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सपने और नियति

सपने और नियति

सुषमा मुनीन्द्र

सपने।

एक मुकम्मल परिभाषा देकर सपनों को डिफाइन नहीं किया जा सकता। केाई नहीं जानता सपने क्या हैं ? कैसे बनते हैं ? क्यों बनते हैं ? सपनों की एक वास्तविकता होती है या एकदम अवास्तविक होते हैं ? नींद में दिखने वाले सपने मनुष्य की अपेक्षित—इच्छित अधूरी मंशा होती है या दिन में देखे गये बहुत सारे दृश्य नींद में सपनों की रचना करते हैं ? क्या इन सपनों में भविष्य के कुछ संकेत छिपे होते हैं ? नाइट मेयर्स (डरावने सपने) तो ऐसे होते हैं कि लोग चीख मार कर उठ जाते हैं। सोने से डरने लगते हैं कि नाइट मेयर्स सतायेंगे। पते की बात यह है सपनों की कोई उम्र नहीं होती, मियाद नहीं होती, वास्तविकता नहीं होती लेकिन हर कोई रात में सपने देखता है। दिन में सपने पालता है। विचारक कहते हैं सपने बार—बार टूटते हैं और वे टूटने के लिये ही बने हैं लेकिन सपने देखना चाहिये क्योंकि वे एक जादू की तरह होते हैं। टूट कर भी उम्मीद और सकारात्मक भाव को पूरी तरह खत्म नहीं होने देते। हम इस उम्मीद में एक—एक कर कितने दिन बल्कि पूरी आयु गुजार देते हैं कि वह दिन आयेगा जब बार—बार टूट कर भी सपना अंतिम रूप से टूटने से बच जायेगा और हम लक्ष्य को पा लेंगे।

नियति।

एक मुकम्मल परिभाषा देकर नियति को भी डिफाइन नहीं किया जा सकता।

यह दिन में खुली ऑंखों से देखा जाने वाला एक दिवास्वप्न है या आशा, उम्मीद, योजना, गतिविधि, क्रियान्वयन, लक्ष्य ? क्या सपना जब अंतिम रूप से टूट जाता है हम उसे नियति का सम्बोधन दे देते हैं ? क्योंकि जहॉ सपना अंतिम रूप से टूट जाता है वहॉ एक ठहराव निर्मित हो जाता है। यह ठहराव मनुष्य को जिस निर्विकल्प स्थिति में डाल देता है वह नियति बन जाती है।

सपने।

नियति।

सिद्धि के सपने शायद टूटने के लिये बने हैं।

प्रबुद्ध की नियति शायद विधाता ने उसके भाल पर दोनों भौंहों के बीच जहॉ स्त्रियॉं बिन्दी लगाती हैं, ठीक वहीं एक छोटे, मामूली से उभरे हुये काले चमकदार तिल की जन्मजात सर्जना कर तय कर दी है।

कुछ रहस्य फिर रहस्य ही रह जाते हैं। तभी तो इस संसार में इतनी विविधता घटित होती है कि दिल से कभी आह—कराह, कभी वाह—उछाह अनायास निकल जाता है।

महीन आवाज, गोरे झक्क सुंदर मुख वाले दस वर्षीय प्रबुद्ध को सहपाठी खिझाते थे —

''प्रबुद्ध, तुम इस तिल के कारण लड़की लगते हो।''

शाला से लौटा, उद्धिग्न मुख बनाये हुये प्रबुद्ध, सिद्धि से पॅूंछता ‘‘मॉं, क्लास के लड़के कहते हैं मैं लड़की लगता हॅूं।''

सिद्धि के दिवंगत चिकित्सक पति तीन बेटियों के बाद बड़े जप—तप से जन्में बेटे को अपनी तरह अच्छा सर्जन बनाना चाहते थे। ये कौन लड़के हैं जो उनके सपने जिसे उसने अपना सपना बना लिया है को तोड़ने की हिमाकत कर रहे हैं ?

‘‘प्रबुद्ध, तुम लड़के हो। तुम्हारे पापा कहते थे नाम अच्छा हो तो सब कुछ अच्छा होता है। इसीलिये उन्होंने तुम्हारा नाम प्रबुद्ध रखा।''

उच्छश्रृंखल कटाक्षों से बेचैन होकर प्रबुद्ध ने स्कूल के अंतिम वर्ष में छोटी सी सर्जरी से तिल रिमूव करा लिया।

‘‘मॉं, मैं अब लड़की नहीं लगता न ?''

‘‘नहीं। तुम लड़के हो।''

कहते हुये सिद्धि बुरी तरह घबरा गई थी। इसे रोज देखती है लेकिन ठीक अभी पता चला अपनी भंगिमाओं, चेष्टाओं, फैशन के कारण इसकी स्त्रैण छवि बनती जा रही है।

सब कुछ ठीक चल रहा था। प्रबुद्ध के चिकित्सक पिता सड़क दुर्घटना में नहीं रहे और सब कुछ बिगड़ता चला गया। सिद्धि गहरे ॲंधेरे में डूब जाती लेकिन रोशनी के दो छोटे बिंंदु उसके आस—पास थे। दो मंजिला मकान और छः साल का प्रबुद्ध। मकान, जीवन का अहम्‌ हिस्सा होता है पहली बार जान रही थी। मकान न होता तो चार बच्चों के साथ न ससुराल में शरण मिलती, न मायके में। और प्रबुद्ध तो पिता की छवि यॅूं लेकर जन्मा है कि उनके न रहने पर भी उनके होने का आभास बना रहेगा।

