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सूखा पेड़

सूखा पेड़

रीतिका जिस रास्ते से प्रतिदिन कार्यालय जाया करती थी, उस रास्ते पर एक बुजुर्ग व्यक्ति आँखों पर मोटा चश्मा लगाए, हाथ में छड़ी लिए बस की प्रतीक्षा में खड़ा रहता था। रीतिका जब भी वहाँ से निकलती, बरबस ही उसकी दृष्टि बुजुर्ग पर पड़ जाती, लेकिन तुरंत ही वह उधर से अपनी दृष्टि हटाकर सड़क पर आगे देख कर अपनी कार के परिचालन पर ध्यान केन्द्रित करने लगती, लेकिन मन में ना जाने क्यों रह रह कर उस बुजुर्ग का चित्र सामने आ जाता......

रीतिका का कार्यालय दिल्ली राजेन्द्र प्लेस के विक्रम टावर में था, चौदह मंज़िले इस टावर की तेरहवीं और चौदहवीं मंजिल पर हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट का मुख्य कार्यालय था जिसमे रीतिका वरिष्ठ प्रबन्धक का पद संभाल रही थी........

उस दिन रीतिका भोजनावकाश के समय जब लिफ्ट से नीचे जा रही थी तब लिफ्ट आठवीं मंजिल पर खुली, एक व्यक्ति लिफ्ट से बाहर निकला, तभी रीतिका ने उसी बुजुर्ग को कॉरीडोर से जाते हुए देखा, रीतिका की जिज्ञासा इस बात को जानने के लिए बढ़ गयी कि क्या यह बुजुर्ग व्यक्ति प्रतिदिन वहाँ से बस द्वारा इसी इमारत में आता है........

जिज्ञासा वश रीतिका बाहर निकालना ही चाह रही थी कि तभी लिफ्ट बंद हो गयी और चल पड़ी........

नीचे से रीतिका उसी लिफ्ट से फिर आठवें तल पर आई और बाहर निकल कर पूरे तल पर ढूंढती रही लेकिन उसको वह बुजुर्ग व्यक्ति नहीं मिला, तब रीतिका ने सोचा कि कल कार्यालय आते समय उस व्यक्ति से वहीं बस स्टैंड पर मिलूँगी........

अगले दिन सुबह कार्यालय जाने के लिए तैयार होते समय मन में बार बार यही प्रश्न आ रहा था, “मैं उस व्यक्ति के लिए इतना परेशान क्यों हूँ, मेरे मन में उसके प्रति इतनी जिज्ञासा क्यों है, मैं तो उसको जानती भी नहीं हूँ........”

तैयार होकर कार्यालय के लिए निकली, रास्ते में दूर से ही रीतिका ने उस बुजुर्ग को देख लिया था, रीतिका के आगे एक बस भी चल रही थी, बस जाकर स्टैंड पर रुकी, रीतिका ने बस के पीछे अपनी कार खड़ी कर दी और दरवाजा खोल कर उस बुजुर्ग से मिलने की पूरी आशा लिए जैसे ही उसकी तरफ बढ़ी तो देखा बुजुर्ग वहाँ पर नहीं था, शायद बस में बैठ कर चला गया था........

रीतिका मन मसोस कर रह गयी और वापस आकर अपनी कार में आ बैठी। आज रीतिका का ध्यान सड़क पर केन्द्रित नही हो रहा था, बार बार बुजुर्ग का ध्यान आ रहा था.......

अगले दिन रीतिका को बुजुर्ग वहाँ खड़ा हुआ नहीं मिला, थोड़ी देर प्रतीक्षा करके रीतिका चली गयी, लेकिन जब चार पाँच दिन तक वह बुजुर्ग वहाँ नहीं मिला तो रीतिका परेशान हो गयी और वहीं पास में अपनी कार रोक कर वहाँ खड़े लोगों से बुजुर्ग के बारे में पूछने लगी........

बुजुर्ग के बारे में लोगों ने अनभिज्ञता दिखाई तो रीतिका निराश होकर अपनी कार की तरफ बढ्ने लगी तभी एक लड़के ने पीछे से कहा, “क्या आप सिधार्थ जी के बारे में पूछ रही हैं?”

“मैं उनका नाम नहीं जानती, बस इतना जानती हूँ कि वे आँखों पर मोटा चश्मा लगाए, हाथ में छड़ी लिए रोज सुबह बस की प्रतीक्षा में यहाँ खड़े रहते हैं और शायद यहाँ से राजेंद्र प्लेस तक जाते हैं, एक बार, बस एक बार मैंने उनको विक्रम टावर की आठवीं मंजिल पर देखा था, शायद वहाँ पर काम करते होंगे।”

“सर बीमार हैं, इसलिए आ नहीं रहे, यहीं पास में ही उनका घर है, आप कहें तो मैं आपको वहाँ छोड़ दूँ?” लड़के ने रीतिका से कहा........

