचार से सब बहुत प्रभावित हुए थे। साधारण सी दिखने वाली उस लड़की के भीतर छिपे शक्ति रूप को सबने पहचान लिया था।

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