अद्‌भुत बात थी। प्रबुद्ध के लुक्स पिता की तरह थे फिर भी क्षीण काया, उज्ज्वल त्वचा, नारी प्रधान भंगिनाओं के कारण वह उनकी तरह पौरुष से दीप्त नहीं लगता था। सिद्धि, अतिशय सतर्कता — संरक्षण देकर प्रबुद्ध को इस तरह नाज से पाल रही थी मानो प्रबुद्ध को खराश आ जायेगी तो उसके पास जीने का कोई कारण, कोई बहाना, कोई माध्यम न बचेगा। सिद्धि की भावुकता, ठकुरसुहाती को परख कर प्रबुद्ध मर्जी का मालिक बनता गया। नियति असर दिखा रही थी या प्रबुद्ध, सिद्धि की उदारता का अतिरिक्त लाभ ले रहा था। उसे दूरदर्शन बचपन से लुभाता था। जब इस छोटे शहर में दूरदर्शन का प्रसारण शुरू हुआ प्रबुद्ध छोटा था। आज की तरह असंख्य चैनल नहीं थे। निर्धारित वक्त पर प्रसारण होता था। प्रबुद्ध बुधवार और शुक्रवार के चित्रहार, रविवार सुबह की रंगोली, रविवार शाम की मूवी का दीवाना होता जा रहा था। उन दिनों बहुत कम परिवारों में टी0वी0 सेट थे। मूवी देखने के लिये रविवार को प्रबुद्ध के घर बच्चे जुहा जाते। खुद को प्रधान दर्शाते हुये प्रबुद्ध निर्देशित करता कौन कहॉं बैठेगा और शोर बिल्कुल नहीं करेगा। मूवी देखकर वह सम्मोहित हो जाता —

‘‘मॉं, मैं डांस सीखॅूंगा। गाना सीखॅूंगा। फिल्मों में काम करूॅंगा। टी0वी0 सेट को पीछे से खोल कर दिखाओ, डांस करने के लिये इसमें कैसे घुसते हैं ?''

सिद्धि उसकी चेष्टा पर मुग्ध हो जाती ‘‘तुम अपने पापा की तरह अच्छे सर्जन बनोगे।''

‘‘डांस करूॅंगा।''

वह बहनों की चूड़ियॉ, मोती की मालायें धारण कर, एक हाथ कनपटी पर, दूसरा कमर में रख कर ठुमकने लगता। अब टी.वी. चैनल में नाचने, गाने, जोखिम उठाने, बुद्धिमानी प्रमाणित करने वाले इतने रियलिटी शो आयोजित होने लगे हैं कि अभिभावक दो—चार साल के बच्चों को नाच—गाना सीखने में झोंक दे रहे हैं पर उन दिनों नाच—गाना लड़कियों के जिम्मे था। नाच—गाने में रुचि रखने वाले लड़कों को नचनिया समझा जाता था। प्रबुद्ध को ठुमकते देख सिद्धि ताल देती जबकि कालेज में पढ़ रही बड़ी पुत्री नलिनी हतोत्साहित करती —

‘‘मॉं, प्रबुद्ध नचनिया बन रहा है।''

सिद्धि किसी नतीजे और अंजाम पर ध्यान न देती ‘‘बच्चा है।''

वह जैसे नींद में थी और प्रबुद्ध बहुत अच्छा सपना था। उसे पाठशाला के अतिरिक्त घर से बाहर नहीं जाने देती थी कि पास वाले चितहरा तालाब में कुमुदिनी तोड़ने चला जायेगा और डूब जायेगा। पश्चिम दिशा में घर से कुछ फर्लांग की दूरी से गुजर रही रेल पटरी में दूसरे लड़कों की तरह दौड़ेगा और पटरी पर कान रख कर रेल के आने की ध्वनि सुनेगा। खेलने न जाने देती कि दौड़ते हुये गिरेगा या कोई मार—पीट देगा। सब्जी अथवा छोटी—छोटी चीजें लेने के लिये पास के बाजार में न जाने देती कि भीड़ में खो जायेगा। फिल्मी पत्रिकायें मॅंगाती कि प्रबुद्ध को पसंद हैं ....... भिण्डी की सब्जी अक्सर बनाती कि प्रबुद्ध को पसंद है ........ कई किस्म के अचार, चटनी बनाती कि प्रबुद्ध को पसंद है। फलस्वरूप घर में अघोषित दो गुट बन गये। एक गुट में सिद्धि और प्रबुद्ध दूसरे में पक्षपात सहती तीनों लड़कियॉं। सब्जी, भाजी लाते, गेहॅूं पिसाते, नियमित कॉंलेज—स्कूल जाते, फ्यूज बल्ब बदलते,, सिद्धि को लेकर बैंक जाते, साइकिल चलाते, मकान के भूतल में रहते किरायेदारों से किराये का हिसाब करते हुये लड़कियॉं व्यवहारिक होती गईं। सिद्धि की अतिरिक्त सुरक्षा में प्रबुद्ध मिट्‌टी का माधो बनता गया। कोई बात उसके मनमुताबिक न होती तो सिर में तेज दर्द होने का बहाना कर, कमरे में ॲंधेरा कर मॅुंह ढॉप कर पड़ा रहता। तीनों लड़कियॉं गैंगअप हो गईं। नलिनी मोर्चा सम्भालती —

‘‘मॉं, तुम प्रबुद्ध को बिगाड़ रही हो। बाजार का काम हम तीनों करते हैं। इसे सब्जी का झोला पकड़ने में शर्म आती है।''

सिद्धि बचाव करती ‘‘छोटा है।''

‘‘छोटा नहीं है। इस साल छठवीं पढ़ रहा है। कोर्स की किताब कभी नहीं छूता। फिल्मी पत्रिकायें पढ़ता है। इससे फिल्म और कॉस्मेटिक प्रोडक्ट की बातें करा लो, हो गया।''

प्रबुद्ध दखल देता ‘‘नलिनी, मुझसे मत लड़ो। मेरे सिर में दर्द होने लगता है।''

सिद्धि अनुमोदन करती ‘‘नलिनी तुम सबसे बड़ी हो, यह सबसे छोटा है। इसका ध्यान रखो। बुराई करने लगती हो।''

