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‘ठग्स ओफ हिन्दोस्तान’ फिल्म रिव्यू

कई सालों से ये होता चला आ रहा है की दिवाली के त्योहार पर रिलिज हुई फिल्म इतनी बुरी होती है की दिवाली का मजा किरकिरा कर देती है. फिर चाहे वो ‘जब तक है जान’ हो या ‘हेप्पी न्यू यर’. ‘दिलवाले’ हो या ‘शिवाय’ या फिर ‘ए दिल है मुश्किल’. एसी फिल्में बडे स्टार्स के नाम पे अच्छा ओपनिंग लेके बोक्स ओफिस पर कमाई तो कर लेती है पर दर्शको के दिलों पे राज नहीं कर पातीं. ईस साल रिलिज हुई ‘ठग्स ओफ हिन्दोस्तान’ थी एसी प्रकार की फिल्म है. बकवास और फिकी.

बडे धूमधाम से बनी इस फिल्म में समय दिखाया गया है 1795 का जब अंग्रेज भारतवर्ष में अपनी पकड बना रहे थे, क्रांतिकारी अंग्रेजो के खिलाफ लड रहे थे और कई हिन्दुस्तानी अपने फायदे के लिये अंग्रेजो के तलवे चाटने में लगे थे. इस परिवेश में घूमती है ‘ठग्स ओफ हिन्दोस्तान’. फिल्म के लिये बडा बजेट और बडे स्टार्स तो मिल गये लेकिन यहां न तो स्क्रीप्ट दमदार है, न डिरेक्शन. और होगा भी कैसे? ‘ठग्स ओफ हिन्दोस्तान’ उसी ‘महान’ डिरेक्टरने बनाई है जिसने ‘टशन’ और ‘धूम 3’ जैसी बोलिवूड के ईतिहास की दो महा-बकवास फिल्में बनाई थीं. ‘ठग्स ओफ हिन्दोस्तान’ भी उसी केटेगरी में आती हैं.

फिल्म में जो गिनि-चुनी ठीक-ठाक सी चीजें हैं वो है… प्रोडक्शन डिजाइन, सेट्स, सिनेमेटोग्राफी, कम्प्युटर ग्राफिक्स, पार्श्वसंगीत (बेकग्राउन्ड म्युजिक), वेशभूषा (कोस्च्युम्स) आदि अच्छे है. कलाकारों के गेटअप एवं मेकअप भी जचते है. पर ये सब टेकनिकल बातें है और आज-कल की सभी फिल्मों में ये सब चीजें दर्शनीय होतीं ही है. इन सब पासों से फिल्म ज्यादा निखर के आती है, आंखो को ज्यादा भाती है, पर केवल टेकनिकल तत्वो से फिल्म हिट नहीं होती. ‘ठग्स ओफ हिन्दोस्तान’ की कहानी में ही जान नहीं है तो टेकनिकल पासें फिल्म को डूबने से कैसे बचाएंगे?

स्क्रिप्ट में बिलकुल नयापन नहीं है, न कोई ट्विस्ट, न कोई सरप्राजिंग एलिमेन्ट. आगे क्या होगा ये सोचने में दर्शकों को दिमाग का बिलकुल इस्तेमाल नहीं करना पडता क्योंकी सारी चीजें हम हिन्दी फिल्मों में अनगिनत बार देख चुके है. डायलोग्स कहीं कहीं अच्छे है, कभी कभार थोडा बहोत हसां भी देते है, पर इतने से बात नहीं बनती.