“हाँ, हाँ चलो बताओ कहाँ है उनका घर, और कौन कौन है उनके घर में?” रीतिका ने पूछा........

“कोई नहीं है दीदी, क्या मैं आपको दीदी बुला सकता हूँ?”

“हाँ क्यों नहीं” रीतिका ने जवाब दिया........

तभी दोनों सिधार्थ के घर पहुँच गए, दस बाई दस का एक कमरा ही उनका घर वह भी किराए का, जिसमे सिधार्थ अकेला पड़ा बुखार से तप रहा था।

“रीतिका नाम है मेरा, क्या मैं तुम्हारा नाम जान सकती हूँ?” रीतिका ने लड़के से पूछा........

“जी दीदी, मेरा नाम भावेश है और मैं भी इसी घर के एक कमरे में किराए पर रहता हूँ, मैंने ही सर को डॉक्टर से दवा दिलवाई है, लेकिन मैं पूरे समय यहाँ रहकर देखभाल नहीं कर सकता, काम पर जाना होता है, नहीं जाऊंगा तो कैसे चलेगा।”

ना जाने क्यों उस दिन रीतिका ने कार्यालय से छुट्टी लेकर सिधार्थ की देखरेख करने की सोची और सिधार्थ के सिरहाने की तरफ कुर्सी डाल कर बैठ गयी........

रीतिका ने सिधार्थ के माथे पर हाथ रखा तो माथा काफी गरम था, शायद इसी कारण सिधार्थ को बेहोशी छाई हुई थी। रीतिका एक साफ कपड़ा लेकर, पानी में भिगो कर और निचोड़ कर सिधार्थ के माथे पर रखने लगी, थोड़ी देर ऐसा करने पर सिधार्थ का बुखार कम हो गया........

धीरे धीरे सिधार्थ ने आँखें खोली तो एक खूबसूरत महिला को अपने सिरहाने कुर्सी पर बैठे देखकर चौंक गया........

“आप कौन हैं और यहाँ कैसे?” सिधार्थ ने पूछा।

“मेरा नाम रीतिका है, मेरा कार्यालय राजेन्द्र प्लेस के विक्रम टावर में तेरहवीं और चौदहवीं मंजिल दोनों में है, मैं रोज सुबह जब यहाँ से गुजरती थी तो आपको को बस की प्रतीक्षा में खड़े देखती थी, चार पाँच दिन पहले जब आपको विक्रम टावर की आठवीं मंजिल पर देखा तो ना जाने क्यों मेरी जिज्ञासा आपको जानने में बढ़ गयी और मैंने आपको विक्रम टावर में भी खोजा, जब आप नहीं मिले तो मैंने आपको यहाँ बस स्टैंड पर संपर्क करने की भी कोशिश की लेकिन मेरे पहुँचने से पहले आप बस मैं बैठ कर निकल गए........

जब तीन चार दिन से आप बस स्टैंड पर नहीं दिखे तब मुझे ना जाने क्यों एक चिंता सी होने लगी, बस वही चिंता मुझे यहाँ तक खींच कर ले आई........”

“सिधार्थ ने अभी दसवीं कक्षा पास की थी कि अचानक पिताजी चल बसे, सात साल छोटा भाई, दस साल छोटी बहन और माँ की जिम्मेंदरी आई तो पढ़ाई छोड़ कर नौकरी कर ली, पिताजी जिस दुकान पर काम करते थे उसने भी कोई सहायता नहीं की .......

दिन रात मेहनत करके घर संभाला लेकिंज इसी बीच माताजी भी चल बसीं, शायद पिताजी का असमय जाना उनको बर्दाश्त नहीं हुआ........

छोटे भाई बहन को पढ़ाया, भाई कामयाब हो गया तो उसकी शादी कर दी, बहन अभी कॉलेज में पढ़ रही थी........

छोटी बहन को एक मुस्लिम लड़के से प्यार हो गया, काफी समझाने के बाद भी वह एक दिन उस मुस्लिम लड़के के साथ चली गयी, समाज में बहुत बदनामी हुई........

छोटे भाई की घरवाली को उसका भाई अपने घर गया, जब उसको वापस लिवाने गए तो उसके घर वालों ने छोटे भाई से शर्त रख दी कि वह अपने घर वालों से सारे रिश्ते तोड़ ले ........

छोटा भाई घर छोड़ कर जाने लगा तो मैंने उसे रोक दिया और स्वयं वह घर छोड़ कर यहाँ रहने लगा इस दस बाई दस के कमरे में........

बहन की बदनामी के कारण किसी ने ना तो सहयोग किया और ना ही मेरी शादी होने दी........

बहन भी खुश ना रह सकी, कुछ दिन बाद उस मुस्लिम लड़के ने उसे कोठे पर बेच दिया, मैंने काफी कोशिश की उसे खोजने की, पुलिस का भी सहयोग लिया मगर मिल ना सकी........