मझली मंदाकिनी बोलती ‘‘ध्यान रखते हैं। जानती तो हो सुहासिनी (छोटी बहन) चितहरा तालाब के पास वाले मैदान में साइकिल चला रही थी। तुम्हारी ऑंख बचा कर यह भी चला गया था। कुमुदिनी के लालच में तालाब में घुस गया था। सुहासिनी न बचाती तो डूब जाता। दोनों गीले कपड़ों में घर आये। प्रबुद्ध ने स्टोरी बना दी थी सुहासिनी उसे तालाब में ले गई। वह डूबने से बचा। तुमने वहशी की तरह सुहासिनी को पीटा था। मॉं हम लोगों को बुरा लगता है। इस घर में वही होता है जो प्रबुद्ध चाहता है।

छोटा है पर हम लोगों को इससे डरना पड़ता है कि कुछ कह दो तो इसके सिर में दर्द हो जाता है। फिर यह खाना नहीं खाता है। इसे कितनी बहानेबाजी आती है।''

प्रबुद्ध दखल देता ‘‘चुप रहो। मुझे सचमुच सिर में तेज दर्द उठने लगता है।''

सुहासिनी कहती ‘‘सुधर जाओ प्रबुद्ध। चेहरे में क्रीम चुपड़ कर, नाखूनों में नेल पेंट लगाये घूमते हो।''

प्रबुद्ध ने ऊॅंगलियॉं फैलाई ‘‘देख लो। नेल पेंट है ?''

‘‘स्कूल में डॉंट पड़ी तब लगाना छोड़ा है।''

प्रबुद्ध का पतला—गोरा चेहरा तमतमा जाता ‘‘सुहासिनी मुझसे जबान मत लड़ाओ।''

‘‘मुझसे बड़ी बहस कर रहे हो। अभी फूफा या चाचा आ जायें तो भीतर छिप जाओगे।''

‘‘क्योंकि ये जो एक ठो चाचा और दो ठो फूफा हैं शिक्षा बहुत देते हैं। छिंगली का नाखून क्यों बढ़ाते हो ? बहनों से क्यों लड़ते हो ? रोज स्कूल क्यों नहीं जाते ? डॉंक्टर साहब तुम्हें डॉंक्टर बनाना चाहते थे, तुम डॉंक्टर की लीद भी नहीं बन सकते ..........। छीः ........... इतनी बकवास सुनने के लिये मैं इन लोगों के पास नहीं बैठ सकता। मेरा घर है, जैसे रहना होगा, रहॅूगा।''

‘‘तब डॉंक्टर की लीद ही बनोगे। घर से बाहर निकलो। अच्छे लड़कों से दोस्ती करो। सेल्फ कान्फीडेन्स तुममें है ही नहीं।''

प्रबुद्ध पैर पटकता हुआ मास्टर बेड रूम में चला जाता। वह अपनी कक्षा की लड़कियों से बात नहीं करता था कि वे लड़कियॉं हैं। लड़कों से बात नहीं करता कि उसे छेड़ते हैं। घर से बाहर नहीं निकलता था कि सिद्धि निकलने नहीं देती थी।

प्रबुद्ध पचमढ़ी स्कूल टुअर में जाने का हौसला नहीं कर पा रहा था। सिद्धि जाने भी न देती। कक्षा में टुअर में जाने वाले विद्यार्थियों की सूची बनाई जा रही थी। छात्र बड़ी संख्या में छात्रायें बहुत कम जा रही थीं। उन्हें परिवार वाले जाने नहीं दे रहे थे। विद्यार्थियों ने प्रबुद्ध का उपहास किया ‘‘कुछ लड़कियॉं फिर भी जा रही हैं। यह नहीं जा रहा। लड़कियों से भी गया — गुजरा है।''

प्रबुद्ध ने पचमढ़ी जाने का ऐसा हठ पकड़ा कि सिद्धि रोकना चाह कर भी रोक न सकी। निर्धारित तिथि पर उसे रेलवे स्टेशन पहॅुंचाने गई। उसके साथ बर्थ तक आई। छात्रों से कहा ‘‘प्रबुद्ध का ध्यान रखें।''

उसी बर्थ पर बैठे एक शिक्षक ने चौंक कर सिद्धि को देखा ‘‘आपको क्यों लगता है ये छात्र अपने साथ प्रबुद्ध का भी ध्यान रख लेंगे और प्रबुद्ध खुद अपना ध्यान नहीं रख सकेगा ? घबराये नहीं। विद्यार्थियों को हम अपनी जिम्मेदारी पर ले जा रहे हैं।''

प्रबुद्ध की अनुपस्थिति में सिद्धि को घर, घर नहीं लग रहा था। प्रबुद्ध के लौटने पर उसके प्राण बहुरे। प्रबुद्ध ने बहुत अलग व्यवहार किया —

‘‘मॉं, लड़के मुझे सता रहे थे, तुम लड़की हो, तुम्हारी मॉं ने कहा है हम तुम्हारा ध्यान रखें। सिर दर्द से फटा जा रहा है। आराम करूॅंगा।''

सिद्धि प्रबुद्ध से, उसके सिर दर्द, जिद से यॅूं डरने लगी थी कि उसका साहस न हुआ ॲंधेरे शयन कक्ष में जाकर प्रकाश करे और प्रबुद्ध से समुचित जानकारी ले।

सिद्धि के सपने दरक रहे थे।

प्रबुद्ध की नियति प्रबल हो रही थी।

स्थितियॉं जाल बुन रही थीं।

इधर नलिनी एल.आई.सी. में, मंदाकिनी एक निजी महाविद्यालय में नौकरी कर रही थीं उधर प्रबुद्ध फिल्म जगत को लेकर दीवानगी बढ़ा रहा था। इधर नलिनी फिर मंदाकिनी विजातीय विवाह कर सिद्धि की इज्जत और जिम्मेदारी कम कर कूच कर गईं उधर दो साल में किसी तरह द्वितीय श्रेणी में बारहवीं उत्तीर्ण कर प्रबुद्ध ने उस कॉंलेज में प्रवेश लिया जहॉं सुहासिनी एम.एस.सी. कर रही थी। इधर सुहासिनी कर्तव्यनिष्ठ हो कोर्स पूरा कर रही थी उधर वह जानकारी एकत्र कर रहा था कि फिल्म लाइन में किस तरह भाग्य आजमाया जाये। फिल्मी नायकों की भॉंति कभी कंधे तक बाल बढ़ा लेता, कभी मुंडन करा लेता, कभी कलमें हटा कर कटोरा कट बाल रखता, कभी बालों में कलरिंग करा लेता। उसका वस्त्र विन्यास परिवर्तनशील होता। कभी सुर्ख लाल पतलून, कभी सुआपंखी, कभी पारदर्शी सफेद शर्ट, कभी गले में स्कार्फ। कई किस्म के फेस पैक, स्क्रब, लोशन के उपयोग से चेहरा चमकाता। विद्यार्थी उसके करीब मड़राते —

