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एक अदद फ्लैट - 2

एक अदद फ्लैट

अर्पण कुमार

(2)

इन दिनों दिन-रात नंदलाल का मस्तिष्क इन्हीं धन-राशि के इंतज़ाम में लगा हुआ रहता था। वे बिल्डर द्वारा दिए गए एक-एक मद को बड़े ध्यान से देखते। चश्मे की आँख से वे मद उन्हें ख़ूब बड़े दिखते। कुछ ऐसे कि हर मद अपने आप में जलकुंभियों से भरा कोई विशालकाय तालाब हो और वे उसमॆं गिरकर उलझनेवाले हो। वे चिल्ला रहे हों और कोई उन्हें बचाने के लिए उनके पास नहीं आ रहा हो। फ्लैट की क़ीमत 3700 रुपए प्रति वर्गफीट। साढ़े पंद्रह सौ वर्ग फीट में बने फ्लैट का मूल्य इस हिसाब से सत्तावन लाख पैंतीस हजार था। मगर यह तो सुपर बिल्ट अप एरिया था। फ्लैट का कार्पेट एरिया तो दस प्रतिशत से कम ही था। ख़ैर, उन्हें तो पूरी राशि देनी थी सो देनी थी। इसके अलावा कभी बिजली कनेक्शन का खर्चा तो कभी क्लब हाउस का। कभी एलपीजी गैस फिटिंग का तो कभी सोसाइटी मेंटेनेंस का। नंदलाल यादव जी इन दिनों उसी मनःस्थिति में जी रहे हैं। उन्होंने एक लोकप्रिय गाने की पैरोडी की और अक्सरहाँ ख़ुद को तो कभी अपनी पत्नी को उसे सुनाते। आप सभी ने उस गाने को सुन रखा है। फिर भी नमूने के तौर पर उसके बोल रखे जा रहे हैं :-

‘सुबह से लेकर शाम तक

शाम से लेकर सुबह तक

मुझे प्यार करो

मुझे प्यार करो’

मगर वक़्त के साथ गाने के बोल बदल गए थे।

‘सुबह से लेकर शाम तक

शाम से लेकर सुबह तक

मेरा तुम हिसाब करो

हिसाब यह बेहिसाब करो’

नंदलाल को लगता..उनसे कभी उनका बन रहा फ्लैट तो कभी उसे बना रहा उनका बिल्डर यह सबकुछ कह रहा है। मगर ठुमकते हुए नहीं, उसकी आँखों में अपनी आँखें डाले, उसे सम्मोहित करते तो कभी धमकाते। उसे अपनी उँगली दिखाते हुए। इन दोनों का चेहरा हटता तो कभी बैंक मैनेजर का चेहरा उसके सामने उभर आता। कभी यह डाक्यूमेंट तो कभी यह डाक्यूमेंट की वह माँग करने लगता। उसकी मुस्कुराहट के पीछे उसके प्रोफेशनल स्ट्रिक्ट रवैये से नंदलाल डरने लगे थे। यह उनके जीवन में पहली बार था, जब वे किसी की मुस्कुराहट से डरने लगे थे। कभी पुराने और प्यारे दिनों में ‘मोहरा’ फिल्म का यह गीत उन्हें बड़ा पसंद था। कुछ हटकर ही सही, अपनी प्रौढ़ावस्था में भी वे उसी गीत की खुमारी में जी रहे थे। मगर यहाँ दूर दूर तक प्यार नहीं था। यहाँ सबकुछ था प्यार को छोड़कर। यहाँ एक अनजानी ख़ुशी के पीछे भागते रहने की सहज मानवीय लिप्सा थी। यहाँ भौतिकतावाद और बाजारवाद के अंतहीन जंगल में कसे चले जाते मानव की छटपटाहट थी। यहाँ प्यार नहीं था मगर प्यार के अलावा सब कुछ था।

नंदलाल अपनी पत्नी ऊषा देवी से कहने लगे, "ऐसा लगता है कि सारी दुनिया थम गई है। कुछ भी अच्छा नहीं लगता। दिन रात मन निन्यानबे के चक्कर में लगा रहता है। आदमी नहीं पैसे के पीछे भागता मैं कोई घनचक्कर हो गया हूँ। क्या फ्लैट खरीदने से यही सब होता है! अगर हाँ तो क्या अपने को बौना बनाकर यूँ आगे बढ़ने का क्या कोई औचित्य है? क्या एक थ्री बीएचके का मालिक होना सचमुच आगे बढ़ना है?"