अभिनय में आमिर खानने अपनी भूमिका अच्छे से निभाई है. उनका पहेनावा (लूक) और भावभंगीमा (बोडी लेंग्वेज) होलिवुड फिल्म ‘पाइरेट्स ओफ द केरेबियन’ के मुख्य किरदार ‘जेक स्पॅरो’ से प्रभावित है और फिल्म में वो साफ दिखता है. फिर भी आमिर देखनेलायक है. वच्चनसा’बने जो किया है उसमें कुछ भी नया नहीं है. उनकी पर्सनालिटी परदे पर निखर के आती है— गेट अप की वजह से— लेकिन जब केरेक्टर की लिखावट में ही दम नहीं है, तो सरजी क्या करेंगे. केटरिना कैफ नामकी जो हिरोइन है— मैं उन्हें अदाकारा (एक्ट्रेस) तो कतई नहीं कह सकता— उन्हें पूरी तरह से और बूरी तरह से उल्लु बनाया गया है (अब ये मत बोलना के उसे ‘बनाने’ की क्या जरूरत है?). फिल्म में वो परदे पर महज तीन बार आती है, गिनती में पूरे ढाई सीन उन्हें दिए गये है और दो गानों में नाचकर वो दर्शकों का मन वहलाने की पूरजोर कोशिश करती है… लेकिन रिजल्ट..? आप अंदाजा लगा सकते है, की रिजल्ट कैसा होगा. (‘सुरैया जान…’ गाने में केटरिना खूब नाची है, पर वो क्या नाची है ये बडा प्रश्न है. इतना घटिया नृत्य निर्देशन(कोरियोग्राफी) बोलिवुड के इतिहास में शायद की किसीने किया होगा. गाने में वो नाच रही है, योगा कर रही है या फिर उन्हें मिर्गी के दोरे पड रहे है ये तय कर पाना मुश्किल है. जितनी थर्ड-ग्रेड कोरियोग्राफी है उतने ही थर्ड-क्लास गाने भी है इस फिल्म में. सारे के सारे गाने.) केटरिना के मुकालबे फातिमा सना शेख को ज्यादा फूटेज मिला है, कहानी उनके केरेक्टर के ‘बदले की आग’ के आसपास घूमती है, पर वो भी बिलकुल ‘फ्लॅट’ एक्टिंग करके खुश हो लेती है. न तो उनकी डायलोग-डिलिवरी में कोई धार है, न ही उनकी स्क्रीन प्रेजन्स में. आमिर के दोस्त शनिचर के रोल में मोहम्मद जीसान अय्युब ने काफी अच्छा काम किया है.

फिल्म में एक चील है, जिसको स्क्रीन पे देखना अच्छा लगा. और एक गधा भी है. ‘ठग्स ओफ हिन्दोस्तान’ देखके लगता है की वो गधा फिल्म का राइटर-डिरेक्टर विजय कृष्ण आचार्य ही है. क्यूंकी इतनी वाहियात फिल्म तो एक गधा ही बना सकता है. ‘ठग्स ओफ हिन्दोस्तान’ में कई हिट फिल्मों की छाप दिखाई पडती है— जैसे मनोज कुमार की ‘क्रांति’, ‘बाहुबलि’ और ‘पाइरेट्स ओफ धी केरेबियन’— लेकिन ‘ठग्स ओफ हिन्दोस्तान’ इन फिल्मों की तरह मनोरंजन करने की वजाय दिमाग का दहीं कर देती है. इस फिल्म को देखते वक्त एसा लगता है मानो कोई ८० के दशक की फिल्म देख रहे है. वही पुराने स्टाइल के हथकंडे फिल्म में आजमाए गये है. क्लायमेक्स में विलन के अड्डे में हिरोइनें नाचती है, बिना अपना चहेरा ढकें और विलन को उन्हें पहेचानने में १० मिनट लग जाते है. अंग्रेज सिपाईओं को आमीर खान धतूरे डाले लड्डू खिलाके बेहोश कर देते है… आहाहा… क्या ब्बात है!!! पहेली बार देखा ये तो, है ना?? ऐसे वाहियात हथकंडो से पूरे पौने तीन घंटे की फिल्म भरी पडी है. और हां, अंग्रेज अफसर अकेले में भी आपस में हिन्दी में क्यूं बातें करते रहेते है? ये तो भई फिल्म के डिरेक्टर को ही पता होगा. शायद उन अंग्रेजो की अंग्रेजी कमजोर होगी…

आदरणीय आचार्यजी एक एंटरटेइनिंग खीचडी बनाने गये थे लेकिन ये पकवान पूरी तरह से फिका रह गया है. लेकिन हां, मानना पडेगा की आचार्यजी दर्शकों को ठगने में पूरी तरफ से कामियाब रहे. और वो भी लगातार तीसरी बार.

‘ठग्स ओफ हिन्दोस्तान’ का ट्रेलर देखा था तभी से आशंका थीं की ‘पाइरेट्स ओफ धी केरेबियन’ की कोपी लग रही ये फिल्म बोरिंग होगी, लेकिन इतनी बोरिंग और बकवास होगी ये पता नहीं था. पूरे ३०० करोड के बजेट में बनी ये फिल्म ‘यशराज फिल्म्स’ के लिये घाटे का सौदा रहेगी(हालाकिं फिल्म देख के एसा बिलकुल नहीं लगता की ३०० करोड का खर्चा किया है, केवल फिल्म की हाइप बनाने के लिये ये जूठ हैलाया गया है), और ऐसा होना भी चाहिए. इतनी थर्ड ग्रेड फिल्म प्रोड्युस करने की आखीर कोई सजा तो होनी ही चाहिए न!! मेरी तरफ से इस सडी-गली फिल्म को पांच में से केवल एक स्टार. दूर से ही नमस्कार कर दिजिएगा इन ठगो को.

(Film Review by: Mayur Patel)