‘‘ऐसा चमकदार, गोरा चेहरा है कि लड़कियों को काम्प्लैक्स हो जाये।''

‘‘इसके चेहरे को छूने की इच्छा होती है।''

‘‘बहुरुपिया लगता है, सेक्स चेंज कर ले तो हसीन लगेगा।''

प्रबुद्ध असहज हो जाता। सिद्धि को सिर दर्द जैसा कारण बता कर हफ्तों कॉंलेज न जाता। सुहासिनी समझ रही थी लड़के प्रबुद्ध पर उच्छश्रृंखल कटाक्ष करते हैं। इसीलिये जब सहपाठिनी निधि देशपाण्डे ने सूचित किया, सुहासिनी अपमानित और किंकर्तव्यविमूढ़ हुई लेकिन अचरज नहीं हुआ —

‘‘सुहासिनी, प्रबुद्ध को समझाओ अपना हुलिया सुधारे। मेरा भाई उसके साथ पढ़ता है। बता रहा था लड़के प्रबुद्ध को छेड़ते—चिढ़ाते हैं। उसे तुम लोग पढ़ाई के लिये कहीं बाहर क्यों नहीं भेज देते ?''

‘‘मॉं से बात करूॅंगी।''

सुहासिनी जानती थी कहने का अर्थ नहीं लेकिन सिद्धि से खुलकर बात करना जरूरी हो चला था —

‘‘मॉं, प्रबुद्ध को कहो अपना हुलिया बदले वरना परेशान रहेगा। यह खुद को हीरो समझता है। लड़के इसे बहुरुपिया कहते हैं।''

प्रबुद्ध अब हर बात चिल्ला कर, असभ्य तर्ज में करता था ‘‘सुहासिनी लड़के बेहूदा हैं।''

सिद्धि दहशत में ‘‘प्रबुद्ध, कौन हैं ये बेहूदा लड़के ? प्रिंसिपल से शिकायत करो। हे भगवान, हम शांति से क्यों नहीं रह पाते ?'' सुहासिनी खुल कर बोली ‘‘क्योंकि तुमने इसे जिम्मेदार नहीं बनने दिया। कभी सोचती हो तुम्हारे उदार व्यवहार ने इसका कितना नुकसान किया है ?''

सिद्धि इस तरह सुहासिनी को देख रही थी मानो उसने अनोखी बात कर दी है —

‘‘आज तुम्हारे पापा होते तो तुम मुझसे इस तरह बात करने की मजाल न करती। न ही लड़के, प्रबुद्ध को परेशान करने की हिम्मत करते।''

सुहासिनी चुप नहीं हुई ‘‘मॉं, बिना पिता के भी लड़के अच्छा करके दिखाते हैं बल्कि जिम्मेदारी जल्दी समझने लगते हैं। यह फिल्मों के सपने देखता है। पूरा नचनिया लगता है।''

प्रबुद्ध की सुंदर काली ऑंखें सुलगने लगीं ‘‘तुम चार महिलाओं के बीच में रह कर मेरा और हो भी क्या सकता है ? मुझे फिल्मों में अच्छा काम मिल जायेगा तो यही लड़के मेरे तलवे चाटेंगे।''

‘‘फिल्मों में अच्छा काम मिलने के लिये टैलेण्ट चाहिये। तुम्हें कोई स्पाट ब्यॉंय न बनायेगा। सपने न देखो, ग्रेजुएशन पूरा करो।''

‘‘सुनासिनी तुम मुझे टार्चर कर रही हो। मेरा सिर दर्द से फट रहा है।''

‘‘सिर दर्द तुम्हारा बिहैवियर इश्यू है। न्यूरोलॉंजिस्ट या साइकियाट्रिस्ट से कन्सल्ट करो।''

प्रबुद्ध को सचमुच परामर्श की आवश्यकता थी। रात को साने की कोशिश करता तो वह दृश्य बहुत साफ दिखने लगता। कॉंलेज के पीछे बने स्टेडियम के एकांत में उसे चार लड़कों ने घेर लिया था। बेहूदा गतिविधि शुरू करते इसके पूर्व थोड़ी दूरी पर गन्ने के खेत में काम कर रहे किसी ने हल्ला कर दिया था ‘‘क्या हो रहा है वहॉं ?''

लड़के असावधान हुये और प्रबुद्ध भाग चला। एक लड़का चिल्लाया ‘‘चेहरे को इतना चिकना न बना किसी दिन एसिड डाल कर जला देंगे।''

यह दृश्य प्रबुद्ध के सक्रिय और सुप्त दिमाक में इतना प्रभावी होता गया कि उसकी नींद बाधित होने लगी। लगता लड़के दरवाजा तोड़ रहे हैं ..........। छत पर कूद उचक रहे हैं ....... एसिड डालना चाहते हैं .........। वह निद्रामग्न सिद्धि को झिंझोड़ डालता ‘‘मॉं, कितना सोती हो। लड़के छत पर चढ़ गये हैं।''

आक्रांत आॅंखों वाला प्रबुद्ध, सिद्धि को डरा हुआ, विचित्र बल्कि विक्षिप्त लगता।

‘‘कोई नहीं है।''