ऊषा क्या कहती! वह अपने पति की परेशानी और उनकी खीझ को समझ रही थी। चुप ही रही। फिर कुछ देर में बोली, "आप थक गए हैं। आइए, आपके सिर में तेल लगा दूँ।”

नंदलाल ने स्वीकृति में हाँ कर दी और नीचे फर्श पर पालथी मार बैठ गए। ऊषा देवी सोफे पर बैठ नवरत्न का तेल लेकर उनके सिर में मालिश करने लगी। नंदलाल को बड़ा अच्छा लग रहा था। सामने टीवी पर जॉनी वाकर की कोई एक फिल्म आ रही थी। वे अपनी पत्नी से कहने लगे, “अरे ऊषा, वो क्या बेहतरीन गाना फिल्माया गया है इस शख्श के ऊपर।”

ऊषा भी अपने पति की धुन में धुन मिलाती हुई हल्की आवाज़ में गुनगुनाने लगी, “ तेल मालिश तेल मालिश”

फिर दोनों सहसा ठठाकर हँस पड़े।

कुछ ही देर में उन्होंने बड़ा हल्का सा महसूस किया। पत्नी से कहने लगे, “देखो ऊषा, शाही घर तो इसे कहते हैं। मेरी पत्नी मेरे पास बैठी हुई है और मैं अपनी थकान को भुलाए बैठा उससे मीठी-मीठी बातें कर रहा हूँ। मगर फ्लैट के नाम पर हम पता नहीं ऐसा कौन सा घर खरीद रहे हैं, जिसमें हमारे लाखों रुपए सैंकड़ों में तब्दील होते जा रहे हैं। उस घर में कब रहेंगे मालूम नहीं मगर आज अपने इस घर की सुख-शांति निश्चय ही भंग हो गई है।”

ऊषा बिना एक शब्द बोले अपने पति की बात सुनती रही। वह उनके भीतर की ऊहापोह को समझ रही थी।

.................

जब ओखल में सिर दे दिया तो मूसल से क्या डरना! नंदलाल की हालत कुछ ऐसी ही हो गई थी। वे इस प्रक्रिया में काफ़ी आगे बढ़ चुके थे। पीछे लौटना अब किसी सूरत मुनासिब नहीं था। मगर सारे प्रयास के बावजूद भी बात नहीं बन रही थी। अभी काफ़ी पैसे और चाहिए थे। सो, उन्होंने अपने रिश्तेदारों से धन जुटाने की सोची। मगर दुनिया बदल चुकी थी और समय अब ऐसा नहीं रह गया था कि एक रिश्तेदार दूसरे की मदद कर सके। पाँच-छह जगहों पर कोशिश की। मगर दो जगहों के अलावा कहीं सफलता नहीं मिली। इन सफल जगहों का सारा श्रेय भी ऊषा को ही गया, क्योंकि जो मदद मिली उसी के मायके से मिली। नंदलाल के रिश्तेदार तो मानो मौनव्रत के बड़े तपस्वी निकले। और जिन्होंने मौन को स्वीकार नहीं किया, उन्होंने कुछ इस तरह बात की कि उनसे दुबारा बातचीत करना संभव नहीं था। नंदलाल के लिए हक़ीक़त का यह रंग जितना पक्का था, उसे स्वीकार करना भी उतना ही मुश्किल था। उनके दिवंगत पिता के हमउम्र रहे उनके ममेरे भाई संतोष यादव ने उसे ख़ूब खरी-खोटी सुनाई, “अरे भइये नंदलाल, लगभग तीन सालों बाद तो तुम फोन कर रहे हो। और वह भी अपने मतलब से। अगर तुम मुझे सचमुच में अपना भाई ही मानते हो, तो क्या रिश्ता इस तरह निभाया जाता है। और जब मेरी याद आई है तो भी अपने किसी काम के लिए। सच ही कहते हैं, घोड़े की दुम बढ़ेगी तो वह अपनी ही मक्खियाँ उड़ाएगा। तुम भी हमेशा से सिर्फ़ अपने बारे में ही सोचते रहे हो।”

कभी न हकलाने वाले नंदलाल की जबान लड़खड़ाने लगी। उन्हें अचानक कोई जवाब नहीं सूझा। फिर भी हिम्मत करके बोले, “कुछ महीनों की बात है भइया। आपको वापस कर दूँगा।घर ले रहा हूँ, इसलिए।”

“अभी मैं कुछ नहीं कर सकता। मैं ख़ुद अपने घर की चौथी मंज़िल ढाल रहा हूँ। मेरे सारे पैसे वहीं लग रहे हैं।”

नंदलाल की अपेक्षा टूट रही थी। उन्हें अपने ममेरे भाई का पत्थर सा यह व्यवहार बहुत चुभ रहा था। मगर अभी वे उनकी तरह संवेदनाशून्य नहीं हुए थे, “कोई बात नहीं भइया, मैं कोई और इंतज़ाम कर लूँगा। आपको मेरी ओर से हार्दिक बधाई।”

उधर से झट से फोन के चोंगे के रखने की ठक से आवाज़ आई। फोन नहीं काटा गया था, रिश्ते की तार काटी गई थी। वहाँ अब भविष्य के लिए भी कुछ शेष नहीं रह गया था। नंदलाल निराशा के बादल तले घिर गए। पत्नी ऊषा समीप ही थी। कहने लगी, “चिंता मत कीजिए। हर रिश्ते की एक उम्र होती है। यह उम्र भी इतनी ही थी। उन्हें पिताजी तक ही मतलब था। अब अगर वे हमसे कोई मतलब नहीं रखना चाहते, तो हमलोग भी क्या कर सकते हैं!”