इसका भी पता ना चलता अगर वह लड़का किसी दूसरे लड़की के साथ भी ऐसा करते हुए ना पकड़ा जाता, तभी उसने उन सारी लड़कियों के बारे में बताया जिन जिन को उसने अपने प्यार के जाल में फंसा कर कोठे पर बेच दिया था, उनमे एक नाम मेरी अभागी बहन का भी था।”

यह सच्चाई थी सिधार्थ के जीवन की........

सिधार्थ ठीक हो गए और रीतिका के साथ ही कार्यालय जाने आने लगे.......

अब दोनों आपस में काफी घुल मिल गए थे, शायद उनके बीच एक रिश्ता बन गया था जिसे प्यार कहते हैं।

घर पर दोनों अकेले रहते थे, कोई पूछने वाला भी नहीं था और यह भी चिंता नही थी कि घर पर कोई प्रतीक्षा कर रहा है अतः दोनों ज्यादा से ज्यादा समय एक साथ बिताने लगे, कभी आइस क्रीम पार्लर में, कभी किसी रैस्टौरेंट में और कभी कभी पिक्चर देखने में........

आपस में लगाव इतना बढ़ता गया कि दोनों को एक दूसरे की कमी महसूस होने लगी, तो रीतिका ने सिधार्थ का सारा सामान एक गाड़ी में भरवाकर अपने फ्लैट पर ही रखवा लिया और दोनों एक साथ रहने लगे........

“रीतिका छोटी ही थी कि माँ बाप दोनों ही एक दुर्घटना के शिकार हो गए, चाची ने बड़े बेमन से पाल तो लिया लेकिन एक बोझ की तरह........

चाचा चाची का एक छोटा बेटा था जिसे रीतिका बहुत प्यार करती थी।

एक दिन चाचा मोटर साइकल पर चाची को लेकर गाँव जा रहे थे कि एक ट्रक की चपेट में आ गए और सब कुछ समाप्त हो गया........

रीतिका अभी पढ़ ही रही थी कि इतनी सारी मुसीबत उसके सिर पर आ गिरि लेकिन उसने हार नहीं मानी।

रीतिका ने नौकरी कर ली, और साथ में अपनी पढ़ाई भी जारी रखी, दिन में नौकरी करती और सांध्य कॉलेज से पढ़ाई करने लगी, इस तरह उसने MBA कर लिया और हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट में मैनेजर के पद पर काम करने लगी, साथ साथ अपने भाई को पढ़ाया, कामयाब किया और उसकी शादी कर दी........

अपने काम के सिलसिले में रीतिका कभी कभी कार्यालय में देर तक रुकती तो भाभी ताने मारती, रीतिका के चरित्र पर उंगली उठाने लगती.......

रीतिका की उम्र काफी हो गयी थी, पूरा जीवन उसने अपने चाचा चाची का कर्ज़ उनके बेटे को पाल पोस कर उतारने मे लगा दिया लेकिन अब उससे उसके चरित्र पर उठी उंगली बर्दाश्त नहीं होती थी अतः रीतिका ने अलग फ्लैट ले लिया जहां वह आराम से जीवन व्यतीत करने लगी, उम्र काफी हो चुकी थी, शादी का विचार भी छोड़ दिया........

बचपन से दुख झेल रही रीतिका अब पचपन की हो चुकी थी लेकिन कभी ना तो प्यार के बारे मे सोचा और ना ही समय मिला। लेकिन अब पचपन की हो चुकी रीतिका के हृदय में प्रेम का अंकुर फूटा और वह भी एक बासठ वर्षीय बुजुर्ग के लिए........

“सिधार्थ आप पहले क्यों नहीं मिले?”

“रीतिका आपने ढूंढा ही नहीं, जब ढूंढा तो मैं मिल गया”

“सिधार्थ मेरे मन में एक विचार आया है”

“बताओ”

“क्यों ना हम दोनों शादी कर लें, इस बची हुई ज़िंदगी को एक साथ प्यार से बिताएँ”

“लेकिन मैं अब इस उम्र में इस बूढ़े शरीर के साथ आपको क्या दे पाऊँगा? मैं तो एक सूखा पेड़ हूँ जिसे चाहे जितना सींचो हरा नहीं होगा।”

“प्यार! जो आप दे रहे हैं और कभी कभी प्यार से सींचने पर सूखे पेड़ भी हरे हो जाते हैं।”

“अगर मेरे इस रूखे सूखे प्यार के साथ मुझे अपना सकती हो तो उम्र के इस पड़ाव पर थाम लेते हैं एक दूसरे का हाथ।”

सिधार्थ, जो ज़िंदगी के थपेड़ों से असमय बूढ़े हो गए थे, रीतिका का प्यार पाकर खुश रहने लगे, अब सिधार्थ की आँखों का ऑपरेशन हो गया, मोटा चश्मा हट गया और छड़ी भी उठाकर एक कोने में रख दी, सिर के बाल काले करके सूखे पेड़ को फिर से हरा कर दिया जिसमे प्यार की नई नई कोंपलें फूट रही थी।