‘‘आवाजें आ रही हैं। लड़के एसिड से मुझे जला देंगे।''

‘‘सोने की कोशिश करो। नींद आ जायेगी।''

‘‘जिसे नहीं मालूम कल का सूरज देखेगा या नहीं, उसे नींद नहीं आ सकती।''

‘‘धीरे बोलो। सुहासिनी जाग जायेगी।''

जबसे सुहासिनी ने खुलकर सिद्धि पर आरोप लगाये, वह प्रबुद्ध से ही नहीं सुहासिनी से भी डरने लगी है। उसके लिये व्यथित भी होती है — नलिनी और मंदाकिनी इस घर की घुटन से निकल कर अपना संसार रौशन कर रही होंगी। इस बेचारी को प्रबुद्ध के कारण कॉंलेज में विचित्र स्थिति का सामना करना पड़ता है। नलिनी और मंदाकिनी के अन्तर्जातीय विवाह के कारण इसके विवाह में बाधा आ रही है। प्रबुद्ध के मानसिक रोग का प्रचार हो गया तब तो सुहासिनी का विवाह और कठिन हो जायेगा। अच्छा घर—वर मिल जाता तो इसकी दुनिया आबाद हो जाती।

यह कामना सिद्धि ने शायद बड़े मन से की थी। सुहासिनी का विवाह हुआ और बड़ी शान से हुआ। प्रबुद्ध ने उसके उपदेश और हस्तक्षेप से मुक्ति पाई जबकि सिद्धि को लगा वह आखिरी सहारा थी। प्रबुद्ध टी.वी. पर मूवी देखता या सिर दर्द लिये कमरे में ॲंधेरा कर पड़ा रहता। उसे खुद से, सिद्धि से, परिवार से, समाज से, दुनिया से बहुत शिकायत थी। सिद्धि को अनिश्चय डराने लगे। सुहासिनी मोबाइल पर सम्पर्क बनाये रखती। उसकी सलाह पर, बड़ा जतन कर सिद्धि, प्रबुद्ध को मनोचिकित्सक के पास ले गई। चिकित्सक ने प्रश्न पॅूंछे। प्रबुद्ध ने उत्तर नहीं दिये। चिकित्सक धीरज से समझाने लगा —

‘‘चॅूंकि आप मुझ पर विश्वास नहीं कर पा रहे हैं इसलिये अपनी परेशानी नहीं बता रहे हैं। होता है। जब भी कुछ पॅूंछना हो, बताना हो, बिना संकोच किये मेरे पास आ सकते हैं। ..... मानसिक रोगों के विषय में मैं सामान्य जानकारी आपको जरूर दॅूंगा। समझ लेंगे तो आप उपचार की मानसिकता बना सकेंगे। हारमोन के असंतुलन या गुण सूत्रों के विकार या वातावरण के प्रभाव से मानसिक रोग की शुरुआत होती है। व्यक्ति अपने व्यक्तित्व, सामाजिक—पारिवारिक वातावरण, अनुवांशिकता के कारण मानसिक रोगी हो सकता है। बचपन से लेकर बड़े होने तक व्यक्ति के स्वभाव, प्रकृति, अनुभव, वातावरण के बीच निरंतर क्रिया—प्रतिक्रिया होती रहती है जिसका असर मस्तिष्क पर पड़ता है। कुण्ठा, हीनभावना, अवसाद, निराशा, वहम या एक ही विचार के बार—बार आने से व्यक्ति परेशान हो जाता है। उदासी घेर लेती है। फिर भी यह आम गतिविधियों की तरह एक स्थिति ही है। .......घबराने जैसी बात नहीं है। यह इलाज थोड़ा वक्त लेता है पर आप ठीक हो जायेंगे। काउन्सलिंग के लिये आइये। आपको अच्छा लगेगा। चाहें तो कुछ दिन के लिये शहर से बाहर कहीं घूम आयें .......।''

प्रबुद्ध इस तरह लापरवाह होकर बैठा रहा मानो चिकित्सक को कोई महत्व नहीं दे रहा है। सिद्धि को लगा चिकित्सक जाने—अनजाने उसे दोषी साबित कर रहा है। उसकी जोर से रोने की इच्छा हुई पर चिकित्सक कहेगा प्रबुद्ध को ही नहीं आपको भी उपचार की जरूरत है।

सिद्धि ने मोबाइल पर सुहासिनी से चर्चा की। सुहासिनी ने कुछ दिन के लिये अपने घर आने का प्रस्ताव रखा। प्रबुद्ध जाने को तत्पर न था। सिद्धि ने सकल जतन किये। सुहासिनी और उसके पति सज्जन ने बार—बार आग्रह किया कि उनके एक परिचित मनोचिकित्सक हैं। उनसे सेकेण्ड ओपीनियन ली जा सकती है। इच्छा या अनिच्छा से प्रबुद्ध सेकेण्ड ओपीनियन के लिये सहमत हो गया।

परिचित मनोचिकित्सक ने बहुत अधिक डरा दिया ‘‘प्रबुद्ध आप इलाज से इतना डरते क्यों हैं ? डिप्रेशन ऐसी अवस्था है जब रोगी विक्षिप्त हो सकता है। इलाज शुरू करना होगा।''

विक्षिप्त होने के अंदेशे ने प्रबुद्ध सहित सभी को समान रूप से विचलित कर दिया। लम्बा—मॅंहगा उपचार शुरू हुआ। काउन्सलिंग हुई। इंजेक्शन लगे। एक बार शॉंक दिया गया। प्रबुद्ध को लगा यहॉं से वह बॉंडी बनकर अपने घर लौटेगा। क्षमता भर चीखने से उसके गले की नसें फूल रही थीं —

‘‘मॉं, घर चलो। यहॉं मेरी हत्या हो जायेगी।''

प्रबुद्ध की दारुण दशा देखकर सिद्धि स्तब्ध थी ‘‘शुभ—शुभ बोलो बेटा।''

‘‘मैं यहॉं नहीं रहॅूंगा।''

प्रबुद्ध की पतली टॉंगें कॉंप रही थीं।

सज्जन ने सहारा देकर उसे अपने समीप बैठाया ‘‘प्रबुद्ध, हम सब तुम्हारी भलाई चाहते हैं।''

‘‘शॉंक दिलवा कर ?''