नंदलाल क्या बोलते! नई नई घटनाओं की आवक कम होने का नाम नहीं ले रही थी। कमरे की छत की ओर ताकने लगे। कुछ चिड़चिड़े हो बोले, “ऊषा, सीलिंग फैन कितना गंदा हो गया है! कल सुबह बताना। नहाने से पहले बतलाना, घर के सारे पंखों की कल ख़ुद सफाई करूँगा।”

दूसरे ‘गोतिया’ लोगों की भी यही हालत थी। वे नंदलाल को अपने परिवार के सदस्य नहीं बल्कि एक प्रतिद्वंद्वी के रूप में देखने लगे थे। हाँ, इसका अहसास इन अवसरों पर ज़्यादा स्पष्ट रूप में नंदलाल को दिखा। ऊषा ने उन्हें समझाया, “अजी छोड़ दीजिए। वे आपकी मदद नहीं करेंगे। वे आपके चिर-विरोधी हैं। उनके पास पैसा रहेगा तो किसी और को दे देंगे,मगर आपको फूटी कौड़ी भी नहीं देंगे।”

ऊषा ने अपने मायके से कुछ मदद माँगने की सोची और वह अपने पति की तरह असफल नहीं रही। एक तो स्वयं ऊषा की माँ और दूसरे उसके चचेरे भाई ने अपने हिसाब से सहायता की। इधर नंदलाल के शहर राँची में कुछ शहरी ज़मीन बिकी थी। उसका एक अंश उन्हें भी मिला था। मगर वे सारे के सारे पैसे लोन में 10% की मार्जिन मनी में चले गए थे। स्वयं को मिलाकर नंदलाल कुल पाँच भाई थे। एक उनकी विधवा माँ। ज़मीन की कीमत तो ठीक ठाक मिली, मगर छह हिस्सों में बंट जाने से वह ऊंट के मुँह में जीरा सरीखा ही साबित हुई। नंदलाल अपने भाइयों से अलग कर दिए गए थे। या यूँ कहा जाए कि बाकी चार भाइयों ने उन्हें अपने से अलग कर रखा था। मगर अब उन चारों के एक साथ रहने के उनके आपसी रिश्तों के बीच उनका स्वार्थ आड़े आने लगा था और उनमें भी अब पट नहीं रहा था। नंदलाल को अपने बाकी छोटे भाइयों से किसी सहायता की उम्मीद तो नहीं थी, मगर एक बार अपनी माँ को वे ज़रूर टटोलना चाहते थे। उनकी ओर से कुछ समय के लिए उधार की मदद हो जाए तो वह भी बहुत। मगर पाँच बच्चों की विधवा माँ की अपनी समस्याएँ थीं और शतरंज की बिसात पर बिछे मोहरों द्वारा नंदलाल के सपनों का क़त्ल होना लिखा था।

पहले तो नंदलाल ने अपनी पत्नी से कहा, " देखो ऊषा, तुमने अबतक एक बार भी माँ से कुछ माँगा नहीं है। संभव है, तुम्हें वह मना नहीं कर सके।"

सो, पहले एक बार ऊषा ने अपने पति की खातिर अपनी सास से बातचीत करने में भलाई समझी। मगर ऊषा स्वभावतः एक संकोची महिला थी। वह अपने घर में भी किसी से कुछ माँगने से पहले कई कई बार सोचती थी। मगर कोई और रास्ता बचा न देख एक शाम उसने हिम्मत की और अपनी सास को फोन लगाया। औपचारिक बातचीत के बाद वे सीधे ‘प्वाइंट’ पर आ गई, " माँजी! शादी के इन पंद्रह वर्षों में पहली बार अपनी ओर से मैं कुछ माँग रही हूँ। आशा है, मना नहीं करेंगी।"

नंदलाल की माँ जानकी देवी के कान खड़े हो गए। किसी को खासकर अपनी बड़ी बहू को कुछ देने की उनकी नियत कभी नहीं रही, मगर जब ऊषा ने मुँह खोलकर सहायता माँगी ही ली, तो उन्हें तत्काल मना करने का कोई बहाना नहीं सूझ पाया। बोलीं, "ठीक है। पचास हजार ले लेना।"

ऊषा ने दो लाख की फ़रमाईश की थी। वह गुस्से से आग बबूला हो गई। बोली, "माँजी भीख देती हैं क्या! अपना पैसा अपने पास रखें।"

दूसरी तरफ़ से हाँ-हूँ का कोई जवाब नहीं आया। ऊषा ने फोन रख दिया। वह अपने पति से कहने लगी, "सुनिए जी, हम लोगों से बड़ी भूल हो गई। माँ जी बेसिकली पैसे देना ही नहीं चाहती हैं। बहुत धीमे स्वर में किसी तरह पचास हजार रुपए देने की बात कबूल कीं। फिर मैंने फोन रख दिया।"

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