‘‘अपना हुलिया सुधारो। यह जो पारदर्शी काली टी शर्ट और छोटा सा हाफ पैण्ट पहने हो, भद्‌दा लगता है। परिवार में रहने का एक तरीका होता है।''

‘‘मुझे फिल्म लाइन में जाना है। यह लेटेस्ट फैशन है।''

‘‘फिल्म वाले कुछ भी पहन लेते हैं पर हम लोग ऊटपटॉंग फैशन अपनाते हैं तो लोग खिल्ली उड़ाते हैं। कौन फिल्म स्टार कौन सी क्रीम लगाता है, कौन सी हीरोइन योगा क्लास चलाती है, कौन डांस क्लास, किसका, किससे बे्रक अप हुआ यह जानने में अपनी एनर्जी और समय को बर्बाद मत करो। बी0एस—सी0 पूरा कर लो तो अस्पताल में तुम्हें अनुकम्पा नियुक्ति मिल सकती है। बिजी रहोगे। स्वस्थ हो जाओगे।''

प्रबुद्ध पर विपरीत असर हुआ ‘‘मॉं, तुम सुहासिनी और जीजा पर बड़ा भरोसा करती हो। मुझे टार्चर कर रहे हैं। मैं यहॉं नहीं रहॅूंगा।''

सिद्धि को प्रबुद्ध बहुत दयनीय, असहाय लगा। इसके स्वास्थ्य लाभ के लिये यहॉं आई पर बच्चा एकदम टूट गया है। प्रबुद्ध को लेकर लौट आई।

एकांत घर में जीने की कोशिश करते मॉ—बेटे।

प्रबुद्ध अक्सर कहता ‘‘मॉं, मैं मुम्बई जाकर फिल्म इण्डस्ट्री में किस्मत आजमाना चाहता हॅूं।''

‘‘बी.एस.सी. फाइनल ही तो बचा है। पूरा कर लो। फिल्म इण्डस्ट्री में भी एजुकेशन को महत्व देते होंगे। ग्रेजुयेट होते ही अनुकम्पा नियुक्ति के लिये आवेदन कर दो। नौकरी तुरंत नहीं मिल जायेगी। इस बीच मुम्बई हो आना।''

सिद्धि मानो उसे भ्रम दे रही थी।

वह भ्रम में जीने का आदी था।

लेकिन सभी के खाते में कुछ अच्छे दिन होते हैं। दो साल लगे लेकिन प्रबुद्ध विज्ञान स्नातक हो गया। अनुकम्पा नियुक्ति के लिये आवेदन किया। सिद्धि को योजना समझाई —

‘‘मॉं, नौकरी आज ही तो मिल नहीं जा रही है। मैं एक बार मुम्बई जाना चाहता हॅूं। वो मेरा क्लासमेट था न विश्वनाथ।''

‘‘कौन विश्वनाथ ?''

‘‘एक—दो बार घर आया है। तुम कहती थी इसे घर न आने दिया करो। फिल्मों की बहुत बात करता है।''

‘‘याद नहीं है।''

‘‘उसके जयंत चाचा फिल्म लाइन में हैं। कुछ दिन हुये एक शादी में विश्वनाथ के घर आये थे। अखबार में उनका इन्टरव्यू छपा था। इन्टरव्यू पढ़ कर मैं उनसे मिलने विश्वनाथ के घर गया। वे बोले मुम्बई आओ, काम दिलायेंगे। मॉं, मैं विश्वनाथ के साथ जाना चाहता हॅू।''

‘‘जयंत ने कौन सा तुरूप मार दिया जो तुम्हें काम दिलायेंगे। एक—दो फिल्म में पंडा और दूधिये के रोल में दिखे हैं।''

‘‘तुम फिल्म नहीं देखती इसलिये उनके काम को नहीं जानती। वे कई फिल्मों के नाम बता रहे थे।''

‘‘तुम दुनिया का छल—कपट नहीं जानते। चार दिन में लुटे—पिटे चले आओगे।''

‘‘चार दिन को ही जा रहा हॅूं लेकिन लुटा—पिटा नहीं अच्छा चेंज लेकर लौटूॅंगा। विश्वनाथ साथ में जा रहा है। वहॉं जयंत चाचा हैं ही। एक बार देखॅूं तो। आज ही तो काम नहीं मिल जायेगा।''

सिद्धि का बैंक खाता अमीर नही ंतो गरीब भी नहीं है। जमा होती फेमिली पेंशन, व मकान के किराये से समृद्ध है। उसने आवश्यकता से अधिक पैसा व अपना ए.टी.एम. कार्ड देकर प्रबुद्ध को रवाना किया। काफी पैसा खर्च कर प्रबुद्ध आठवें दिन लौट आया —

‘‘जयंत चाचा ने कहा है, आते रहो। काम दिलायेंगे।''

नहीं बता सका जयंत चाचा से एक दिन भी मुलाकात नहीं हुई क्योंकि शूटिंग में वे बाहर थे।

‘‘ठीक है, तब तक शायद पोस्टिंग मिल जाये।''

‘‘देखो, क्या होता है।''

खाते का एक और अच्छा दिन।

प्रबुद्ध को स्टोर कीपर का पद मिल गया। सिद्धि को लगा सपने बार—बार टूटते हैं लेकिन अंतिम रूप से टूटने से बच जाते हैं। नियति धोखे देती हुई प्रतीत होती है लेकिन सही वक्त आने पर सब कुछ ठीक कर देती है। प्रबुद्ध को प्रथम नियुक्ति तेईस किलोमीटर दूर कस्बे में मिली। फिर जल्दी ही स्थानीय जिला अस्पताल में स्थानान्तरित होकर आ गया। सिद्धि ने नातेदारों—परिचितों में खूब प्रचार किया —

‘‘प्रबुद्ध, सरकारी नौकरी में है। अच्छी लड़की बताओ। मैं बहू की जिंदगी भर गुलामी करूॅंगी, बस वह मेरे बच्चे को खुश रखे।''

नातेेदार, इस सपने देखती स्त्री का दिल नहीं तोड़ना चाहते थे कि प्रबुद्ध से सहानुभूति रखी जा सकती है, किसी लड़की को इसके साथ बॉंधने की मूर्खता नहीं की जा सकती। वे औपचारिक आश्वासन दे देते ‘‘अच्छी लड़की मिलती है तो जरूर बतायेंगे।''

सिद्धि आश्वस्त हो चली थी।

प्रबुद्ध के संकट खत्म न हो रहे थे।

‘‘मॉं, अस्पताल में बहुत भ्रष्टाचार है। दवाईयॉं बेंच दी जाती हैं। मैं हिस्सा नहीं लेता हॅूं लेकिन किसी दिन जॉंच होगी, मैं फॅंस जाऊॅंगा।''

‘‘प्रबुद्ध, कौन क्या करता है ध्यान मत दो। अपना काम करो।''

‘‘अस्पताल में गंदी राजनीति होती है। गुण्डे—बदमाश नर्स ढॅूंढ़ने आते हैं। मुझसे कहते हैं नर्सें दिलाओ।''

सिद्धि को प्रबुद्ध का भयभीत चेहरा भोले बच्चे की तरह लगा। ईश्वर, इस बच्चे को कहीं सुकून क्यों नहीं मिलता ? क्या इसे निरर्थकता में ही जीना है ? क्या यही इसकी नियति है ? क्या इसीलिये चाह कर भी उस होने को रोक नहीं पाती है जो हो रहा है ? .........अशक्त—विवश सिद्धि देख रही है ........प्रबुद्ध मेडिकल लगाता है ....... छुटि्‌टयॉं लेता है ......... ज्वॉइन करता है ........... सिर दर्द लिये ॲंधेरे शयन कक्ष में पड़ा रहता है .......... मोबाइल पर किसका कॉंल आता है कि सुनकर स्याह पड़ने लगता है .........। रहस्य फिर रहस्य ही रह जाता लेकिनक प्रबुद्ध नहा रहा था इधर उसके सेल फोन पर निरंतर रिंग आ रही थी। सिद्धि ने जैसे ही कॉंल रिसीव किया, मोटी—मर्दाना आवाज सुनाई दी ‘‘............... नर्से दिलाओ, वरना तुम्हें परेशान .........।''

सिद्धि का मुख उसी तरह स्याह पड़ गया जैसे कॉंल सुनकर प्रबुद्ध का पड़ जाता है। स्त्रैण छवि के कारण इसे परेशान किया जा रहा है ? एसिड फेंकने की धमकी देने वाले छात्रों ने इसे किस स्तर पर सताया होगा ? सद्यःस्नात प्रबुद्ध ने सिद्धि की उड़ी रंगत देखी ‘‘मॉं, तुमने मेरा कॉंल रिसीव क्यों किया ?''

‘‘प्रबुद्ध, यह तो सचमुच नर्स .........

‘‘तुम्हीं कहो। यह नौकरी करने लायक है ? यह शहर रहने लायक है ?''

‘‘कुछ दिन के लिये सुहासिनी के पास ..........

‘‘कब तक भागते फिरेंगे ? विश्वनाथ कहता है फिल्म इण्डस्ट्री में काम चाहिये तो वहॉं रहना पड़ेगा। स्ट्रगल करना पड़ेगा।''

‘‘एक बार इतना पैसा बर्बाद कर आये। फिर चार दिन में लुटे—पिटे चले आओगे।''

‘‘हो सकता है लौट आऊॅं। तुमने मेरा आत्मविश्वास डेवेलप ही नहीं होने दिया। बहनेें ठीक कहती हैं ओवर प्रोटेक्शन देकर तुमने मुझे मिट्‌टी का माधो बना दिया है। मैं नलिनी और मंदाकिनी की तरह साहसी, सुहासिनी की तरह व्यवहारिक नहीं बन पाया। सब तुम्हारे कारण।''

अब यही होने लगा था।

प्रबुद्ध, सिद्धि को आरोपी बनाने का मौका न चूकता।

सिद्धि, विपरीत बोलकर उसकी परेशनी नहीं बढ़ाना चाहती। लेकिन बोली —

‘‘मैंने अच्छा, बुरा जो भी किया, अपने हिसाब से सही समझ कर किया। ईश्वर से हमेशा तुम्हारा कल्याण मॉंगती रही। कौन से देवी—देवता नहीं सुमिरती ..........आज एक बात जरूर पॅूंछूगी। तुमने कभी अपना क्रिया—व्यवहार बदलने के लिये क्यों नहीं सोचा ? सारी अड़चनें तुम्हीं से क्यों जुड़ती हैं ? खुद को बदलने का विचार क्यों नहीं सताता ?''

प्रबुद्ध वाक। सिद्धि को आरोपी बना कर बरी हो जाता था। ये तो पलटवार करने लगीं।

‘‘कोई भी योजना बनाता हॅूं, तुम पानी फेर देती हो। गुण्डे—बदमाश किसी दिन मुझे मार डालेंगे या गला घोट कर मैं अपना अंत कर लॅूंगा। मुझे जीने में उलझन होने लगी है।''

प्रबुद्ध की दृष्टि इतनी विचित्र थी कि सिद्धि डर गई — ठीक इसी वक्त इसे तेज सिर दर्द होगा या विक्षिप्त हो जायेगा या उस पर आक्रमण कर देगा। प्रकम्पति आवाज मे बोली —

‘‘सुहासिनी और सज्जन से सलाह ले .........।''

‘‘जीजा नर्वस कर देंगे। नहीं चाहते मैं कुछ अच्छा करूॅं। विश्वनाथ साथ में जायेगा। जयंत चाचा का मोबाइल नम्बर मेरे पास है।''

संक्रमण कॉंल।

अब कहने का अर्थ नहीं।

लेकिन कुछ दर्दनाक घट गया तो ..........। आगे नहीं सोच पाई सिद्धि।

प्रबुद्ध काफी रुपिया और सिद्धि का ए.टी.एम. कार्ड लेकर विश्वनाथ के साथ मुम्बई चला गया। इधर सिद्धि दहलती रही। खुद को भरमाती रही। सपने टूटते रहे .......... टूटने से बचाये रखने की कोशिश करती रही। उधर प्रबुद्ध की नियति का निर्धारण हो रहा था। विश्वनाथ, प्रबुद्ध के धन से मौज—मजा कर एक सप्ताह में लौट आया। जयंत चाचा ने उसे अपना पेइंग गेस्ट बनाकर एक मुश्त रकम लूटी।

छः माह बाद प्रबुद्ध लौटा।

वृहदाकार फोटो एलबम सिद्धि को दिखाते हुये बच्चों की तरह किलक—कुहुक रहा था ‘‘मॉं, मेरा पोर्ट फोलियो देखो।''

इनडोर, आउटडोर शूटिंग के क्लोजअप, फुल पोज, हाफ पोज, साइड पोज। विविध मुद्रायें, पोषाकें, केश विन्यास, भाव—भंगिमायें। रंग, चमक, मुस्कुराहट।

‘‘जयंत चाचा ने मदद की .......... मुझे परितोष फोटोग्राफर से मिलवाया। परितोष इतना अच्छा पोर्ट फोलियो बनाता है कि कई लड़के—लड़कियों को अच्छे रोल मिल गये। ....... परितोष कह रहा था मेरा फेस फोटोजेनिक है, कद अच्छा है। मुझे अच्छे रोल मिल सकते हैं ......... कह रहा था बे्रक दिला सकता है। कुछ प्रोड्‌यूसर, डिरेक्टर से उसका अच्छा परिचय है। जयंत चाचा भी मदद करेंगे ......... मॉं मुझे अच्छा काम मिलने लगेगा तो हम मुम्बई शिफ्ट हो जायेंगे ......... इस शहर ने तो तबाह ही किया ...........।''

सिद्धि प्रफुल्ल प्रबुद्ध को देखती रही। इसकी ऑंखों में आश्वासन है, चेहरे में चमक है, कुछ कर दिखाने का जज्बा है। ....... तो इसे मौका दिया जाये। भर ले पैरों में ताकत। खड़ा हो जाये अपने ही सहारे। स्थान परिवर्तन और रुचि का काम करने से यदि इसकी मानसिक स्थिति में सुधार होता है तो जिंदगी को जिंदगी की तरह जीना सीख लेगा। यह तो जैसे हर क्षण मौत ही जीता रहा है। मुम्बई में प्रबुद्ध का काम जम जाता है तो मकान बेंच कर वहॉं शिफ्ट हो जायेगी। अक्सर नहीं लेकिन होता है जब फेलियर लोग इतिहास रच देते हैं। आयेंगे सपनीले — झिलमिल दिन .............।

सिद्धि को एक सपना थमा कर प्रबुद्ध मुम्बई लौट गया। दिन बीते ......... सप्ताह ...........महीने .........। प्रबुद्ध कॉंल कर सिद्धि को शूटिंग की बात बताता ........ फिल्म का टाइटिल अभी नहीं रखा गया ......... रिलीज होगी तो बतायेगा ..........। एकांत घर में अकेले कठिन समय बिताती सिद्धि। टी.वी. में मूवी देखने का खूब अभ्यास कर लिया है। नई रिलीज्ड मूवी देख रही है ......... सपने को अंतिम रूप से तोड़ने के लिये स्क्रीन पर है यह दृश्य .............। विश्वास नहीं होता सलवार—कुर्ते, पोनीटेल वाली जो लम्बी—छरहरी काया एक कार्यालय में घुस कर समूह भर किन्नरों के साथ कमर लचकाते, ताली पीटते हुये हाय ........ हाय.......... राजा .......... कह रही है, वह प्रबुद्ध है। समूह में सबसे अधिक खूबसूरत लगने के कारण कैमरा कम से कम एक मिनिट उसके चेहरे और भाव भंगिमाओं पर फोकस था। सिद्धि की हृदय गति इतनी तेज अब तक न हुई थी। ईश्वर, जिस बच्चे का जन्म सुंदर था, जीवन सुंदर क्यों नहीं हुआ ? बड़े अरमानों से इसे नेक इंसान और सफल सर्जन बनाने के सपने देखे थे। उम्र के बत्तीसवें वर्ष में यह क्या बन गया ? ......... दिवास्वप्न, दुःस्वप्न में क्यों बदल जाते हैं ? ........ यह लड़का जिंदगी को जिंदगी की तरह क्यों नहीं जी पाता ? ......

इसकी परेशानियॉ खत्म क्यों नहीं होतीं ? .......... हल क्यों नहीं निकलता ? .......... घुटन खत्म क्यों नहीं होती ? ........... किसी दरीचे से इसके पास तक ताजी हवा क्यों नहीं पहॅुचती ? सचमुच इसके साथ ज्यादती हुई है। अनजाने में ही सही। इसे वे हाथ नहीं मिले जो सॅंवार देते। कोमल हाथ बहुत उम्दा मिट्‌टी से भी सुंदर पात्र नहीं गढ़ सकते। गढ़ने के लिये हाथों का निर्धारित दबाव जरूरी है। ओह ..........इस छोटी सी भूमिका के लिये यह बच्चा किस संघर्ष, शोषण से गुजरा होगा ..........।

सिद्धि के गले में है कड़वाहट, ऑंखों में ऑंसू .......। फिल्म को अंत तक देखती रही। प्रबुद्ध अगले किसी दृश्य में दिखेगा।

नहीं दिखा।

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सुषमा मुनीन्द्र

द्वारा श्री एम. के. मिश्र

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